वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2142
From जैनकोष
श्रुतस्कंधमहासिंधुमवगाह्य महामुनि: ।
ध्यायेत्पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानमग्रिमम् ।।2142।।
महामुनि का प्रथम शुक्लध्यान―महामुनि द्वादशांग शास्त्ररूप महासमुद्र को अवगाहन करके इस पृथक्त्ववितर्कअवीचार नामक पहिले शुक्लध्यान का ध्यान करता है, जिसमें बहुत शास्त्रों का रहस्य बसा है, बहुश्रुत का विज्ञान है तो उन तत्वों में किसी भी तत्व का आश्रय लेकर ध्यान किया, फिर दूसरे तत्व का ध्यान किया, इस प्रकार पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान के अधिकारी उन्हें बताया है जो योगीश्वर शास्त्रों में पारंगत हैं । इसमें जो भी कमी है वह सत्ता में राग पड़ा है उसकी वजह से कमी है, और चूंकि मोह का उपशम कर दिया अथवा क्षय कर दिया दर्शनमोह का, इस कारण वहाँ किसी प्रकार का कोई खोटा विकल्प नहीं उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति में भी यह प्रथम शुक्लध्यान होता है वहाँ पूर्वप्रयोग से विचार होता है । कुछ ही समय बाद मोह नष्ट होगा और उत्कृष्ट शुक्लध्यान की दशा प्रकट होगी । जैसे किसी राजा के मर जाने पर सेना निरुत्साह हो जाती है और मैदान को छोड़ देती है इसी प्रकार मोह राजा के नष्ट होने पर यह रागादिक की सेना अपना मैदान छोड़ देती है और शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । यों पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान में उस मोह के उपशम और क्षय की ही प्रक्रिया चलती है।