ज्ञानार्णव - श्लोक 2185: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
आत्यंतिकं निराबाधमत्यक्षं स्वस्वभावजम् ।
यत्सुखं देवदेवस्य यद्वक्तुं केन पार्यते ।।2185।।
भगवान के सुख के वर्णन की अशक्यता―भगवान का सुख आत्यंतिक है, उससे अधिक सुख कहीं नहीं है, सुख क्या, आनंद, जो निर्बाध है । जहाँ कोई बाधा नहीं है, यहाँ के सुखों में तो बड़ी बाधा है । बच्चों में देखो तो, जवानों में देखो तो और बूढ़ों में देखो तो―सभी क्लेश का अनुभव करते हैं । बच्चे लोग बड़ों का अधिकार निरखकर―ये पैसा भी देते हैं, इनकी हुकूमत चलती है, ये जहाँ कहें वहाँ बैठना पड़ता है, तो बच्चे लोग सोचते होंगे कि अगर मैं भी बड़ा हो जाऊँ तो ऐसा ही करूँ । इन बड़े लोगों को तो बड़ा सुख है, इस प्रकार बच्चे लोग अनुभव करते है और बड़े लोग क्या सोचते हैं कि ये बच्चे लोग तो बहुत ही मजे में हैं, इनको कुछ कमाना धमाना नहीं, कोई चिंता नहीं, कोई फिकर नहीं । तो यहाँ कोई सुखी नहीं, और फिर अन्य भवों की बात तो सुनते ही कष्ट पहुंचता है । नारक तिर्यंच पशुपक्षी कीड़े मकोड़े आदि तो संसार में सुखी कहां हैं? इन सब आवरणों से कर्मकलंकों से छुटकारा मिले तो सुख है, आनंद है । आनंद सिद्ध प्रभु में है । उनमें स्वभाव से आनंद उत्पन्न होता है, ऐसे सिद्ध प्रभु के आनंद का वर्णन करमे के लिए कौन समर्थ है?