ज्ञानार्णव - श्लोक 496: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
धर्मबुद्धयाऽधमै: पापं जंतुघातादिलक्षणम् ।क्रियते जीवितस्यार्थे पीयते विषमं विषं ॥496॥
सब प्रयोजनों में जीवघात से पापबंध ― जो पापी पुरुष धर्म की बुद्धि से जीवघातरूपी पाप को करते हैं वे अपने जीने की इच्छा से हलाहल विष को पीते हैं । जैसे कोई पुरुष मैं खूब जिंदा रहूँ, अमर हो जाऊँ ऐसी बुद्धि से विष को पीवे तो उसका फल क्या होगा ॽ वह तो तुरंत मरेगा, ऐसे ही जो पुरुष मुझे धर्म होगा ऐसी बुद्धि से जीवघात को करते हैं उनकी इस क्रिया में क्या धर्म बसा हुआ है ॽ पाप है, अधर्म है, और हिंसा वैसी हो जाय, उसमें जितने पाप हुए उससे कई गुना पाप हिंसा में धर्म मानकर पाप करने में लगते हैं । कारण यह है कि वहाँ हिंसा का ऐसा पाप लगा और मिथ्यात्व का भी पाप लगा । इससे यह निर्णय रखना कि किसी भी प्रयोजन से जीवघात करना पाप ही है । जो पुरुष अपनी थोड़ी धनसाधना के लिए धनार्जन के लिए अन्याय करते हैं, दूसरे जीवों पर क्या बीतती है इसका कुछ ध्यान नहीं रखते और किसी प्रकार से धनसंचय हो इस धुन में ही रहते हैं उनके आत्मा में वह बल नहीं रहता जिस बल से वे अपने आपमें प्रसन्न रह सकें । उनको प्रसन्नता का अवसर नहीं मिलता, अनेक चिंताएँ रहती हैं । अनेक मौज भी मानें तो भी रौद्रध्यान रहता है ।
निर्मल आशय बनाने में शांति ― अपने आपमें स्वच्छ आशय बनाये बिना, मंदकषायों की प्रवृत्ति किए बिना, सब जीवों का आदर किये बिना अपने में शांति और आनंद प्राप्त नहीं हो सकता है । जिन्हें उत्तम आत्मतत्त्व की सिद्धि चाहिए उनका कर्तव्य है कि वे अधिकाधिक यत्न यह करें कि हिंसा आदिक विकल्पों से छूटकर अपने शुद्ध ज्ञानज्योतिस्वरूप के अवलोकन में उपयोग बनाया करें । यह ध्यान का प्रकरण है । ध्यान बिना जीव का कुछ शरण नहीं है, यह खूब निरख लीजिए । जीवन में अनेक समागमों से निर्णय कर लिया होगा कि किसी भी जीव से अपने को शांति प्राप्त नहीं होती । होगा क्या संबंध में ॽ राग या द्वेष । द्वेष में तो शांति है ही नहीं, पर राग में भी शांति नहीं है । द्वेष में और ढंग की आकुलता होती है । राग में और ढंग की आकुलता होती है । द्वेष के समय विवेक कर लें तो अपनी आकुलता को शीघ्र मिटा सकते हैं, पर राग में अंधे बनकर तो विवेक भी नहीं किया जा सकता, करिये आकुलता मिटाने का भी अवसर नहीं पा सकता, अतएव राग त्याज्य है । ऐसा दृढ़ निर्णय यदि अपने आप के आत्मा पर कुछ दया आती हो तो । अन्यथा जैसे संसार में रुलते चले आये हैं वैसे ही चलते रहेंगे ।