ज्ञानार्णव - श्लोक 613: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
न हि क्षणमपि स्वस्थं चेत: स्वप्नेऽपि जायते।
मनोभवशरव्रातैर्भिद्यमानं शरीरिणाम्।
कामवशंगत प्राणी की लक्ष्यभ्रष्टता- यह कामरूपी बैरी लोगों को दिशाभ्रम करा देता है। आगे चलना तो दूर रहो, दिशा तक का भी पता नहीं रहता है, चित्त को विभ्रमरूप कर देता है। जब यह जीव कामवश होकर लक्ष्य से भ्रष्ट हो गया तो वह अपने अभीष्ट कार्य को कैसे सिद्ध कर सकता है।येकामी मनुष्य समस्त हितरूप कार्य को भूलकर एक मात्र अहितकारी कामसाधन काही चिंतन किया करता है, यह मनुष्य पर बहुत बड़ी विपदा है।जो पुरुष, जो गृहस्थ गृहस्थ के योग्यव्रतों का पालन करके अपने जीवन को व्यतीत करता है वह पवित्र है, कल्याण का पात्र है, शांति निराकुलता उसके निकट है। अयोग्य कार्य करने वाले को शांति कहाँ से मिलेगी? शांति का पात्र तो सदाचारी मनुष्य ही होता है।
ब्रह्मचर्यव्रत से व्रतों की सफलता- मुख्य सदाचार है अहिंसा और ब्रह्मचर्य। यद्यपि अहिंसाव्रत में सभी आ गये फिर भी जो शेष 4 व्रत बताये जाते हैं वे अहिंसा के मुख्य साधन हैं, अहिंसा की पुष्टि के लिये भेद करके चार व्रत और बताये जाते हैं जिसमें ब्रह्मचर्य का भी खास स्थान है। कल्पना करो कि कोई मनुष्य द्रव्यरूप से अहिंसा भी पालता हो, किसी जीव को मारता नहीं, सत्य भी बोलता है, झूठ का त्याग करता है, चोरी भी नहीं करता, परिग्रह के संचय की भी कोई कामना नहीं है, इतने सब गुण होकर भी एक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न करता हो, परद्रव्य, परजीव में स्नेह रख रहा हो, कामवासना का निरंतर उद्यम रहा करता हो तो उस मनुष्य का कोई धर्मकर्म रहा क्या? अब अंतरंग में चित्त ही कलुषित हो गया तो फिर धर्मपालन किसका नाम है? तो यह कामरूपी बैरी इस जीव को उन्मत्त बना देता है, भयभीत बना देता है।