ज्ञानार्णव - श्लोक 458: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
बोध एव दृढ़: पाशो हृषीकमृगबंधने ।
गारुडश्र्च महामंत्र: चित्तभोगिविनिग्रहे ॥458॥
हृषीकमृगबंधन में बोध की पाशरूपता ― इंद्रियरूपी मृग में बाँधने के लिए एक ही दृढ़ पासा है, अर्थात् ज्ञान के बिना इंद्रियाँ अधीन नहीं होतीं । इंद्रियों पर विजय नहीं हो पाता । इंद्रियों पर विजय करने का उपाय तत्त्वज्ञान है जिस तत्त्वज्ञान के कारण द्रव्येंद्रिय से, भावेंद्रिय से और विषयभूत पदार्थों से उपेक्षा हो जाती है । ज्ञान का उपेक्षा स्वभाव है । किसी परवस्तु में न लगाव उत्पन्न करता है और न उसका विघात उत्पन्न करता है, किंतु ज्ञान का तो काम केवल जानन मात्र है । जिससे उपेक्षाभाव पड़ा हुआ है । तो तत्त्वज्ञान से ये इंद्रियाँ वश होती हैं । द्रव्येंद्रिय नाम है शरीर पर रहने वाली इंद्रियों का, जो लोगों को दिखा करती हैं और भावेंद्रिय नाम है इन द्रव्येंद्रियों का साधन करके जो अंतरंग में विचार ज्ञान उत्पन्न होता है, वे सब ज्ञान विचार तर्क सब भावेंद्रिय हैं । तो जो तर्क विचार उत्पन्न हुआ वह परिणाम भी मेरा स्वरूप नहीं है । मैं तो एक चित्स्वभावमात्र हूँ । ये विचार वितर्क एक परिस्थिति में उत्पन्न हुए हैं, इस प्रकार परिणमते रहना मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा जानकर उन विभावों से भी उपेक्षा होना, और द्रव्येंद्रिय तो पुद्गल हैं ही, उनसे उपेक्षा होना और विषयभूत पदार्थ भिन्न हैं, उनसे आत्महित नहीं है, उनसे उपेक्षा होना, इस प्रकार साधन और विषय इन तीन से उपेक्षा होने में इंद्रियविजय होती है । यह ज्ञान चित्तरूपी सर्प का निग्रह विभाव और करने के लिए एक गरुण महाभष्म है अर्थात् ज्ञान के द्वारा यह मन भी वशीभूत हो जाता है ।