ज्ञानार्णव - श्लोक 933: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
यद्यद्य कुरुते कोऽपि मां स्वस्थं कर्मपीडितम्।
चिकित्सित्वा स्फुटं दोषं स एवाकृत्रिम: सुहृत्।।933।।
विराधक पुरुष के प्रति मैत्रीभावना― वे मुनिजन विचारते हैं कि मैं कर्मों से पीड़ित हूँ, कर्मों के उदय से मुझमें कोई दोष उत्पन्न होता है उसको अभी कोई प्रकट करे और मुझे आत्मा के अनुभव में लगा दे, स्वस्थ करे वह तो मेरा हितैषी मित्र है। जो पुरुष दोष कहता हो, गाली गलौज करता हो तो ऐसे पुरुष ने मेरा भला किया। किस प्रकार भला हुआ? प्रथम तो यह भला समझ लीजिए कि जो मेरे कर्म बंधे थे उन कर्मों को उसने नोकर्मों के माध्यम से मेरे दोष निकाल दिये। दोषवादी के निमित्त से मेरे कर्म निकल जायें तो यह तो मेरे भले की बात है। और फिर वर्तमान में किसी दोष में न लग जावो इस बात के लिए वह मुझे सावधान बना रहा है। तो वह मेरा परम मित्र है जो मेरे दोष प्रकट करके मुझे सद्मार्ग में लगाये। जिन साधुवों का बहुत बड़ा संघ होता है उनमें जो साधुजन रहते हैं वे अपने दोष को आचार्यों के समक्ष रखकर पूर्ण निवेदन कर लेते हैं। कोई मुनि यह सोचे कि यह तो अपने हाथ की बात है- न निवेदन करे, दोष छिपा ले तो उसमें उसका मोक्षमार्ग रुक जाता है। कर्मबंध विशेष होता है। उन्हें चूँकि मुक्ति की वांछा है, मुक्ति के लिए उनका उद्यम है, इस कारण वे पूर्ण तोर से अपने दोषों की आलोचना आचार्य के समक्ष करते हैं, कुछ भी दोष आलोचना करने से बाकी न रह जायें ऐसी उनकी भावना रहती है। तो दोषों को जो अहितकारी समझते हैं वे ज्ञानी पुरुष दूसरे के द्वारा दोष कहे जाने पर क्रोध नहीं करते। वह मेरे दोष कह रहा है तो मेरे भले की ही बात कर रहा है ऐसी भावना उन संतजनों की होती है। इसी कारण दोषवादी के प्रति उनके क्रोध नहीं उत्पन्न होता। यह बहुत बड़ी धीरता और गंभीरता की बात है कि उनके क्रोध नहीं उत्पन्न होता। जिसका कोई बड़ा प्रोग्राम मन में हो, जो बहुत महत्त्वशाली हो तो उसके लगाव के कारण ये छोटी-छोटी बातें सब उपेक्षित हो जाती है तब उसके क्रोध नहीं जगता। साधु संतजनों के मुक्ति का बड़ा प्रोग्राम लगा है, इस कारण उनके क्रोध उत्पन्न नहीं होता। क्षमाभाव रखकर वे अपने संयम की रक्षा करते हैं, अपना यह लोक सुधारते हैं और परलोक भी सुधारते हैं। ये संतजन क्रोधकषाय को त्यागते हैं। क्रोध को त्यागने से ही आत्मा के गुणों का विकास होता है।