वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 913
From जैनकोष
सुप्तेष्वक्षेषु जागर्ति पश्यत्यात्मानमात्मनि।
वीतविश्वविकल्पोऽसौ स: स्वदर्शी बुधैर्मत:।।
आत्मदर्शी आत्मा- जो मुनि इंद्रिय के सोते हुए में तो जागता है और आत्मा में ही आत्मा को देखता है और समस्त विकल्पों से रहित है उसको ही विद्वान पुरुषों ने आत्मदर्शी माना है।। इंद्रियां सो रही हैं और आत्मा जाग रहा है अर्थात् जहाँ इंद्रियां अपने विषय में प्रवृत्त नहीं होती, जो कि इंद्रिय के विषय कहे जाते हैं, स्पर्शन का विषय स्पर्श, रसना का विषय अनेक प्रकार के रसों का स्वाद लेना, गंध का विषय सुगंध लेना और नेत्र का विषय मन को हरण करने वाले सुंदर रूपों को निरखना और कर्ण का विषय जो राग को, विषय को पोषण करें ऐसे वचनों को सुनना। इन पंचेंद्रिय के विषयों में जो सोता है अर्थात् विषय जिनके जागृत नहीं हैं, ऐसा आत्मा जाग रहा है, ज्ञानतत्त्व जागृत है वह मुनि आत्मदर्शी कहा जाता है। आत्मा तो एक उपयोगमात्र है, वह उपयोग करता रहता है। अब वह उपयोग यदि इंद्रिय के विषयों में बनता है तो बस आत्मा जन्ममरण में गया, मोक्षमार्ग से विलग हुआ और उसे शुद्ध निराकुलता भी उत्पन्न नहीं होती। उसे आनंद का अनुभव भी नहीं होता। विषयों की प्रीति से किसी ने आनंद पाया भी है आज तक? जिस विषय में प्रीति हुई प्रथम तो उसकी अधीनता आ जाती है, जिनसे मोह जगा उन जीवों में आकर्षण बना तो वह पराधीन बन गया। अब अपने आपको वह विषयाभिलाषी पुरुष अनेक विपत्तियों में डाल लेगा। जिस किसी पर भी विषय प्रेम हुआ हो उसके अधीन बन जाता है। प्रथम आपत्ति तो यह है और जहाँ पर की अधीनता बनी वहाँ इसका सारा आनंद समाप्त हो गया। रातदिन शल्य बनी रहेगी, चित्त में प्रसन्नता न रहेगी, अच्छा सत्संग भी न रुचेगा। सारे अनर्थ विषयाभिलाषी पुरुष के लग जाते हैं। जिसने इन इंद्रियों को सुला दिया वह कभी विषयों में प्रवृत्त नहीं होता और उसका ज्ञान जागृत रहता है।
आत्मदर्शी की अभयता- जो अपने सही स्वरूप के निकट बना रहे ‘‘मैं यह हूँ’’ यों प्रतीति रखे वह पुरुष आत्मदर्शी है। आत्मदर्शी अपने को अभय अनुभव करता है। उसे अब कोई पीड़ा कर सकने वाला नहीं है, ऐसे ही यह आत्मज्ञानी पुरुष ज्ञानानंदस्वरूप निज सहज आत्मतत्त्व की ‘गोद में बैठ’ जाता है, उसके निकट रहता है, अपने को एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है इसके फल में वह अभय हो जाता है। उसे अब जगत में कोर्इ शंका नहीं रही। शंका काहे की? शंका दो बातों में होती है- एक तो धन वैभव की आशा रखी हो तो उसके लाभ में कमी न हो जाय अथवा लाभ न रुक जाय ऐसी शल्य में शंका रहती है और दूसरे- जीवन की यदि आशा हो तो कहीं मैं मर न जाऊँ ऐसे भय के कारण शंका रहती है, किंतु ज्ञानी पुरुष जिसको कि सही मायने में अपने ज्ञानस्वरूप में रुचि जगी है और इस ही आत्मतत्त्व के निकट बने रहने की जिसकी धुन बनी है जिसके प्रसाद से यह सारा दृश्यमान जगजाल मायारूप दिखता है, कहीं अन्यत्र चित्त नहीं जाता, धन वैभव की प्राप्ति से वह अपने को लाभ नहीं समझता और मरण हो जाय तो इसमें भी अपना विनाश नहीं समझता वह पुरुष आत्मदर्शी है। लोक में भी बहुत से गृहस्थजन ऐसे मिलते हैं जिनको लालच कम होता है, संतुष्ट रहते हैं। एक गरीबी के कारण कोई चारा नहीं होता, संतुष्ट रहते ऐसी बात नहीं कह रहे किंतु ऐसे पाये जाते हैं कि जिनकी यह चाह है कि मुझे वैभव बढ़ाने से क्या लाभ है? वैभव बढ़ाने की चित्त में चाह नहीं रहती है। चूंकि गृहस्थी है इसलिए साधारण गुजारा चलाने का साधन बनाये रहते हैं और सत्संग की ओर, ज्ञानार्जन की ओर उनकी प्रगति चलती है ऐसे लोग अब भी पाये जाते हैं। तो ऐसा यहाँ भी भेद नजर आ रहा है। कोर्इ लोग विषयों में कम रुचि रखते हैं, विषय साधन एक विपदा सा उन्हें जँचते हैं ऐसे गृहस्थजन भी आजकल मिलते हैं, फिर जिनमें एक उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान जग गया ऐसे साधु संतों को तो वह आत्मा अति निकट है, उनके इंद्रिय विषय सोये हुए हैं और ज्ञानोपयोग जाग रहा है जिसके कारण अपने आत्मा में ही अपने आत्मा को देखते हैं और निर्विकल्प स्थिति का अनुभवन किया करते हैं ऐसे पुरुष आत्मदर्शी हैं।