वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 457
From जैनकोष
निरालोकं जगत्सर्वमज्ञानतिमिराहतम् ।
तावदास्ते उदेत्युच्चैर्न यावज्ज्ञानभास्कर: ॥457॥ज्ञानभास्कर के उदित न होने तक ही अज्ञान तिमिर की संभवता ― जब तक ज्ञानसूर्य का उदय नहीं होता तभी तक यह जगत् अर्थात् प्राणी अज्ञानरूपी अंधकार से आच्छादित हैं । जैसे रात्रि का अंधकार तभी तक है जब तक सूर्य का उदय नहीं होता । सूर्य रात्रि कुछ अलग चीज नहीं है जिसने अंधेरा ला दिया हो, सूर्य नहीं रहा उसी का नाम रात्रि है, सूर्य अस्त हो गया, उसके बाद जब तक उदय नहीं होता तब तक जो अंधेरा है वही रात्रि है तो रात्रि का अंधकार चूँकि सूर्य के अभाव से प्राप्त है अत: सूर्य के उदय होने पर अंधकार समाप्त हो जाता है । ऐसे ही यह मोहांधकार, अज्ञान अंधकार है क्या चीज ? ज्ञान का सद्भाव नहीं है, ज्ञान अस्त है और उसी का ही यह परिणाम है कि मोह रागद्वेषरूप अज्ञान परिणाम बना है। तो यह अज्ञान परिणाम का अंधकार तब तक ही रहता है जब तक ज्ञान परिणाम उत्पन्न न हो, अर्थात् ज्ञानरूपी सूर्य का उदय होते ही अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है । जैसे दो ही तो बात ― हैं दिन और रात और उसकी दो संध्यायें । इन चार के अलावा और समय क्या है व्यवहार में ? या दिन होगा या दिन के बाद की संध्या या रात होगी या रात के बाद की संध्या । ऐसे ही यहाँ संसार में अज्ञान का भी प्रसार है और क्वचित् आत्मावों में ज्ञान का भी प्रकाश है, तो 4 ही तरह की तो बातें हैं―या ज्ञानप्रकाश है या अज्ञान अंधकार है या ज्ञानप्रकाश हो जाने के बाद भी अज्ञान की ओर जब परिणति होती है जीव में समय की एक संध्या है और जब ज्ञान अंधकार दूर होता है, ज्ञानप्रकाश पाता है एक उसके बीच की संध्या है । तो ज्ञान और अज्ञान ये दोनों ही परिणमन हैं । अज्ञान कब तक है ? जब तक ज्ञानसूर्य का उदय नहीं होता । किसी के व्यय को किसी का उत्पाद कहा जाता, किसी के उत्पाद को किसी का व्यय कहा जाता । जब हम परिणति की दृष्टि से देखते हैं तो सद्भावात्मक बात देखिये और लोक प्रकृति के अनुसार सद्भाव अभाव का वर्णन करिये । यद्यपि यह भी कह सकते हैं कि अज्ञान मिटने से ज्ञान बनता है । तो क्या यह नहीं कह सकते हैं कि ज्ञान जगने से अज्ञान मिटता है और सद्भावात्मक बात से चलें तो और हमें क्या करना चाहिए इस दृष्टि से चलें तो ज्ञान होने से अज्ञान मिटता है, इस ओर दृष्टि जाना चाहिए । जैसे हम क्या करें, किस तरह हमारा धर्म निभे, हममें धर्म प्रकट हो उसके लिए कोई प्रतिषेध मुखेन वर्णन करें, पाप न करो तो धर्म होता है, अमुख-अमुख काम न करो उससे धर्म होता है । क्या करें हम ? ज्ञान करें, सत्य श्रद्धा करें, आत्मा की सुध लें, सहजस्वरूप की दृष्टि करें इससे हमें करने योग्य कृत्य के दर्शन होते हैं । तो यहाँ सम्यग्ज्ञान के प्रताप का वर्णन चल रहा है । सम्यग्ज्ञान का ऐसा प्रताप है कि इससे वह अज्ञान अंधकार नष्ट होता है जो अंधकार सूर्य के द्वारा भी नष्ट नहीं हो सकता ।