ज्ञानार्णव - श्लोक 2141: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
शव्दाच्छब्दांतरं यायाद्योगं योगांतरादपि ।
संवीचारमिदं तस्मात्सवितर्कं च लक्ष्यते ।।2141।।
प्रथम शुक्लध्यान में सवीचारता―इस ध्यान में एक शब्द से दूसरे शब्द का आलंबन होता है, एक योग से दूसरे योग का आलंबन होता है, इसी कारण यह ध्यान सवीचारसवितर्क कहलाता है । ध्यान की एक ऐसी स्थिति कि जहाँ राग की प्रक्रिया नहीं चल रही है, किंतु एक विशुद्ध परिणाम से ध्यान चल रहे हैं, ज्ञेय पदार्थ ज्ञान में आ रहे हैं, ऐसी स्थिति में भी वे ज्ञेय पदार्थ बदलते रहते हैं, ऐसी वीतराग दशा में अर्थात् जहाँ राग तो सत्ता में है, पर जिनका व्यवहार नहीं, ऐसी स्थिति में इस ज्ञान का परिवर्तन स्वत: चलता रहता है । यह एक निर्विकल्प समाधि के संबंध की बात है । जहाँ राग द्वेष का विकल्प तो कुछ नहीं, फिर भी वह ज्ञान बदलता रहता है । तो वह ज्ञान श्रुतज्ञान का आलंबन लेता है । शास्त्रों में जो तत्व निरूपण किया है उसमें से किसी एक पदार्थ के ज्ञान का आलंबन लेता है और कुछ ही समय बाद फिर दूसरे पदार्थ जानने में आने लगते हैं, यों चूंकि इसमें परिवर्तन है, अतएव यह सवीचार और सवितर्क है ।