ज्ञानार्णव - श्लोक 426: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भावा: पंचैव जीवस्य द्वावंत्यौ पुद्गलस्य च ।धर्मादीनां तु शेषाणां स्याद्भाव: पारिणामिक: ॥426॥
द्रव्यों में पंचभावों का विश्लेषण ― जीव में तो औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये 5 भाव होते हैं और पुद्गल द्रव्य में औदयिक और पारिणामिक ये दो प्रकार होते हैं । औदयिक का अर्थ है किसी दूसरे पदार्थ के समक्ष होने से निकलने से आने से संयोगबल से जो प्रभाव होता हो उसका नाम औदयिक है । और पारिणामिक का अर्थ है कि पदार्थ अपने स्वभाव के कारण जो स्वभावभाव हो सो पारिणामिक है । पुद्गल में ये दो बातें पायी जाती हैं और शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनमें पारिणामिक भाव ही है । उन-उन पदार्थों का उन ही के स्वरूप के कारण जो बात होती है वह पारिणामिक भाव है । जीव में चेतना की दृष्टि से इस भाव के अर्थ किए जाते हैं, पर इन भावों का एक सामान्य लक्षण बनायें तब पारिणामिक तो सब पदार्थों में हैं और औदयिक जीव और पुद्गल में ही हैं और औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये जीव में ही होते हैं इस तरह भाव के सहारे पदार्थ किस-किस रूप में रहते हैं यह सब चित्रण होता है । यों 6 द्रव्य हैं, उन 6 द्रव्यों में एक आत्मद्रव्य ज्ञाता है । वह आत्मा मैं हूँ, आप हैं । इस आत्मा में अनंतज्ञान और अनंत आनंद का सामर्थ्य है, किंतु आह्य की ओर आसक्त होकर हमने अपने सामर्थ्य को भुला दिया है । अब जिस किसी भी प्रकार हम अपनी ओर उपयोग ला सकें, यहाँ ही दृष्टि स्थिर रख सकें ऐसी चर्चा, ऐसा संग, ऐसा ध्यान, स्वाध्याय आदिक के द्वारा हम यत्न करें कि अपने को निकट अधिक समय रख सकें ।