ज्ञानार्णव - श्लोक 511: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
निस्त्रिंशं एव निस्त्रिंश यस्य चेतोऽस्ति जंतुषु ।तप: श्रुताद्यनुष्ठानं तस्य सिद्ध समीहितम् ॥511॥
दया बिना सब क्रियायें व्यर्थ ― जिस पुरुष का चित्त जीवों के लिए शस्त्र के समान निर्दय हो उसका तप करना, शास्त्र पढ़ना केवल उसके कष्ट के लिए ही है । तप करके दूसरों का अनर्थ ही करेगा, ज्ञान बढ़ाकर वह अनर्थ ही करेगा, क्योंकि चित्त में दया है ही नहीं । एक नीतिकार का कहना है कि कभी सिंह अगर उपवास भी करले तो उसका उपवास तो जीवों के घात के लिए ही है, अर्थात् वह आखिर करेगा क्या, जीवों को मारेगा और खायेगा । सिंह धर्मात्मा हो और सर्व आहारों का त्याग कर दे, समाधिमरण करे ऐसे सिंह की बात नहीं कह रहे किंतु ऐसे ही साधारणतया सिंह उपवास कर ले तो उसका उपवास जीवों के घात का ही कारण होगा । ऐसे ही निर्दयी पुरुष तपश्चरण की साधना करे और कोई चमत्कार पा ले तो उससे तो कोर्इ वह बुरा ही काम करेगा क्योंकि चित्त में दया नहीं है । जैसे कि आविष्कार आजकल नये-नये चल रहे हैं, उन आविष्कारों से चाहें तो मनुष्यों का भला कर ले और चाहें तो मनुष्यों का संहार कर लें । जैसे अणुशक्ति का प्रयोग है । अणु शक्ति का प्रयोग मानव कल्याण में भी कर सकते हैं ― मशीनें चलना, रेल ट्रक वगैरह चलना, अन्य अनेक चीजें चलना आदि आदि, और अणुशक्ति का प्रयोग निर्दयता के लिए भी कर सकते हैं, जैसे विनाशक अणुबम बनाना । यों ही जिसका चित्त दया से हीन है उसका तप करना, शास्त्र पढ़ना आदिक कार्य ये सब केवल उसके कष्ट के लिए है । वे कार्य उसकी भलाई के कारण नहीं हो सकते । सच बात तो यह है कि जब तक स्वरूप की थाह नहीं ली जाती कि मेरा स्वरूप क्या है, जब तक यह समझ में नहीं आता तब तक दूसरे जीवों के प्रति भी कुछ नहीं समझ में आता । तो जहाँ आत्मा की समझ नहीं है, पर्यायबुद्धि ही चल रही है, जो देह अपना है उसे माना कि मैं हूँ, जो देह दूसरे आत्मा के द्वारा अविदित है उसे माना कि यह पर है यों पर्याय में ही निज पर की बुद्धि जहाँ होती हो वह तो पद पद पर कलह विसंवाद विनाश विघात ये सब करेगा । चित्त में दया का बसना यह एक महान कार्य है और जो दयालु परिणति करते हैं उनके पुण्य की वृद्धि होती है; समागम, यश, आराम सब कुछ उसके बढ़ते हैं, शोध भी उसके लोक में बहुत अद्भुत होते हैं । धनिक होकर बड़ा होकर पर के उपकार में दूसरों की दया में जो धन खर्च कर रहे हैं, कंजूस तो देखकर यह सोचेंगे कि कैसा लुटा रहे हैं, खर्च कर रहे हैं । अरे लुटान ही था, बरबाद ही करना था तो कमाते क्यों लेकिन बड़े पुरुषों की प्रवृत्ति होती है कि दयामय जो कुछ भी सामने बात आती है उसके लिए त्याग करते हैं, दान करते हैं और फिर भी वे बड़े आराम में मौज में पुण्य में बने रहते हैं । यह तो एक वैभव पाने का उपाय है । त्याग, दान, ज्ञान, ध्यान, धर्मधारण ये सब लौकिक वैभव पाने के उपाय हैं । जैसे खर्च किये बिना आय का जरिया नहीं बनता, व्यापार में पहिले हजारों लाखों देने ही पड़ते हैं । ऐसे ही समझो कि सर्व प्रकार के उत्कृष्ट वैभव यश आराम पाने के ये साधन हैं, वे त्याग, उदारता, विरक्ति, सम्यग्ज्ञान आदि और फिर ज्ञानी जीव तो बिना ही कुछ प्रयोजन के अर्थात् सांसारिक कुछ भी बात न चाह कर चूँकि वह ज्ञानी है अतएव शुद्ध ज्ञान करता रहता है ।
ज्ञानदृष्टि से कल्याण ― सर्वपदार्थ स्वतंत्र हैं, सब जीव स्वतंत्र हैं, सबका अपना-अपना सत्त्व न्यारा-न्यारा है और सब प्रभु की तरह ही प्रभुता को लिए हुए हैं । सबका वही स्वरूप है जो भगवान का स्वरूप है । इस प्रकार सब जीवों में समता को निहारने वाले पुरुष अपना कल्याण कर जाते हैं, और जब तक वे संसार में रहते हैं तब तक यश वैभव के बीच बने रहा करते हैं । जिनका चित्त दयाहीन है, जीव का स्वरूप ही नहीं समझते वे यथा तथा अन्याय की ही प्रवृत्ति करेंगे । चाहे लाखों जीवों का ध्वंस हो जाय पर अपने यश के लिए वे महा अन्याय की प्रवृत्ति करते हैं । उनका तप ज्ञान सब कष्ट के लिए है और दूसरों के कष्ट का भी कारण होता है ।