रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 129: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदानामान: ।
सल्लेखनातिचारा: पंच जिनेंद्रै: समुद्दिष्टा: ।।129।।
(1) सल्लेखनाधारी द्वारा सल्लेखना जीविताशंसानामक प्रथम अतिचार का परिहार―जीने की इच्छा करना, सल्लेखनाधारी ज्ञानी पुरुष क्यों चाहता है कि मैं और जीऊँ ? क्या प्रयोजन है जो लोग चाहते है कि मैं और जिंदा रहूं तो उसका प्रयोजन होता है ममत्व का । मैं घर में और बना रहूंगा तो बाल-बच्चों को और भी देखता रहूंगा, मेरा यहाँ बड़ा यश नाम फैला है । लोगों से बड़े राग के वचन मिला करते हैं, ऐसा मौज और लूंगा, ऐसी ही कुछ भावना होगी जिससे कि वह चाहता है कि मैं और जिंदा रहूं । और जीने की इच्छा की आधार तो अज्ञान है जिससे चाहता है कि मैं और जिंदा रहूं । तो जीने की इच्छा का आधार तो अज्ञान है । जो यह जान रहा कि जीना और मरण क्या है । एक देह में आ गए उसे लोग जीना कहते है । देह को छोड़कर चले गए उसे मरण कहते हैं, यह देह तो पौद्गलिक है । मेरे स्वभाव से, स्वरूप से अत्यंत भिन्न है, इसका मुझे क्या लगाव? यहाँ न रहे और जगह चले गए, जिन जीवों से परिचय है वे भी सब मायामयी हैं, जो दिख रहा है । जो परमार्थ है वह अविकार ज्ञानस्वरूप है । परमार्थ से पहिचान क्या? और पहिचान है तो विलक्षणता नहीं रहती, जहाँ विलक्षणता जंचे उसी को ही तो पहिचान कहते हैं, जब सर्व जीव स्वरूप स्व चैतन्यमात्र ही निगाह में रहे फिर वहाँ परिचय क्या कहलाएगा? सो किसी भी जीव के परिचय का क्या प्रयोजन? सल्लेखना धारी जीने की इच्छा नहीं करता, आचार्य देव ने बताया है आत्मानुशासन में कि जिनको धन की आशा लगी हो या जीने की आशा लगी हो उनके लिए कर्म-कर्म हैं और जिन ज्ञानियों ने जीने की आशा को त्याग दिया है, धन वैभव की आशा को त्याग दिया है उनके लिए अब कर्म क्या करे? कर्म का जोर दो बातों तक है । सो कर्म की इन दोनों मेहरबानियों को जो ठुकरा देता है उसके अब कर्म का क्या लगेगा? जीने की आशा सल्लेखनाधारी सम्यग्दृष्टि के नहीं होती । अगर यह भावना आए तो यह दोष है और यह ही दोष बढ़ बढ़कर सम्यक्त्व का घात कर सकता है । एक यह बात बहुत स्पष्ट है कि मैं स्वतंत्र सत् हूँ, परिपूर्ण हूँ । मेरे स्वरूप में किसी अन्य से कोई बाधा नहीं आती, जहाँ भी हो, मैं अपने परिपूर्ण स्वरूप वैभव को लिए हुए ही जाऊंगा उसको मरण का भय ही नही है । जीने की इच्छा फिर क्यों करेगा?
(2) सल्लेखनाधारी हारा मरणशंसानामक सल्लेखनातिचार का परिहार―सल्लेखना का दूसरा अतिचार है मरने की इच्छा करना । कभी कोई कठिन वेदना आ जाती है तो यह मनुष्य सोचने लगता कि मैं मर जाऊं तो अच्छा है । ऐसा सोचने वाला कोई बिरला ही होगा । अव्वल तो कैसी भी कठिन स्थिति हो तो भी मरने की इच्छा किसी के नहीं बने । एक बुढ़िया जो कि शरीर से बहुत दुर्बल थी, अत्यंत वृद्ध थी । उसको उसके नाती-पोते बड़ा हैरान करते थे तो वह सबसे ऊबकर रोज-रोज भगवान से प्रार्थना किया करती थी कि हे भगवान तू मुझे उठा ले याने मैं मर जाऊं । एक बार उस बुढ़िया के पास कोई सर्प निकल आया तो वह चिल्लाने लगी, अरे नाती-पोते दौड़ो, देखो सांप निकल आया । तो वहाँ कोई नाती बोला―अरे बुढ़िया दादी तू मत घबड़ा, तू जो तेज-रोज भगवान से प्रार्थना किया करती थी कि हे भगवन मुझे उठा ले, तो भगवान ने तुझे उठाने के लिए यह सांप भेजा है, तू मत घबड़ा । आज तेरी वह मंसा पूर्ण हो जाएगी । तो फिर वह बुढ़िया बोली अरे-अरे बचाओ-बचावो सांप निकल आया हैं । तो बाहरी परिस्थिति कैसी भी हो, पर यह जीव मरना नहीं चाहता । संभव है कि कोई ऐसी ही कठिन बात हो कि जिससे बह मरण चाहता है । दूसरे लोग तो कह तक देते है कि इससे तो अच्छा है किं यह चल देता घर के मित्र परिजन बड़े प्रेमी भी कहते है उसके दुःख को देखकर इससे तो अच्छा था कि इसका चोला छूट जाता । वह चाहे मन से कहने लगें, पर मरने वाले का मन नहीं चाहता । और यदि कभी किसी स्थिति में चाहे तो मरने की इच्छा करना सल्लेखना का दोष है ।
(3) सल्लेखनाधारी द्वारा भयनामक सल्लेखनातिचार का त्याग―सल्लेखना का तीसरा अतिचार है भय । अब मरण समय आ रहा, पता नहीं कैसा दुःख होगा, कैसा यह जीव बनेगा, पता नहीं क्या कठिन परिस्थिति आएगी । वह दुःख मैं कैसे सहूंगा ऐसा भय सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होता । एक कुछ प्राकृतिक बात सी है कि जब तक जीवों पर दुःख नहीं आता तब तक यह जीव बहुत डरता है कि पता नहीं अब क्या होगा, पता नहीं कैसा क्या बीतेगी, और जब दुःख आ जाता है तब उतना भय नहीं रहता । भले ही प्रायोगिक वेदना हो जाए मगर भीतर में दिल इतना भय नहीं करता । आता है तो उसे धीरता से सहता है, तो जिस जीव को जो भी दु:ख आता है वह सहता ही तो है । आयगा दु:ख तो वह भी गुजर जाएगा । समय आता है, जाता है, जीव को किसी भी प्रकार का उस मरणकाल में भय नहीं रहता है । उसका एक निर्णय बन गया कि मुझे तो जाना ही है, संसार की रीति ही है । बाह्य पदार्थ तो जब जिंदा थे तब भी मुझ से भिन्न थे, जो मेरा न था वह मेरे से छूट रहा है । जो मेरा है वह मुझ से छूट नहीं सकता । तो ऐसा अपने आपके स्वरूप में लगाव है कि जिसके कारण इस जीव को कुछ आकुलता नहीं चलती ।
(4) सल्लेखनाधारी द्वारा मित्रस्मरणनामक सल्लेखनातिचार का परिहार―सल्लेखना का चौथा अतिचार है मित्रस्मरण । मरते समय कुटुंबीजनों का, मित्रजनों का याद करना । कितनी बेहूदी बात है कि मर रहा है, कुछ ही मिनट में यह शरीर छूट रहा है पर यह याद कर रहा कि अमुक भाई नहीं आए, उनको बुला देना । अमुक मुन्ने को हमारे पास बैठाल देना, और कोई अगर मुन्ने को छाती पर भी धरे तो क्या उसका कल्याण हो जाएगा? अकल्याण ही हो रहा है । ऐसा विवेकी पुरुष मरण के समय किसी की याद नहीं करता जिससे कि राग हुआ हो । द्वेष जिससे किया है उसकी तो याद करने लगेगा कि उसको बुला लो क्षमा मांग ले, मेरे द्वारा उसको कष्ट हुआ है मगर जिनसे राग रहा उनकी याद न करेगा । अगर मित्रजन, बंधुजन का स्मरण करते हैं तो वह सल्लेखना का दोष है । और यही स्मरण का दोष बढ़-बढ़कर इसके सम्यक्त्व को भी बिगाड़ सकता है । क्या प्रयोजन पड़ा है जिनसे राग है उनको बुलाने का । क्या कहना चाहोगे? यह ही कि कुछ प्रेम दिखावोगे, मैं जा रहा हूँ, कुछ दु:ख ही तो बताओगे । इनको छोड़ कर जा रहा हूँ । अरे जो ऐसा रोता हो उसका कल्याण कहां रखा है ?तो विवेकी सल्लेखनाधारी पुरुष मरण समय में अपने मित्रों का स्मरण नहीं करता ।
(5) सल्लेखनाधारी द्वारा निदाननामक सल्लेखनातिचार का परिहार―सल्लेखना का 5वां अतिचार है निदान । मैं अगली पर्याय में सेठ बनूँ, देव बनूँ, इस प्रकार की भावना बनाना निदान है, निदान करने का कुछ फल नहीं है ठीक । हां यह बात होती है कि जिसके पुण्य विशेष है उसको होनी थी बहुत बड़ी बात और मांग लिया छोटी बात तो उस छोटी की भ्रांति हो जाती है, पर जितना पुण्य है गांठ में उसके उतना कोई मांगे तो भी न मिलेगा, उससे अधिक कोई चाहे तो भी न मिलेगा । हां महान फल मिलने का था लौकिक बातों में और उसने अल्प मांग लिया तो अल्प मिल जाना उसके लिए बन जाता है । उस निदान से कोई लाभ नहीं है । जो सम्यग्दृष्टि है उसके ऐसा भाव बनता नहीं है कि मैं मरकर यह बनूँ यह बनूँ उसकी पर्याय में बुद्धि नहीं अटकती । वह अपने स्वरूप में ही रमने का भाव और प्रोग्राम रखता है । तो मर कर मैं धनी बनूँ आदिक वांछा करना चह निदान नाम का अतिचार है । सल्लेखनामरण में इस जीव ने पर और परभावों का त्यागकर केवल अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप का आलंबन लिया है । जो मैं सहज अपने सत्त्व से हूँ सामान्य ज्ञान प्रतिभासमात्र, उस ही में अनुभव करता मैं यह हूँ । यह है महान् पुरुषार्थ । धर्म इसही भावना से है । अन्य जो बातें की जाती हैं सो इसही सिद्धि के लिए की जाती हैं । अगर इस सहज स्वरूप की सिद्धि का लाभ नहीं है तो धर्म के जितने भी कार्य किए जाते हैं पूजा हो, वंदन हो, यात्रा हो, जो कुछ भी हो, वे धर्म का रूप नहीं बन पाते । थोड़ा मंद कषाय हो तो पुण्य बंध जाएगा । सो यों समझिए कि पुण्य तो अन्य कार्यों में भी बंध जाता, किसी भूखे को खिला दिया आदिक कार्यों में पुण्य ही बंधता है कुछ और मंद कषाय हुई तो अन्य धार्मिक कार्यों में भी तनिक पुण्य अधिक बंध गया, मगर धर्म नहीं मिल पाता है । जिसमें आत्मा के स्वरूप का परिचय नहीं है । उस स्वरूप में ही यह मैं हूँ, ऐसी भावना नहीं बनती, न लक्ष्य बनता, उसको धर्म का मार्ग नहीं मिल पाता ।
ज्ञानस्वभाव की आराधना का अंतिम फल निर्वाण―यह सल्लेखनाधारी पुरुष बाह्य समस्त ग्रंथों का त्यागकर याने परिग्रह को त्यागकर एक स्पष्ट ज्ञानमात्र स्वरूप का आलंबन रखता है । समस्त देहादिक का ममत्व छोड़कर संन्यास धारण कर रहा है । उसको जीने की इच्छा, मरने की इच्छा, ऐसा अतिचार कहां संभव है । यह मरण और नए जन्म का अवसर एक बहुत बड़ा परिवर्तन है और इस आधार में यदि चित्त में प्रसन्नता है, आत्मा में समता है, बाहरी पदार्थों में ममता नहीं है तो यह उसके लिए इतना बड़ा उत्सव है कि इससे बढ़कर मेरे लिए कोई उत्सव नहीं हो सकता । तो ऐसे सल्लेखना महोत्सव के समय यह सल्लेखनाधारी पुरुष इन 5 अतिचारी से रहित होकर चार आराधनाओं में लग रहा है । कोई इच्छा नहीं है, यह ही तपश्चरण है । यह ही आत्मस्वरूप का निरखना तपश्चरण कहलाता है, यह ही मेरा रत्नत्रय है । ऐसी आराधना सहित यह जीव शरीर से पयान करता है तो वह महान ऋद्धि वाला देव बनता है । सो वहाँ पर भी चूँकि धर्म के संस्कार में रहकर मरण किया तो देव पर्याय में भी उस धर्म का संस्कार चलता है जिससे उसका उपयोग भोगों में न रमकर जिनेंद्र भक्ति में, कल्याण महोत्सव में, अकृत्रिम चैत्यालयों की यात्रा में, वंदना में अथवा धार्मिक सभावों में तत्वचर्चा में उनका समय व्यतीत होता है । इस समय कोई विशिष्ट धर्मसाधना बनाए तो उसको देवगति में ही जन्म लेना पड़ेगा, वह जन्म भी अच्छा नहीं है यह जान रहा है तो भी और क्या गति हो, पर वहां भी जाकर अप्सराओं में न रमना, विशेष कोई विकल्प न करना, कोई ऋद्धि आदिक की तृष्णा न जगना ऐसा उसका सद्विचार रहा करता है । सो वहाँ सागरों पर्यंत आराम से रहता है । अंत में आयु का क्षय होने पर यह मनुष्यभव प्राप्त करता है । सो जैसे यहाँ देखते हैं किसी बालक को कि वह बड़ा गंभीर है, बचपन में ही उसमें अनेक गुण आए हैं तो यह अनुमान होता है कि यह किसी अच्छे पूर्वभव से आया हुआ जीव है । सो ऐसा वह ज्ञानी मनुष्यभव पाकर वैराग्य से वासित होकर निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा में धर्म साधना करके मोक्ष को प्राप्त करता है । तो आखिरी सर्वोत्कृष्ट उपादेय स्थिति है मोक्ष । तो उस मोक्ष में क्या स्थिति होती है, जीव कैसे रहते हैं उस सबका अब वर्णन करते हैं ।
चौथा अधिकार
नि:श्रेयस-मोक्ष का स्वरूप