वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 219
From जैनकोष
यद्यत्स्वयानिष्टं तत्त्द्वाक्चित्तकर्मभि: कार्यम्।
स्वप्नेऽपि नौ परेषामिति धर्मस्याग्निमं लिंगम्।।219।।
धर्म आचरण से धर्मों की पहिचान―धर्म की पहिचान क्या है? इस बात को तो इस दोहे में कह रहे हैं। धर्म की मुख्य पहिचान यह है कि जो काम अपने को बुरे लगते हैं उन कर्मों को दूसरों के लिए स्वप्न में भी न करें, यह धर्म की पहिचान है। कोई पुरुष धर्म में रत है यह जानना हो तो उसकी इस प्रवृत्ति को जान सकते हैं, कोई पुरुष अपना दिल दु:खाये तो भला नहीं लगता। तो अपना भी कर्तव्य यही है कि हम भी दूसरे का चित्त न दु:खाये। यदि कोई अपने को सूई चुभोता है तो उसमें अपने को कितना दु:ख होता है तो मेरा भी कर्तव्य है कि मैं दूसरे जीव पर प्रहार न करूँ, छुरी न चलाऊँ, हिंसा न करूँ। जिसकी अहिंसारूप प्रवृत्ति है उसे समझिये कि यह धर्म का पात्र है। कोई पुरुष हमारे विषय में झूठ बोलता है तो उससे हमें कितना दु:ख होता है, झूठी गवाही के कारण तो कितने ही पुरुषों की जान भी चली जाती है। तो असत्य भाषण करना, खुद के विषय में कोई असत्य भाषण करे तो कितना क्लेश पहुँचता है? जो जब असत्य भाषण अपने को अनिष्ट लगते हैं तो अपना भी कर्तव्य है कि हम किसी के विषय में कोई असत्य भाषण न करें। आत्मा में बल तब बढ़ता है जब अपने आध्यात्मिक आचरण में रत रहा करते हैं। कोई मनुष्य आपकी चीज चुरा ले तो उसमें आपको कितना कष्ट मालूम पड़ता है? तो अपना यह कर्तव्य है कि हम किसी की चीज न चुरायें। तो यों जो-जो बात अपने लिए अनिष्ट लगे वह सब बात दूसरे के प्रति स्वप्न में भी न करें यही है धर्म की पहिचान। कोई मनुष्य अपनी माँ बहिन पर कुदृष्टि करता है तो अपने को कितना बुरा लगता है, परस्त्री पर कुदृष्टि करता हो कोई तो सबकी आँखों में खटकता है। और लोग उसकी जान तक भी नष्ट करने के लिए तैयार हो जाते हैं। धर्म की पहिचान बाह्य वृत्तियों से की जाती है। अंतरंग में इसका क्या भाव है उस भाव को जानने का कोर्इ तरीका है तो उसकी बाह्य वृत्तियों का निरखना ही तरीका है। भीतर की बात को कौन क्या जाने?
धर्मी का बाह्य आचरण कैसा?―इसी से तो विवेकी पुरुष वह है कि किसी भी प्रकार की अपने अंदर खराबी न रक्खे। वचन सदा हितमित प्रिय बोलना। ऐसे वचन बोलना कि दूसरों का सदा हित करें, अहित न करें और व्यसनों में न लगायें ऐसे वचन बोलना, और साथ ही ये प्रिय वचन हों। हमारा यदि दूसरे के सुधार करने का भाव है तो हृदय में प्रेम ही तो उत्पन्न होता है। और सुधार करने का भाव है फिर सुधार करने की दृष्टि से कोई बात बोले तो बुरा क्यों बोला जाय? प्रिय वचन बोले जायें। अप्रिय वचन बोलकर खुद को भी क्लेशों में डालना और दूसरे का भी नफा न होना यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। धर्मी पुरुषों का व्यवहार इतना मधुर और नम्र होता है कि उससे वह भी सुखी रहता है और दूसरे लोग भी सुखी रहते हैं। हितमित प्रिय वचन हों। इसी प्रकार समस्त प्रवृत्तियाँ इस जीव की ऐसी भली होनी चाहिए कि जिससे बाहर में भी शांति का वातावरण बने और खुद में भी शांति की बात आये। परिग्रह की बात जिस किसी भी प्रकार हो उससे दूर रहें। दूसरे का परिग्रह हड़पना ऐसी प्रवृत्ति से उस पर कोर्इ खुश रहता है क्या? वह तो उसे गाली देगा। उसे असंतोष हो जाता है। तो जो स्वयं को इष्ट नहीं है वह बात दूसरों के लिए क्या करें। यही धर्म का काम है।