ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 55 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेण परिणामे । (55)
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसुदसत्थेसु वित्थिण्णा ॥62॥
अर्थ:
उदय, उपशम, क्षय, इन दोनों के मिश्र / क्षयोपशम और परिणाम से सहित वे जीव के गुण अनेक शास्त्रों में विस्तार से वर्णित हैं ।
समय-व्याख्या:
जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत् । कर्मणां फलदानसमर्थतयोद᳭भूतिरुदय:, अनुद᳭भूतिरुपशम:, उद᳭भभूत्यनुद᳭भूती क्षयोपशम:, अत्यंतविश्लेष: क्षय:, द्रव्यात्मलाभहेतुक: परिणाम: । तत्रोदयेन युक्त औदयिक: उपशमेन युक्त औपशमिक:, क्षयोपशमेन युक्त: क्षायोपशमिक:, क्षयेण युक्त: क्षायिक:, परिणामेन युक्त: पाणिामिक: । त एते पञ्च जीवगुणा: । तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबंधनाश्चत्वार:, स्वभावनिबंधन एक: । एते चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यंत इति ॥५५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
जीव को भावों के उदय का (पाँच भावों की प्रगटता का) यह वर्णन है ।
कर्मों का १फल-दान-समर्थ-रूप से उद्भव सो 'उदय' है, अनुद्भव सो 'उपशम' है, उद्भव तथा अनुद्भव सो 'क्षयोपशम' है, २अत्यन्त विश्लेश सो 'क्षय' है, द्रव्य का ३आत्म-लाभ (अस्तित्व) जिसका हेतु है वह 'परिणाम' है । वहाँ, उदय से युक्त वह 'औदयिक' है, उपशम से युक्त वह 'औपशमिक' है, क्षयोपशम से युक्त वह 'क्षायोपशमिक' है, क्षय से युक्त वह 'क्षायिक' है, परिणाम से युक्त वह 'पारिणामिक' है । -- ऐसे यह पाँच जीव-गुण हैं । उनमें (इन पाँच गुणों में) उपाधि का चतुर्विधपना जिनका कारण (निमित्त) है ऐसे चार हैं, स्वभाव जिसका कारण है, ऐसा एक है । उपाधि के भेद से और स्वरूप के भेद से भेद करने पर, उनके अनेक प्रकारों में विस्तृत किया जाता है ॥५५॥
१फल-दान-समर्थ = फल देनें में समर्थ ।
२अत्यन्त विश्लेश = अत्यन्त वियोग; आत्यन्तिक निवृत्ति ।
३आत्म-लाभ = स्वरूप-प्राप्ति; स्वरूप को धारण कर रखना; अपने को धारण कर रखना; अस्तित्व । (द्रव्य अपने को धारण कर रखता है अर्थात् स्वयं बना रहता है इसलिए उसे 'परिणाम' है) ।