वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 243
From जैनकोष
विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वांतम्।
उन्मिषति बोधिदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात्।।243।।
द्वादश अनुप्रेक्षावों का फल―बारह भावनाओं का निरंतर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय राग की अग्नि तो बुझ जाती है और परद्रव्यों के संबंध में रागभाव गल जाता है और अज्ञानरूप अंधकार का विलय होता है, ज्ञानरूप दीप का प्रकाश होता है। भावनाओं के अभ्यास के इसमें 4 फल बताये गए हैं। कषाय अग्नि शांत होती है। जो पुरुष अनित्य आदिक बारह भावनाओं में अपनी सृष्टि लगाये रहते हैं उनके कषाय अग्नि नहीं जग सकती है। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह ये 6 जीव के आंतरिक शत्रु हैं, सो देख ही रहे हैं। दूसरों को देखकर बहुत जल्दी निर्णय होगा। यह जल्दी असार जँचने लगता है। देखो यह व्यर्थ का मोह किए हुए हैं। जैसे किसी का लड़का भाग जाय, सालों से पता न पड़े तो उसकी माँ और पिता निरंतर विह्वल बने रहते हैं। 5-7 वर्ष भी हो गए कोई पत्र भी नहीं आया, फिर वे निरंतर दु:खी रहते हैं। कितना ही उन्हें समझाओ, पर बात उनकी समझ में नहीं आती। तब अपने को ऐसा लगता कि ये कितने मूढ़ हैं। अरे क्या हो गया, आये तो क्या, न आये तो क्या? उनका मोह तो झट अपनी समझ में आ जाता है। तो जैसे उनके लिए हम दूसरे हैं और समझाते हैं फिर भी समझ में नहीं आता, मोह ऐसा बनाया है तो हमारे लिए वह दूसरा है। हम भी कहीं मोह बनाये हैं राग बनाये हैं, तो दूसरे लोग हमारे विषय में भी सोचते न होंगे क्या? सबकी यही दशा है। दूसरे के आँख की फुली भी जल्दी नजर में आ जाती है, पर अपनी आँख का टेंट भी नजर नहीं आता। दूसरे की गलती मोह है, विकट अज्ञान है, झट समझ में आता है, खुद क्या कर रहे हैं यह बात अपनी दृष्टि में नहीं आती। बारह भावनाओं का अभ्यास हो तो ये छहों शत्रु विलीन हो जायेंगे।
बारह भावना से संताप रूप काम की शांति―काम भी कितनी विकट अग्नि है। काम को अग्नि की ही उपमा दी है। काम का संताप बुरा होता है उसकी 10 बुरी दशायें होती हैं। और जब से किसी काम विकार की धुन लग जाय तब से संताप बढ़-बढ़कर अंत में 10 वीं दशा मृत्यु है वह हो जाती है। जरा सा कोई स्त्री का कन्या का चित्रपट देखा, पुराणों की बात सुन लो तो बड़े-बड़े राजावों के बड़े समर्थ पुत्रों ने आहार छोड़ दिया, हम भोजन न करेंगे जब तक यह न मिलेगी। ऐसी बात यदि यही कोर्इ करे तो उसे कितना पागल बतायेंगे, लेकिन मोहियों के संग थे सो मोही परिवार ने उसे आदर दिया। मेरा राजपुत्र यह चाहता है। चड़ाई करें और उस राजा की कन्या लावें तो यह सब काम की विडंबना है। वे समर्थ लोग थे, शक्तिशाली थे इसलिए वे ऐसे कार्य करते थे। यहाँ अशक्त हैं तो लोग गंदी तरह से विडंबनाएँ करते हैं, पर काम की अग्नि भी बड़ा संताप करने वाली है। तो काम वैरी भी परास्त हो जाता है, सो बारह भावनाओं के अभ्यास करता है।
बारह भावनाओं से कषायों का शमन―जो इन बारह भावनाओं का अभ्यासी है वह कषायों को सबको शांत करता है। तत्त्व का जहाँ चिंतन है, अनित्यता का जहाँ परिचय है, अपने संवर स्वरूप जहाँ ध्यान है, अपने एकत्व का विचार है। यों ही सभी भावनाओं की बात है वहाँ यहाँ किस पर क्रोध करे? खुद ही तो बड़ी विपत्ति में पड़े हुए हैं जो अपना चिंतन करता है उसके क्रोध नहीं ठहरता, घमंड भी वह क्या करेगा। अज्ञान में ही तो मद पैदा होता है। जिसने अपने एकत्वस्वरूप का परिचय कर लिया और उस ही स्वरूप की जो भावना रख रहा है वह कैसे घमंड करेगा? तो जो ज्ञानी पुरुष हैं उसके मान कषाय भी नहीं ठहरती। मायाचार का तो प्रयोजन ही क्या? मायाचार तो वह करता है जो अपना ऐसा लक्ष्य बनाये हैं कि मुझे तो यही रहना है और यह सब स्थिति हमारी है, इसे बढ़ाना है तो मायाचार करेगा। ज्ञानी पुरुष तो यों जानता है कि हम एक सराय में ठहर गए हैं। यहाँ से तो निकलना ही पड़ेगा। यहाँ घर तो नहीं बस सकता। तो सराय जैसा ज्ञानी पुरुष मानता है। और सराय में तो कुछ विनय करने से तो कुछ म्याद के बाद भी समय दिया जा सकता है लेकिन यह सराय तो ऐसी है कि म्याद पूरा होने पर फिर क्षण भर भी नहीं टिक सकता। तो जो यहाँ अपना स्थान नहीं मान रहा है वह मायाचार क्या करेगा। इसी प्रकार लोभ की बात है। किसलिए लोभ करना और उसके लोभ यों भी नहीं होता है कि उसे सब पता हे कि कैसे संपदा आती है और कैसे जाती है, उसे सब सिद्धांत का पता है। आना होता है आता है, जाना होता हे जाता है। सब पुण्य पाप का ठाठ है। लोभ से धन नहीं जुड़ता। तो ऐसी लोभकषाय भी ज्ञानी पुरुष के नहीं रहती। यों बारह भावनाओं का अभ्यास रखने से कषायें शांत हो जाती हैं।
बारह भावनाओं से राग का गलन―बारह भावनाओं के अभ्यास का दूसरा फल बताया हैं कि परद्रव्यों के प्रति रागभाव गल जाता है। किसमें राग करना? जिसके यह भावना चल रही है, सब भिन्न हैं, सब विनाशीक है, सब अहित रूप हैं, सब कर्मबंध के कारण हैं उस पुरुष को किससे राग रहेगा। कुछ लोग इसलिए भी राग छोड़ देते हैं कि जब मरणासन्न से हो जाते हैं, अथवा बड़ी तीव्र वेदना है तो वे कहने लगते कि हमें अब किसी चीज में राग नहीं रहा, किसी में मोह नहीं रहा, मेरा अब अच्छी तरह मरण ऐसा हो जाय, कहते हुए बहुतों को देखा होगा। पर क्या आप उसकी बात को सच मान लेंगे? वह तो यह सब इसलिए कह रहा है कि उस समय की वेदना उसे असह्य है। राग मोह कम नहीं हुआ है। क्योंकि जो कल तक मोही था, रागी था वह एकाएक कैसे निर्मोह हो गया, क्या उसका ज्ञानसूर्य चमक गया। वहाँ वेदना इतनी तेज है कि उसे कुछ भी नहीं सुहाता है। जरा भी आराम हो जाय तो फिर उसकी प्रवृत्ति देख लो। वही हालत, वैसा ही मोह और अधिक राग आपको दिखेगा। जब तक तत्त्वज्ञान नहीं जगता तब तक वास्तविक मायने में राग मिटता नहीं है। यह तो परिवर्तन हो गया। आज जान पर आ गयी तो घरबार को कौन देखे। तो मोह का परिणमन हुआ है, मोह का अभाव नहीं हुआ। मोह का अभाव तो जो तत्त्वज्ञानी है, बारह भावनाओं के अभ्यासी हैं उनके होते है। दृष्टि भर बदलनी है लो सम्यक्त्व हो गया। अपने आपका भाव ही तो बदला और शांति मिल गयी। तो जिसे तत्त्वज्ञान हुआ है और उस तत्त्व की भावना करता है उस पुरुष के मोहभाव नहीं ठहराता।
बारह भावनाओं से अज्ञानांधकार का विनाश―तीसरा फल बताया है कि बारह भावनाओं के अभ्यास से अज्ञानरूपी अंधकार का विलय हो जाता है। बराबर दृष्टि का जाना इनका ही नाम भावना है। जिसने तत्त्व का निर्णय किया है उस स्वरूप पर बार-बार दृष्टि पहुँचते रहने का नाम भावना है। जैसे वैद्य लोग औषधि बनाते हैं तो उसमें भावनारस भी देते हैं, आंवले से भावना वाला चूर्ण बनाते हैं तो पहिले सूखे आंवले का चूर्ण निकाला फिर अनेक बार कच्चे आंवले के रस से उसको भिगोते हैं। वैद्य लोग भी भावना वाला चूर्ण देते हैं। तो बार-बार उस रस से भिगोने का नाम भावना है, इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के रस में बार-बार अपने को भिगोने का नाम भावना है। तो जो निज ज्ञायक रस में अपने को भिगोता रहता हो उसके अज्ञान नहीं ठहर सकता है। अज्ञान उनके ठहरता है जो बाह्यपदार्थों में अपनी वासना बनाये रहते हैं। तो जो बारह भावनाओं के अभ्यासी हैं उनके अज्ञान अंधकार नहीं ठहरता।
बारह भावनाओं के अभ्यास से ज्ञानदीप का प्रकाश―चौथा फल बतला रहे हैं कि बारह भावनाओं के अभ्यासी का ज्ञान का दीपक प्रकाशित होता रहता है, जैसी दृष्टि होती है वैसी सृष्टि बनती है। सृष्टि का साधन भी दृष्टि ही है। जैसा चित्त में आशय है वैसा ही इस पर गुजरता है। बात तो बिल्कुल सीधी सी है। कोर्इ मनुष्य पाप का काम करता है तो लोकव्यवहार में यह कहते हैं कि यह परभव में फल भोगेगा, पर वास्तव में ही तो उस ही क्षण उसने उस पाप क्रिया का फल भोग लिया। उस समय क्षोभ हुआ, विकार हुआ, अज्ञानता की विह्वलता हुई, कुछ डर सा हुआ, जो भी हुआ हो वह सब उसने उसी समय भोगा। अब निमित्तनैमित्तिक भावों में जो कर्मबंधन होता है उसके उदय काल में फिर भोगेगा वह उस समय की क्रियाओं का परिणाम भोगेगा। तो जब दृष्टि विपरीत होती है तो अज्ञान भाव से यह आवृत्त हो जाता है और जब दृष्टि सही होती है तो ज्ञान का दीपक प्रकाशित होता है। बारह भावनाओं के प्रकरण में यह उपसंहार चल रहा है। इस उपसंहार में इन बारह भावनाओं के भाने की महिमा फल बताकर आचार्यदेव ने जिज्ञासु पुरुषों को तत्त्व चिंतन के लिए बार-बार प्रेरणा की है।