ज्ञानार्णव - श्लोक 912: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अपास्य कल्पनाजालं चिदानंदमये स्वयम्।
य: स्वरूपे लयं प्राप्त: स स्याद्रत्नत्रयास्पदम्।।
रत्नत्रयास्पद आत्मा- जो मुनि कल्पनाजाल को दूर करके चिदानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में लय को प्राप्त हो जाता है वही निश्चय रत्नत्रय का स्थान है। धर्म और धर्मी कहीं अलग नहीं पाये जाते। जैसे कोई पूछे कि जैनधर्म क्या है और जैनधर्म के मानने वाले यदि शांत हैं, न्याय प्रिय हैं, हितकारी वचन बोलने वाले हैं तो उनको ही दिखा दीजिए, लो यह है जैनधर्म, और लोग भी धर्मात्मावों के व्यवहार से धर्म की परख करते हैं और फिर निश्चय मार्ग में तो धर्म धर्मी जुदे तत्त्व कहीं नहीं हैं। एक ज्ञानस्वरूप की दृष्टि होना यह तो है धर्म और ज्ञानस्वरूप का जो द्रष्टा है वह है धर्मी। यह धर्मभाव उस धर्मात्मा पुरुष से कहीं जुदा नहीं है। वही निश्चयरत्नत्रय का स्थान है जो कल्पनाजाल को दूर करके अपने चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व में लय को प्राप्त होता है। कल्पनाजाल का अर्थ है मोह रागद्वेष भाव से प्रेरित होकर जो ज्ञान की वृत्तियाँ चलती हैं वे सब कल्पनाएँ हैं। ज्ञान तो अपना काम करता ही रहता है, उसके साथ रागद्वेष का पुट हो तो वे ज्ञानवृत्तियाँ कल्पनावों का रूप रख लेती हैं और वहाँ भी विश्लेषण करके देखो तो ज्ञान का जानन कार्य है, वह ज्ञानरूप ही है और वहाँ जो कुछ भी बिगाड़ आया है वह सब रागद्वेष की चीज है। कल्पनाजाल छूटे अर्थात् रागद्वेष की वासना छूटे तो इसके फलस्वरूप अपने उस शुद्ध ज्ञानमात्र चित्स्वभाव चित्प्रकाशमात्र अंतस्तत्त्व में मग्नता बने तो वही पुरुषार्थी पुरुष निश्चय रत्नत्रय का पात्र होता है। जिसके ऐसे निश्चयरत्नत्रय का लाभ होता है उसके आत्मा का परमध्यान बनता है और आत्मा के उत्कृष्ट ध्यान के प्रसाद से संसार के समस्त संकट दूर हो जाते हैं।