सत्त्व: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
(5 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 11: | Line 11: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[#2 | सत्त्व प्ररूपणा संबंधी नियम]]</strong> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.1 | तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व संबंधी।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.2 | अनंतानुबंधी के सत्त्व असत्त्व संबंधी।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.3 | छब्बीस प्रकृति सत्त्व का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.4 | 28 प्रकृति का सत्त्व प्रथमोपशम के प्रथम समय में होता है।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul class="HindiText"> | ||
<li>प्रकृतियों आदि के सत्त्व की अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2]]।</li> | <li>प्रकृतियों आदि के सत्त्व की अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता। - देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2]]।</li> | ||
<li>गतिप्रकृति के सत्त्व से जीव के जन्म का संबंध नहीं, आयु के सत्त्व से है। - देखें [[ आयु#2 | आयु - 2]]।</li> | <li>गतिप्रकृति के सत्त्व से जीव के जन्म का संबंध नहीं, आयु के सत्त्व से है। - देखें [[ आयु#2 | आयु - 2]]।</li> | ||
Line 24: | Line 24: | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.5 | जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.6 | जघन्यस्थिति सत्त्व का स्वामी कौन।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul class="HindiText"> | ||
<li>सातिशय मिथ्यादृष्टि का सत्त्व सर्वत्र अंत:कोटाकोटि से भी हीन है। - प्रकृतिबंध/7/4।</li> | <li>सातिशय मिथ्यादृष्टि का सत्त्व सर्वत्र अंत:कोटाकोटि से भी हीन है। - प्रकृतिबंध/7/4।</li> | ||
<li>अयोगी के शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। - देखें [[ अपकर्षण#4 | अपकर्षण - 4]]।</li> | <li>अयोगी के शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। - देखें [[ अपकर्षण#4 | अपकर्षण - 4]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.7 | प्रदेशों का सत्त्व सर्वदा 1।। गुणहानि प्रमाण होता है।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>प्रकृतियों के सत्त्व में निषेक रचना। - देखें [[ उदय#3 | उदय - 3]]।</li></ul> | <ul class="HindiText"><li>प्रकृतियों के सत्त्व में निषेक रचना। - देखें [[ उदय#3 | उदय - 3]]।</li></ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.8 | सत्त्व के साथ बंध का समानाधिकरण नहीं।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.9 | सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य स्थिति सत्त्व 2 समय कैसे।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.10 | पाँचवें के अभिमुख का स्थिति सत्त्व पहले के अभिमुख से हीन है।]]</li> | ||
<li | <li class="HindiText">[[#2.11 | सत्त्व व्युच्छित्ति व सत्त्व स्थान संबंधी दृष्टिभेद]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong>[[#3 | सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ]]</strong> | ||
<ol> | <ol class="HindiText"> | ||
<li | <li>[[#3.1 | प्रकृति सत्त्व व्युच्छित्ति की ओघ प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.2 | सातिशय मिथ्यादृष्टियों में सर्व प्रकृतियां का सत्त्व चतुष्क।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.3 | प्रकृति सत्त्व असत्त्व की आदेश प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.4 | मोह प्रकृति सत्त्व की विभक्ति अविभक्ति।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.5 | मूलोत्तर प्रकृति सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.6 | मूल प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.7 | मोहप्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.8 | मोह सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.9 | मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा का स्वामित्व विशेष।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.10 | मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.11 | नाम प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.12 | जीव पदों की अपेक्षा नामकर्म सत्त्व स्थान प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.13 | नामकर्म सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.14 | नामकर्म सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.15 | नाम प्रकृति सत्त्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.16 | मोह स्थिति सत्त्व की ओघ प्ररूपणा।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.17 | मोह स्थिति सत्त्व की आदेश प्ररूपणा।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul class="HindiText"> | ||
<li>सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति के सत्त्व काल की प्ररूपणा विशेष। - देखें [[ काल#6 | काल - 6]]।</li> | <li>सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति के सत्त्व काल की प्ररूपणा विशेष। - देखें [[ काल#6 | काल - 6]]।</li> | ||
<li>बंध उदय सत्त्व की त्रिसंयोगी प्ररूपणाएँ। - देखें [[ उदय#8 | उदय - 8]]।</li> | <li>बंध उदय सत्त्व की त्रिसंयोगी प्ररूपणाएँ। - देखें [[ उदय#8 | उदय - 8]]।</li> | ||
<li>मूलोत्तर प्रकृति के चार प्रकार सत्त्व व सत् कर्मिकों संबंधी सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | <li>मूलोत्तर प्रकृति के चार प्रकार सत्त्व व सत् कर्मिकों संबंधी सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="18"> | <ol class="HindiText" start="18"> | ||
<li | <li>[[#3.18 | मूलोत्तर प्रकृति के सत्त्व चतुष्क की प्ररूपणा संबंधी सूची।]]</li> | ||
<li | <li>[[#3.19 | अनुभाग सत्त्व की ओघ आदेश प्ररूपणा संबंधी सूची।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 76: | Line 76: | ||
{{:सत्त्व निर्देश}} | {{:सत्त्व निर्देश}} | ||
{{:सत्त्व प्ररूपणा संबंधी नियम}} | {{:सत्त्व प्ररूपणा संबंधी नियम}} | ||
{{:सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ}} | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 84: | Line 85: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: स]] | [[Category: स]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 14:12, 8 October 2022
सत्त्व का सामान्य अर्थ अस्तित्व है, पर आगम में इस शब्द का प्रयोग संसारी जीवों में यथायोग्य कर्म प्रकृतियों के अस्तित्व के अर्थ में किया जाता है। एक बार बँधने के पश्चात् जब तक उदय में आ-आकर विवक्षित कर्म के निषेक पूर्वरूपेण झड़ नहीं जाते तब तक उस कर्म की सत्ता कही गयी है।
- सत्त्व निर्देश
- बंध उदय व सत्त्व में अंतर। - देखें उदय - 2।
- सत्त्व प्ररूपणा संबंधी नियम
- तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व संबंधी।
- अनंतानुबंधी के सत्त्व असत्त्व संबंधी।
- छब्बीस प्रकृति सत्त्व का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है।
- 28 प्रकृति का सत्त्व प्रथमोपशम के प्रथम समय में होता है।
- प्रकृतियों आदि के सत्त्व की अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2।
- गतिप्रकृति के सत्त्व से जीव के जन्म का संबंध नहीं, आयु के सत्त्व से है। - देखें आयु - 2।
- आयु प्रकृति सत्त्व युक्त जीव की विशेषताएँ। - देखें आयु - 6।
- सातिशय मिथ्यादृष्टि का सत्त्व सर्वत्र अंत:कोटाकोटि से भी हीन है। - प्रकृतिबंध/7/4।
- अयोगी के शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। - देखें अपकर्षण - 4।
- प्रकृतियों के सत्त्व में निषेक रचना। - देखें उदय - 3।
- सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ
- प्रकृति सत्त्व व्युच्छित्ति की ओघ प्ररूपणा।
- सातिशय मिथ्यादृष्टियों में सर्व प्रकृतियां का सत्त्व चतुष्क।
- प्रकृति सत्त्व असत्त्व की आदेश प्ररूपणा।
- मोह प्रकृति सत्त्व की विभक्ति अविभक्ति।
- मूलोत्तर प्रकृति सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा।
- मूल प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- मोहप्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- मोह सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा का स्वामित्व विशेष।
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।
- नाम प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- जीव पदों की अपेक्षा नामकर्म सत्त्व स्थान प्ररूपणा।
- नामकर्म सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।
- नामकर्म सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।
- नाम प्रकृति सत्त्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा।
- मोह स्थिति सत्त्व की ओघ प्ररूपणा।
- मोह स्थिति सत्त्व की आदेश प्ररूपणा।
- सत्त्व निर्देश
- सत्त्व सामान्य का लक्षण
- अस्तित्व के अर्थ में
देखें सत् - 1.1 सत्त्व का अर्थ अस्तित्व है।
देखें द्रव्य - 1.7 सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये सब एकार्थक हैं।
- जीव के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/7/11/349/8
दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदंतीति सत्त्वा जीवा:। =बुरे कर्मों के फल से जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं। सत्त्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है। (राजवार्तिक/7/11/5/538/23) - कर्मों की सत्ता के अर्थ में
पंचसंग्रह / प्राकृत/3/3
धण्णस्स संगहो वा संतं...। =धान्य संग्रह के समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आत्मा में अवस्थित रहने को सत्त्व कहते हैं।
कषायपाहुड़/1/1,13-14/250,291/6
ते चेव विदियसमयप्पहुडि जाव फलदाणहेट्ठिमसमओ त्ति ताब संतववएसं पडिवज्जंति।=जीव से सबद्ध हुए वे ही (मिथ्यात्व के निमित्त से संचित) कर्म स्कंध दूसरे समय से लेकर फल देने से पहले समय तक सत्त्व इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
- अस्तित्व के अर्थ में
- उत्पन्न व स्वस्थान सत्त्व के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकांड/भाषा/351/506/1
पूर्व पर्याय विषै जो बिना उद्वेलना [कर्षण द्वारा अन्य प्रकृतिरूप करके नाश करना] व उद्वेलनातै सत्त्व भया तिस तिस उत्तर पर्याय विषै उपजै, तहाँ उत्तरपर्याय विषैतिस सत्त्वकौ उत्पन्न स्थानविषै सत्त्व कहिए। तिस विवक्षित पर्याय विषै बिना उद्वेलना व उद्वेलना तै जो सत्त्व होय ताकौ स्वस्थान विषै सत्त्व कहिए। - सत्त्व योग्य प्रकृतियों का निर्देश
धवला 12/4,2,14,38/495/12
जासिं पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संतेवि जासिं पयडीणं ट्ठिदिसंतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि: ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुगतित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अत्थि, समाइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्मत्त-सम्ममिच्छत्ताणं व एदाणि तिण्णि वि संतकम्माणि। =जिन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और बंध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का स्थिति सत्त्व से अधिक सदाकाल बंध संभव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्व प्रधानता है। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति सत्त्व से अधिक बंध संभव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जात है, इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान ये तीनों भी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड/38
पंच ण दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी। दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ सत्त पयडीओ।38। =पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच, इस तरह सब (आठों कर्मों की सर्व) 148 सत्तारूप प्रकृतियाँ कही हैं।38।
- सत्त्व सामान्य का लक्षण
- सत्त्व प्ररूपणा संबंधी कुछ नियम
- तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व संबंधी
- मिथ्यादृष्टि को युगपत् संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/485/4 मिथ्यादृष्टौ तीर्थकृत्त्वसत्त्वे आहारकद्वयसत्त्वं न। आहारकद्वयसत्त्वे च तीर्थकृत्त्वसत्त्वं न, उभयसत्त्वे तु मिथ्यात्वाश्रयणं न तेन तद् द्वयम् । तत्र युगपदेकजीवापेक्षया न नानाजीवापेक्षयास्ति...तत्सत्त्वकर्मणा जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् । =मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जिसके तीर्थंकर का सत्त्व हो उसके आहारक द्विक का सत्त्व नहीं होता, जिसके आहारक द्वय का सत्त्व हो उसके तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता, और दोनों का सत्त्व होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता। इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा युगपत् आहारक द्विक व तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता, केवल एक का ही होता है। परंतु एक ही जीव में अनुक्रम से वा नाना जीव की अपेक्षा उन दोनों का सत्त्व पाया जाता है।...इसलिए इन प्रकृतियों का जिनके सत्त्व हो उसके यह गुणस्थान नहीं होता ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/9/823/11 )। - सासादन को सर्वथा संभव नहीं
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/48/5 सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयानेकजीवापेक्षया च क्रमेण युगपद्वा सत्त्वं नेति। =सासादन गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा वा नाना जीव अपेक्षा आहारक द्विक तथा तीर्थंकर का सत्त्व नहीं है। - मिश्र गुणस्थान में सत्त्व व असत्त्व संबंधी दो दृष्टियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/333/485/6 मिश्रे तीर्थंकरत्वसत्त्वं न...तत्सत्त्वकर्मणां जीवानां तद्गुणस्थानं न संभवीति कारणात् । गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/619/प्रक्षेपक/1/223/12 मिश्रे गुणस्थाने तीर्थयुतं चास्ति। तत्र कारणमाह। तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न संभवति। = 1. मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकर का सत्त्व नहीं होता। 2. इसका सत्त्व होने पर इस गुणस्थान में तीर्थंकर सहित सत्त्व स्थान है, परंतु आहारक सहित सत्त्व स्थान नहीं है, क्योंकि इन कर्मों की सत्ता होने पर यह गुणस्थान जीवों के नहीं होता। [यह दूसरी दृष्टि है]।
- मिथ्यादृष्टि को युगपत् संभव नहीं
- अनंतानुबंधी के सत्त्व असत्त्व संबंधी
कषायपाहुड़ 2/2-22/पं. अविहत्ती कस्स। अण्ण-सम्मादिट्ठिस्स विसंजोयिद-अणंताणुबंधिचउक्कस्स (110/94/7)। णिरयगदीए णेरइसु.... अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो।...एवं पदमाए पुढवीए...त्ति वत्तव्वं। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एव चेव णवरि मिच्छत्त-अविहत्ती णत्थि (111/92/3-7) वेदगसम्मादिट्ठिसुअविहत्ति कस्स। अण्णविसंजोइद-अणंताणु.चउवकस्स।...उवसमसम्मादिट्ठीसु...विसंयोजियद अणंताणुबंधि चउक्कस्स। ...सासणसम्मादिट्ठीसु सव्वपयडीणं विहत्ती कस्स। अण्णं। सम्मामिं अणंताणुम् चउक्कम विहत्ती अविहत्ति च कस्स। अण्णं (117/98/1-8) मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तअणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तियो, सिया अविहत्तिओ (142/130/5) णेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी च सामिओ होदि त्ति। (246/219/8) = जिस अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना कर दी है, ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी चतुष्क अविभक्ति है। (110/11/7) नरकगति में...अनंतानुबंधी चतुष्क का कथन ओघ के समान है।...इस प्रकार पहली पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए।...दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों के इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं है। (111/92/3-7) वेदक सम्यग्दृष्टि जीव के ...जिसने अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना की है उसकी अविभक्ति है।...जिसने अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना कर दी है उस उपशम सम्यग्दृष्टि के अविभक्ति है।...सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के सभी प्रकृतियों की विभक्ति है। सम्यग्दृष्टियों में अनंतानुबंधी चतुष्क को विभक्ति और अविभक्ति ...किसी भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के है (117/98/1-8) जो जीव मिथ्यात्व की विभक्ति वाला है वह सम्यक् प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, और अनंतानुबंधी चतुष्क की विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। (142/130/5) नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव इनमें से किसी भी गति का सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है। (246/219/8) - छब्बीस प्रकृति सत्त्व का स्वामी मिथ्यादृष्टि ही होता है
कषायपाहुड़ 2/2-22/ चूर्णसूत्र/247/221 छब्बीसाए विहत्तिओ को होदि। मिच्छाइट्ठी णियमा। = नियम से मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है। - 28 प्रकृति का सत्त्व प्रथमोपशम के प्रथम समय में होता है
देखें उपशम - 2.2 प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जब मिथ्यात्व तीन खंड करता है तब उसके मोह की 26 प्रकृतियों की बजाय 28 प्रकृतियों का सत्त्व स्थान हो जाता है। - जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान
कषायपाहुड़ 3/3, 22/479/267/10 जहण्णटि्ठदि अद्धाछेदो णिसेगपहाणो।...उक्कस्सट्ठिदी पुण कालपहाणो तेण णिसेगेण विणा एगसमए गलिदे वि उक्कस्सत्तं फिट्टदि।=जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद निषेक प्रधान है।...किंतु उत्कृष्ट स्थिति काल प्रधान है, इसलिए निषेक के बिना एक समय के गल जाने पर भी उत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्टत्व नाश हो जाता है।कषायपाहुड़ 3/3,22/513/291/8 जहण्णट्ठिदि-जहण्णट्ठिदि अद्धच्छेदाणं जइवसहुच्चारणाइरिएहि णिसेगपहाणाणं गहणादो। उक्कस्सट्ठिदी उक्कस्सीट्ठिदि अद्धाछेदो च उक्कस्सट्ठिदिसमयपबद्धणिसेगे मोत्तूण णाणासमयपबद्धणिसेगपहाणा।...पुव्विल्लवक्खाणमेदेण सुत्तेण सहकिण्ण विरुज्झदे।... विरुझदे चेव, किंतु उक्कस्सट्ठिदि उक्कस्सट्ठिदि अद्धाछेद जहण्णट्ठिदि-जहण्णट्ठिदि अद्धाछेदाणं भेदपरूवणट्ठं तं वक्खाणं कयं वक्खाणाइरिएहि। चुण्णिसुत्तुच्चारणाइरियाणं पुण एसो णाहिप्पाओ;। =जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद को यतिवृषभ आचार्य और उच्चारणाचार्य के निषेक प्रधान स्वीकार किया है। तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्टस्थिति अद्धाच्छेद उत्कृष्ट स्थितिवाले समय प्रबद्ध के निषेकों की अपेक्षा न होकर नाना समय प्रबद्धों के निषेकों की प्रधानता से होता है। प्रश्न - पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्र के साथ विरोध को क्यों नहीं प्राप्त होता ? उत्तर - विरोध को प्राप्त होता ही है किंतु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अद्धाच्छेद में तथा जघन्य स्थिति और जघन्य अद्धाच्छेद में भेद के कथन करने के लिए व्याख्यानाचार्य ने यह व्याख्यान किया है। चूर्णसूत्रकार और उच्चारणाचार्य का यह अभिप्राय नहीं है।
- जघन्य स्थिति सत्त्व का स्वामी कौन
कषायपाहुड़ 3/3,22/35/22/3 जो एइंदिओ हतसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेट्ठा बंधिय सेकाले समट्ठिदिं बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं ट्ठिदिसंतकम्मं।...मिच्छादि....त्ति।=जो कोई एकेंद्रिय जीव हतसमुत्पतिक को करके जब तक शक्य हो तब तक सत्ता में स्थित मोहनीय की स्थिति से कम स्थिति वाले कर्म का बंध करके तदनंतर काल में सत्ता में स्थित मोहनीय को स्थिति के समान स्थिति वाले कर्म का बंध करेगा उसके मोहनीय का जघन्य स्थिति सत्त्व होता है। इसी प्रकार...मिथ्यादृष्टि जीवों के ...जानना चाहिए। - प्रदेशों का सत्त्व सर्वदा 1 गुणहानि प्रमाण होता है
गोम्मटसार कर्मकांड/5/5 गुणहाणीणदिवड्ढं समयपबद्धं हवे सत्तं।5। गोम्मटसार कर्मकांड/943 सत्तं समयपबद्धं दिवड्ढगुणहाणि ताडियं अणं। तियकोणसरूवट्ठिददव्वे मिलिदे हवे णियमा।943। = कुछ कम डेढ़ गुणहानि आयाम से गुणित समय प्रमाण समय प्रबद्ध सत्ता (वर्तमान) अवस्था में रहा करते हैं।5। सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ गुणहानिकर गुणा हुआ समय प्रबद्ध प्रमाण है। वह त्रिकोण रचना के सब द्रव्यों का जोड़ देने से नियम से इतना ही होता है। - सत्त्व के साथ बंध का सामानाधिकरण नहीं है
धवला 6/1,9-2,61/103/2 ण च संतम्मि विरोहाभावं दटठूण बंधम्हि वि तदभावो वोतुं स क्किज्जइ, बंध-संताणमेयत्ताभावा। =सत्त्व में (परस्पर विरोधी प्रकृतियों के) विरोध का अभाव देखकर बंध में भी उस (विरोध) का अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बंध और सत्त्व में एकत्व का विरोध है। - सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्यस्थिति सत्त्व दो समय कैसे
कषायपाहुड़ 3/2,22/420/244/9 एगसमयकालट्ठिदिय किण्ण वुच्चदे। ण, उदयाभावेण उदयणिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स दुसमयकालट्ठिदियस्स एगसमयावट्ठाणविरोहादो। विदियणिसेओ सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उवरिमसमए मिच्छत्तस्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणाममुवलंभादो। तदो एयसमयकालट्ठिदिसेसं त्ति वत्तव्वं। ण, एगसमयकालट्ठिदिए णिसेगे संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण परिणामप्पसंगादो। ण च कम्मं सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावं गच्छदि त्ति दुसमयकालट्ठिदिणिद्देसो कदो। =प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति उपांत्य समय में पर रूप से संक्रमित हो जाती है। अत: दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे निषेक की जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण मानने में विरोध आता है।
प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व का दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूप से एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समय में उसका मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के उदयनिषेक रूप से परिणमन पाया जाता है अत: सूत्र में "दुसमयकालट्ठिदिसेसं" के स्थान पर "एकसमयकालट्ठिदिसेसं" ऐसा कहना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि इस निषेक को यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही समय में उसे फल न देकर अकर्म रूप से परिणमन करने का प्रसंग प्राप्त होता है और कर्म स्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये अकर्म भाव को प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। किंतु अनुदयरूप प्रकृतियों के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूप से रहकर और दूसरे में पर प्रकृतिरूप से रहकर तीसरे समय में अकर्मभाव को प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अत: सूत्र में दो समय काल प्रमाण स्थिति का निर्देश किया है। - पाँचवें के अभिमुख का स्थिति सत्त्व पहले के अभिमुख से हीन है
धवला 6/1,9-8-14/269/1 एदस्स अपुव्वकरणचरिमसमए वट्टमाणमिच्छाइट्ठिस्स ट्ठिदिसंतकम्मं पढमसम्मत्ताभिमुह अणियट्टीकरण चरिमसमयट्ठिदमिच्छाइट्ठिट्ठिदिसंतकम्मादो कधं संखेज्जगुणहीणं। ण, ट्ठिदिसंतोमोवट्टियं काऊण संजमासंजमपडिवज्जमाणस्स संजमासंजमचरिममिच्छाइट्ठिस्स तदविरोहादो। तत्थतण अणियट्टीकरणट्ठिदिघादादो वि एत्थतणअपुव्वकरणेण तुल्लं, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुव्वकरणाणि सव्वअणियट्टीकरणेहिंतो अणंतगुणहीणाणि त्ति वोत्तुं जुत्तुं, तप्पदुप्पायाणसुत्ताभावा। =प्रश्न - अपूर्वकरण के अंतिम समय में वर्तमान इस उपर्युक्त मिथ्यादृष्टि जीव का स्थिति सत्त्व, प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में स्थित मिथ्यादृष्टि के स्थितिसत्त्व से संख्यात गुणित हीन कैसे है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, स्थिति सत्त्व का अपवर्तन करके संयमासंयम को प्राप्त होने वाले संयमासंयम के अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के संख्यात गुणित हीन स्थिति सत्त्व के होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा वहाँ के, अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अनिवृत्तिकरण से होने वाले स्थिति घात की अपेक्षा यहाँ के अर्थात् संयमासंयम के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अपूर्वकरण से होने वाला स्थितिघात बहुत अधिक होता है। तथा, यह, अपूर्वकरण, प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के अपूर्वकरण के साथ समान नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम रूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होने का विरोध है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों के अनंतगुणित हीन होते हैं, ऐसा कहना भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि, इस बात के प्रतिपादन करने वाले सूत्र का अभाव है। - सत्त्व व्युच्छित्ति व सत्त्व स्थान संबंधी दृष्टि भेद
गोम्मटसार कर्मकांड/373,391,392 तित्थाहारचउक्कं अण्णदराउगदुगं च सत्तेदे। हारचउक्कं वज्जिय तिण्णि य केइ समुद्दिट्ठं।273। अत्थि अणं उवसमगे खवगापुव्वं खवित्तु अट्ठा य। पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केइं णिद्दिट्ठं।391। अणियट्टिगुणट्ठाणे मायारहिदं च ठाणमिच्छंत्ति। ठाणा भंगपमाणा केई एवं परूवेंति।392। =सासादन गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारक की चौकड़ी, भुज्यमान व बद्धयमान आयु के अतिरिक्त कोई भी दो आयु से सात प्रकृतियाँ हीन 141 का सत्त्व है। परंतु कोई आचार्य इनमें से आहारक की 4 प्रकृतियों को छोड़कर केवल तीन प्रकृतियाँ हीन 145 का सत्त्व मानते हैं।373। श्री कनकनंदी आचार्य के संप्रदाय में उपशम श्रेणी वाले चार गुणस्थानों में अनंतानुबंधी चार का सत्त्व नहीं है। इस कारण 24 स्थानों में से बद्ध व अबद्धायु के आठ स्थान कम कर देने पर 16 स्थान ही हैं। और क्षपक अपूर्वकरण वाले पहले आठ कषायों का क्षय करके पीछे 16 आदिक प्रकृतियों का क्षय करते हैं।391। कोई आचार्य अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मायारहित चार स्थान हैं, ऐसा मानते हैं। तथा कोई स्थानों को भंग के प्रमाण कहते हैं।392।देखें सत्त्व - 2.1 मिश्र में तीर्थंकर के सत्त्व का कोई स्थान नहीं, परंतु कोई कहते हैं कि मिश्र में तीर्थंकर का सत्त्व स्थान है।
- तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व संबंधी
- सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ
सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची मिथ्या. मिथ्यात्व सम्य. सम्यक्त्व मोहनीय मिश्र. मिश्र मोहनीय अनंतानु. अनंतानुबंधी चतुष्क अप्र. अप्रत्याख्यान चतुष्क प्र. प्रत्याख्यान चतुष्क सं. संज्वलन चतुष्क नपुं. नपुंसक वेद पु. पुरुष वेद स्त्री स्त्री वेद हा.चतु. हास्त, रति, अरति, शोक तिर्य. तिर्यंच मनु. मनुष्य नरकादि द्विक वह वह गति व आनुपूर्वीय नरकादि त्रिक् वह वह गति, आनुपूर्वीव तथा आयु नरकादि चतु. वह वह गति, आनुपूर्वीय, तथा तद्योग्य शरीर और अंगोपांग आनु. आनुपूर्वीय औ. औदारिक शरीर वै. वैक्रियक आ. आहारक शरीर औ.वै.आ.द्विक् वह वह शरीर व अंगोपांग औ.वै.आ.चतु. वह वह शरीर, अंगोपांग, बंधन तथा संघात तीर्थ. तीर्थंकर भु. भुज्यमान आयु ब. बद्धयमान आयु वैक्रि.षटक् नरक गति आनुपूर्वीय, देवगति, आनुपूर्वीय, वैक्रियक शरीर तथा वैक्रियक अंगोपांग
- प्रकृति सत्त्व व्युच्छित्ति की ओघप्ररूपणा
- सातिशय मिथ्यादृष्टि में सर्व प्रकृतियों का सत्त्व चतुष्क - ( धवला 6/207-213 )
- प्रकृति सत्त्व असत्त्व आदेश प्ररूपणा -
- मोह प्रकृति सत्त्व की विभक्ति अविभक्ति
- मूलोत्तर प्रकृति सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा।
- मूल प्रकृत्ति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा
- मोह प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- मोह सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा - ( कषायपाहुड़ 2/ पृष्ठ), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/393-398 ), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/405-410 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/655-659/846-848 )
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा विशेष
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा
- नाम प्रकृति सत्त्वस्थान सामान्य प्ररूपणा - ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/208-216 ); (पं.सं./सं./5/222-229); ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./610/817); ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./620-824); ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./759/931) कुल सत्त्व स्थान=13; कुल सत्त्व योग=93।
- जीव पदों की अपेक्षा नामकर्म सत्त्व स्थान प्ररूपणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./623-828)
- नाम कर्म सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा - ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/217 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/402-417 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड/692-702/872 ); (पं.सं./सं./5/416-428)।
- नाम कर्म सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा - - ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/218-219,419-472 ); (पं.सं./सं./5/230-231); ( गोम्मटसार कर्मकांड/712-738/881-887 )
- नाम प्रकृति सत्त्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड/704-712/878 )
- मोह स्थिति सत्त्व की ओघप्ररूपणा - ( कषायपाहुड़ 3/ पृष्ठ) अंत:=अंत:कोड़ाकोड़ी सागर
- मोह स्थिति सत्त्व की आदेश प्ररूपणा - ( कषायपाहुड़ 3/ पृष्ठ) अंत:=अंत:कोड़ाकोड़ी सागर
- मूलोत्तर प्रकृति चतुष्क की प्ररूपणाओं संबंधी सूची
- अनुभाग सत्त्व की ओघ आदेश प्ररूपणा संबंधी सूची - कषायपाहुड़ 5/
सत्त्व योग्य प्रकृतियाँ - नाना जीवों की अपेक्षा=148। एक जीव की अपेक्षा सर्वत्र 6 विकल्प हैं -
1. बद्धायुष्क तीर्थंकर रहित =145;
2. बद्धायुष्क आहारक द्विक रहित =144;
3. बद्धायुष्क आहारक द्विक व तीर्थंकर रहित =143;
4. अबद्धायुष्क तीर्थंकर रहित =144;
5. अबद्धायुष्क आहाकरद्विक रहित =143;
6. अबद्धायुष्क आहारक द्विक व तीर्थंकर रहित =142;
नोट - इस प्रकार सत्त्व योग्य प्रकृतियों के आधार पर प्रत्येक गुणस्थान में अपनी ओर से एक जीव की अपेक्षा छह-छह विकल्प बना लेने चाहिए। प्रमाण - ( पंचसंग्रह / प्राकृत/3/49-63 ); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/489-500 ); (पं.सं./सं./3/61-77); (पं.सं./सं./5/462-477); ( गोम्मटसार कर्मकांड/336-343/488-496 )।
गुणस्थान व्युच्छित्ति की प्रकृतियाँ असत्त्व कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व व्युच्छि. शेष सत्त्व योग्य 1 x x 148 x 148 x 148 2 x तीर्थंकर व आ.द्वि 148 3 145 x 145 3 तीर्थंकर 148 1 147 x 147 1. उपशम व क्षयोपशम सम्यक्त्व 4 x x 148 x 148 x 148 5 x नरकायु 148 1 147 x 147 6 x नरक व तिर्यंचायु 148 2 146 x 146 7 x नरक व तिर्यंचायु 148 2 146 x 146 8-11 x नरक व तिर्यंचायु 148 2 146 x 146 2. क्षायिक सम्यक्त्व - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/355/512/4 ) 4 नरकायु, तिर्यंचायु, दर्शनमोह की 3, अनंतानुबंधी 4 =8 दर्शनमोह, अनंता-7 148 7 141 8 140 5 तिर्यंचायु=1 x 140 x 140 1 139 6 x x 139 x 139 x 139 7 उपशम श्रेणी में=x; क्षपक श्रेणी में=देवायु=1 x 139 x 139 x 138 3. क्षायिक सम्यक्त्व उपशम श्रेणी - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/355/512/4 ) 8-11 x x 138 x 138 x 138 4. क्षायिक सम्यक्त्व क्षपक श्रेणी - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/336-343/488-496 ) नोट - अबद्धायुष्क ही क्षपक श्रेणी पर चढ़े।
8 x x 138 x 138 x 138 9/i नरकद्विक, तिर्यंच द्वि; 1-4 इंद्रिय, स्त्यानगृद्धित्रिक, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थानवर=16 x 138 x 138 16 122 9/ii प्रत्याख्यान 4, अप्रत्याख्यान 4=8 x 122 x 122 8 114 गुणस्थान पुरुष वेदोदय सहित मोह सत्त्व स्थान व्युच्छित्ति की प्रकृतियाँ सत्त्व योग्य व्युच्छि. शेष सत्त्व 9/iii 13 नपुंसक वेद 114 1 113 9/iv 12 स्त्री वेद 113 1 112 9/v 11 हास्यादि छह नोकषाय 112 6 106 9/vi 5 पुरुष वेद 106 1 105 9/vii 4 सं.क्रोध 105 1 104 9/viii 3 सं.मान 104 1 103 9/ix 2 सं.माया 103 1 102 स्त्री वेदोदय सहित 9/iii 13 x 114 x 114 9/iv 13 स्त्री वेद 114 1 113 9/v 12 नपुंसक वेद 113 1 112 9/vi 11 पुरुष वेद व हास्यादि 6 112 1 105 9/vii 4 सं.क्रोध 105 1 104 9/viii 3 सं.मान 104 1 103 9/ix 2 सं.माया 103 1 102 नंपुसक वेदोदय सहित 9/iii 13 x 114 x 114 9/iv 13 x 114 x 114 9/v 13 स्त्री व नपुंसक वेद 114 2 112 9/vi 11 पुरुष वेद, हास्यादि 6 112 7 105 9/vii 4 सं.क्रोध 105 1 104 9/viii 3 सं.मान 104 1 103 9/ix 2 सं.माया 103 1 102 गुणस्थान व्युच्छित्ति की प्रकृतियाँ असत्त्व कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व व्युच्छि. शेष सत्त्व योग्य 10 संज्वलन लोभ=1 x 102 x 102 1 101 12/i (द्विचरम समय में) निद्रा, प्रचला=2 x 101 x 101 2 99 12/ii (अंत समय में) 5 ज्ञानावरणी, 4 दर्शनावरणी, 5 अंतराय=14 x 99 x 99 14 85 13 x x 85 x 85 x 85 14/i (द्विचरम समय) 5 शरीर, 5 बंधन, 5 संघात, 6 संस्थान, 6 संहनन, 3 अंगोपांग, 5 वर्ण, 2 गंध, 5 रस, 8 स्पर्श=50+स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, स्वरद्वय, देवद्विक, विहायोगतिद्वय, दुर्भग, निर्माण, अयश, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय, नीचगोत्र=72 x 85 x 85 72 13 14/ii (चरम समय में) शेष उदयवाली वेदनीय, मनुष्यत्रिक, पंचेंद्रिय सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र =13 x 13 x 13 13 x
द्रष्टव्य - ( धवला 6/268 ) प्रथमोपशम सहित संयमासंयम के अभिमुख सातिशय मिथ्यादृष्टि का स्थिति सत्त्व इस सारणी में कथित अंत:कोटाकोटि से संख्यात गुणा हीन अंत:कोटाकोटि जानना।
संकेत - अंत: को.को.=अंत: कोड़ा कोड़ी सागर; ब.=बध्यमान आयुष्क; भु.=भुज्यमान आयुष्क
द्वि. स्थान=निंब व कांजीर रूप अनुभाग; चतु:स्थान=गुड़ खंड शर्करा अमृत रूप अनुभाग।
क्र. प्रकृति का नाम सत्त्व प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश 1 ज्ञानावरणीय - पाँचों हैं अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 2 दर्शनावरणीय - 1 निद्रा-निद्रा है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 2 प्रचला-प्रचला है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 3 स्त्यानगृद्धि है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 4 शेष सर्व है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 3 वेदनीय - 1 साता है अंत को.को. चतु:स्थान अजघन्य 2 असाता है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 4 मोहनीय - 1 दर्शनमोह प्रकृति स्थान प्रस्थान (28) (27)
i सम्यग् प्रकृति है नहीं अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य ii मिथ्यात्व है है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य iii सम्यग्मिथ्यात्व है नहीं अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य सम्यग्मिथ्यात्व 26 प्र.स्था.में भी है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 2 चारित्र मोह - i अनंता.चु. है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य ii अप्रत्याख्यान है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य iii प्रत्याख्यान है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य iv संज्वलन चतु. है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य v सर्व नोकषाय है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 5 आयु - 1 नरक, तिर्यंचगति ब.भु.है ब.भु.है द्विस्थान अजघन्य 2 मनुष्य ,देवगति
ब.भु.है ब.भु.है चतु.स्थान अजघन्य 6 नाम - 1 नरक, तिर्यंचगति है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य मनुष्य, देवगति है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 2 1-4 इंद्रि.जाति है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य पंचेंद्रिय जाति है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 3 औदारिक शरीर है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य वैक्रियक शरीर है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य आहारक शरीर नहीं नहीं नहीं नहीं तैजस कार्माण है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 4 अंगोपांग - स्व स्व शरीरवत् - 5 निर्माण है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 6 बंधन - स्व स्व शरीरवत् - 7 संघात - स्व स्व शरीरवत् - 8 सम चतुरस्रसंस्थान है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य शेष पाँच है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 9 वज्र ऋषभ नाराच है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य शेष पाँच संहनन है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 10- वर्ण, गंध, रस व अंत को.को. 13 स्पर्श: प्रशस्त है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य अप्रशस्त है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 14 आनुपूर्वी - स्व स्व शरीरवत् - 15 अगुरुलघु है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 16 उपघात है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 17 परघात है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 18 आतप है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 19 उद्योत है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 20 उच्छ्वास है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 21 विहायोगति - प्रशस्त है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य अप्रशस्त है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 22 प्रत्येक है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 23 साधारण है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 24 त्रस है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 25 स्थावर है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 26 सुभग है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 27 दुर्भग है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 28 सुस्वर है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 29 दु:स्वर है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 30 शुभ है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 31 अशुभ है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 32 बादर है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 33 सूक्ष्म है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 34 पर्याप्त है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 35 अपर्याप्त है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 36 स्थिर है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 37 अस्थिर है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 38 आदेय है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 39 अनादेय है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 40 यश:कीर्ति है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 41 अयश:कीर्ति है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 42 तीर्थंकर नहीं नहीं नहीं नहीं 7 गोत्र - 1 उच्च है अंत को.को. चतु.स्थान अजघन्य 2 नीच है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य 8 अंतराय - पाँचों है अंत को.को. द्विस्थान अजघन्य
द्रष्टव्य - इस सारिणी में केवल सत्त्व तथा असत्त्व योग्य प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है, सत्त्व-व्युच्छित्ति का नहीं। उसका कथन सर्वत्र ओघवत् जानना। जिस स्थान में जिस प्रकार प्रकृति का असत्त्व कहा गया है, उस स्थान में उस उस प्रकृति को छोड़ कर शेष प्रकृतियों की व्युच्छित्ति ओघवत् जान लेना। जहाँ कुछ विशेषता है, वहाँ उसका निर्देश कर दिया गया है। सत्त्व असत्त्व का कथन भी यहां तीन अपेक्षाओं से किया गया है - उद्वेलना रहित सामान्य जीवों की अपेक्षा, स्वस्थान उद्वेलना युक्त जीवों की अपेक्षा और उत्पन्न स्थान उद्वेलना युक्त जीवों की अपेक्षा।
क्र. मार्गणा गुणस्थान असत्त्व कुल सत्त्व योग्य असत्त्व सत्त्व कुल गुणस्थान 1 गति मार्गणा - (1) नरक गति - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./346/498) 1 सामान्य देवायु =1 148 1 147 4 उद्वेलना सहित देखो आगे पृथक् शीर्षक 2 1-3 पृथिवी - नरकगति सामान्यवत् - 3 4-6 पृथिवी देवायु, तीर्थंकर =2 148 2 146 4 4 7 पृथिवी देव, मनुष्यायु, तीर्थ =3 148 3 145 4 (2) तिर्यंच गति - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./346/499-500) 1 सामान्य तीर्थंकर =1 148 1 147 5 उद्वेलना सहित देखो आगे पृथक् शीर्षक अविरत सम्यग्दृष्टि नरक व मनुष्य आयु की व्युच्छित्ति =2 147 x 147 - संयतासंयत x 147 2 145 - 2 पंचेंद्रिय प. - सामान्य तिर्यंचवत् - 3 योनिमति प. - सामान्य तिर्यंचवत् - 4 तिर्यंच ल.अप. तीर्थ, देवायु, नरकायु =3 148 3 145 1 (3) मनुष्यगति - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./346/503) 1 सामान्य x 148 x 148 14 उद्वेलना सहित देखो आगे पृथक् शीर्षक संयतासंयत तिर्यंच, नरकायु =2 148 2 146 - 2 मनुष्य पर्याप्त - मनुष्य सामान्यवत् 3 मनुष्यणी प. (तीर्थ सहित क्षपक) 7 स्त्री वेद की व्युच्छित्ति =1 146 x 146 - मनुष्यणी प. (तीर्थ सहित क्षपक) 8 x 146 1 145 4 ल.अप.मनुष्य तीर्थ, देवायु, नरकायु =3 148 3 145 1 (4) देवगति - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/346/503) 1 सामान्य नरकायु =3 148 1 147 4 उद्वेलना सहित देखो आगे पृथक् शीर्षक 2 भवनत्रिक देव तीर्थंकर, नरकायु =2 148 2 146 4 3 सौधर्म ईशानदेवी - भवनत्रिकवत् - 4 सौधर्म-सहस्रार - सामान्य देववत् - 5 आनत-नवग्रैवेयक नरक, तिर्यंचायु =2 148 2 146 4 6 अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि नरक, तिर्यंचायु =2 148 2 146 1 चौथा (5) चारों गति के उद्वेलना सहित जीव 1 सामान्य(3 प्रकृतियों के असत्त्व वाले) देवायु, तीर्थंकर,नरकायु=3 148 3 145 - 2 आहर.द्वि.की उद्वेलना सहित को आहारक द्विक =2 145 2 143 3 सम्यग् की द्वि.उद्वेलना सहित को सम्यक्त्व मोह =1 143 1 142 4 मिश्र की द्वि. उद्वेलना सहित को मिश्र मोह =1 142 1 141 2 इंद्रिय मार्गणा - 1-4 इंद्रिय 1 सामान्य उद्वेलना सहित को - तीर्थंकर, देव, नरकायु =3 148 3 145 2 आहा.द्वि. =2 145 2 143 2 सम्यक् प्रकृति =1 143 1 142 2 (i) उत्पन्न उद्वेलना मिश्र =1 142 1 141 2 (ii) उत्पन्न उद्वेलना उच्चगोत्र =1 141 1 140 2 (iii) उत्पन्न उद्वेलना मनुष्यद्विक =2 140 2 138 2 i स्वस्थान उद्वेलना देवद्विक =2 141 2 139 2 ii स्वस्थान उद्वेलना नरक चतु.(नरक द्विक, क्रि.द्विक) =4 139 4 135 2 iii उत्पन्न स्थान उद्वेलना से युक्त होने पर उच्चगोत्र मनुष्य द्विक =3 139 3 136 2 iv उत्पन्न स्थान उद्वेलना से युक्त होने पर उच्चगोत्र मनुष्य द्विक =3 135 3 132 2 2 पंचेंद्रिय x 148 x 148 14 3 काय मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/349-351/503-506) 1 पृथि.अप.वन.सा देवायु, नरकायु, तीर्थ. =3 148 3 145 2 पृथि.द्विविध उद्वेलना सहित - 1-4 इंद्रियवत् - 2 तेज.वातकाय.सा. देव, नरक, मनुष्यायु, तीर्थ.=4 148 4 144 1 तेज.उत्पन्न स्थान उद्वेलना सहित आहारक द्विक =2 144 2 142 1 सम्यक्त्व मोह =1 142 1 141 1 मिश्र मोह =1 141 1 140 1 देव द्विक =2 140 2 138 1 नरक द्वि.,वैक्रि.द्वि =4 138 4 134 1 स्व स्थान में उद्वेलना सहित उच्च गोत्र =1 134 1 133 1 मनुष्य द्वय =2 133 2 131 1 3 पंचेंद्रिय - x 148 x 148 14 4 योगमार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा/352-353/506-508) 1 चार मन, चार वचन व औदारिक काय योग x 148 x 148 12,13 2 आहारक व आ.मिश्र नरकायु, तिर्यंचायु =2 148 2 146 1(6ठा) 3 वैक्रियक x 148 x 148 4 1 तीर्थंकर प्रकृतिवाला तीसरे नरक तक वा देवगति में जाता है। 4 वैक्रियक मिश्र तिर्यंच, मनुष्यायु =2 148 2 146 4 1,4 146 x 146 - 2 आ.द्वि.,तीर्थ.,नरकायु =4 146 4 142 - 5 औदारिक मिश्र. देवायु, नरकायु =2 148 2 146 1,2,4व 13 वां 6 कार्माण 148 x 148 4 - वैक्रियक मिश्र व सयोगीवत् - - - - - 5 वेद मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/508/1 ) 1 पुरुष वेद x 148 x 148 14 2 स्त्री वेद सा. x 148 x 148 14 स्त्री क्षपक श्रेणी तीर्थंकर 148 1 147 6(8-14) 3 नपुंसक वेद - स्त्रीवेदवत् - - - - - 6 कषाय मार्गणा - क्रोधादि में गुणस्थान 9 लोभ में गुणस्थान 10 148 x 148 9 या 10 7 ज्ञान मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/508/6 ) 1 कुमति, कुश्रुत, विभंग x 148 x 148 2 2 मति, श्रुत, अवधि x 148 x 4-12 3 मन:पर्यय नरक तिर्यंचायु =2 148 2 146 6-12 4 केवल ओघवत् व्युच्छित्ति =63 148 63 85 13-14 8 संयम मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/508/9 ) 1 सामान्य 2 सामायिक छेदोपस्था. नरक तिर्यंचायु =2 148 2 146 6-9 3 परिहार विशुद्धि नरक तिर्यंचायु =2 148 2 146 6-7 4 सूक्ष्म सांपराय (उप.) नरक तिर्यंचायु =2 148 2 146 1 (10) सूक्ष्म सांपराय (क्षपक) ओघवत् 46 व्युच्छि. =46 148 46 102 10 वां 5 यथाख्यात उप.xउपशम. नरक, तिर्यंचायु =2 148 2 146 1 (11वां) यथाख्यात क्षा. (xउपशम.) नरक, तिर्यंच, देवायु,दर्शन मोह की 3, अनंतानुबंधी 4 =10 148 10 138 11 वां यथाख्यात (क्षा.xक्षपक.) ओघवत् व्युच्छिन्न 47=47 148 47 101 12-14 6 संयतासंयत नरकायु =1 148 1 147 1 (5 वां) 7 असंयत x 148 x 148 1-4 9 दर्शन मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/5 ) 1 चक्षु, अचक्षु दर्शन x 148 x 148 1-12 2 अवधि दर्शन x 148 x 148 4-12 3 केवल दर्शन ओघवत् व्युचिछन्न =63 148 63 85 13-14 10 लेश्या मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/7 ) 1 कृष्ण, नील तीर्थंकर =1 148 1 147 4 2 कापोत 1 x 148 x 148 4 3 पीत, पद्म x 148 x 148 1-7 1 तीर्थंकर =1 (तीर्थ.सत्त्व वाला नरक जाने के सम्मुख होय तभी सम्यक्त्व को छोड़े। परंतु तब लेश्या भी कापोत हो जाये। क्योंकि शुभ लेश्या में सम्यक्त्व की विराधना नहीं होती।)
148 1 147 - 4 शुक्ल 148 x 148 8-13 11 भव्यत्व मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354-355/509-510/16 ) 1 भव्यत्व x 148 x 148 14 2 अभव्यत्व तीर्थ., सम्य.,मिश्रमोह, आ.द्वि.,आ.बंधन संघात द्वय=7 148 7 141 1 12 सम्यक्त्व मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/355/512/1 ) 1 क्षायिक सम्यक्त्व नरक, तिर्यंचायु, दर्शनमोह 3, अनंतानुबंधी =9 148 9 139 4-14 2 वेदक सम्यक्त्व x 148 x 148 4-7 3 उपशम सम्यक्त्व x 148 x 148 4-11 4 द्वितीयोपशम ( लब्धिसार 220 ) अनंतानुबंधी 4,नरक, तिर्यंचायु =6 148 6 142 4-11 4 सम्यग्मिथ्यात्व तीर्थंकर =1 148 1 147 1 (3 रा) 5 सासादन तीर्थंकर, आ.द्वि. =3 148 3 145 1 (2 रा) 6 मिथ्यादृष्टि x 148 x 148 1 13 संज्ञी मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/355/513/7 ) 1 संज्ञी x 148 x 148 1-12 2 असंज्ञी तीर्थंकर =1 148 1 147 2 14 आहारक मार्गणा - ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/355/512/9 ) 1 आहारक x 148 x 148 13 2 अनाहारक x 148 x 148 5 (1,2,4,13,14) 1,2,4 - कार्माण काय योगवत् - - - - - 13 - ओघवत् - - - - -
प्रमाण - कषायपाहुड़ 2/101/83-87 ।
संकेत - 28 प्र.=मोह की सर्व 28 प्रकृतियाँ 7 प्र.=दर्शन मोह 3+अनंतानुबंधी 4; 6प्र.=मिथ्यात्व रहित उक्त 7; 2 प्र.=सम्य., व मिश्र मोह वि.=विभक्ति; अवि.=अविभक्ति। शेष के लिए देखो सारणी सं.1 का प्रारंभ।
प्रमाण मार्गणा विभक्ति अविभक्ति की प्रकृति या शेष की विभक्ति 28 प्र. 7 प्र. 6 प्र. 2 प्र. अन्य विकल्प 1 गति मार्गणा 83 नरक गति सामान्य x 7 प्र. x x x 84 प्रथम पृथिवी x 7 प्र. x x x 84 2-7 पृथिवी x x 6 प्र. x x 84 तिर्यंच सामान्य x 7 प्र. x x x 84 पंचेंद्रिय ति.सा.प. x 7 प्र. x x x 84 तिर्यंच योनिमति x x x 6 प्र. x 84 पंचे.ति.ल.अप. x x x 6 प्र. x 83 मनुष्य त्रिक x x x x x 84 मनुष्य ल.अप. x x x x x 84 देव सामान्य x x x x x 84 भवनत्रिक देवी x x x x x 84 सर्वकल्प वासी x x x x x 2 इंद्रिय मार्गणा 84 सर्व एकेंद्रिय प.अप. x x x x x 84 सर्व विकलेंद्रिय प.अप. x x x x x 83 सर्व पंचेंद्रिय सा.प. x x x x x 84 सर्व पंचे.ल.अप. x x x x x 3 काय मार्गणा - इंद्रिय मार्गणावत् - - 4 योग मार्गणा 83 पाँचों मनोयोग x x x x x 83 पाँचों वचनयोग x x x x x 83 काय योग सामान्य x x x x x 83 औ.औ.मिश्र x x x x x 84 वै.,वै.मिश्र x x x x x 85 आ.,आ.मिश्र x x x x x 83 कार्माण x x x x x 5 वेद मार्गणा 85 स्त्री वेद x x x x अप्रत्य.आदि 12 कषाय.दर्शन मोह 3, नपु.=16 की वि.अवि.शेष 12 की अवि.। 85 पुरुष वेद x x x x संज्व.4, व पुरुष वेद के बिना 23 की विभक्ति अवि.और इन 5 की वि.। 85 नपुंसक वेद x x x x 12 कषाय, दर्शनमोह 3, नपुं. इन 16 की वि.अवि.। शेष 12 की वि.। अपगत वेद x x x x अनंतानु 4 के बिना 24 वि.अवि.अनंतानु.की विभक्ति। 6 कषाय मार्गणा 86 क्रोध x x x x संज्व.4 बिना 24 की वि.अवि. 86 मान x x x x संज्व.मान, माया, लोभ बिना 25 की वि.अवि.। 86 माया x x x x संज्व.माया, लोभ, बिना 27 की वि.अवि.। 86 लोभ x x x x संज्व.लोभ बिना 27 की वि.अवि.। 86 अकषायी x x x x अनंतानु.4 बिना 24 की वि.अवि.। 7 ज्ञान मार्गणा x x x x x 84 मति, श्रुत, अज्ञान x x x x x 84 विभंग ज्ञान x x x x x 83 मति, श्रुत, अवधि x x x x x 83 मन:पर्यय x x x x x 8 संयम मार्गणा 83 संयम सा. x x x x x 86 सामायि.छेदो. x x x x संज्व.लोभ बिना 27 की वि.अवि.। 84 परिहार विशुद्धि x x x x x 86 सूक्ष्म सांपराय x x x x संज्व.लोभ अनंता.4 बिना 23 की वि.अवि.। 86 यथाख्यात x x x x अनंता.4 बिना 24 की वि.अवि.। 84 संयतासंयत x x x x x x असंयत x x x x x 9 दर्शन मार्गणा 83 चक्षु, अचक्षु x x x x x 83 अवधि x x x x x 10 लेश्या मार्गणा 84 कृष्णादि 5 x x x x x 84 शुक्ल x x x x x 11 भव्य मार्गणा 83 भव्य x x x x 87 अभव्य x x x x सम्य.,मिश्र मोह बिना 26 की वि.अवि.। 12 सम्यक्त्व मार्गणा 83 सम्यक्त्व सा. x x x x x 87 क्षायिक x x x x अनंता.4, दर्शनमोह 3 बिना 21 की वि.अवि.। 87 वेदक x x x x अनंता.4, सम्य., मिश्र मोह बिना 22 की वि.अवि.। 87 उपशम x x x x अनंता.4 बिना 24 की वि.अवि.। 87 सम्यग्मिथ्यादृष्टि x x x x अनंता.4 बिना 24 की वि.अवि.। 87 सासादन x x x x सर्व 28 की वि.।xकी वि.अवि.। मिथ्यादृष्टि x x x x x 13 संज्ञी मार्गणा 83 संज्ञी x x x x x 85 असंज्ञी x x x x x 14 आहारक मार्गणा 83 आहारक x x x x x 83 अनाहारक x x x x x
संकेत - ब.=बद्धयमान आयुष्क; भु.=भुज्यमान आयुष्क। स्थान सं. अबद्धायुष्क के भंग कुल सत्त्व योग असत्त्व सत्त्व प्रकृति प्रति स्थान भंग बद्धायुष्क के भंग प्रति स्थान भंग अबद्धायुष्क के भंग स्थान का स्वामी असत्त्व की प्रकृतियाँ विवरण विवरण 1 मिथ्यादृष्टि - ( गोम्मटसार कर्मकांड/366-371/522-535 )। कुल स्थान 18 (बद्धा.10, अबद्धा.8); कुल भंग=50 (बद्धा.26,अबद्धा.24) 1 तीर्थंकर नरकायु बद्ध मनुष्य नरक जाने के सम्मुख तिर्यंच, देवायु 148 2 146 1 भुज्यमान मनुष्य, बद्धायमान नरक 1 भुज्यमान मनुष्य 2 तीर्थंकर रहित कोई भी जीव भु.ब.बिना 2 आयु तीर्थ.=3 148 3 145 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमानायु 3 तिर्यं,देवायु,आ.चतु. =6 148 6 142 1 मनुष्य नरकायु सहित 1 केवल 1 भुज्यमानायु 4 कोई2आयु,आ.चतु.तीर्थ.=7 148 7 141 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमानायु 5 उपरोक्त7+सम्यक्त्व =1 141 1 140 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमानायु 6 उपरोक्त+सम्यक्त्व+मिश्र=2 141 2 139 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमानायु 7 देवद्विक की उद्वेलना वाला चतुरिंद्रिय उपरोक्त 9 व देवद्विक =2 139 2 137 1 भुज्यमान तिर्यंच, बद्धयमान मनुष्य अथवा भु.ति., ब.ति., भु.मनुष्य, ब.ति. 4 अन्यतम भुज्यमानायु 8 नरक द्विक, वै.द्वि, देव द्वि.की, की उद्वेलना वाला चतुरिंद्रिय उपरोक्त 11+(नरक द्विक, देवद्विक वैक्रियक द्विक)=6 137 6 131 1 भुज्यमान तिर्यंच, बध्यमान मनुष्य 2 मनुष्य या तिर्यंचायु 9 उच्चगोत्र के उद्वेलना वाला तेज.,वात कायिक उपरोक्त 17+मनुष्यायु उच्चगोत्र =2 131 2 129 1 भुज्यमान तिर्यंच, बध्यमान तिर्यंच x पुनरुक्त 10 मनुष्यद्विक की उद्वेलना वाला उपरोक्त तेज वात कायिक उपरोक्त 19 व मनुष्य द्विक 129 2 127 1 भुज्यमान तिर्यंच, बध्यमान तिर्यंच x पुनरुक्त 26 24 2 सासादन - ( गोम्मटसार कर्मकांड/372-375/536-539 )। कुल स्थान=6 (बद्धा.2, अबद्धा.4); कुल भंग=18 (बद्धा.6,अबद्धा.12) 1 भु.ब.बिना 2 आयु, तीर्थ.,आ.चतु. 148 141 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 2 आ.चतु के बंधवाले किसी को सासादन की प्राप्तिहोय भु.ब.बिना 2 आयु,तीर्थ.=3 148 145 1 2 3 नं.1 की 7 - ब.आयु =1 145 144 x x 4 4 नं.2 की 3 - ब.आयु =1 145 144 x x 2 6 12 3 मिश्र - ( गोम्मटसार कर्मकांड/372-375/536-539 )। कुल स्थान 8 (बद्धा.14, अबद्धा.4); कुल भंग=36 (बद्धा.20;अबद्धा.16) 1 भु.ब.बिना 2 आयु, तीर्थंकर 148 3 145 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमान 2 उपरोक्त 3 ÷ अनंता.4 145 4 145 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमान 3 उपरोक्त 3 + आ.चतु. 145 4 141 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमान 4 उपरोक्त 7 + अनंता.4 141 4 137 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 अन्यतम भुज्यमान 20 16 4 अविरत सम्यग्दृष्टि - ( गोम्मटसार कर्मकांड/376-381/540-549 ) कुल स्थान=40 (बद्धा.=20, अबद्धा.=20); कुल भंग=120 (बद्धा.=60,अबद्धा.=60) 1 तीर्थंकर सत्त्व तिर्य.को न हो। तिर्यं. व अन्य कोईआयु =2 148 2 146 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 2 उपरोक्त 2+अनंता.4 =4 146 4 142 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 3 उपरोक्त 6+मिथ्यात्व =1 142 1 141 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 1 4 उपरोक्त 6 + मिश्र व मिथ्यात्व = 2 142 2 140 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 5 उपरोक्त 6+दर्शनमोह 3=3 142 3 139 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 6 तीर्थ.,भु.ब.बिना 2 आयु=3 148 3 145 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 7 भु.ब. बिना 2 आयु, अन.4, तीर्थ.= 7 148 7 141 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 8 मनुष्य उपरोक्त 7+मिथ्यात्व =8 148 8 140 3 भु.मनु.,ब.ति.,नारक, देव। ब.मनु.,पुनरुक्त 1 9 उपरोक्त7+मिथ्यात्व,मिश्र=9 148 9 139 3 भु.मनु.,ब.ति.,नारक, देव। ब.मनु.,पुनरुक्त 4 10 उपरोक्त7+दर्शनमोह 3=10 148 10 138 4 भु.नरक,ब.मनु.,भु.ति.ब.देव, भु.मनु.,ब.देव,भु.मनु.ब.ति.। 3 11 ति.व अन्य कोई आयु, आ.चतु.= 6 148 6 142 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 12 +4 अनंतानु.= 4 142 4 138 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 13 +मिथ्यात्व = 1 138 1 137 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 1 14 + मिश्र = 1 137 1 116 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 15 + सम्यक्त्व = 1 136 1 135 2 भु.मनु.,ब.नरक,भु.मनु.,ब.देव Vice versa 3 16 अन्यतम 2 आयु, तीर्थ., आ.चतु.= 7 148 7 141 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 17 + 4अनंतानु.= 4 141 4 137 5 (देखो आयु कर्म के सत्त्व स्थान) 4 18 + मिथ्यात्व = 1 137 1 136 3 भु.मनु.ब.ति.,नारक, देव/ब.मनुष्य, पुनरुक्त 1 19 +मिश्र =1 136 1 135 3 भु.मनु.ब.ति.,नारक, देव/ब.मनुष्य, पुनरुक्त 4 20 +सम्यक्त्व =1 135 1 134 4 देखो नं. (10) 4 60 60 5 देश संयत - ( गोम्मटसार कर्मकांड/382/550 ) कुल स्थान=40 (बद्धा.=20, अबद्धा.=20); कुल भंग=48 (बद्धा.=24,अबद्धा.=24) 1-5 अविरतवत् अविरतवत् 1x5 बीसों स्थानों में भु.मनु.,ब.देव का एक भंग 1x5 भु.मनुष्य 6,7 अविरतवत् अविरतवत् 2x2 भु.मनु.,ब.देव/भु.ति.,ब.देव। 2x2 भु.मनु.या तिर्यंच 8-15 अविरतवत् अविरतवत् 1x8 भु.मनु.,ब.देव का एक भंग सर्वत्र 1x8 भु.मनुष्य सर्वत्र 16-17 अविरतवत् अविरतवत् 2x2 सं.6,7 वत् 2x2 सं.6,7 वत् 18-20 अविरतवत् अविरतवत् 1x3 सं. 1-5 वत् 1x3 सं. 1-5 वत् 24 24 6-7 प्रमत्त अप्रमत्त - ( गोम्मटसार कर्मकांड/382/550 ) कुल स्थान=40 (बद्धा.=20, अबद्धा.=20); कुल भंग=120 (बद्धा.=60,अबद्धा.=60) 1-20 अविरतवत् अविरतवत् 1x20 भु.मनु.,बद्धा.देव का एक भंग सर्वत्र 1x20 भु.मनुष्य सर्वत्र 20 20
8. उपशम श्रेणी/उप.क्षा.सम्यक्त्व (अपूर्वकरण)
( गोम्मटसार कर्मकांड/383-384/551-553 ) - स्थान=24; भंग=24।
द्रष्टव्य - कनकनंदि सिद्धांत चक्रवर्ती के अनुसार यहाँ स्थान नं.1,2,7,8,13,14,11 इन आठ स्थानों को छोड़कर 16 स्थान व 16 भंग होते हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड 391/558 )।
संकेत - देखें सारणी सं.1 का प्रारंभ।
स्थान सं. असत्त्ववाली प्रकृतियाँ पहले सत्त्व योग्य असत्त्व अब सत्त्व योग्य भंग विवरण 1 नरक, तिर्यंच आयु 148 2 146 1 बद्धायु मनुष्य 2 145 1 अबद्धायु मनुष्य 3 अनंतानुबंधी चतु. 146 4 142 1 बद्धायु मनुष्य 4 141 1 अबद्धायु मनुष्य 5 दर्शनमोह त्रिक. 142 3 139 1 बद्धायु मनुष्य 6 138 1 अबद्धायु मनुष्य 7 नरक-तिर्यंच आयु+तीर्थंकर 148 3 145 1 बद्धायुष्क मनुष्य 8 144 1 अबद्धायु मनुष्य 9 अनंतानुबंधी चतु. 145 4 141 1 बद्धायु मनुष्य 10 140 1 अबद्धायु मनुष्य 11 दर्शनमोह त्रिक 141 3 138 1 बद्धायु मनुष्य 12 137 1 अबद्धायु मनुष्य 13 नरक-तिर्यंच आयु+आहा.चतु. 148 6 142 1 बद्धायु मनुष्य 14 141 1 अबद्धायु मनुष्य 15 अनंतानुबंधी चतुष्क 142 4 138 1 बद्धायु मनुष्य 16 137 1 अबद्धायु मनुष्य 17 दर्शनमोह त्रिक. 138 3 135 1 बद्धायु मनुष्य 18 134 1 अबद्धायु मनुष्य 19 नरक-तिर्य.आयु+आहा.चतु.+ तीर्थं. 148 7 141 1 बद्धायु मनुष्य 20 140 1 अबद्धायु मनुष्य 21 अनंतानुबंधी चतुष्क 141 4 137 1 बद्धायु मनुष्य 22 136 1 अबद्धायु मनुष्य 23 दर्शनमोह त्रिक 137 3 134 1 बद्धायु मनुष्य 24 133 1 अबद्धायु मनुष्य 9-11 उपशम श्रेणी/उपशम व क्षा.सम्यक्त्व (अनिवृत्तिकरणादि उपशांत कषाय पर्यंत)। ( गोम्मटसार कर्मकांड/385/553 ) स्थान 24; भंग 24।
द्रष्टव्य - आ.कनकनंदि के अनुसार स्थान 16, भंग=16।
8. क्षपक श्रेणी (अपूर्वकरण)
( गोम्मटसार कर्मकांड/385/553 ) - स्थान=4; भंग=4।
द्रष्टव्य - बद्धायुष्क को क्षपक श्रेणी संभव नहीं अत: केवल अबद्धायुष्क मनुष्य के ही स्थान हैं।
स्थान सं. असत्त्व वाली प्रकृतियाँ पहले सत्त्व योग्य असत्त्व अब सत्त्व योग्य भंग विवरण 1 तीन आयु+अनंत चतु.+दर्शनमोह त्रिक. 148 10 138 1 x 2 तीर्थंकर 138 1 137 1 x 3 आहारक चतु. 138 4 134 1 x 4 आहारक चतु.+तीर्थंकर 138 5 133 1 x 9. क्षपक श्रेणी (अनिवृत्तिकरण)
( गोम्मटसार कर्मकांड/386-388/554-555 ) - स्थान=36; भंग=
द्रष्टव्य - गो.सा.में पुरुष वेदी व स्त्रीवेदी दोनों के समान आलाप मानकर कुल स्थान 36 बताये हैं, पर सारणी 1 के अनुसार पुरुष व स्त्रीवेदी के आलापों में कुछ अंतर होने से यहाँ स्थान 44 बनते हैं।
संकेत - पुं.वेदी=पुरुषवेदोदय सहित श्रेणी चढ़ने वाला।
स्त्रीवेदी - स्त्रीवेदोदय सहित श्रेणी चढ़ने वाला।
नपुं.वेदी=नपुंसकवेदोदय सहित श्रेणी चढ़ने वाला।
द्रष्टव्य - केवल अबद्धायुष्क मनुष्य के आलाप ही संभव है क्योंकि बद्धायुष्क क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता।
गुणस्थान सत्त्व स्थान असत्त्ववाली प्रकृतियाँ पहले सत्त्व योग्य असत्त्व अब सत्त्व योग्य भंग विवरण 9/i 1 3 आयु+अनंत चतु.+दर्शन मोह त्रि.=व्युच्छिन्न 148 10 138 1 x 2 तीर्थंकर 138 1 137 1 x 3 आहारक चतुष्क 138 4 1 x 4 आहा.चतु.+तीर्थंकर 138 5 1 x 9/ii 1 नरक द्वि, तिर्यंच द्वि 1-4 इंद्रिय, स्त्यान.त्रिक, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण,स्थावर = 16 व्युच्छिन्न 138 16 1 x 2 तीर्थंकर 122 1 121 1 x 3 आहारक चतुष्क 121 4 118 1 x 4 आहारक चतुष्क+तीर्थंकर 122 5 117 1 x 9/iii 1 अप्रत्या.4+प्रत्या.4 =8व्युच्छिन्न 122 8 114 1 x 2 तीर्थंकर 114 1 113 1 x 3 आहारक चतुष्क 114 4 110 1 x 4 आहारक चतुष्क+तीर्थंकर 114 5 109 1 x 9/iv 1 x 114 x 114 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 2 तीर्थंकर 114 1 113 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी नपुंसक 114 1 ... 1 पुरुष वेदी 3 तीर्थंकर+नपुंसक 114 2 112 1 पुरुष वेदी 4 आहारक चतुष्क 114 4 110 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 5 आहारक चतुष्क + नपुंसक 114 5 109 1 पुरुष वेदी आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 114 5 109 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 6 आहा.चतु.+तीर्थंकर+नपुंसक 114 6 108 1 पुरुष वेदी 9/v 1 x 114 x 114 1 नपुंसक वेदी 2 तीर्थंकर 114 1 113 1 नपुंसक वेदी स्त्री वेद 114 1 113 1 पुरुषवेदी व स्त्रीवेदी 3 तीर्थंकर + स्त्रीवेद 114 2 112 1 पुरुषवेदी व स्त्रीवेदी 4 आहारक चतुष्क 114 4 110 1 नपुंसक वेदी 5 आहारक चतुष्क + स्त्रीवेदी 114 5 109 1 पुरुषवेदी+स्त्रीवेदी आहारक चतुष्क+तीर्थंकर 114 5 109 1 नपुंसक वेदी 6 आहारक चतु.+तीर्थंकर+स्त्री. 114 6 108 1 पुरुषवेदी व स्त्रीवेदी 9/vi 1 स्त्री.व नपुं. =2 व्युच्छिन्न 114 2 112 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 2 तीर्थंकर 112 1 111 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 3 आहारक चतुष्क 112 4 108 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 4 आहारक चतुष्क+तीर्थंकर 112 5 107 1 स्त्रीवेदी व नपुं.वेदी 5 हास्यादि = 6 व्युच्छिन्न 112 6 106 1 पुरुष वेदी 6 तीर्थंकर 106 1 105 1 पुरुष वेदी 7 आहारक चतुष्क 106 4 102 1 पुरुष वेदी 8 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 106 5 101 1 पुरुष वेदी 9/vii 1 पुरुष वेद = 1 व्युच्छिन्न 106 1 105 1 तीनों वेदी 2 तीर्थंकर 105 1 104 1 तीनों वेदी 3 आहारक चतुष्क 105 4 101 1 तीनों वेदी 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 105 5 100 1 तीनों वेदी 9/viii 1 संज्वलन क्रोध =1 व्युच्छिन्न 105 1 104 1 x 2 तीर्थंकर 104 1 103 1 x 3 आहारक चतुष्क 104 4 100 1 x 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 104 5 99 1 x 9/ix 1 संज्वलन मान =1 व्युच्छिन्न 104 1 103 1 x 2 तीर्थंकर 103 1 1 x 3 आहारक चतुष्क 103 4 1 x 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 103 5 1 x 10. क्षपक श्रेणी (सूक्ष्म सांपराय) ( गोम्मटसार कर्मकांड 389/556 ) - स्थान=4; भंग=4 1 संज्वलन माया =1 व्युच्छिन्न 103 1 1 x 2 तीर्थंकर 102 1 1 x 3 आहारक चतुष्क 102 4 1 x 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 102 5 1 x 12. क्षीणकषाय - ( गोम्मटसार कर्मकांड 389/556 ) - स्थान=8; भंग=8 1 संज्वलन लोभ =1 व्युच्छिन्न 102 1 101 1 x 2 तीर्थंकर 101 1 100 1 x 3 आहारक चतुष्क 101 4 97 1 x 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 101 5 96 1 द्विचरम समय 5 निद्रा, प्रचला = 2 व्युच्छिन्न 101 2 99 1 चरम समय 6 तीर्थंकर 99 1 98 1 चरम समय 7 आहारक चतुष्क 99 4 95 1 चरम समय 8 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 99 5 94 1 चरम समय 13. सयोगकेवली - ( गोम्मटसार कर्मकांड 390/557 ) - स्थान=4; भंग=4 1 5 ज्ञानावरण+5 दर्शनावरण+4 अंतराय =14 व्युच्छिन्न 99 1 x 2 तीर्थंकर 85 1 x 3 आहारक चतुष्क 85 1 x 4 आहारक चतुष्क + तीर्थंकर 85 1 x 14. अयोगकेवली - ( गोम्मटसार कर्मकांड 390/557 ) - स्थान=8; भंग=8 1-4 सयोगीवत् चारों स्थान द्वि चरम समय तक 5 व्युच्छित्ति=72 (देखें सारणी नं - 1) 85 72 13 1 चरम समय 6 तीर्थंकर 13 1 1 1 चरम समय 7 व्युच्छित्ति = 13 13 13 13 1 चरम समय के अंत में 8 व्युच्छित्ति = 12 12 12 12 1
संकेत - देखो सारणी 1 का प्रारंभ
सं. मार्गणा कुल स्थान प्रतिस्थान प्रकृति प्रति स्थान भंग प्रकृतियों का विवरण 1 ज्ञानावरणीय - ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/4,24 ); (पं.सं./सं./5/5-30); ( गोम्मटसार कर्मकांड/630/830 ) 1-12 गुणस्थान 1 5 x पाँचों ज्ञानावरणीय 1 2 दर्शनावरणीय - ( गोम्मटसार कर्मकांड/631-32/831 ) 1 1-9/i 1 9 1 सर्व दर्शनावरणी 2 9/ii-12/i 1 6 1 स्त्यागृद्धि त्रिक् रहित 6 3 12/ii 1 4 1 चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल 3 3 वेदनीय - ( गोम्मटसार कर्मकांड/633-634/832 ) 1 1-14/i 1 2 1 दोनों वेदनीय 2 14/ii 1 1 1 सात या असाता 2 4 मोहनीय (देखो पृथक् सारणी) 5 आयु - ( गोम्मटसार कर्मकांड/366-371/522-535 ) 1 बद्धायुष्क 2 1 2 (i) भु.मनु., बध्य.मनु. (ii) भु.तिर्यंच, बध्य.तिर्यंच
2 5 (i) भु.मनु.,ब.ति. ii व vice versa (ii) भु.मनु.,ब.नारक व vice versa
(iii) भु.ति.,ब.नारक व vice versa
(iv) भु.ति.,ब.नारक व vice versa
(v) भु.ति., ब.देव व vice versa
2 अबद्धायुष्क 1 1 4 अन्यतम भुज्यमान आयु से 4 भंग 3 6 नाम - (देखो पृथक् सारणी) 7 गोत्र - ( गोम्मटसार कर्मकांड/635/833-835 ) 1 1-14/i 1 2 1 दोनों गोत्र 2 14/ii 1 1 1 उच्च गोत्र 2 8 अंतराय - ( गोम्मटसार कर्मकांड/630/830/ ) 1 1-12/ii 1 5 1 पाँचों अंतराय
( कषायपाहुड़ 2/ पृष्ठ), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/5/33-36 ), (पं.सं./सं./5/42-47) कुल सत्त्व योग्य=28; कुल सत्त्व स्थान=15
द्रष्टव्य - अनिवृत्तिकरण में मोहनीय के क्षय का क्रम :
1. नवें गुणस्थान के काल के संख्यातवें भाग को व्यतीत करके (अप्रमत्त व प्रमत्त) 8 प्रकृतियों का क्षय करता है।
2. अनंतर अंतर्मुहूर्त बिता कर क्रम से (9/i) में दर्शायी 16 का क्षय करता है।
3. ओघ में प्ररूपणा पुरुषवेद सहित चढ़ने वालों की हैं। यदि स्त्रीवेद, नपुंसक वेद के साथ श्रेणी चढ़े तो 9/iii व 9/iv में तीनों वेदों की क्षपणा 6 नो कषायों के साथ युगपत् प्रारंभ करता है। तहाँ पुरुष वेद की अंतिम खंड को क्षपणा के निकट उससे पहले ही स्त्री व नपुंसक वेदों के अंतिम खंडों का अभाव हो जाता है। तब वहाँ 9/iv स्थान बजाय 5 के सत्त्व के 11 के सत्त्ववाला बनता है। फिर पुरुष वेद व 6 नोकषाय को युगपत् क्षय करके 9/vii में पुरुषवेदीवत् ही 4 का सत्त्व कर लेता है।
संकेत - देखो सारणी सं.1 का प्रारंभ
सं. मार्गणा गुणस्थान प्रतिस्थान प्रकृति प्रमाण प्रकृतियों का विवरण प्रमाण स्वामी जीव विवरण कषायपाहुड़ 2/ पृ. कषायपाहुड़ 2/ पृ. 1 211 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/x 1 202 संज्वलन लोभ 2 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/ix 2 202 संज्वलन लोभ, माया 3 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/viii 3 202 संज्वलन लोभ, माया व मान 4 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/vii 4 202 चारो संज्वलन 5 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/vi 5 203 4 संज्वलन व पुरुष वेद 6 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/v 11 203 4 संज्वलन, पुरुष वेद, 6 नो कषाय 7 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/iv 12 203 4 संज्वलन, 6 नो कषाय, पु.स्त्री वेद, 8 212 क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 9/iii 13 203 4 संज्वलन, 6 नो कषाय, 3 वेद, 9 212 दर्शन मोह के क्षय सहित चारों गति के जीव 9/ii 21 203 4 अनंतानुबंधी रहित चारित्र मोह की 25 10 212 दर्शन मोह क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी 4-7 कृत-कृत्य वे 22 203 उपरोक्त 21 व सम्यक् प्रकृति 11 217 दर्शन मोह क्षपक मनुष्य, मनुष्यणी (मिथ्यात्व का क्षय कर चुका हो शेष दो का क्षय करना बाकी हो) 4-7 23 203 मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी रहित सर्व 12 218 चर्तुगति उपशम या वेदक सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि अनंता. की विसंयोजना सहित 13 221 चर्तुगति के अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि 1 26 203 सम्य. व मिश्र मोह 14 221 चर्तुगति के सादि मिथ्यादृष्टि (मिश्र मोह की उद्वेलना सहित) 1 27 203 सम्यक् प्रकृति रहित सर्व 15 221 उपशम व वेदक सम्यग्दृष्टि, यो.1-3 गु.स. 1-4 28 203 सर्व
द्रष्टव्य - (सत्त्व स्थान में प्रकृतियों का विवरण देखो सारणी सं.4 )
सं. प्रमाण गुणस्थान विकल्प नं.1 विकल्प नं.2 विकल्प नं.3 विकल्प नं.4 कषायपाहुड़ 2/ पृ. सादि मिथ्यादृष्टि अनादि मि. सातिशय मि. 1 मिथ्यादृष्टि 26,27,28 26 26 2 सासादन 28 x x 3 सम्यग्मिथ्यात्व 28 x x सम्यक्त्व क्षायिक कृतकृत्य वेदक वेदक उपशम 4 212/221 अविरत सम्यक्त्व 21 22,23,24 28 28 5 212/221 संयतासंयत 21 22,23,24 28 28 6 212/221 प्रमत्तसंयत 21 22,23,24 28 28 7 212/221 अप्रमत्तसंयत 21 22,23,24 28 28 212/221 अप्रमत्त सा. x 22,23,24 x x क्षपक श्रेणी - पुरुषवेदी आरोहक स्त्रीवेदी आरोहक नपुंसक वेदी आरोहक 8 212/221 अपूर्वकरण 21 21 21 8 212 अनिवृत्तिकरण (i) 21 21 21 द्रष्टव्य - सारणी सं.1 अनिवृत्तिकरण (ii) 21 21 21 अनिवृत्तिकरण (iii) 13 13 13 अनिवृत्तिकरण (iv) 13-नपुं.=12 13 13 अनिवृत्तिकरण (v) 12-स्त्री=11 12 (13-स्त्रीवेद) 13 अनिवृत्तिकरण (vi) 11-6 नो कषाय=5 11(12-नपुं.) 11 (13 स्त्रीवेद) अनिवृत्तिकरण (vii) 5-पु.वेद=4 4(11-पु.वेद 6 कषाय) 4 (11-पु.वेद 6 नोकषाय) अनिवृत्तिकरण (viii) 5 3 3 अनिवृत्तिकरण (ix/i) 2 2 2 अनिवृत्तिकरण (ix/ii) 1 (बादर) 1 (बादर) 1 बादर 10 211 सूक्ष्मसांपराय 1 सूक्ष्म 1 सूक्ष्म 1 सूक्ष्म 12 क्षीणकषाय x x x उपशम श्रेणी उपशम सम्यक्त्व - 8-11 28-24 के दो स्थान उपशम श्रेणी क्षायिक सम्यकत्व - 8-11 21 का स्थान
सं. मार्गणा स्थान सं. मार्गणा स्थान 1 गति अपेक्षा - सम्यक्त्व अपेक्षा - पर्याप्त - पर्याप्त - 1 चारों में अन्यतम गति के जीव पर्याप्त 10 अन्यतम सम्यक्त्व 2 केवल मनुष्य गति के जीव पर्याप्त 11 केवल क्षायिक सम्यक्त्व 3 मनुष्य व देव गति के जीव पर्याप्त 12 केवल कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व 4 मनुष्य व तिर्यंच गति के जीव पर्याप्त 13 केवल वेदक सम्यक्त्व 5 देव व नरक गति के जीव पर्याप्त 14 केवल उपशम सम्यक्त्व 6 नरक व मनुष्य गति के जीव पर्याप्त 15 उपशम व वेदक सम्यक्त्व 7 देव मनुष्य व तिर्यंच गति के जीव पर्याप्त 16 उपशम वेदक सम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि 8 देव मनुष्य व नरक गति के जीव पर्याप्त 17 उपर्युक्त सं.16+सासादन व सादि मिथ्यादृष्टि 9 मनुष्य, तिर्यंच व नरक गति के जीव पर्याप्त 18 सादि मिथ्यादृष्टि व सासादन द्रष्टव्य - (i) यह 9 स्थान 'पर्याप्तक' के जानने
(ii)इन्हीं 9 स्थानों को 'अपर्याप्तक' बनाने के लिए पर्याप्त के स्थान पर अपर्याप्त लिख लेना।
(iii) इन्हीं 9 स्थानों को पर्याप्तापर्याप्त बनाने के लिए पर्याप्त के स्थान पर उभय लिख लेना।
19 वेदक सम्यक्त्व, मिश्र., सासादन, मिथ्या. 20 सादि मिथ्यादृष्टि 21 अनादि मिथ्यादृष्टि 22 सादि अनादि मिथ्यादृष्टि वेद की अपेक्षा - 23 केवल पुरुष वेद
प्रमाण - ( कषायपाहुड़ 2/ पृष्ठ), संकेत - प्रकृतियों का विवरण देखो सारणी सं.4
प्रमाण मार्गणा कुल सत्त्व स्थान प्रति स्थान प्रकृतियाँ प्रत्येक स्थान का क्रमश: स्वामित्व विशेष (देखें सारणी सं - 9) 1 गति मार्गणा - 221 नरक गति - 221 सामान्य 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15,12/अ.,10 221 प्रथम पृथिवी 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15,12/अ.,10 221 2-7 पृथिवी 4 28,27,26,24 17,20,22,15 तिर्यंचगति - 221 सामान्य 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15,12/अ.भोग भूमि, 10 221 पंचेंद्रिय सा.व प. 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15,12/अ.भोग भूमि, 10 221 पंचेंद्रिय योनिमति 4 28,27,26,24 17,20,22,15 223 लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच 3 28,27,26 20,20,22 मनुष्य गति - 223 सामान्य - ओघवत् -- 223 मनु. पर्या. व मनुष्यणी - ओघवत् -- 224 मनुष्य ल.अप. 3 28,27,26 देवगति - 222 सामान्य 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15/अ.12/23/अ.11-23 222 भवनत्रिक देव 4 28,27,26,24 17,20,22,15 222 सौधर्मादि देवियाँ 4 28,27,26,24 17,20,22,15 222 सौधर्म-नवग्रैवेयक 6 28,27,26,24,22,21 17,20,22,15/अ.12/23/अ.11/23 222 अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि 4 28,24,22,21 15,15,12/अ.,11 2 इंद्रिय मार्गणा - 224 एकेंद्रिय सर्व भेद 3 28,27,26 18,20,22 224 विकलेंद्रिय सर्व भेद 3 28,27,26 20,20+22 224 पंचेंद्रिय सामान्य व पर्याप्त 15 - ओघवत् -- 224 पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्त 3 28,27,26 20,20,22 3 काय मार्गणा - 224 सर्व स्थावर 3 28,27,26 20,20,22 224 त्रस सा. व पर्याप्त 15 - ओघवत् -- 224 त्रस लब्ध्यपर्याप्त 3 28,27,26 20,20,22 4 योग मार्गणा - 224 5 मन, 5 वचन, व काय सामान्य योगी 15 - ओघवत् -- 224 औदारिक काय - ओघवत् -- 225 औदारिक मिश्र 6 28 2/अ./13,2/अ.भोग भू.12 28 ति.अ.भोग भूमि/12 28,27,26 4/अ./18, 4/अ./20, 4/अ.20 24,22 व 21 2/अ./13, 4/अ.योग/13 225 वैक्रियक 28,27,26,24,21 5/17,5/20,5/22 226 वैक्रियक मिश्र 9 उपरोक्त सर्व + 22 5/अ.के उपरोक्त सर्व+5 अ./12 226 आहारक व आहारक मिश्र 3 28,24,21 13,13,11 226 कार्माण 6 28,28,28,27,26,24,24 1/18,3/13,देव/14,1/20,1/22,3/13, देव14,1/12,1/11 (यहाँ तिर्यंच को भोगभूमिज ही जानना।) 5 वेद मार्गणा - 227 स्त्रीवेदी 9 28,27,26,24 23,22,13,12,21
7/17,7/20,7/22,7/15 2/12,2 क्षपक, 2/11
227 पुरुषवेदी 11 28,27,26,24 21,23,22
13,12,11,5
7/17,7/20,7/22,7/15 7/11,2/12,7/12 व
ओघवत्
258 नपुंसकवेदी 9 28,27,26,24 22,21,13,13,12
9/17,9/20,9/22,9/15 6/12,6/11,2/12 ओघवत्
229 अपगतवेदी 8 24,21 11,5,4,3,2,1
उपशांत कषाय 6 कषाय मार्गणा - 229 क्रोध 12 28 से 4 तक - ओघवत् 229 मान 13 28 से 3 तक - ओघवत् 229 माया 14 28 से 2 तक - ओघवत् 229 लोभ 15 28 से 1 तक - ओघवत् 229 अकषायी 2 24,21 उपशांत कषाय 7 ज्ञान मार्गणा - 224 मति, श्रुत अज्ञान 3 28,27,26 18,20,22 224 विभंग 3 28,27,26 18,20,22 229 मति, श्रुतज्ञान 13 28,24 से 1 1/15, ओघवत् 229 अवधिज्ञान 13 28,24 से 1 1/15, ओघवत् 229 मन:पर्ययज्ञान 13 28,24 से 1 1/15, ओघवत् 8 संयम मार्गणा - संयम सामान्य 229 सामायिक, छेदोपस्थापन 13 28,24 से 2 2/5, ओघवत् 230 परिहार विशुद्धि 5 28,24,23,22,21 2/15,15,12,11 230 सूक्ष्म सांपराय 3 24,21 1 उपशामक, क्षपक 229 यथाख्यात 2 24,21 उपशांत कषाय 230 संयमासंयम 5 28,24,23,22,21 4/15,4/15,2/12,2/11 230 असंयम 0 28 से 21 तक ओघवत् 9 दर्शन मार्गणा - 222 चक्षु - - ओघवत् -- अचक्षु - - ओघवत् -- 229 अवधि 13 28,24 से 1 1/15, ओघवत् 10 लेश्या मार्गणा - 230 कृष्ण 5 28,28,27,26,24,21 1/19,9/15,1/20,1/22,9/15,2/11 230 नील 5 28,28,27,26,24,21 230 कापोत 2 22 21
ति.अपर्याप्त भोग भूमिज 6/उभय/12,11
231 पीत, पद्म 7 28,27,26,24 21,23,22
7/17, 7/20, 7/22, 7/15 7/11, 2/12, 3/12 देव अपर्याप्त
231 शुक्ल 15 22, सर्व 15 स्थान ओघवत् 11 भव्यत्व मार्गणा - 222 भव्य ओघवत् --- 232 अभव्य 1 26 21 12 सम्यक्त्व मार्गणा - 229 सम्यक्त्व सामान्य 13 28,24 से 1 तक 1/15 ओघवत् 232 क्षायिक 9 21 से 1 तक 1/11 ओघवत् 232 वेदक 4 28,24,23,22 1/13, 1/13, 2/13, 1/12 232 उपशम 2 28,24 1, 1 232 सम्यग्मिथ्यात्व 2 28,24 1, 1 232 सासादन 1 28 1 234 मिथ्यादृष्टि 3 28,27,26 20,20,22 13 संज्ञी मार्गणा - 223 संज्ञी ओघवत् --- 224 असंज्ञी 3 28,27,26 18,20,22 14 आहारक मार्गणा - 222 आहारक ओघवत् --- 232 अनाहारक कार्माणकाय योगवत् ---
सं. स्वामी जीव गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./620-824 प्रतिस्थान प्रकृति प्रकृतियों का विवरण ( गोम्मटसार कर्मकांड/ भाषा./610/817) 1 कर्म भूमिज मनु.प.व नि.अप.असंयमादि वैमानिक देव असंयत 93 2 2 सासादन रहित चतुर्गति के जीव 92 93-तीर्थंकर 3 देव सम्यग्दृष्टि, मनुष्य, नारकी सम्यक् व मिथ्यादृष्टि 91 93-आहारक द्विक् 4 अनिवृत्तिकरण में प्रकृतियों का क्षय भये पीछे चतुर्गति। 90 93-आहारक द्विक् व तीर्थंकर 5 देव द्विक् की उद्वेलना, एकेंद्रिय या विकलेंद्रिय के हो तो वह मरकर जहाँ उपजे वहाँ तिर्यंच, मनुष्य मिथ्यादृष्टि भी उस उद्वेलना सहित रहे हैं। 88 उपर्युक्त 90-देवद्विक् 6 उपर्युक्त सं.5 जीव नारकद्विक् की उद्वेलना कर ले तो। 84 उपर्युक्त 88-नारक द्विक् व वैक्रियक द्विक् 7 मनुष्यद्विक् की उद्वेलना भये तेज, वात कायिक या अन्य 88 वाले स्थानवत् होय ऐसा तिर्यंच सा मिथ्यादृष्टि 82 93-(तीर्थंकर, आहारक द्वि.,देवद्विक्, नारकद्विक्, वैक्रियक द्वि., मनुष्य द्विक् 8 अनिवृत्तिकरण 9/ii से 14/i तक 80 93-(नरक द्वि., तिर्यंच द्वि., 1-4 इंद्रिय आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर। 9 अनिवृत्तिकरण 9/ii से 14/i तक 79 80-तीर्थंकर 10 अनिवृत्तिकरण 9/ii से 14/i तक 78 80-आहारक द्विक् 11 अनिवृत्तिकरण 9/ii से 14/i तक 77 80-आहारक द्वि., तीर्थंकर 12 तीर्थंकर अयोगी का अंतसमय 10 मनुष्य गति, पंचे., सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, मनुष्यानुपूर्वी 13 सामान्य अयोगी का अंतसमय 9 उपर्युक्त 10-तीर्थंकर
क्र. मार्गणा कुल स्थान प्रति स्थान प्रकृतियाँ 1 नारकी सामान्य 3 90, 91, 92 2 नारकी (4-7 पृ.) 2 90, 92 3 तिर्यंच (सर्व) 3 82, 84, 88 4 मनुष्य सामान्य 12 82 रहित सर्व 5 अयोग केवली 4 77, 78, 79, 80, 9, 10 6 सयोग केवली 4 77, 78, 79, 80 7 आहारक 2 92, 93 8 सर्व भोग भूमि मनुष्य, तिर्यंच 2 90, 93 9 वैमानिक देव 4 90, 91, 92, 93 10 भवनत्रिक 2 90, 92 11 सर्व सासादनवर्ती 1 90
संकेत - सत्त्व स्थान - प्रकृतियों का विवरण=देखो सारणी सं.11।
गुण स्थान कुल स्थान प्रतिस्थान प्रकृति (देखो सारणी सं.11) गुणस्थान कुल स्थान प्रतिस्थान प्रकृतियाँ (देखो सारणी सं.11) 1 6 82, 84, 88, 90, 91, 92 8 4 90, 91, 92, 93 2 1 90 9 8 क्षपक 77,78,79,80 उपशमक 90,91,92,93
3 2 90, 92 10 8 पूर्वोक्त नवम गुणस्थानवत् 4 4 90, 91, 92, 93 11 4 90, 91, 92, 93 5 4 90, 91, 92, 93 12 4 77, 78, 79, 80 6 4 90, 91, 92, 93 13 4 77, 78, 79, 80 7 4 90, 91, 92, 93 14 6 9, 10, 77, 78, 80
क्र. मार्गणा कुल स्थान प्रति स्थान प्रकृति (देखो सारणी सं.11) 1 गति मार्गणा - 1 नरक 3 90, 91, 92 2 तिर्यंच 5 82, 84, 88, 90, 92 3 मनुष्य 12 77,78,79,80,84,88,90,91,92,93,9,90 4 देव 4 90, 91, 92, 93 2 इंद्रिय मार्गणा - 1 एकेंद्रिय 5 82, 84, 88, 90, 92 2 विकलेंद्रिय 5 82, 84, 88, 90, 92 3 पंचेंद्रिय 13 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93,9,10 3 काय मार्गणा - 1 पृ., अप., तेज.,वायु., वन. 5 82,84,88,90,91,92 2 त्रस 13 पंचेंद्रियवत् 4 योग मार्गणा - 1 सर्व मन वचन 12 77,78,89,80,82,84,88,90,91,92,93,9,10 2 औदारिक 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93 3 औदारिक मिश्र 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93 4 वैक्रियक 4 90, 91, 92, 93 5 वैक्रियक मिश्र 4 90, 91, 92, 93 6 आहारक 2 92, 93 7 आहारक मिश्र 2 92, 93 8 कार्माण 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93 5 वेद मार्गणा - 1 स्त्री वेद 9 77,79,82,84,88,90,91,92,93 2 नपुंसक वेद 9 पूर्वोक्त स्त्रीवेदवत् 3 पुरुष वेद 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93 7 ज्ञान मार्गणा - 1 मति, श्रुतअज्ञान 6 82,84,88,90,91,92 2 विभंग 3 90,91,92 3 मति, श्रुत, अवधि 8 77,88,79,80,90,91,92,93 4 मन:पर्यय 8 77,88,79,80,90,91,92,93 5 केवल 6 77,78,79,80,9,10 8 संयम मार्गणा - 1 सामायिक छेदोपस्थापन 8 77,78,79,80,90,91,92,93 2 परिहार विशुद्धि 4 90,91,92,93 3 सूक्ष्म सांपराय 8 77,78,89,80,90,91,92,93 4 यथाख्यात 10 77,78,79,80,90,91,92,93,9,10 5 देश संयत 4 90,91,92,93 6 असंयत 7 82,84,88,90,91,92,93 9 दर्शन मार्गणा - 1 चक्षु दर्शन 9 77,79,82,84,88,90,91,92,93 2 अचक्षु दर्शन 9 77,79,82,84,88,90,91,92,93 3 अवधि दर्शन 8 77,78,79,80,90,91,92,93 4 केवल दर्शन 6 77,78,79,80,9,10 10 लेश्या मार्गणा - 1 कृष्णादि 3 7 82,84,88,90,91,92,93 2 पीत 4 90,91,92,93 3 पद्म 4 90,91,92,93 4 शुक्ल 8 77,78,79,80,90,91,92,93 11 भव्य मार्गणा - 1 भव्य 13 सर्व स्थान 2 अभव्य 4 82,84,88,90 12 सम्यक्त्व मार्गणा - 1 क्षायिक 10 77,78,79,80,90,91,92,93,9,10 2 वेदक 4 90,91,92,93 3 उपशम 4 90,91,92,93 4 सम्यक् मिथ्यात्व 2 90, 93 5 सासादन 1 90 6 मिथ्यादृष्टि 6 82,84,88,90,91,92,93 13 संज्ञी मार्गणा - 1 संज्ञी 9 77,78,82,84,88,90,91,92,93 2 असंज्ञी 5 82,84,88,90,91 14 आहारक मार्गणा - 1 आहारक 9 77,79,82,84,88,90,91,92,93 2 अनाहारक सामान्य 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93 3 अनाहारक अयोगी 2 9, 10
क्र. मार्गणा कुल स्थान प्रति स्थान प्रकृति (देखो सारणी सं.11) 1 अपर्याप्तक - 1 अपर्याप्त सातों समास 5 82,84,88,90,92 2 सर्व एके. विकलेंद्रिय तथा असंज्ञी पर्याप्त 5 82,84,88,90,92 3 संज्ञी पर्याप्त 11 77,78,79,80,82,84,88,90,91,92,93
क्र. प्रकृति प्रमाण जघन्य स्थिति क्षपक श्रेणी में ही संभव 1 मिथ्यात्व 203 2 समय 2 सम्यग्मिथ्यात्व 203 2 समय 3 सम्यक्प्रकृति 205 1 समय 4 अनंतानुबंधी 4 2 समय 5 8 कषाय 203 2 समय 6 संज्वलन क्रोध 207 अंत: कम 2 मास 7 संज्वलन मान 208 अंत: कम 1 मास 8 संज्वलन माया 209 अंत: कम 1/2 मास 9 संज्वलन लोभ 205 1 समय 10 6 कषाय 210 संख्यात वर्ष 11 स्त्री वेद 205 1 समय 12 पुरुष वेद 209 अंत: कम 8 वर्ष 13 नपुंसक वेद 205 1 समय 14 संक्रमण होने के पश्चात् शेष बची सम्यक्प्रकृति 205 1 समय
प्रमाण गुणस्थान व प्रकृति
स्थिति सत्त्व
जघन्य प्रमाण उत्कृष्ट 1. मिथ्यादृष्टि - 9 मोह सामान्य 1 सा.पल्य/असं. देखें स्थिति - 61 70 को.को.सा. 194 मिथ्यात्व 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 70 को.को.सा. 195 सम्य.मिश्रमोह 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 अंत: कम 1 सा. 197 16 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 40 को.को.सा. 197 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 1 आवली कम 1 सा. 2. सासादन - 11 सामान्य मोह अंत:को.को. सा. देखें स्थिति - 61 अंत:को.को. सा. 200 दर्शन मोह त्रिक 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 अंत:को.को. सा. 200 16 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 अंत:को.को. सा. 200 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
देखें स्थिति - 61 अंत:को.को. सा. 3. सम्यग्मिथ्यादृष्टि - 10 मोह सामान्य अंत: देखें स्थिति - 61 अंत: कम 70 को.को.सा. 200 दर्शन मोह त्रिक 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: कम 70को.को.सा. 200 16 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: कम 40को.को.सा. 200 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: कम 40को.को.सा. 4. अविरत सम्यग्दृष्टि (क्षायिक) - 11 मोह सामान्य अंत: 11 अंत: 200 12 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 200 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 4. अविरत सम्यग्दृष्टि (वेदक) - 13 मोह सामान्य अंत:को.को. सा. 11 अंत: कम 70 को.को.सा. 203 दर्शन मोह त्रिक 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: कम 70 को.को.सा. 203 16 कषाय अंत:को.को. सा. 200 अंत: कम 40 को.को.सा. 203 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: कम 40को.को.सा. 4. अविरत सम्यग्दृष्टि (उपशम) - 13 मोह सामान्य अंत: 11 अंत: 203 दर्शन मोह त्रिक 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 203 16 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 203 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 5. संयतासंयत - 13 मोह सामान्य अंत: 11 अंत: 203 दर्शन मोह त्रिक 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 203 16 कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 203 नो कषाय 2 समय (देखें सत्त्व - 3.16)
200 अंत: 6-7. प्रमत्त अप्रमत्त संयत (सामान्य) - सामान्य संयत संयतासंयतवत् 10 संयतासंयतवत् सामान्य छेदोपस्थापन संयतासंयतवत् 200 संयतासंयतवत् 13 परिहार विशुद्धि संयतासंयतवत् 200 संयतासंयतवत् 6. क्षायिक सामायिक छेदोपस्थापन - मोह सामान्य 12 कषाय 9 कषाय 8-9 (उपशामक) - सर्व स्थान 200 संयतासंयतवत् 10. सूक्ष्म सांपराय उपशामक - सर्व स्थान देखें सत्त्व - 3.16 200 संयतासंयतवत् 11. उपशांत कषाय - मोह सामान्य अंत: 10 अंत: दर्शन मोह त्रिक देखें सत्त्व - 3.16 200 अंत: 12 कषाय देखें सत्त्व - 3.16 200 अंत: नो कषाय देखें सत्त्व - 3.16 200 अंत: 8-9 (क्षपक) - मोह सामान्य देखें सत्त्व - 3.16 12 कषाय देखें सत्त्व - 3.16 नो कषाय देखें सत्त्व - 3.16 10. सूक्ष्म सांपराय क्षपक - 12 मोह सामान्य 1 समय लोभ देखें सत्त्व - 3.16
पूर्व पृष्ठ
अगला पृष्ठ