अपराजित: Difference between revisions
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8. विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का एक नगर-देखें [[ विद्याधर ]]; <br> | 8. विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का एक नगर-देखें [[ विद्याधर ]]; <br> | ||
9. विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर-देखें [[ विद्याधर ]]। <br> | 9. विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर-देखें [[ विद्याधर ]]। <br> | ||
10. | 10. <span class="GRef">( महापुराण सर्ग संख्या 52/श्लोक 7)</span> धातकी खंड में सुसीमा देश का राजा था (2-3) प्रव्रज्या ग्रहण कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया और ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये (12-14) यह पद्मप्रभ भगवान का पूर्व का तीसरा भव है। <br> | ||
11. | 11. <span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 62/श्लोक)</span> वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तमितसागर का पुत्र था (412-413) राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त हो गया और नारद का सत्कार करना भूल गया (430-431) क्रुद्ध नारद ने शत्रु दमितारि को युद्धार्थ प्रस्तुत किया (443) इन्होंने नर्तकी का वेश बना उसकी लड़की का हरण कर लिया और युद्ध में उसको हरा दिया (461-484) तथा बलभद्र पद पाया (510)। अंत में दीक्षा ले समाधि-मरण कर अच्युतेंद्र पद पाया (26-27) यह शांतिनाथ भगवान का पूर्व का 7वाँ भव है। <br> | ||
12. | 12. <span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 62/श्लोक )</span> सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हदास का पुत्र था (3-10) पहिले अणुव्रत धारण किये (16) फिर एक माह का उत्कृष्ट संन्यास धारण कर अच्युतेंद्र हुआ (45-50) यह भगवान् नेमिनाथ का पूर्व का पाँचवाँ भव है। <br> | ||
13. | 13. <span class="GRef">(हरिवंश पुराण सर्ग 36/श्लोक</span>.) जरासंध का भाई था, कंस की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण के साथ युद्ध में मारा गया (72-73)। <br> | ||
14. श्रुतावतार के अनुसार आप भगवान् वीर के पश्चात् तृतीय श्रुतकेवली हुए थे। समय-वी.नि. 92-114, ई.पू.434-412। देखें [[ इतिहास ]]। 4/4। <br> | 14. श्रुतावतार के अनुसार आप भगवान् वीर के पश्चात् तृतीय श्रुतकेवली हुए थे। समय-वी.नि. 92-114, ई.पू.434-412। देखें [[ इतिहास ]]। 4/4। <br> | ||
15. | 15. <span class="GRef">(सिद्धिविनिश्चय / प्रस्तावना 34/पं.महेंद्रकुमार)</span> आप सुमति आचार्य के शिष्य थे। समय-वि. 494 (ई.437) <br> | ||
16. | 16. <span class="GRef">(भगवती आराधना / प्रस्तावना /पं. नाथूराम प्रेमी)</span> आप चंद्रनंदि के प्रशिष्य और बलदेवसूरि के शिष्य थे। आपका अपर नाम विजयाचार्य था। आपने भगवती आराधना पर विस्तृत संस्कृत टीका लिखी है। समय-शक 658 (वि. 793) में टीका पूरी की।</p> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) अंतिम केवली जंबूस्वामी के पश्चात् होने वाले ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप महाविद्याओं के पारगामी पाँच श्रुतकेवलियों में तृतीय श्रुतकेवली । <span class="GRef"> महापुराण 2.130-142 </span>ये अनेक नयों से अति विशुद्ध विचित्र अर्थों के कर्ता, पूर्ण श्रुतज्ञानी और महातपस्वी थे । इनके पूर्व नंदी, नंदिमित्र और गोवर्द्धन तथा बाद में भद्रबाहु हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 76.518-521, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.61, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.41-44 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) अंतिम केवली जंबूस्वामी के पश्चात् होने वाले ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप महाविद्याओं के पारगामी पाँच श्रुतकेवलियों में तृतीय श्रुतकेवली । <span class="GRef"> महापुराण 2.130-142 </span>ये अनेक नयों से अति विशुद्ध विचित्र अर्थों के कर्ता, पूर्ण श्रुतज्ञानी और महातपस्वी थे । इनके पूर्व नंदी, नंदिमित्र और गोवर्द्धन तथा बाद में भद्रबाहु हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 76.518-521, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#61|हरिवंशपुराण - 1.61]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.41-44 </span></p> | ||
<p id="2">(2) बहुत ऊँचे गोपुर, कोट और तीन परिखाओं से युक्त विजयार्ध की दक्षिण और उत्तर श्रेणी का एक नगर । यह महावत्स की देश की राजधानी था । <span class="GRef"> महापुराण 19.48,53, 63. 209-214, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.87 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) बहुत ऊँचे गोपुर, कोट और तीन परिखाओं से युक्त विजयार्ध की दक्षिण और उत्तर श्रेणी का एक नगर । यह महावत्स की देश की राजधानी था । <span class="GRef"> महापुराण 19.48,53, 63. 209-214, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#87|हरिवंशपुराण - 22.87]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) वृषभदेव के पैतीसवें गणधर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 12.61 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) वृषभदेव के पैतीसवें गणधर । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#61|हरिवंशपुराण - 12.61]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) सातवें तीर्थंकर, सुपार्श्व के पूर्वजन्म का नाम । <span class="GRef"> पद्मपुराण 20. 14-24 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) सातवें तीर्थंकर, सुपार्श्व के पूर्वजन्म का नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#14|पद्मपुराण - 20.14-24]] </span></p> | ||
<p id="5">(5) तीर्थंकर मुनिसुव्रत की दीक्षा-शिविका । <span class="GRef"> महापुराण 67.40, </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) तीर्थंकर मुनिसुव्रत की दीक्षा-शिविका । <span class="GRef"> महापुराण 67.40, </span></p> | ||
<p id="6">(6) नवग्रैवेयक के ऊपर स्थित पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । यहाँ देव तैंतीस सागर प्रमाण आयु पाते हैं । शरीर एक हाथ ऊँचा होता है । साढ़े सोलह मास बीत जाने पर यहाँ वे एक बार श्वास लेते हैं, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते हैं और प्रवीचार रहित होते हैं । तीर्थंकर सुविधिनाथ पृष्ठ के पूर्वभव में इसी विमान में थे । <span class="GRef"> महापुराण 66.16-19 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 20. 31.35, 105. 170-171, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 6.65,33.155 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) नवग्रैवेयक के ऊपर स्थित पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । यहाँ देव तैंतीस सागर प्रमाण आयु पाते हैं । शरीर एक हाथ ऊँचा होता है । साढ़े सोलह मास बीत जाने पर यहाँ वे एक बार श्वास लेते हैं, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते हैं और प्रवीचार रहित होते हैं । तीर्थंकर सुविधिनाथ पृष्ठ के पूर्वभव में इसी विमान में थे । <span class="GRef"> महापुराण 66.16-19 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#31|पद्मपुराण - 20.31]].35, 105. 170-171, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_6#65|हरिवंशपुराण - 6.65]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_33#155|33.155]] </span></p> | ||
<p id="7">(7) चक्रपुर नगर का राजा । इसने तीर्थंकर अरनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । चक्रायुध इसका पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 59.239, 65.35-36, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.89-90, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 7.28 </span></p> | <p id="7" class="HindiText">(7) चक्रपुर नगर का राजा । इसने तीर्थंकर अरनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । चक्रायुध इसका पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 59.239, 65.35-36, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#89|हरिवंशपुराण - 27.89-90]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 7.28 </span></p> | ||
<p id="8">(8) उज्जयिनी नगरी का राजा । इसकी विजया नाम की रानी और उससे उत्पन्न विजयश्री नाम की पुत्री थी । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60. 105 </span></p> | <p id="8" class="HindiText">(8) उज्जयिनी नगरी का राजा । इसकी विजया नाम की रानी और उससे उत्पन्न विजयश्री नाम की पुत्री थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#105|हरिवंशपुराण - 60.105]] </span></p> | ||
<p id="9">(9) जरासंध का पुत्र । इसने तीन सौ छियालीस बार यादवों से युद्ध किया था फिर भी असफल रहा । अंत में यह कृष्ण के बाणों से मारा गया था । इसे जरासंध का भाई भी कहा है । <span class="GRef"> महापुराण 71.7-70, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 36.71-73, 50.14,18.25 </span></p> | <p id="9" class="HindiText">(9) जरासंध का पुत्र । इसने तीन सौ छियालीस बार यादवों से युद्ध किया था फिर भी असफल रहा । अंत में यह कृष्ण के बाणों से मारा गया था । इसे जरासंध का भाई भी कहा है । <span class="GRef"> महापुराण 71.7-70, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_36#71|हरिवंशपुराण - 36.71-73]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_50#14|50.14], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#25|18.25]]</span></p> | ||
<p id="10">(10) जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में स्थित वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में उत्पन्न केवली । <span class="GRef"> महापुराण 69.38-39 </span></p> | <p id="10">(10) जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में स्थित वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में उत्पन्न केवली । <span class="GRef"> महापुराण 69.38-39 </span></p> | ||
<p id="11">(11) पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकांता का पुत्र, वज्रनाभि का सहोदर । यह स्वर्ग से च्युत प्रशांत मदन का जीव था । <span class="GRef"> महापुराण 11.9-10 </span></p> | <p id="11">(11) पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकांता का पुत्र, वज्रनाभि का सहोदर । यह स्वर्ग से च्युत प्रशांत मदन का जीव था । <span class="GRef"> महापुराण 11.9-10 </span></p> | ||
<p id="12">(12) वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर और उनकी रानी वसुंधरा का पुत्र । इसी राजा की दूसरी रानी से उत्पन्न अनंतवीर्य इसका भाई था । राज्य प्राप्त कर नृत्यांगनाओं के नृत्य में आसक्त होने से यह अपने यहाँ आये नारद का स्वागत नहीं कर सका जिससे कुपित हुए नारद ने दमितारि को युद्ध करने को प्रेरित किया था । इन दोनों भाइयों ने नर्तकी का वेष बनाकर और दमितारि के यहाँ जाकर अपने कलापूर्ण नृत्य से उसे प्रसन्न किया था । दमितारि ने नृत्यकला सीखने के लिए अपनी कन्या कनकश्री इन्हें सौंप दी थी । नर्तकी वेषी इसने अनंतवीर्य के सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा की जिससे प्रभावित होकर कनकश्री ने अनंतवीर्य से मिलना चाहा । अनंतवीर्य अपने रूप में प्रकट हुआ और इसे अपने साथ ले गया । इस कारण हुए युद्ध में दमितारि अनंतवीर्य द्वारा अपने ही चक्र से मारा गया । इसके बाद अनंतवीर्य तीन खंडों का राज्य करके मर गया । उसके वियोग से पीड़ित इसने उसके पुत्र अनंतसेन को राज्य दे दिया और स्वयं यशोधर मुनि से संयमी हुआ । संन्यास मरण करके यह अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुआ । इसने बलभद्र का पद पाया था । <span class="GRef"> महापुराण 62.412-489, 510,63 2-4, 26-27, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 4.248,280,5.3-4 </span></p> | <p id="12">(12) वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर और उनकी रानी वसुंधरा का पुत्र । इसी राजा की दूसरी रानी से उत्पन्न अनंतवीर्य इसका भाई था । राज्य प्राप्त कर नृत्यांगनाओं के नृत्य में आसक्त होने से यह अपने यहाँ आये नारद का स्वागत नहीं कर सका जिससे कुपित हुए नारद ने दमितारि को युद्ध करने को प्रेरित किया था । इन दोनों भाइयों ने नर्तकी का वेष बनाकर और दमितारि के यहाँ जाकर अपने कलापूर्ण नृत्य से उसे प्रसन्न किया था । दमितारि ने नृत्यकला सीखने के लिए अपनी कन्या कनकश्री इन्हें सौंप दी थी । नर्तकी वेषी इसने अनंतवीर्य के सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा की जिससे प्रभावित होकर कनकश्री ने अनंतवीर्य से मिलना चाहा । अनंतवीर्य अपने रूप में प्रकट हुआ और इसे अपने साथ ले गया । इस कारण हुए युद्ध में दमितारि अनंतवीर्य द्वारा अपने ही चक्र से मारा गया । इसके बाद अनंतवीर्य तीन खंडों का राज्य करके मर गया । उसके वियोग से पीड़ित इसने उसके पुत्र अनंतसेन को राज्य दे दिया और स्वयं यशोधर मुनि से संयमी हुआ । संन्यास मरण करके यह अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुआ । इसने बलभद्र का पद पाया था । <span class="GRef"> महापुराण 62.412-489, 510,63 2-4, 26-27, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 4.248,280,5.3-4 </span></p> | ||
<p id="13">(13) इस नाम का हलायुध । यह राम को प्राप्त रत्नों में एक रक्त था । <span class="GRef"> महापुराण 68.673 </span></p> | <p id="13">(13) इस नाम का हलायुध । यह राम को प्राप्त रत्नों में एक रक्त था । <span class="GRef"> महापुराण 68.673 </span></p> | ||
<p id="14">(14) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित सुगंधिल देश के सिंहपुर नगर के निवासों राजा अर्हद्दास और उसकी रानी जिनदत्ता का पुत्र । इसके जन्म से इसका पिता अजेय हो गया इससे इसे यह नाम प्राप्त हुआ था । मुनि विमवाहन से इसने सम्यग्दर्शन धारण कर अणुव्रत आदि श्रावक के व्रत धारण किये थे । विमलवाहन तीर्थ के दर्शन कर भोजन व ग्रहण करने की प्रतिज्ञा थी आठ दिन के उपवास के बाद इंद्र के आदेश से यक्षपति ने पूर्ण की थी । चारणऋद्धिधारी अमितमति और अमिततेज नामक मुनियों से निज पूर्वभव सुनकर तथा एक मास की आयु शेष ज्ञात कर इसने अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्य दे दिया । प्रायोपगमन नामक संन्यास धार कर यह सोलहवें स्वर्ग के सातंकर नाम के विमान में बाईस सागर प्रमाण आयु का धारी अच्युतेंद्र हुआ और वहाँ से च्युत होकर कुरजांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा श्रीचंद्र की रानी श्रीमती का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 70.4-52, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34.3-43 </span></p> | <p id="14">(14) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित सुगंधिल देश के सिंहपुर नगर के निवासों राजा अर्हद्दास और उसकी रानी जिनदत्ता का पुत्र । इसके जन्म से इसका पिता अजेय हो गया इससे इसे यह नाम प्राप्त हुआ था । मुनि विमवाहन से इसने सम्यग्दर्शन धारण कर अणुव्रत आदि श्रावक के व्रत धारण किये थे । विमलवाहन तीर्थ के दर्शन कर भोजन व ग्रहण करने की प्रतिज्ञा थी आठ दिन के उपवास के बाद इंद्र के आदेश से यक्षपति ने पूर्ण की थी । चारणऋद्धिधारी अमितमति और अमिततेज नामक मुनियों से निज पूर्वभव सुनकर तथा एक मास की आयु शेष ज्ञात कर इसने अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्य दे दिया । प्रायोपगमन नामक संन्यास धार कर यह सोलहवें स्वर्ग के सातंकर नाम के विमान में बाईस सागर प्रमाण आयु का धारी अच्युतेंद्र हुआ और वहाँ से च्युत होकर कुरजांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा श्रीचंद्र की रानी श्रीमती का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 70.4-52, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_34#3|हरिवंशपुराण - 34.3-43]] </span></p> | ||
<p id="15">(15) धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर स्थित वत्स । देश के सुसीमा नगर का स्वामी । यह अपने पुत्र सुमित्र को राज्य देकर पिहितास्रव मुनि से दीक्षित हुआ तथा समाधिमरण हारा शरीर त्याग कर अहमिंद्र हुआ । वहाँ से चयकर कौशांबी नगरी में तीर्थंकर पद्मप्रभ का पिता, धरण नाम का नृप हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 52. 2-3, 12-18, 26 </span></p> | <p id="15">(15) धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर स्थित वत्स । देश के सुसीमा नगर का स्वामी । यह अपने पुत्र सुमित्र को राज्य देकर पिहितास्रव मुनि से दीक्षित हुआ तथा समाधिमरण हारा शरीर त्याग कर अहमिंद्र हुआ । वहाँ से चयकर कौशांबी नगरी में तीर्थंकर पद्मप्रभ का पिता, धरण नाम का नृप हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 52. 2-3, 12-18, 26 </span></p> | ||
<p id="16">(16) जंबूद्वीप को घेरे हुए जगती के चारों दिशाओं के चार द्वारों में एक द्वार । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.377, 390 </span></p> | <p id="16">(16) जंबूद्वीप को घेरे हुए जगती के चारों दिशाओं के चार द्वारों में एक द्वार । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#377|हरिवंशपुराण - 5.377]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#390|5.390]] </span></p> | ||
<p id="17">(17) समवसरण के तीसरे कोट की उत्तर दिशा में निर्मित द्वार के आठ नामों मे एक नाम । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.3, 56 16 </span></p> | <p id="17">(17) समवसरण के तीसरे कोट की उत्तर दिशा में निर्मित द्वार के आठ नामों मे एक नाम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_57#3|हरिवंशपुराण - 57.3]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_56#16|56.16]]</span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. एक यक्ष-देखें यक्ष ;
2. एक ग्रह-देखें ग्रह ;
3. कल्पातीत देवों का एक भेद-देखें स्वर्ग - 2.1;
4, अपराजित स्वर्ग-देखें स्वर्ग - 5.4;
5. जंबूद्वीप की वेदिका का उत्तर द्वार-देखें लोक - 3.1;
6. अपर विदेहस्थ व प्रवान क्षेत्र की मुख्य नगरी-देखें लोक - 5.2;
7. रुचकवर पर्वत का कूट-देखें लोक - 5.13;
8. विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का एक नगर-देखें विद्याधर ;
9. विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर-देखें विद्याधर ।
10. ( महापुराण सर्ग संख्या 52/श्लोक 7) धातकी खंड में सुसीमा देश का राजा था (2-3) प्रव्रज्या ग्रहण कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया और ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये (12-14) यह पद्मप्रभ भगवान का पूर्व का तीसरा भव है।
11. (महापुराण सर्ग संख्या 62/श्लोक) वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तमितसागर का पुत्र था (412-413) राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त हो गया और नारद का सत्कार करना भूल गया (430-431) क्रुद्ध नारद ने शत्रु दमितारि को युद्धार्थ प्रस्तुत किया (443) इन्होंने नर्तकी का वेश बना उसकी लड़की का हरण कर लिया और युद्ध में उसको हरा दिया (461-484) तथा बलभद्र पद पाया (510)। अंत में दीक्षा ले समाधि-मरण कर अच्युतेंद्र पद पाया (26-27) यह शांतिनाथ भगवान का पूर्व का 7वाँ भव है।
12. (महापुराण सर्ग संख्या 62/श्लोक ) सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हदास का पुत्र था (3-10) पहिले अणुव्रत धारण किये (16) फिर एक माह का उत्कृष्ट संन्यास धारण कर अच्युतेंद्र हुआ (45-50) यह भगवान् नेमिनाथ का पूर्व का पाँचवाँ भव है।
13. (हरिवंश पुराण सर्ग 36/श्लोक.) जरासंध का भाई था, कंस की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण के साथ युद्ध में मारा गया (72-73)।
14. श्रुतावतार के अनुसार आप भगवान् वीर के पश्चात् तृतीय श्रुतकेवली हुए थे। समय-वी.नि. 92-114, ई.पू.434-412। देखें इतिहास । 4/4।
15. (सिद्धिविनिश्चय / प्रस्तावना 34/पं.महेंद्रकुमार) आप सुमति आचार्य के शिष्य थे। समय-वि. 494 (ई.437)
16. (भगवती आराधना / प्रस्तावना /पं. नाथूराम प्रेमी) आप चंद्रनंदि के प्रशिष्य और बलदेवसूरि के शिष्य थे। आपका अपर नाम विजयाचार्य था। आपने भगवती आराधना पर विस्तृत संस्कृत टीका लिखी है। समय-शक 658 (वि. 793) में टीका पूरी की।
पुराणकोष से
(1) अंतिम केवली जंबूस्वामी के पश्चात् होने वाले ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप महाविद्याओं के पारगामी पाँच श्रुतकेवलियों में तृतीय श्रुतकेवली । महापुराण 2.130-142 ये अनेक नयों से अति विशुद्ध विचित्र अर्थों के कर्ता, पूर्ण श्रुतज्ञानी और महातपस्वी थे । इनके पूर्व नंदी, नंदिमित्र और गोवर्द्धन तथा बाद में भद्रबाहु हुए थे । महापुराण 76.518-521, हरिवंशपुराण - 1.61, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.41-44
(2) बहुत ऊँचे गोपुर, कोट और तीन परिखाओं से युक्त विजयार्ध की दक्षिण और उत्तर श्रेणी का एक नगर । यह महावत्स की देश की राजधानी था । महापुराण 19.48,53, 63. 209-214, हरिवंशपुराण - 22.87
(3) वृषभदेव के पैतीसवें गणधर । हरिवंशपुराण - 12.61
(4) सातवें तीर्थंकर, सुपार्श्व के पूर्वजन्म का नाम । पद्मपुराण - 20.14-24
(5) तीर्थंकर मुनिसुव्रत की दीक्षा-शिविका । महापुराण 67.40,
(6) नवग्रैवेयक के ऊपर स्थित पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । यहाँ देव तैंतीस सागर प्रमाण आयु पाते हैं । शरीर एक हाथ ऊँचा होता है । साढ़े सोलह मास बीत जाने पर यहाँ वे एक बार श्वास लेते हैं, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते हैं और प्रवीचार रहित होते हैं । तीर्थंकर सुविधिनाथ पृष्ठ के पूर्वभव में इसी विमान में थे । महापुराण 66.16-19 पद्मपुराण - 20.31.35, 105. 170-171, हरिवंशपुराण - 6.65, 33.155
(7) चक्रपुर नगर का राजा । इसने तीर्थंकर अरनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । चक्रायुध इसका पुत्र था । महापुराण 59.239, 65.35-36, हरिवंशपुराण - 27.89-90, पांडवपुराण 7.28
(8) उज्जयिनी नगरी का राजा । इसकी विजया नाम की रानी और उससे उत्पन्न विजयश्री नाम की पुत्री थी । हरिवंशपुराण - 60.105
(9) जरासंध का पुत्र । इसने तीन सौ छियालीस बार यादवों से युद्ध किया था फिर भी असफल रहा । अंत में यह कृष्ण के बाणों से मारा गया था । इसे जरासंध का भाई भी कहा है । महापुराण 71.7-70, हरिवंशपुराण - 36.71-73, [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_50#14|50.14], 18.25
(10) जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में स्थित वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में उत्पन्न केवली । महापुराण 69.38-39
(11) पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उसकी रानी श्रीकांता का पुत्र, वज्रनाभि का सहोदर । यह स्वर्ग से च्युत प्रशांत मदन का जीव था । महापुराण 11.9-10
(12) वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर और उनकी रानी वसुंधरा का पुत्र । इसी राजा की दूसरी रानी से उत्पन्न अनंतवीर्य इसका भाई था । राज्य प्राप्त कर नृत्यांगनाओं के नृत्य में आसक्त होने से यह अपने यहाँ आये नारद का स्वागत नहीं कर सका जिससे कुपित हुए नारद ने दमितारि को युद्ध करने को प्रेरित किया था । इन दोनों भाइयों ने नर्तकी का वेष बनाकर और दमितारि के यहाँ जाकर अपने कलापूर्ण नृत्य से उसे प्रसन्न किया था । दमितारि ने नृत्यकला सीखने के लिए अपनी कन्या कनकश्री इन्हें सौंप दी थी । नर्तकी वेषी इसने अनंतवीर्य के सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा की जिससे प्रभावित होकर कनकश्री ने अनंतवीर्य से मिलना चाहा । अनंतवीर्य अपने रूप में प्रकट हुआ और इसे अपने साथ ले गया । इस कारण हुए युद्ध में दमितारि अनंतवीर्य द्वारा अपने ही चक्र से मारा गया । इसके बाद अनंतवीर्य तीन खंडों का राज्य करके मर गया । उसके वियोग से पीड़ित इसने उसके पुत्र अनंतसेन को राज्य दे दिया और स्वयं यशोधर मुनि से संयमी हुआ । संन्यास मरण करके यह अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुआ । इसने बलभद्र का पद पाया था । महापुराण 62.412-489, 510,63 2-4, 26-27, पांडवपुराण 4.248,280,5.3-4
(13) इस नाम का हलायुध । यह राम को प्राप्त रत्नों में एक रक्त था । महापुराण 68.673
(14) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित सुगंधिल देश के सिंहपुर नगर के निवासों राजा अर्हद्दास और उसकी रानी जिनदत्ता का पुत्र । इसके जन्म से इसका पिता अजेय हो गया इससे इसे यह नाम प्राप्त हुआ था । मुनि विमवाहन से इसने सम्यग्दर्शन धारण कर अणुव्रत आदि श्रावक के व्रत धारण किये थे । विमलवाहन तीर्थ के दर्शन कर भोजन व ग्रहण करने की प्रतिज्ञा थी आठ दिन के उपवास के बाद इंद्र के आदेश से यक्षपति ने पूर्ण की थी । चारणऋद्धिधारी अमितमति और अमिततेज नामक मुनियों से निज पूर्वभव सुनकर तथा एक मास की आयु शेष ज्ञात कर इसने अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्य दे दिया । प्रायोपगमन नामक संन्यास धार कर यह सोलहवें स्वर्ग के सातंकर नाम के विमान में बाईस सागर प्रमाण आयु का धारी अच्युतेंद्र हुआ और वहाँ से च्युत होकर कुरजांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा श्रीचंद्र की रानी श्रीमती का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ । महापुराण 70.4-52, हरिवंशपुराण - 34.3-43
(15) धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी तट पर स्थित वत्स । देश के सुसीमा नगर का स्वामी । यह अपने पुत्र सुमित्र को राज्य देकर पिहितास्रव मुनि से दीक्षित हुआ तथा समाधिमरण हारा शरीर त्याग कर अहमिंद्र हुआ । वहाँ से चयकर कौशांबी नगरी में तीर्थंकर पद्मप्रभ का पिता, धरण नाम का नृप हुआ । महापुराण 52. 2-3, 12-18, 26
(16) जंबूद्वीप को घेरे हुए जगती के चारों दिशाओं के चार द्वारों में एक द्वार । हरिवंशपुराण - 5.377, 5.390
(17) समवसरण के तीसरे कोट की उत्तर दिशा में निर्मित द्वार के आठ नामों मे एक नाम । हरिवंशपुराण - 57.3, 56.16