ज्ञानार्णव - श्लोक 615: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भोगिदष्टस्य जायंते वेगा: सप्तैव देहिन:।
स्मरभोगींद्रदष्टानां दश स्युस्ते भयानका:।।
कामज्वालादग्ध प्राणी की अज्ञानता- कामरूपी अग्नि की ज्वाला से भस्म हुआ यह प्राणी जानता हुआ भी नहीं जानता, देखता हुआ भी नहीं देखता है अर्थात् वह ऐसा अचेत है, सत्य पदार्थ के निर्णय और अंतस्तत्त्व के परिचय से इतना दूर है कि वह जान रहा है तो भी कुछ नहीं जान रहा। अटपट जानने का नाम ज्ञान नहीं है। जो ज्ञान हित में लगाये और अहित से दूर करे ऐसे ज्ञान का ही नाम वास्तव में जानना है। आत्मा का हित है निराकुलता और निराकुलता बसी है स्वयं आत्मा के स्वरूप में। निराकुलस्वरूप स्वयं सहज आनंद का धाम निज आत्मतत्त्व की भी सुध न हो फिर जो कुछ भी जानता है वह सब जानना उसका जानना नहीं है, वह कुबुद्धि का प्रसाद है। कामी पुरुष निहारेगा तो दुराशय से, कुछ जानेगा तो दुराशय से। उसका जानना देखना वास्तविक जानना देखना नहीं है। वह तो बेखबर है। उसे अपनी आपकी भी कुछ सुध नहीं है।
भेदविज्ञान के बिना आत्ममांगल्य की असिद्धि- भेदविज्ञान की बड़ी महिमा है। भेदविज्ञान बिना यह जीव जिस चाहे चेतन अचेतन परिग्रह से लगाव लगाकर अपने को विह्वल बनाये रहता है। शरण केवल आत्मदृष्टि है, ऐसा जानकर उस आत्मदृष्टिरूपी महान यज्ञ के लिए इन इंद्रिय विषयों की बलि करें, इनकी होली करें और जो आत्मतत्त्व का ज्ञान है, सत्य वैराग्य है, इन दो भावों से अपनी प्रीति बढायें। यदि ऐसा किया जा सका तो हम कल्याणपथ के पथिक हैं अन्यथा जैसे संसार में अनादि से रुलते आये वैसे ही रुलते रहना होगा। जानें देखें अपने आपको। अन्य सारी कुबुद्धिवश परविषयक व्यवस्था का लक्ष्य न बनायें। यदि अपन आत्मव्यवस्था कुछ भी न कर सके तो समझिये मैंने अपना कुछ भी व्यर्थ में जन्म नहीं किया व्यमलिया और मनुष्यभव का अपना अमूल्य लाभ खोया। कर्तव्य है स्वाध्याय और सत्संगति बढ़ावें। परपदार्थों में मोह ममता न जगे, ऐसा अपने अंदर में विवेक जगायें।