वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 934
From जैनकोष
हत्वा स्वपुण्यसंतानं मद्दोषं यो निकृंतति।
तस्मै यदिह रुष्यामि मदन्य: कोऽधमस्तदा।।934।।
निंदक के प्रति उपकारिता की भावना― ज्ञानी पुरुष अपने आपमें क्रोध भाव न आने देने के लिए कैसा विचार करते हैं उसका इस छंद में वर्णन है। ज्ञानी पुरुष ऐसी भावना करते हैं कि यदि कोई पुरुष मेरे दोषों को कहता है तो वह अपने पुण्य का क्षय करके ही तो मेरे दोषों को कहता है। जो पुरुष किसी दूसरे की निंदा करता है वह अपने पुण्य को समाप्त कर देता है ना, क्योंकि निंदा करने के परिणाम से पुण्य समाप्त हो जाता है। तो यह कोई दूसरा पुरुष जो मेरे दोषों को काढ़ रहा है वह अपने पुण्य का विनाश करके मेरे दोषों को निकाल रहा है। उस पर यदि मैं रोष करुँ तो जगत में मेरे समान नीच और कौन है। दोष कहने वाला मेरी भलाई कर रहा है और इतनी अधिक भलाई कर रहा है कि वह अपना बिगाड़ करके भलाई कर रहा है क्योंकि जो दोष कहता है वह अपने पुण्य को नष्ट कर देता है। क्रोध पर विजय करने के लिए ज्ञानी पुरुष कैसी भावना करता है उसका यह वर्णन है। ज्ञानी सोचता हे कि कोई पुरुष अपना धन खर्च करके दूसरे का उपकार करता है और दोष कहने वाला पुरुष तो अपने पुण्यरूप परिणाम को बिगाड़कर और अपने पहिले बंधे हुए पुण्य का विनाश करके मेरे दोष निकाल रहा है तो वह मेरा कितना बड़ा उपकार कर रहा है। जैसे कोई पुरुष अपना धन खर्च करके उपकार करें तो हमें तो उसका एहसान मानना चाहिए। उससे भी बढ़कर यह दोष कहने वाला उपकारी है जो अपना सर्वस्व बिगाड़ करके मुझे सावधान बना रहा है अथवा मेरे दोष निकाल रहा है। ऐसे पुरुष को यदि मैं क्रोध करूँ तो मुझसे अधम और कौन होगा। वह तो मेरा उपकारी है। उससे विरोध रखने का नाम कृतघ्नता होगा। जो किए हुए उपकार को भूल जाय उस पुरुष को कृतघ्न कहते हैं। यों दोषवादी पुरुष को अपना उपकारी मान रहा है जिससे अब उसे क्रोध नहीं आता। क्रोध तब आता जब अपने चित्त में यह बात आये कि यह मेरा अपकारी है। जब दोष कहने वाले को अपना उपकारी मान लेगा तो उस पर क्रोध न आयगा।