वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2184
From जैनकोष
स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा तत्र लोकाग्रमंदिरे ।
आस्ते स्वभावाजानंतगुणैश्वर्योपलक्षित: ।।2184।।
सिद्धात्मा की स्थिति का दिग्दर्शन―कहाँ पहुंच गए सिद्ध प्रभु? वहाँ स्थित हो गए लोक के अग्रभाग पर, वही है वास्तविक मंदिर, जहाँ साक्षात् निष्कलंक सिद्ध प्रभु विराजे हों ।वहाँ कोई वेदना नहीं है, कोई लाग लपेट नहीं है । केवल आकाश ही आकाश है । जिस लोक के अग्रभाग पर जाकर वे प्रभु विराजे हैं वह स्थान तो साक्षात् मंदिर है । वहाँ वे प्रभु स्वभाव से उत्पन्न हुए अनंत गुणों के ऐश्वर्य से युक्त हैं । जैसे जब कोई काम बन जाय तो लोग कहते हैं ना कि हमारा काम तो सिद्ध हो गया । तो सिद्ध होना अच्छी बात है, पर सदा के लिए सिद्ध हो जाय काम, जिसके बाद फिर कुछ काम करना न रहे ऐसा सिद्ध होना वास्तवमें सिद्ध होना है । एक प्रजातंत्र राज्य में ऐसा नियम बना था कि एक वर्ष के लिए प्रजा में से किसी को राजा चुन लिया जाय और एक वर्ष के बाद में उस राजा को जंगल में छोड़ दिया जाय, मरे, जिये कुछ हो । क्योंकि वह फिर यहाँ रहेगा तो उसका अपमान होगा कि देखो यह अभी तक तो राजा था और अब इस हालत में है । यों बहुत से लोग राजा बने एक वर्ष के लिए और बुरी मौत मरे । एक बार कोई बुद्धिमान पुरुष एक वर्ष के लिए राजा बना दिया गया । अब क्या था, वह एक वर्ष तक जो चाहे सो करे । उसने उस जंगल में मकान बनवा दिया, बहुतसा वैभव वहाँ भेज दिया, खूब खेती बाड़ी का साधन बना लिया । एक वर्ष बाद में जब वह राजपद से हटा दिया गया तो उसी जंगल में जाकर वह आराम से रहने लगा । तो ऐसी ही बात यहाँ भी है । हम आपने मनुष्यभव पाया है । इस थोड़े दिनों के जीवन में इन सभी जीवों में राजा बना दिए गए हैं । जो चाहे सो कर सकते हैं, नहीं तो यहाँ का तो यह नियम ही है कि कुछ ही दिनों बाद में नरक निगोद में ढकेल दिए जायेंगे । बुद्धिमानी तो इसी में है कि इस मनुष्यभव में आकर तत्वज्ञान उत्पन्न करें, आत्मदृष्टि का अभ्यास बनायें जिससे परलोक सुधरे, और ऐसा परलोक कि जहाँ किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है । परमऐश्वर्य है ऐसा सिद्ध लोक, वह परलोक उत्कृष्ट लोक है । वहाँ ये प्रभु अनंत ऐश्वर्य सहित विराजमान हैं ।