ज्ञानार्णव - श्लोक 242: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
दीव्यन्नाभिरम्यं ज्ञानी भावनाभिर्निरंतरम्।
इहैवाप्नोत्यनातंकं सुखमत्यक्षयम्।।242।।
द्वादश भावनाओं में अनित्यभावना का प्रभाव―अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म, ये बाहर भावनाएँ हैं। इनके भाने से ज्ञानी जीव इस लोक में भी बाधारहित होता है और अतींद्रिय अविनाशी सुख को भी प्राप्त करता है। जीव का उपयोग संभालने का सुगम साधन भावनायें भाना है। बताया है कि ये भावनायें जैसे-जैसे जगती हैं वैसे ही वैसे समता प्रकट होती है जैसे-जैसे हवा लगती है वैसे ही वैसे अग्नि सवेग जलती है तो जैसे अग्नि की जलने का साधन हवा है ऐसे ही समता के जगने का साधन भावना है। जब तक इस जीव को इन पदार्थों में नित्यता का कुछ विश्वास है तब तक यह जीव दु:खी है। जो घर मिला है, जो समागम मिला है वह समागम मेरे पास रहेगा ऐसी अगर श्रद्धा है तो उसे दु:ख होगा क्योंकि मान रखा कि यह नित्य है, किंतु वह अपने समय पर मिटेगा। तो भावना कुछ हो, बात बन जायें कुछ, उसका दु:ख होता है। जैसे कोई चीज आपने आज खरीदी और ख्याल बनाया है कि इसमें तो 10 हजार बचेंगे, कल के दिन उसमें 5 हजार का टोटा नजर आये तो उसमें वह दु:खी होगा। यदि पहिले से ख्याल न जगे तो टोआ होने पर भी उतना दु:ख न होगा। तो बात जैसी है वैसी ही सोच लीजिए तो उसमें परमार्थ से क्लेश नहीं है। जितने समागम हैं वे सब अनित्य ही दिखे तो कभी क्लेश न होगा। इष्ट का वियोग हो गया तो झट यह ज्ञान जगेगा कि लो यह तो पहले से ही जान रहा था। जो जान रहा था वही हो गया। कुछ नया नहीं हुआ। तो अनित्य भावना का यह बड़ा प्रसाद है कि जीव को क्लेश नहीं होता। हम पहिले से ही जान रहे थे कि सब अनित्य है। मर गया, मिट गया तो वही तो हुआ जो हम पहिले से जान रहे थे।
अशरणभावना का प्रभाव―अब अशरणभावना का प्रभाव देखिये मोही जीव बाह्य पदार्थों की शरण मानते हैं। मेरे चाचा, पिता, पुत्र, मित्र ये सब बड़े सहाय हैं। ये लोग तो मेरे लिए जान तक भी देने को तैयार हैं बड़े आज्ञाकारी हैं, स्वप्न में भी ये मेरे खिलाफ नहीं हो सकते, इनका और मेरा एक चित्त है, ऐसा किसी के संबंध में विश्वास कर रखा हों और चूँकि ऐसा होगा नहीं। कौन किसका शरण है, कौन किसका सहाय है, कौन किसका क्या लगता है? सबका स्वतंत्र आत्मा है, सबका स्वरूप न्यारा है, सभी अपने आपमें परिणमते हैं। संसार अवस्था में विषय कषायों का स्वार्थ लगा है, उस स्वार्थवश प्रेम का व्यवहार होता है। तो चूँकि शरण नहीं है ना और मान रखा है शरण। तो जब कभी वहाँ अपने को मदद न मिलती हो या अपना काम न बनता हो तो उस समय इसे बड़ा कष्ट होता है। जिसे आप अपना विरोधी मानते हैं वह पुरुष आपका कुछ विरोध करें तो उसमें आपको खेद न होगा क्योंकि आप जान रहे थे कि यह हमारा विरोधी है। और, कोई हार्दिक मित्र हो, वह कोई विरोध की बात कह दे तो उसको कितनी चोट लगती है? तो जो बात जैसी है उसे उस रूप में न जान सके यह खेद का कारण है। और, सही जानकारी पहिले ही रहे तो इसे खेद नहीं हो सकता। यहाँ कोई शरण नहीं है, पुत्र हो, मित्र हो, परिवार हो, वैभव हो, कोई हो मेरा कोई शरण नहीं है। परमेष्ठी भी व्यवहार से शरण हैं। कहीं आपका हाथ पकड़कर या आपके आत्मा में आकर आपका भला कर दें प्रभु, ऐसा तो नहीं है। यह तो द्रव्य का स्वरूप ही है। कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता। तो जब लोक में मेरा शरण नहीं है और फिर मानें हम शरण तो उसमें क्लेश होता है। तो अशरण भावना के प्रसाद से समता जगती है। कोई नहीं हो रहा शरण तो समता रखता है क्योंकि हम समझते ही थे और बात है भी कि किसी का कोई शरण नहीं है। परवस्तु को शरण माने तो समता नहीं जग सकती।
संसार भावना में अनुप्रेक्षण―तीसरी है संसारभावना। संसार दु:खमय है। कहीं भी किसी भी जगह कुछ भी शांति अथवा आनंद बरस हो तो बतावो। अगर है भी तो संसार के प्रताप से नहीं है क्योंकि जिसे आत्मस्वरूप में लगाव है उसे संसारी न समझिये। वह तो संसार से विदा होने वाला हे। संसार में कोर्इ सुखी नहीं है। करोड़पतियों को, अरबपतियों को सभी को देख लो, अधिकारियों को, मिनिस्टरों को देख लो, कोई मिनिस्टर जिम्मेदारी महसूस करता है तो देश के सुखी रहने की चिंता में वह दु:खी रहता है, किसी मिनिस्टर को धन से घर भरने की चिंता है तो वह रात दिन धन कैसे मिले, इस चक्कर में रहता है, रिश्वत ले, पक्ष करे, चालबाजी करे, दूसरों से बचने का उपाय सोचे यों रात दिन व्याकुल रहता है। जो गरीब है वह अपने को गरीबी से दु:ख महसूस करता है। संसार में कोई सुखी नजर नहीं आता। यदि कोई पंडित है तो उसके उस ढंग का दु:ख है। कहीं ऐसा न हो जाय कि किसी सभा में हम किसी से हार जायें, हम किसी के प्रश्न का उत्तर न दे सकें तो क्या हाल होगा, उनके यह चिंता लगी रहती है जो विद्वान है, समझदार हैं। और जो मूर्ख है वे उनके प्रताप को देखकर मन ही मन कुढ़ा करते हैं। सो यहाँ कोई जीव सुखी हो तो बतावो। यह तो मनुष्यों की बात है। तिर्यंचों में पशु, पक्षी, कीड़े, पेड़ सभी देख लो दु:खी हैं। तो संसार है दु:खमय और कोई माने कि हमें तो बड़ा सुख है तो यह उनकी उल्टी मान्यता है। इस संसार में रहते हैं तो रहने के कारण जो अपने को सुखी माने उसको नियम से क्लेश होगा, क्योंकि सुख है नहीं और उसे मान लिया सुख। जो काल्पनिक सुख है वह रहता तो है नहीं, और जितने दिनों को मिला है उतने दिन भी लगातार सुख नहीं है। कोई सा भी सुख ले लो, स्त्री का सुख है, नव विवाह हुआ है, बड़ा काल्पनिक मौज माना है, पर थोड़े-थोड़े समय में ही कोई न कोई दु:ख की कल्पनाएँ जग जाती हैं, और फिर जब बड़े हो गए, संतान हो गई तो सबके पालन पोषण की बात आ गई, कोई प्रतिकूल हो तो उसे मानना, सबकी बात सुनना, सबमें दु:ख। तो सुख तो है नहीं और माने सुख तो उसे नियम से क्लेश है, तो कर्तव्य यह है कि सुखी भी हो तो भी मानते रहें कि संसार सुखमय नहीं है। यह सुख क्या सुख है जो कर्मों के अधीन है। दूसरे जीवों के विषयों के साधनों के अधीन है, जिनमें दु:ख भी बसे हुए रहते हैं, जिन सुखों के भोगने से पाप का बंध होता है और आगामी काल में पापों का फल भी भोगना पड़े ऐसा सुख क्या सुख है। ऐसा ज्ञान बनायें रहें और सुख में न रहें तो भी हानि नहीं है। परपदार्थ के स्वरूप का ज्ञान उल्टा हो तो नियम से दु:ख है।
अनित्य, अशरण, भावना में अंत:मर्म―अब जरा इन भावनाओं में कुछ छिपे हुए मर्म की बात देखो। अन्यथा भावना भाते रहे कि सब अनित्य है, राजा, राणा, छत्रपति सभी मरेंगे, हम भी मरेंगे, सब विनाशीक हैं, ऐसी भावना भाते ही रहे तो शांति क्या मिल पायेगी, इससे तो एक घबड़ाहटसी आ जायगी। तो अनित्य-अनित्य सोचते रहने से ही शांति न मिलेगी। अब दूसरे तरफ की बात कह रहे हैं। पहिले यह बताया था कि सबको अनित्य जानते रहें तो दु:ख न होगा। अब यह कह रहें कि अनित्य ही जानते रहें, सभी मरेंगे, सभी मिटेंगे, तो इसमें सुख कहाँ से आयेगा? तो इसके साथ यह भी भावना भाना चाहिए कि मेरा जो नित्य स्वरूप है वह कभी न मरेगा। इतनी बात का पता न हो और अनित्य ही सोचते जावो तो अनित्य भावना का फल नहीं मिल सकता। समस्त पदार्थ पर्यायदृष्टि से अनित्य हैं, पर द्रव्यदृष्टि से वे सब नित्य हैं। यह दुहरी बात, दोनों नयों की बात, समझ में हो तो अनित्य भावना से कुछ फायदा है। अशरण भावना में क्या सोचा था कि कोई मेरा शरण नहीं है। उससे फायदा था, लेकिन यही-यही सोचते जायें, मेरा कोई शरण नहीं, सब धोखा देने वाले हैं, छल करने वाले हैं, ऐसा ही सोचते रहें तो शांति कैसे मिलेगी। यह भी कुछ ज्ञान होना चाहिए कि ये सब शरण तो हैं नहीं, पर मेरे कोई शरण है भी कि नहीं। मेरे लिए मेरा आत्मा शरण है। जो ज्ञानानंदस्वरूप स्वरूप हो उस स्वभाव की दृष्टि जगे वह शरण है। तो दोनों बातें ध्यान में रहनी चाहिए। परपदार्थ कोई भी शरण नहीं और रागादिक परभाव भी मेरे शरण नहीं, किंतु मेरा जो सहज स्वरूप है, ज्ञानानंद स्वभाव है वह स्वभाव मेरे को शरण है। इस शरण का पता हो तो अशरण भावना भाने में प्रगति मिलेगी, नहीं तो अशरण भावना भाने का कोर्इ फल नहीं है। तीसरी भावना है संसार। यह संसार दु:खमय है, दु:ख ही दु:ख है, ठीक है, इस भावना से लाभ है, पर आनंद की भी कोई वस्तु है, आनंद का भी कोई तत्त्व है इसका कुछ भी परिचय न हो तो शांति कहाँ से आये? जब यह विदित हो कि मेरा स्वरूप स्वयं शांतिमय है, आनंदमय है, आनंद का यह पिंड है, आनंद से रचा है, और इसके अतिरिक्त बाकी समस्त स्थितियाँ दु:खमय हैं। ऐसी दोनों बातें ज्ञात हों तो संसार भावना का फल है।
अपने आपकी संभाल बिना शांति की असंभवता―भैया ! खुब आप अनुभव कर लीजिए, अपने आपको सम्हाले बिना, अपने आपकी दृष्टि हुए बिना जैसे स्वयं ज्ञानानंद स्वरूप है, कृतकृत्य है उसका मर्म पाये बिना किसी भी स्थिति में शांति हो सकती हो तो देख लो। वैभव का क्या है? जितना है उससे 50 गुना भी आ जाय तो उसमें से आनंद तो नहीं निकलता। उसमें से कभी शांति की किरण तो नहीं फूटती। धन वैभव से शांति तो मिलती नहीं, एक निर्णय है। शांति का कारण तो केवल अपने ज्ञानस्वरूप की दृष्टि है। मुझे जगत में कुछ काम करने को नहीं है। मुझे जगत में कुछ भी भोगने को नहीं है, मैं कृतकृत्य हूँ, मेरा स्वरूप परिपूर्ण है, ज्ञानानंद है, ऐसी अपने आपकी परिपूर्णता ध्यान में आये तो शांति मिलेगी, अन्य बातों में शांति नहीं मिलती। शत्रु से बोलचाल करे वहाँ भी शांति नहीं और स्त्री, पुत्र, परिवार से भी बोलचाल करे वहाँ भी शांति नहीं, अशांति के वे दो प्रकार हैं। विरोध की बात में और तरह की अशांति है और परिवार के राग की बातों में और तरह की अशांति है। तो इन भावनाओं से इस जीव को बड़ा उपकार है। इन भावनाओं के प्रसाद से जीव एक ज्ञानानंद को प्राप्त करता है।
अन्यत्वभावनागर्भित एकत्वभावना का प्रभाव―मैं सर्वत्र अकेला हूँ, मेरा कोई साथी नहीं, मेरा कोई संबंधी नहीं, इस भावना में दु:ख तो कम है, लेकिन कोई जीव अपने को अमुक नाम वाला मानकर जिसमें सुख दु:ख की बात बीत रही है उसे मानकर उसे अकेला समझे तो उसने कभी परमार्थ आनंद नहीं पाया। जैसे घर में जब झगड़ा हो जाता और कोर्इ किसी प्रकार का छल कपट करता तो यह झुँझलाकर कहने लगता―हटो, यहाँ किसी का कोई नहीं है, तो क्या यह ज्ञान से कह रहा है? वह तो दु:ख की झुँझलाहट है। मेरा कोई नहीं है, मैं तो अकेला ही हूँ ऐसा बोलता है यह मोही जीव, पर वह झुँझलाहट है। रागादिक भावों से भी भिन्न केवल ज्ञायकस्वरूप अपने आपको निरखकर परमार्थ एकत्व की बात कहे यह है परमार्थ से एकत्व की भावना और इस शरीर को निरखकर बोले कि में तो अकेला ही हूँ, मैं तो अकेला पड़ गया, तो ऐसे इस प्रयोजन वाले को अकेला मानने में एकत्व भावना नहीं आयी। वह भी है भावना, मगर परमार्थ से जैसा मैं सहज ज्ञानानंदस्वरूप हूँ उस अकेलेपन को निरखे तो एकत्व भावना है। आप जब अपने अकेलेपन का ध्यान करने लगें तब शांति आयेगी और जब आप अपने को आडंबर वाला अनुभव करेंगे, मेरे तो इतना कुटुंब है, मेरे तो इतना वैभव है, मेरे इतने मित्रजन हैं, वहाँ शांति न मिल सकेगी, क्योंकि दृष्टि निज को छोड़कर पर की ओर लगी है और पर हैं सब भिन्न पर हैं सब विनाशीक, वे जुड़ें होंगे नष्ट होंगे तब यह खेद मानेगा। लोकव्यवहार में भी देखो―जब घर का कोई इष्ट गुजर जाता है तो मित्र लोग रिश्तेदार घर वालों को समझाने आते हैं। तो आखिर ऐसी कौनसी बात समझाने की होती है जिससे घर वालों का दु:ख दूर हो जाय? समझाना तो यह चाहिए कि वह जीव अकेला था, अकेला चला गया, इसमें क्या दु:ख मानना, पर यह न समझकर लोग क्या कहते वह तो बड़ा उपकारी था, सबकी खबर रखता था, सबको चाहता था, यों उसके गुण गाकर घर वालों को और दु:खी करते हैं। तो यह एकत्व भावना का ही प्रसाद है कि निज स्वरूप में उपयोग जमता है और बड़ा आनंद बरसता है।
अशुचिभावना में तत्त्वानुप्रेक्षण―अशुचि भावना―यह देह अपवित्र है, घिनावना है, भीतर से लेकर बाहर तक सर्वत्र मल ही मल है। हड्डी है, मांस है, मज्जा, खून, चमड़ा, रोम, मल, मूत्र आदि है, यों सारी गंदी ही गंदी चीजें हैं। यह भावना किसलिए भायी थी कि इस शरीर से प्रेम न उत्पन्न हो। किसी के शरीर को निरखकर उसमें काम व्यथा न हो इसलिए अशुचि भावना भायी है। अब कोर्इ पुरुष अशुचि-अशुचि ही गाता रहे, यह भी अपवित्र, यह भी अपवित्र, यों कहकर नाक सिकोड़े तो उसने अशुचि भावना से कुछ भी लाभ नहीं पाया। जो शुचि चीज है वह मेरा ज्ञान है, उत्कृष्ट, पवित्र, अमूर्त है, ज्योतिस्वरूप है, जानन जिसका काम है। जाननहार ऐसा शुद्ध पवित्र मेरा स्वरूप वह शुचि है। यह निरखना चाहिए तो पावन आत्मतत्त्व का लाभ होगा। शुचि का तो पता न हो और बाहर की इन चीजों को गंदी ही गंदी देखते रहें तो उस अशुचि भावना से कोई लाभ नहीं पाया जा सकता। एक अपना ग्लानि का ही परिणाम बनाया अशुचि भावना के लिए, शुचि भी कुछ है उसका परिचय हो तो यह पर से हटकर अपने आपके स्वरूप में लगाने वाली भावना है।
आस्रव, संवर, निर्जरा भावना में प्रेक्षण―आस्रव भावना―रागद्वेष, मोह, ये सब आस्रव भाव हैं, इनके कारण कर्म आते हैं, ये स्वयं परापेक्ष हैं, कर्मोदय से रागादिक भावास्रव होते हैं। यह आस्रव दु:खदायी है। तो आस्रव दु:खदायी हैं इसके साथ यह भी पता हो कि आस्रवरहित मेरा स्वरूप है। यदि स्वरूप का ही ज्ञान हो कि ये मैं हूँ और ये मेरे में आस्रव हैं तो आस्रव से छूटें कैसे? रागद्वेष ये आये हैं निमित्त पाकर, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं। यों निरास्रव स्वरूप की भावना भाने से शांति मिलती है। संवरभावना―मेरा स्वरूप संवर रूप है। इनमें किसी भी परतत्त्व का प्रवेश ही नहीं हैं, ये मेरा स्वभाव है। स्वभाव की भावना भाने से बहुत से विकल्प, संकल्प, खेद, चिंता ये दूर हो जाते हैं। यद्यपि मेरा संवर स्वरूप है फिर भी अनादिकालीन कर्ममलीमसता के कारण जो रागादिक आये हैं, संस्कार बसे हैं, कर्म बँधे हैं वे झड़ सकते हैं। और वे स्वरूप की संभाल करने से झड़ जाते हैं। खेद की कुछ बात नहीं। आये हैं तो इनको झाड़ने की भी हममें कला है। अपने स्वरूप की संभाल करके उन बंधों को छुड़ा दें इसका नाम निर्जरा है।
लोक, बोधिदुर्लभ, धर्मभावना के विचार―लोकभावना में विचार लो कि इस लोक के प्रत्येक प्रदेश पर अनंत बार जन्म-मरण हुआ, अब कहाँ जाना, क्या देखना, कहाँ रमना, किसे अपना ठौर मानना। यह लोकभावना है। जगत में रुलते-रुलते नाना कुयोनियों में भटकते-भटकते आज मनुष्य हुए हैं, बुद्धि जगी है, सत्समागम मिला है, जैनशासन मिला है, बड़ी दुर्लभता से ये चीजें प्राप्त हुई हैं। अब इस उत्कृष्ट मानवजीवन को यों ही नहीं व्यर्थ में खो देना है। इसकी संभाल करना, यह बोधिदुर्लभ भावना है। धर्म का स्वरूप विचारना, धर्म का फल, धर्म की महिमा जानना, धर्म ही शरण है, धर्म से ही शांति है इन बातों का चिंतन करना धर्मभावना है। यों बारह भावनाओं को भा करके यह जीव लोक में सुख शांति पाता है और परलोक में भी आनंद प्राप्त करता है।