ज्ञानार्णव - श्लोक 509: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
तप: श्रुतयमज्ञानध्यानदानादिकर्मणां ।
सत्यशीलव्रतादीनामहिंसा जननी मता ॥509॥
शास्त्रज्ञान अत्यंत हितकारी ― जितने भी उत्तम कार्य हैं सभी कार्यों की माता है अहिंसा । तपश्चरण एक उत्कृष्ट कार्य है, जिसमें कर्मजंजाल हटता है, आत्मपवित्रता बढ़ती है, आनंद हृदयंगत् होता है । ऐसे उत्कृष्ट तपश्चरण कार्यकारी को भी पैदा करने वाला है अहिंसा । दया न हो, जीवघात की प्रवृत्ति हो, यदवा तदवा प्रयत्न हो तो उसका तपश्चरण कुछ भी कार्यकारी नहीं है । शास्त्र का ज्ञान एक बहुत बड़ा कार्य है । तत्त्व का रहस्य पाना, वस्तुस्वरूप का मर्म विदित होना, अपने आपका सही परिचय होना ये सब बातें शास्त्रज्ञान से ही तो विदित हैं । शास्त्रज्ञान बहुत ऊँचा कार्य है । लेकिन इस शास्त्रज्ञान में जो हितकारक अन्य ज्ञान बनता है उसको उत्पन्न करने वाली भी अहिंसा है ।
अहिंसामय आचार से ज्ञान की शोभा ― कोई पुरुष हिंसा करे, जीवघात करे और शास्त्रों की बड़ी-बड़ी बातें करे तो उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता । यावत जन्म के लिए मृत्यु पर्यंत किसी भी उत्कृष्ट नियम का धारण कर लेना यम कहलाता है । ऐसा महान व्रत कोई करे और मूल में अहिंसा न हो तो उस व्रत की क्या प्रतिष्ठा ॽ यह यमरूप महाव्रत भी अहिंसा के आधार पर ही अवलंबित है । बहुत-बहुत प्रकार के विषयों का ज्ञान हुआ, शास्त्रों का, लोकव्यवहार का, अन्य लौकिक ज्ञान भी बहुत मिल गये, पर यह ज्ञान तभी शोभा देता है जब आचार अहिंसामय हो ।
निर्मलपरिणति का नाम अहिंसा― अहिंसा से अर्थ यद्यपि द्रव्य में प्राणों का घात न करना है, पर ध्यान का यह प्रसंग है इसलिए भावों पर जोर देकर सोचना चाहिए । जहाँ दूसरों के प्रति विरोध का भाव न हो, अपने आपमें विकार में रुचि न जगे, सत्यस्वरूप विदित रहे, जब सब जीवों में ऐसे ही सहज आत्मस्वरूप का भान हो तो ऐसी परिणति का नाम है अहिंसा । और, इस प्रकार की अहिंसा परिणति हो तो उसका बहुत ज्ञान करना भी शोभा देता है, और हितकारी होता है । सब ओर से विकल्प हटाकर आत्मसाधना में ध्यान बनाये रहना बहुत उत्कृष्ट कार्य है ।
यह कार्य भी अहिंसा पर अवलंबित है । हमारी चर्या व्यवहार परिणति अहिंसामय हो तो हम ध्यान के पात्र हो सकते हैं, क्रूर चित्त में ध्यान का पात्र नहीं होता । साधना करने का लोक में एक महान कार्य माना जाता है, पर कोई पुरुष हिंसा करता हो अन्याय बहुत करता हो, मनुष्यों को सताता हो और सता करके अन्याय करके धन जोड़ता हो और उसे दान करे तो उस दान की न शोभा है और न कार्यकारिता है । गृहस्थों को सर्वप्रथम बताया है कि वे न्याय से धन कमायें और फिर उसमें जो प्राप्त हो उसमें से दान करें तो दान करना भी अहिंसा के आधार पर प्रतिष्ठा पाता है, इसी प्रकार सत्य बोलना, शील पालना, अनेक व्रतों का धारणा करना ये सब उत्तम कार्य हैं, किंतु इनकी जननी है अहिंसा । अपना परिणाम दूसरों के प्रति हित का रहना चाहिए । लोकव्यवहार में विरोध भी हो जाय तो उस विरोधी के बावजूद भी अंतरंग में विचार यह रहना चाहिए कि इसका कल्याण हो, इसकी सद्बुद्धि जगे । फिर विरोध ही क्या रहा ॽ जो आज हमारा विरोधी बन रहा है उसका भाव पलट जाय तो वह कहो मित्र बन जाय । वह विरोधी का मूलत: घात नहीं चाहता किंतु उसमें विरोधभाव न रहे यह चाहता है । अहिंसाव्रत के पालन बिना जितने भी अभी गुण बताये गए हैं इनमें से एक भी नहीं हो सकता है, इस कारण समस्त उत्कृष्ट कार्यों के, धर्मकार्यों के उत्पन्न करने वाली माता है यह अहिंसा ।