वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 508
From जैनकोष
परमाणो: परं नाल्पं न महद्गगनात्परं ।यथा किंचित्तथा धर्मो नाहिंसालक्षणात्पर: ॥508॥
रत्नत्रय का आराधना ही संकटों से मुक्ति का उपाय ― संसार के संकटों से छूटने का उपाय है आत्मध्यान । चूँकि आत्मा स्वरूप से संसाररहित है, केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र है, अतएव नि:संसार ज्ञानानंदमय निज आत्मा के ध्यान से कर्मबंधन दूर होते हैं, संसार के सब संकट नष्ट होते हैं । अतएव आत्मध्यान का कर्तव्य मनुष्य के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है । आत्मध्यान का पात्र वही पुरुष होता है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूषित है । ध्यान के मुख्य अंग हैं ये तीन ― सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । ये न हों और प्राणायाम आदि अनेक अभ्यासों से भले ही उस ध्यान की साधना कर रखी हो लेकिन शांति और मोक्षमार्ग नहीं मिल सकता । और जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सहित हो उसके बाहरी ध्यान के उपाय न भी बन पायें, पर उसको अपने ध्येय में सिद्धि प्राप्त होती है । तो इस प्रकरण में सम्यक्चारित्र का वर्णन है । सम्यक्चारित्र में प्रथम अहिंसा महाव्रत है ।
सबसे बड़ा धर्म अहिंसा ― अहिंसा महाव्रत की प्रशंसा में कह रहे हैं कि देखो जैसे लोक में परमाणु से कोई छोटा और कुछ तो नहीं है ना, और आकश से बड़ा भी कुछ नहीं है, इसी तरह समझ लो कि अहिंसारूप धर्म से भी बड़ा कोई धर्म नहीं है । लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि अहिंसा उत्कृष्ट धर्म है और हिंसा अत्यंत गरहित तुच्छ बात है । अहिंसा में प्रधानता है विचारों की स्वच्छता की । सर्वजीवों को अपने समान ज्ञानानंदस्वरूप निरखना और इस शुद्ध दृष्टि के प्रताप से किसी भी जीव के अकल्याण की वांछा न करना सो अहिंसाधर्म है । अहिंसाधर्म उत्कृष्टरूप से तो साधुवों के ही होता है, लेकिन गृहस्थ भी किसी भी जीव का अकल्याण न चाहें यहाँ तक कि कोई राजा, सेनापति, सैनिक, ज्ञानी हो और उसे कहीं विवश होकर युद्ध करना पड़े, आक्रमण कोई करें तो उसके बचाव के लिए यत्न करना पड़े और उस यत्न में अनेक लोग मृत्यु के घाट भी उतर रहे हों फिर भी उस ज्ञानी के चित्त में दूसरे अकल्याण की इच्छा नहीं है । कैसा एक अध्यात्म द्वनद्व है उस समय कि अंतरंग तो किसी का अकल्याण नहीं चाहता और प्रयत्न से जीवघात हो रहा है । इसके चित्त में यह है कि सद्बुद्धि जगे और यह हिंसा बंद हो । किसी का दिल से घात नहीं चाहता ज्ञानी जीव, ऐसी भी परिस्थितियाँ हो जाती हैं । यद्यपि वह उत्कृष्ट अहिंसा नहीं है लेकिन अहिंसा का मार्ग वहाँ भी है । चित्त में दूसरे जीवों का विरोध मान लेना सो हिंसा है । तो जैसे परमाणु से छोटा कुछ नहीं है इसी तरह हिंसा से अत्यंत गरहित और कुछ नहीं है । जैसे आकाश से बड़ा लोक में और कुछ नहीं है इसी प्रकार अहिंसाधर्म से बड़ा लोक में और कुछ नहीं है । जो अहिंसक पुरुष है वही आत्मध्यान में बढ़ता है, अतएव ध्यान का मुख्य अंग है अहिंसामहाव्रत ।