पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 55 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 9: | Line 9: | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 56 - तात्पर्य-वृत्ति | अगला पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 56 - तात्पर्य-वृत्ति | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र गाथा 55 - समय-व्याख्या | इसी गाथा की समय-व्याख्या टीका]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 55 - समय-व्याख्या | इसी गाथा की समय-व्याख्या टीका]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका | तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका | तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका ]] |
Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेण परिणामे । (55)
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसुदसत्थेसु वित्थिण्णा ॥62॥
अर्थ:
उदय, उपशम, क्षय, इन दोनों के मिश्र / क्षयोपशम और परिणाम से सहित वे जीव के गुण अनेक शास्त्रों में विस्तार से वर्णित हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जुत्ता] युक्त हैं । कौन युक्त हैं । [ते जीव गुण] परमागम में प्रसिद्ध वे जीव के गुण, जीव के भाव, परिणाम युक्त / सहित हैं । किन-किन से सहित हैं ? [उदयेण] कर्म के उदय से, [उवसमेण] कर्म के उपशम से, [खयेण] कर्म के क्षय से, इन दोनों के मिश्र-रूप क्षयोपशम से और परिणाम से; यहाँ [परिणामे] अर्थात् इसमें प्राकृत व्याकरण के बल से सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होने पर भी तृतीया में व्याख्यान हुआ है, अत: करण-भूत परिणाम से सहित हैं; -- इसप्रकार व्युत्पत्ति रूप से औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक -- इसप्रकार पाँच भाव जानना चाहिए । वे कैसे हैं ? [बहुसुदसत्थेसु वित्थिण्ण] बहुश्रुत शास्त्रों में, तत्त्वार्थसूत्र आदि में विस्तृत विवेचन वाले हैं । औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक -- ये तीन भाव कर्म-जनित हैं तथा केवल-ज्ञानादि रूप क्षायिक-भाव यद्यपि वस्तु-वृत्ति से शुद्ध-बुद्ध एक जीव स्व-भाव है; तथापि कर्म-क्षय से उत्पन्न होने के कारण उपचार से कर्म-जनित ही है और शुद्ध पारिणामिक साक्षात् कर्म-निरपेक्ष ही है ।
यहाँ व्याख्यान से मिश्र, औपशमिक, क्षायिक मोक्ष के कारण हैं; मोह के उदय से सहित औदयिक बंध का कारण है; परंतु शुद्ध पारिणामिक बंध-मोक्ष का अकारण है -- ऐसा भावार्थ है । वैसा ही कहा भी है --
'मिश्र, औपशमिक और क्षायिक नामक भाव मोक्ष करते हैं
औदयिकभाव बंध करते हैं और पारिणामिक भाव निष्क्रिय हैं'
इसप्रकार द्वितीय अन्तर स्थल में पाँच भावों के कथन की मुख्यता से एक गाथा-सूत्र पूर्ण हुआ ।
(अब) तृतीय स्थल कहते हैं, वहाँ पहली गाथा में निश्चय से जीव को रागादि भावों का कर्तृत्व कहते हैं । दूसरी गाथा में उन (रागादि) सम्बन्धी उदयागत द्रव्य-कर्मों का व्यवहार से कर्ता है, यह कहा है -- इसप्रकार रागादि भावों के कर्तृत्व प्रतिपादन रूप दो स्वतंत्र गाथायें हैं । इसके बाद प्रथम गाथा में, यदि एकान्त से उदयागत द्रव्य-कर्म जीव के रागादि विभावों के कर्ता हैं तो जीव को सर्वप्रकार से अकर्तृत्व प्राप्त होता है -- ऐसा कहते हैं । दूसरी गाथा में पूर्वोक्त दूषण का परिहार कहते हैं । -- इसप्रकार पूर्व-पक्ष के परिहार की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं । तत्पश्चात् प्रथम गाथा में जीव पुद्गल-कर्मों का निश्चय से कर्ता नहीं है, ऐसा आगम-संवाद दिखाते हैं तथा दूसरी में कर्म और जीव के अभेद षट्कारक कहते हैं -- इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथायें हैं ।
इसप्रकार तृतीय अन्तरस्थल में कर्तृत्व की मुख्यता से समुदाय द्वारा छह गाथायें कहते हैं । वह इसप्रकार --