ज्ञानार्णव - श्लोक 776: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
साक्षाद्वृद्धानुसेवेयं मातेव हितकारिणी।
विनेत्री वागिवाप्तानां दीपिकेवार्थदर्शिनी।।
माता की भांति हितकारिणी वृद्धानुसेवा- कुछ श्लोकों में वृद्ध मनुष्यों का लक्षण बताया है। उन वृद्ध मनुष्यों की सेवा करना माता के समान हितकारिणी है। जैसे माँ बच्चे का हित ही सोचती है। उस बच्चे के प्रति माँ का कितना गहरा प्रेम होता है? वह माँ अपने बालक को देखते ही सारे दु:ख भूल जाती हैं। माँ जैसे बच्चे का हित करती है इसी प्रकार यह वृद्धसेवा भी साक्षात् हित को करने वाली है। माता शब्द है उसमें प्र उपसर्ग लगाने से प्रमाता शब्द बन गया। प्रमाता का अर्थ है प्रमाण करने वाला, यथार्थ जानने वाला और वही माता का अर्थ है। माता का दूसरा अर्थ है मापने वाला। जैसे बच्चे के सब भावों को माँ माप लेती है, उसके जरा-जरा से इशारे को देखकर माँ उसके मन की बात को समझ जाती है और उसही अनुरूप माँ बच्चे को जवाब भी देती रहती है। तो इस प्रकार जो वृद्ध मनुष्यों की सत्संगति है उसमें इतना अनुभव बढ़ जाता है कि वह सब स्थितियों को भाँप लेता है और उन सब परिस्थितियों में जो अनुकूल आचरण होना चाहिए उन आचरणों को करके अपना हित साध लेता है। तो यह वृद्धों की सेवा साक्षात् माता के समान हित करने वाली है।
जिनवाणी की भांति विनेत्री दीपकवत् अर्थदर्शिनी वृद्धानुसेवा- जैसे जिनवाणी विनेत्री है, नायक है, सायक है, साक्षात् शिक्षा में ले जाने वाली है इसी प्रकार यह वृद्धसेवा भी साक्षात् शिक्षा देने वाली है। गुणी जनों का सत्संग, ज्ञानी संयमी पुरुषों का सत्संग एकदम महान उल्लास को पैदा कर देता है और विकार भावों को एकदम हटा देता है। बड़े-बड़े स्वाध्यायों से भी जो विकार न हट सके गुणीजनों के अपूर्व सत्संग से, अपूर्व मिलन से वे विकार अनायास शीघ्र दूर हो जाते हैं। रामचंद्र के पूर्वजों में एक वज्रभानु हुए जिनके साले का नाम था उदयसुंदर। वज्रभानु बड़ा मोही पुरुष था। प्रथम ही बार विवाह होने के पश्चात् जब साला बहिन के लिवाने आया तो बज्रभानु अपनी स्त्री के साथ चल पड़ा, लेकिन जंगल में जब जाता है तो एक मुनि महाराज के दर्शन हुए। उनके दर्शनमात्र से बज्रभानु का ज्ञाननेत्र खुल गया और सारा मोह एकदम दूर हो गया। जो अनेक बार उपदेश भी दिये जाते हैं और बहुत बार स्वाध्याय भी करते हैं तो भी जो बात नहीं बन सकती वह बात दर्शनमात्र से बन गई। तो वृद्धसेवा साक्षात् शिक्षा देने वाली है, और यह वृद्धसेवा दीपक के समान पदार्थों को दिखाने वाली है। दीपक बिना रागद्वेष के जो जैसा है तैसा दिखा देता है, चाहे चोर हो, चाहे साहूकार, चाहे घर वाला हो, चाहे गैर, सबके लिए एक ही तरह से यह दीपक पदार्थों को दिखाता है, उसमें रागद्वेष की उत्पत्ति नहीं होती, ऐसे ही वह ज्ञान ही प्रशंसनीय ज्ञान है जहाँ रागद्वेष की उत्पत्ति नहीं होती। सबका सही रूप में ज्ञान कर लेता है। ऐसी गंभीरता ऐसी निष्पक्षतापूर्वक ज्ञान की प्रवृत्ति होने की बात वृद्धसेवा में अनायास प्राप्त होती है। गुणी पुरुषों के सत्संग में रहकर जो आत्मकल्याण की दिशा मिलती है, भावना बनती है, उस आत्मकल्याण की भावना वाले पुरुष के अब बाह्यपदार्थों में राग और द्वेष नहीं रहता है। तो वृद्धसेवा माता की तरह हितकारिणी है और जिनवाणी की तरह शिक्षा देने वाली है। हित के मार्ग में ले जाने वाली है और दीपक के समान पदार्थों को दिखाने वाली है। ऐसे वृद्ध पुरुषों की सेवा में यह ब्रह्मचर्यव्रत उसके निर्दोष पलता है। किसी कार्य में लगे रहे तो विकारभाव हामी नहीं बनते हैं और यदि कोई सत्संग, जैसे वृद्धों की सेवा जैसे पवित्र कार्य में लगे रहें तो उनके विकार भाव नहीं जगते और ब्रह्मचर्य की उनके अपूर्वसाधना होती है।