ज्ञानार्णव - श्लोक 220: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
धर्म शर्मभुजंगपुंगवपुरीसारं विधातृं क्षमो।
धर्म प्रापितमर्त्यलोकविपुल प्रीतिस्तदाशंसिताम्।।
धर्म स्वर्नगरी निरंतर सुखास्वादो दयस्यास्पदम्।
धर्म किं न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यं जनम्।।220।।
धर्म का गौरव―सर्व प्रकार के कल्याण मिलें, इस बात की सामर्थ्य धर्म में ही है। बड़े-बड़े धरणेंद्र सुख बड़े ऊँचे इंद्रादिक के सुख इनके प्राप्त कराने में समर्थ एक धर्म ही है। धर्म बिना कौन तिरा? हम आप सुबह नहाकर मंदिर आते हैं, पूजन करते हैं नमस्कार करते हैं, मूर्ति बनाकर। साक्षात् जो भगवान हैं वे भी नहीं हैं किंतु उनके नाम की मूर्ति बनाते हैं, उसका भी हम वंदन करते हैं। यह किसका प्रताप है? यह धर्म का प्रताप है। आत्मा का स्वभाव पूर्ण विकसित हो गया है ऐसी धर्ममूर्ति के प्रति हम वंदन करते हैं। यह धर्म का ही तो माहात्म्य है। धर्म में ही समस्त प्रकार की अद्भुत सामर्थ्य पड़ी हुई है। दुनिया में जितनी चहल पहल है, पुण्य यश है, बड़ी-बड़ी व्यवस्थाएँ हैं यह सब धर्म का ही प्रताप है। धर्म बिना किसी भी जीव को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। धर्म ही धर्मात्मा पुरुषों को बड़े-बड़े सुख देने में समर्थ है। इस मनुष्यलोक में भी जितने भी प्रकार के सुख हैं, परिजन का सुख हो, बड़े भले मित्र मिले हों उन मित्रों के मिलने का सुख हो और लोक में बड़े-बड़े अधिकार मिले हों, ऐश्वर्य मिले हों उनका सुख हो, जितने भी सुख हैं वे सब धर्म के पालन के प्रताप से मिलते हैं।
धर्म ही मुक्ति का मूल―जीव क्या करेगा? सारी परवस्तुवें हैं, प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है। समग्र वस्तु अपनी-अपनी योग्यतानुसार योग्यनिमित्त पाकर परिणमते रहते हैं। किसी वस्तु पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। हम किसी वस्तु में कुछ निष्पत्ति नहीं करते, फिर हम बाह्य वस्तु में करें क्या? हम जो कुछ कर सकते हैं अपने आत्मा में कर सकते हैं। सिवाय भावना के हम और करते क्या हैं? जब हम धर्म करते हैं तो वहाँ भी तो भावना ही करते हैं। भावना ही धर्म है। जब कोई व्यापार में लगता है तो क्या करता है। एक कल्पना ही तो करता है। कल्पना ही व्यापार है। घर में रहते हैं तो क्या करते हैं? एक कल्पना ही तो करते हैं, विकल्प ही तो करते हैं, और विकल्प ही मेरी व्यवस्था है। जो कुछ है वह आत्मा का परिणमन ही आत्मा के पास है। इससे आगे और कुछ नहीं है। तो वे ही विकल्प, वे ही कल्पनाएँ यदि धर्मात्मा पुरुषों के संबंध में उठती हैं तो वे शुभ विकल्प कहलाते हैं। वहाँ पुण्य बंध हुआ और पुण्य बंध का यह सब ठाठ है जो संसार में नजर आता है। तो धर्म के ही प्रताप से जीवों को सुख प्राप्त होता है। स्वर्गों में बड़े-बड़े देवों में इंद्रों में जो महान्-महान् सुख हैं उन सुखों का कारण भी धर्म ही है। मुनि हुए बिना स्वर्ग से ऊपर उत्पत्ति नहीं है। 16 वें स्वर्ग तक श्रावक उत्पन्न हो सकता है पर स्वर्ग के ऊपर के जो विमान हैं उन विमानों में मुनि धर्म निभाये बिना उत्पत्ति नहीं होती हैं। चाहे नवग्रैवेयक में अज्ञानी मिथ्या दृष्टि मुनि भी उत्पन्न हो जाये पर वहाँ उत्पन्न होने के लिए कितनी मंद कषायें होनी चाहिए और मन, वचन, काय का कितना संयम होना चाहिए जिसे मुनिधर्म में किया जा सकता है। तो मुनिधर्म बिना तो नवग्रैवेयक में उत्पत्ति नहीं होती। नवग्रैवेयक से ऊपर तो सम्यग्दृष्टि की ही उत्पत्ति होती है। स्वर्गों के सुख और स्वर्गों से ऊपर अहमिंद्रों के सुख धर्म के प्रताप से मिलते हैं। और की तो बात क्या, धर्म बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती। धर्म का साक्षात् फल मोक्ष की प्राप्ति है। तो धर्म के प्रताप से जब मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है तो संसार के अन्य सुखों की तो बात ऐसी है जैसे अन्न प्राप्त करने वाले भुस को प्राप्त कर डालते हैं।