वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 512
From जैनकोष
द्वयोरपि समं पापं निर्णीतं परमागमे ।वधानुमोदयो: कर्त्रोरसत्संकल्पसंश्रायत् ॥512॥
परिणामों से हिंसा का बंध ― जीवों का घात करने वाला पुरुष और जीवघात करने वाला पुरुष और जीवघात करने वाले हिंसकों की प्रशंसा करने वाले पुरुष इन दोनों का पाप परमागम में समान निर्णय किया गया है । हिंसा बाहर में जीवघात से नहीं लगती किंतु जीवघात करने के परिणाम से लगती है । जीवघात करने पर भी जीवघात किया गया, इसमें हिंसा नहीं लगी किंतु जीवघात करने का विचार हुआ, परिणाम हुआ उससे हिंसा लगी । तो हिंसा का कारण तो परिणाम है । तो एक ने जीवघात किया और उसमें जीवघात का परिणाम बनाया और एक ने जीवघात करने वाले की प्रशंसा की, बहुत अच्छा घात किया, तो परिणाम को देखा जाय तो घात करने वाले ने भी वह पाप लादा और हिंसक जीव की प्रशंसा करने वाले ने भी वह पाप लादा । जैसे घात करने वाले को जो पाप हुआ है वह अशुभ परिणाम से ही तो हुआ है इसी प्रकार हिंसा करने वाले पुरुष को भला कहने वाले के भी जो अशुभ संकल्प हुआ वह भी पाप उत्पन्न करने वाला हुआ । अशुभ परिणाम किये बिना हिंसा करने वाले की अनुमोदना की नहीं जा सकती है । जैसे क्रूरता और अशुभ परिणाम किए बिना जीव का घात नहीं किया जा सकता ऐसे ही अशुभ परिणाम किए बिना हिंसकों की प्रशंसा भी नहीं की जा सकती । इस कारण हिंसा करना और हिंसा करने वाले को भला मानने वाले को पाप बराबर लगता है ।
अंतरदृष्टि से हिंसा अहिंसा का निर्णय ― भीतरी दृष्टि से निहारो, बाहर की क्रियावों से इसका हल न होगा कि एक पुरुष तो साक्षात् जीवघात कर रहा और एक पुरुष जीवघात करने वाले की प्रशंसा कर रहा तो उसमें यह भेद नहीं पड़ सकता कि वाह इसने सोचा ही तो है, हिंसक की प्रशंसा ही तो किया है, किसी जीव को नहीं मारा, फिर क्यों पाप लगा ॽ तो वह पाप लगा अशुभ परिणाम से । हिंसक को भी पाप लगा और हिंसा की अनुमोदना करने वाले को भी पाप लगा । जैसे धर्मकार्य करने वाले के पुण्यबंध होता है और धर्मकार्य करने वाले की कोई प्रशंसा करे तो उसके भी पुण्यबंध होता है । धर्मकार्य में रुचि जगे बिना धर्म की कोई प्रशंसा कर नहीं सकता । जिनकी धर्म में रुचि नहीं है वे धर्मात्मावों को ढोंगी कहते हैं, पागल कहते हैं, पुराने दिमाग वाला कहते हैं । जिन्हें धर्म से रुचि नहीं है वे धर्मात्मावों की प्रशंसा करेंगे ही क्या ॽ जिसे जो सुहाता है वह उसकी प्रशंसा करता ही है । जिसे हिंसा सुहायेगी वह हिंसक की प्रशंसा करेगा ।
भावहिंसा ही हिंसा है ― देखिये परिणाम का कैसा प्रभाव है कि हिंसा के परिणाम से जो पाप बाँधा उस पाप का फल पहिले भोग लिया और हिंसा कहो बाद में कर पाये । यहाँ यह बतला रहे हैं कि हिंसा करने से पहिले हिंसा के फल को भोग लिया जाता है । किसी मनुष्य को बैरी मानकर उसका घात करने का संकल्प किया और कुछ यत्न भी जुटाया, उससे तत्काल पाप का बंध हुआ । अब इस चेष्टा में है वह कि इस विरोधी को कब मार पायें । मगर मार पायें चाहे 10 वर्ष बाद किंतु उस हिंसा का फल भोग लिया । कोई जीव करता तो हिंसा है बाहर में और हिंसा का फल नहीं पाता । जैसे कुशल डाक्टर रोगी की चिकित्सा करता है और उस चिकित्सा में वह रोगी मर जाय तो बाहर में दिखती तो हिंसा है किंतु उसका फल वह नहीं पाता ।
हिंसा करे एक, पाप बाँध अनेक व हिंसा करे अनेक, पाप बाँधे एक―इनके दृष्टांत ― कहो हिंसा करने वाला तो है कोई एक और पाप लादने वाले हैं अनेक । कहिये हिंसा करने वाले तो हैं अनेक पर उसका पाप लादने वाला है एक । एक ने हिंसा की और अनेकों लोगों ने उसकी अनुमोदना की, बड़ा अच्छा मारा । तो हिंसा की एक ने पाप बाँधा अनेक ने । संग्राम में सेना के लोग लड़ते हैं, घात करने वाले हैं हजारों आदमी, पाप लादने वाला है एक राजा । जिस दृष्टि के पाप की बात है वह दृष्टि लगाना चाहिए । यों तो पाप सभी को लग रहा है पर जिस पाप की बात कह रहे हैं वह पाप लादता एक राजा । हिंसा की अनेक ने । तो हिंसा पाप ये सब भावों से होते हैं । तो जिसने जीवघात किया उसके भी अशुभ संकल्प हुआ । पापबंध उसके भी हुआ, और जिसने हिंसा की, अनुमोदना की, अशुभ संकल्प उसके भी हुआ। तो दोनों समान हैं, जिसका चित्त अहिंसक है वह पुरुष ध्यान का पात्र नहीं होता, न संसार के संकटों से छूटता है, इसलिए सदैव अपने चित्त में दया बसायें और जब तक अपना वश हो दूसरे जीवों का दु:ख दूर करें ।