वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 425
From जैनकोष
धर्माधर्मनभ: काला अर्थपर्यायगोचरा: ।व्यंजनाख्यस्य संबंधौ जीवपुद्गलो द्वावन्यौ ॥425॥
धर्म, अधर्म, आकाश व कालद्रव्य की शाश्वत अर्थपर्यायगोचरता ― धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य ये तो अर्थपर्याय के विषय हैं, अर्थात् इनमें व्यवहारिकता नहीं बनती, विभिन्न द्रव्यपर्यायें नहीं बनतीं, इनका आकार नहीं बनता, जो है जैसा है वैसा ही अनादि से अनंतकाल तक है । धर्मद्रव्य असंख्यातप्रदेशी है और ऐसे ही यह शाश्वत है । न एक प्रदेश घटता, न एक प्रदेश बढ़ता, उसका आकार क्या ? आकार की कल्पना वहाँ होती है जहाँ रूप बदले । फिर भी जो शाश्वत है वह कितना विशाल है इस दृष्टि से बताया कि वह लोकाकाश के आकार है । अधर्म भी आकाश भी और कालद्रव्य भी इसी प्रकार नियताकार है । कालद्रव्य एक प्रदेशमात्र है । इनमें षड्गुणहानि वृद्धियाँ हैं और स्वभाव से अपने में समानरूप परिणमते रहते हैं, किंतु जीव और पुद्गल इनकी व्यंजन पर्यायों से संबंध है । नाना आकार बनता है और नाना क्रोध मान आदिक अनेक भाव वितर्क जो भेदरूप हैं और भेद करके बताये जा सकते हैं ये सब परिणमन चलते हैं, तो धर्म आदिक चार द्रव्यों के आकार तो पलटते नहीं, वहाँ तो उनके ही स्वभाव से सतत समान परिणमन चलता रहता है, किंतु जीव और पुद्गल के आकार पलटते रहते हैं । जीव का तो आकार है, मगर स्वयं उसका कुछ आकार नहीं है, जब जिस शरीर में है उस शरीर के बराबर आकार है, उसका कोई निर्णय नहीं है । आज कोई एक जीव एक इंच लंबा चौड़ा है, कभी वही गजों लंबा चौड़ा हो जायेगा और मुक्त होने पर जीव सत्त्व के कारण निजी गाँठ का कुछ आकार नहीं, किंतु जिस पर्याय से मुक्त हुए हैं उस पर्याय में जो आकार है, कर्ममुक्त होने के बाद उस आकार के घटने का क्या कारण रहे और उस आकार से भी बढ़ने का क्या कारण रहे । तो घटने बढ़ने का कारण न होने से जिस पर्याय से मुक्त हुए हैं वहाँ जो आकार था उस आकार रूप रह गए । जीव में जीव की ओर से यदि कुछ आकार होता तो मुक्त होने पर सब मुक्त जीवों का प्रमाण अवगाहन एक समान हो जाता । चाहे कुछ भी होते जो स्वभाव आकार होता उस रूप होते । तो जीव में और पुद्गल में तो व्यंजनपर्यायें होती हैं, मगर पलटती रहती हैं, किंतु धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये सदैव अवस्थित स्थिर एक समान रहा करते हैं ।