वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 775
From जैनकोष
हीनाचरणसंभ्रांतो वृद्धोऽपि तरुणायते।
तरुणोऽपि सतां धत्ते श्रियं सत्संगवासित:।।
सत्संग से उत्तमश्री का लाभ- जो पुरुष वृद्ध होकर भी हीन आचरण रखने से व्याकुल होता हुआ भ्रमण करें, वह वृद्ध होने पर भी तरुण है। यहाँ तरुण शब्द से अर्थ लिया गया है विषयों में व्यग्र रहने, व्याकुल रहने से। जो हीन आचरण का हो, पतित हो उसका नाम है तरुणाई, और ज्ञानध्यान संयमव्रत में चढ़े हुए का नाम है वृद्धता। जो पुरुष वृद्ध होकर भी हीन आचरण से व्याकुल होकर भ्रमण करता फिरता है वह वृद्ध होने पर भी तरुण है। और जो सत्संगति से रहता है वह तरुणाई पर भी सत्पुरुषों जैसी प्रतिष्ठा पाता है अर्थात् वह वास्तव में वृद्ध है, बुजुर्ग है। यह सब बात अपने अंदर की है। यह आत्मा तो केवल एक उपयोग मात्र है, उपयोग लक्षण ही कहा गया है इस जीव का। जब यह उपयोग अपने ज्ञानस्वरूप में लगाता है और ज्ञानस्वरूप को ही अपनाता है, यही मात्र मैं हूँ उसको अन्य सब परभावों से विरक्ति मिलती है। त्याग नाम ज्ञान का है। किसी भी वस्तु को पर जानकर पर से जब उपेक्षा करके अपने स्वरूपमात्र का ज्ञान करे तो ऐसे ज्ञान का ही नाम वास्तव में त्याग है। किसी भी वस्तु का त्याग किया जाता तो उसके त्याग का प्रयोजन त्यागना मात्र नहीं है, किंतु अपने आपके स्वरूप में जुड़ने का प्रयोजन है। अज्ञानी जन तो परंपरा से सुनते आये कि चीजों का त्याग करना चाहिए त्यागी बनना चाहिए, ऐसा ही जानकर परवस्तुवों का त्याग करके संतुष्ट हो जाते हैं, किंतु परवस्तुवों का त्याग करना जिस प्रयोजन के लिए है वह प्रयोजन यदि न बना तो उस त्याग से मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं हो सकती है। समस्त त्याग का प्रयोजन है आत्मा की ओर लगना। चाहे कोई किसी वस्तुवों में आत्मा की ओर नहीं लग नहीं पाता, पर आत्मा की ओर लगने की पात्रता तो बनती है। हिंसा के त्याग से, अभक्ष्यपदार्थों के त्याग से, नाना पापों के त्याग से आत्मा में लगने की पात्रता बनती है और जब इस पात्रता के बाद अपने अंतरंग के विकार भावों का भी त्याग करते हैं अर्थात् उनसे मुख मोड़ते हैं तो आत्मा की ओर झुकाव होता है। त्याग की दो श्रेणियाँ है- एक बाह्यपदार्थों का त्याग और एक अपने अंदर में उठने वाले औपाधिक भावों का त्याग। बाह्यपदार्थों के त्याग ये आत्मा की ओर लगने की पात्रता बनती है और अंदर में उठे हुए परभावों के त्याग से आत्मा की लगन बनती है। तो वहाँ भी बाह्य त्याग में भी आत्मा की ओर झुकने का प्रयोजन है।
त्याग का प्रयोजन पाये बिना मात्र परक्षेत्र से बाह्य का त्याग होने में त्याग की वास्तविकता का अभाव- देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, तप, आदिक के करने का प्रयोजन अपने आपकी ओर झुकना है। कोई प्रभु स्मरण तो खूब करे और अपने आत्मस्वरूप की ओर कुछ भी झुकाव नहीं है तो उससे अपने को लाभ क्या मिला? इसी तरह बाह्यवस्तुवों का जो त्याग किया जाता है उसका भी प्रयोजन है अपने आत्मस्वरूप की ओर झुकना। उसका लक्ष्य ही न हो और कोई अपने को परवस्तुवों का त्यागी मानें, मोक्ष का अधिकारी माने तो वह उसकी कल्पना मात्र है। उसका परवस्तु का त्याग तो परवस्तु में लगना हुआ। परवस्तु के त्याग में किसी परवस्तु की दृष्टि हुई तो यह तो परवस्तु में लगना कहलाया। तो त्याग करके भी अज्ञानी जीव परवस्तु का ग्रहण कर रहा है। यह उसका कहना मात्र है कि मेरा अमुक चीज का त्याग है। वह बाहरी क्षेत्र में परवस्तु का त्याग करके अंदर में परवस्तु का ही ग्रहण कर रहा है। उसके उपयोग में उसका त्याग समाया हुआ है। मैंने बाह्य चीज का त्याग कर दिया, मैं त्यागी हूँ इस आशय में उसने बाह्य वस्तु को पकड़ रक्खा है। उस परवस्तु के त्याग से जो आत्मलाभ होना चाहिए था, वह नहीं हो सका। और, ऐसी भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ होती हैं। जैसे भोजन के योग्य जो पदार्थ हैं उनमें कुछ भी पहिले से निर्णय नहीं बनता कि यह चीज खायेंगे, यह न खायेंगे। कुछ भी निर्णय न बनकर सहज वैराग्य होने पर जो मिले, बिना आसक्ति के उसी का उपभोग कर ले, अपनी क्षुधा मिटा ले एक तो यह भाव और अमुक का त्याग, अमुक का त्याग ऐसा त्याग, रखकर भोजन के समय में कल्पनाएँ जगाना, इसका तो त्याग है, यह ठीक है, यह ठीक है, एक यह भाव। तो कभी परपदार्थों के त्याग का निर्णय न रखकर समय पर जो मिले अनासक्तिपूर्वक उपभोग करके समय निकले उसमें सहज वैराग्य की गंध रह सकती है और वस्तुवों का त्याग करके फिर विकल्प बनाये तो उस विकल्प से तो यह साबित है कि त्याग भी कुछ नहीं रहा और एक विह्वलता और बना ली। तो प्रयोजन यह है कि त्याग करने का उद्देश्य आत्मा के निकट आने का है। बाह्यपदार्थों का निर्णयरूप से त्याग करना असली मायने में अगर कोई त्याग करे तो वह आसान नहीं है। जिसका त्याग करे उसका विकल्प न आ जाय और उसके कारण नाना विकल्प न आ जायें और उसके कारण नाना विकल्प न उठें, इस प्रकार की तैयारी से परवस्तुवों का त्याग होना वह त्याग है और यही वास्तव में संयम है। यों भले ही कोई वृद्ध हो जाय, शरीर शिथिल हो जाय, इंद्रियाँ भोग नहीं सकती, किंतु मन में कल्पनाएँ बनायें और वे ही कल्पनाएँ बनायें और वे ही कल्पनाएँ अहित, माया, दु:ख के लिए। उन कल्पनाओं से व्याकुल हो तो वह वृद्ध होकर भी तरुण समझना चाहिए। जैसे लोकव्यवहार में कोई बूढ़ा पुरुष यदि कुछ रागभरा मजाक करता है तो लोग उसे कहते हैं कि देखो इस बूढ़े को, यह बूढ़ा जवान बन रहा है, यों कहकर लोग उसकी मुखोल करते हैं। तो इसी प्रकार अध्यात्म में उसकी यह मुखोल ही है कि दृढ़ होने पर फिर विषयों की अभिलाषा बढ़ाये, हीन आचरण रखे, कोई कामविषयक कल्पनाएँ उठाये तो वह वृद्ध होकर भी तरुण है और जो सत्संगति में रहे वह तरुण है फिर भी वृद्ध कहलाता है, सत्पुरुष जैसी प्रतिष्ठा वह प्राप्त करता है।