वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 497
From जैनकोष
एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धांतजीवितम् ।
यज्जंतुजातरक्षाथ भावशुद्धया दृढ़ं व्रतम् ॥497॥
गृहस्थ को मोक्षमार्ग की साधना का उपदेश ― जीवसमूह की रक्षा के लिए यह रत्नत्रय की आराधना ही तो सर्वस्व सिद्धांतरूप है । आत्मकल्याण कैसे हो, इसका पूर्ण समाधान रत्नत्रय के परिणमन में आ जाता है । लोग भी सोचा करते कि हम तो गृहस्थ हैं और लोक व्यवहार में रहना पड़ता है उसमें अपने ये सब कुछ कदम न बढ़ायें, धन संचय का काम न करें अथवा अन्य–अन्य काम न करें तो फिर काम कैसे चलेगा ॽ उसमें ही तो गृहस्थ की गृहस्थी शोभा देती है । ठीक है तो फिर 24 घंटा इसके लिए जुट जाइये, विकल्प करिये, सो चौबीसों घंटा जुटते भी नहीं बन सकता और उसका संस्कार भी छोड़ते नहीं बन सकता । यह तो कर्तव्य है पर क्या गृहस्थों का यह कर्तव्य है कि वे धनसंचय की होड़ लगायें ॽ करने योग्य काम तो आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान और आत्मरमण है । सत्संग, गुरूपासना, देवपूजा, स्वाध्याय, संयम, दान, तप आदि षट् कर्तव्यों से अपने मोक्षमार्ग की साधना करें । पर इन कार्यों के लक्ष्य होने पर भी चूँकि गृहस्थी में धर्नाजन, लोकयश आदिक के काम भी करने पड़ते हैं इस प्रकार का निर्णय एक ज्ञानी गृहस्थ के होता है । काम दो हो गए गृहस्थ के । धर्मपालन और लोकव्यवहार । लेकिन कल्याणार्थी गृहस्थ का मुख्य काम क्या है और गौण काम क्या है इसका निर्णय सही रखना है । कोई लोग तो धनार्जन का मुख्य काम मानते और धर्म पालन का गौण काम समझते, समय बचता है तो कहाँ दिल लगायें, पूजन या स्वाध्याय में ही बैठ गए । और, कोई पुरुष ऐसे होते हैं जो धर्मपालन का मुख्य काम समझते हैं और धनार्जन के काम को गौण समझते हैं । तो मुख्य काम क्या होना, गौण काम क्या होना इसके निर्णय में रुचि की परीक्षा बसी हुई है । किसको किस ओर रुचि है । जिसकी जिस ओर रुचि है वह उस काम को मुख्यता से करेगा । साथ ही यह भी समझिये कि जो कुछ लोक में धनार्जन हो जाता है वह आज की चतुराई का फल नहीं है ।
सांसारिक संकटों से मुक्ति का उपाय धर्मपालन ― जगत में आप एक सिंघावलोकन की दृष्टि करके निर्णय कर लीजिए, आपसे अधिक चतुराई वाले आपसे अधिक श्रम करने वाले लोग भी उस बात को नहीं पा सके । कोई पा लेता है तो इसमें वर्तमान श्रम वर्तमान विचार कारण नहीं है, कुछ अन्य कारण ढूँढना चाहिए । वह कारण है पूर्वभव की धर्मसाधना से जो पुण्यबंध हुआ था उसका उदय । तो इस दृष्टि से भी धर्मपालन मुख्य रहा । अनुभव करके भी देख लो । जब-जब धर्म की दृष्टि जगती है, धर्मपालन की वृत्ति होती है उस समय स्वच्छता और पवित्रता कैसी रहती है और जब किसी परवस्तु के संबंध में ख्याल और विकल्प बढ़ता है उस समय की छटपट देख लो, कैसी चित्त में विह्वलता रहती है । धर्मपालन का तो मुख्य काम है और फिर परिस्थिति जैसी होगी उदयानुसार उसमें अपना विभाग करके गुजारा कर लेने की हममें कला है, परिस्थिति हमारी क्या बिगाड़ करेगी ॽ ऐसा साहस हो वही तो धर्म का पालन कर सकता है । जो पुरुष समूह का रक्षक हो, और अपने आपके शुद्ध ज्ञान दर्शन प्राणों के रक्षक हों, भावशुद्धिपूर्वक, ऐसा विशुद्ध परिणमन बनना यही वास्तविक व्रत है और ऐसा योगी साधु श्रावक ज्ञानी उस ध्यान का पात्र है जिस ध्यान से संसार के संकट समाप्त हो जाया करते हैं ।