वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 495
From जैनकोष
विहाय धर्मं शमशीललांछितं दयावहं भूतहितं गुणाकरम् ।मदोद्धता अक्षकषायवंचिता दिशंति हिंसामपि दु:खशांतये ॥495॥
ज्ञान परिणति में शांति ― इस जीव को निज अंतस्तत्त्व का ध्यान करना ही परमशरणभूत है । जगत के किन्हीं भी पदार्थों का समागम हो जाय जो अज्ञानी जनों द्वारा महत्त्व की दृष्टि से निरखे जाया करते हैं ऐसे पदार्थ भी इस जीव को शांति कहाँ से देंगे । शांति किसी बाह्य तत्त्व से नहीं आया करती, किंतु यह एक आत्मा के विशुद्ध ज्ञानपरिणमन का कार्य है । शांति का संबंध ज्ञानपरिणति से है, पदार्थ के समागम से नहीं है, अतएव जिन्हें कल्याण चाहिए आनंद चाहिए उनके लिए एक ही मार्ग ऋषी संतों ने बताया है कि वे निज आत्मद्रव्य को जानें, और उस आत्मद्रव्य का जो सहजस्वरूप है उसका ही उपयोग बनाये रहें, इस ही का नाम है उत्त्तम ध्यान । तो जगत के जीवों का एक उत्त्तम ध्यान ही शरण है । उत्त्तम ध्यान का पात्र कौन होता है उसका यह प्रकरण चल रहा है ।
रत्नत्रय के ध्यान में मनुष्यपर्याय की सफलता ― उसके ध्यान के मुख्य अंग तीन हैं – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । अपने आत्मा के सहज शुद्ध सत्त्वस्वरूप का विश्वास होना और उसके गुण पर्यायमुखेन परिचय होना तथा ऐसा ही सहजस्वरूप अंतस्तत्त्व उस उपयोग को स्थिर बनाये रहना ये तीन परिणतियाँ उत्तमध्यान के खास अंग हैं । जैसे कि बाह्यरूप से ध्यान के अंग प्राणायाम, साधना, संयम, यम अनेक माने गए हैं तो ये बाह्यसाधन ध्यान के खास अंग नहीं हैं, इसका कारण यह है कि इन बाह्य अंगों के होने पर भी ध्यान न भी हो किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये ध्यान के खास अंग हैं । रत्नत्रय की आराधना के बिना मानव जीवन निष्फल है । संसार में सभी जीवों का अनेक बार जन्म मरण होता ही रहता है । कभी पशु होना, कभी पक्षी होना, कभी कोई पंचेंद्रिय होना । सभी जगह इसे इंद्रिय विषयों के साधन प्राप्त होते रहते हैं । और और जितने भी संज्ञावों के परिणाम हैं ― आहार, निद्रा, भय, मैथुन, इच्छा, मोह, रुचि होना ये सारी बातें क्या पशु-पक्षियों में नहीं हुआ करती है? मनुष्य होकर और विशेष बात क्या लाभ की ली गई । अधिक से अधिक पुण्य योग से कुछ लौकिक ठाठ मिल जाय तो मायामयी मनुष्यों में कुछ थोड़ा नाम कहलवाने की बात मिल गई वह भी असत्य है । पता नहीं लोग दिल से कीर्ति करते हैं या देखादेखी करते हैं । दिल से करें तो क्या, देखादेखी करें तो क्या, इन मायामयी पुरुषों ने यदि दो शब्द नाम के पुकार के लिए तो इतने से कौन सी सिद्धि होती है ।
बाह्यसमागम स्वप्नवत् ― तब समझिये कि ठाठबाट समागम ये सब निरर्थक है । वस्तुत: जो जीव कल्याण चाहते हैं, कल्याण की साधना के सिवाय एक शुद्ध ज्ञान, शुद्ध श्रद्धान शुद्ध आचरण के सिवाय और कुछ नहीं है । जिन परिजनों को अपना माना है, जिनके पीछे सारे जीवन भर बड़ा श्रम कर करके और अनेक पापों के विकल्प बना-बना करके कर्म बाँधते हैं आखिर वे परिजन के लोग भी हमारे हैं क्या ॽ यह स्वप्नवत् थोड़े समय का समागम है । मान लो इन अनंतजीवों में से किसी एक दो जीव को मान लिया कि ये मेरे हैं तो ये सब कल्पना की बातें है । मृत्यु होने पर घर के पड़ोस में ही आप मनुष्य बनकर जन्म ले लें तो भी उन परिजनों से, आपके प्रति प्रेम नहीं रह सकता । वे जानते हैं कि यह गैर है । तो कौन गैर है, कौन अपना है, किसके लिए जीवन भर विकल्प और श्रम किया जा रहा है ॽ शांति का मार्ग तो यह नहीं है ।सत्य स्वरूप के परिचय में आनंद ― शांति का मार्ग केवल शुद्ध ज्ञान परिणमन है । तो रत्नत्रय की आराधना के बिना मनुष्यजीवन निष्फल है, इसमें रंच भी संदेह की बात नहीं है । जो आनंद, जो पवित्रता एक अपने आपके सत्यस्वरूप के परिचय में और उसमें मग्न होने की स्थिति में प्राप्त होती है उस आनंद में यह सार्मथ्य है कि भव-भव के बाँधे हुए कर्मों की निर्जरा कर दे और इस आत्मा को निर्विकल्प निर्भार बना दे और संसार के संकटों से छुटाकर इसे अमर पद में पहुँचा दे । उस रत्नत्रय का ही भरोसा रखिये बाकी सब एक फाँस है, फँसाने के लिए जंजाल है, ऐसा चित्त में निर्णय बनावें । किसी बात के लिए हापड़ धूपड़ की दौड़ से प्राप्त कर लेने की धुन समाप्त करना चाहिए । शांत पुरुष वे होते हैं जिनका यह निर्णय है कि यह मैं आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप हूँ और ज्ञानपरिणमन उसका कार्य है और करता भी मैं केवल अपना ज्ञानपरिणमन ही हूँ, मेरा किसी भी परपदार्थ में करने के लिए कुछ पड़ा नहीं है ।पर में कर्तृत्व बुद्धि से दु:ख की प्राप्ति ― किसी भी परपदार्थ में कुछ भी मेरा काम नहीं है क्योंकि पर में कुछ होता भी नहीं है इस आत्मा के द्वारा न पर के द्वारा आत्मा में कुछ होता है । कोई मनुष्य गाली दे रहा तो उसने मुझे क्रोध नहीं पैदा किया । कोई पुरुष प्रतिकूल वचन बोल रहा हो तो उसकी सामर्थ्य नहीं है कि वह मुझे दु:खी कर दे । मैं ही अपना कुछ विचार बनाऊँ और पर्यायबुद्धि करके अपनी सुध भूलकर एक पर्यायबुद्धि का परिणमन करूँ तो मैं दु:खी होऊँगा और यदि जान लिया कि कहने वाले लोग तो अज्ञानी ही हुआ करते हैं, कारण यह है कि ज्ञान परिणमन उनके स्वयं हो तो उनमें सदाचार सद्व्यवहार आत्मकल्याण आराधना की परिणति होती है । तो अज्ञानी जन कुछ कह दें तो उसका क्या बुरा मानना ॽ उसका यह दृढ़ निर्णय है और फिर इन वचनों का मुझमें कुछ प्रवेश नहीं होता है, वह उनकी चेष्टा है, उनका ज्ञान है, उनकी बुद्धि है, उनकी क्रिया है, और यहाँ तक कि वचन भी उन्होंने बोला नहीं है, केवल एक विचार बनाया, उसका प्रयास किया । वचन भी बाजे की तरह हैं, जैसे हारमोनियम में जिस स्वर पर हाथ रखो वह आवाज निकलती है ऐसे ही ये ओंठ जीभ कंठ ये जिस तरह से संयोग वियोग में आते हैं उस तरह की आवाज निकलती है । आत्मा ने तो वचन भी नहीं बोला, केवल उसने अपने ज्ञान और योग का परिणमन किया है । ये सारी वस्तुस्वरूप की बातें ज्ञानी के ज्ञान में रहती हैं, इस कारण वह उद्विघ्न नहीं होता । यह आत्मकल्याण की दृष्टि से अपना एक शुद्ध विवेक कैसा होना चाहिए, एक अभ्यस्त दशा को प्राप्त हो गया हो तो उस पुरुष में यह पात्रता है कि वह उत्तम ध्यान का अधिकारी बन जाय ।
आत्मतत्त्व का ध्यान परमशरण ― हम आप सब लोगों को आत्मतत्त्व का ध्यान ही परमशरण है, और उस ध्यान के मुख्य अंग हैं तीन ― सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्र के प्रकरण में अहिंसा महाव्रत की बात बतायी जा रही है । अहिंसा से जीव का क्या श्रंंगार बनता है और हिंसा से जीव की कैसी दुर्गति होती है, यह प्रकरण चल रहा है । अज्ञानी जीव गर्व में आकर अपनी पाई हुई चतुराई का घमंड करके कुछ लोग हिंसा में धर्म होता है ऐसे भी शास्त्र रच गए हैं, उनको पढ़कर सुनकर उनकी परंपरा से जो पुरुष धर्मबुद्धि से हिंसा करते हैं, बलि करते हैं तो उनकी दुर्गति तो निश्चय से होने वाली है । जो पुरुष घमंडी हैं, इंद्रिय के विषयों से, कषायों से ठगे गए हैं वे पुरुष दया धर्म को छोड़ देते हैं और दु:ख दूर करने के लिए हिंसा को धर्म कहा करते हैं । तो हिंसा में धर्म कहने वाले हिंसक पुरुष विघातक पुरुष पर्यायबुद्धि से गर्व में मदोन्मत्त होते हैं वे विषयलंपटी हैं, कषायी हैं और जगत के जीवों को भरमाते रहने का उपाय बनाया करते हैं, उनसे दूर रहना चाहिए, और यह निर्णय रखना चाहिए कि चाहे धर्म के नाम पर, चाहे अन्य किसी प्रयोजन से हिंसा की गई हो वह नियम से पाप है, हिंसा में धर्म नहीं होता । धर्म तो धर्मस्वरूप आत्मतत्त्व के जानने और उसमें मग्न होने से प्रकट होता है । धर्म की असली जड़ तो यह है, इस धर्म को छोड़कर जो नाना क्रियावों में अपना कल्याण समझते हैं, धर्म समझते हैं, वे जीव अज्ञानी हैं । तो विकल्पों से दूर रहें और सम्यक्श्रद्धान के बल से अपने निकट अधिकाधिक आने का प्रयत्न करें तो उत्तम ध्यान की सिद्धि होगी ।