हरिवंश पुराण - सर्ग 52: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>दूसरे दिन जब संसार का मध्यभाग सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हो गया तब जरासंध और कृष्ण युद्ध करने के लिए तैयार हो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ बाहर निकले ॥1॥ तदनंतर जो पहले के समान व्यूहों की रचना कर स्थित थीं और जिनमें अनेक राजा लोग यथास्थान स्थित थे ऐसी दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरे का घात करने के लिए उद्यत हुई ॥2॥ युद्ध के मैदान में आकर रथ पर बैठा जरासंध, यादवों को देखकर अपने समीपवर्ती हंसक मंत्री से बोला कि हे हंसक ! यादवों में प्रत्येक के नाम-चिह्न आदि तो बता जिससे मैं उन्हीं को देखूं अन्य लोगों के मारने से क्या लाभ है ? इस प्रकार कहने पर हंसक बोला― ॥3-4॥</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>दूसरे दिन जब संसार का मध्यभाग सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हो गया तब जरासंध और कृष्ण युद्ध करने के लिए तैयार हो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ बाहर निकले ॥1॥<span id="2" /> तदनंतर जो पहले के समान व्यूहों की रचना कर स्थित थीं और जिनमें अनेक राजा लोग यथास्थान स्थित थे ऐसी दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरे का घात करने के लिए उद्यत हुई ॥2॥<span id="3" /><span id="4" /> युद्ध के मैदान में आकर रथ पर बैठा जरासंध, यादवों को देखकर अपने समीपवर्ती हंसक मंत्री से बोला कि हे हंसक ! यादवों में प्रत्येक के नाम-चिह्न आदि तो बता जिससे मैं उन्हीं को देखूं अन्य लोगों के मारने से क्या लाभ है ? इस प्रकार कहने पर हंसक बोला― ॥3-4॥<span id="5" /></p> | ||
<p> हे स्वामिन् ! जिसमें सुवर्णमयी सांकलों से युक्त फेन के समान सफेद घोड़े जुते हुए हैं और जिस पर गरुड़ की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह सूर्य के रथ के समान देदीप्यमान कृष्ण का रथ दिखाई दे रहा है ॥5॥ जो सुवर्णमयी साँकलों से युक्त तोते के समान हरे रंग के घोड़ों से युक्त है तथा जिस पर बैल की पता का फहरा रही है ऐसा यह शूर-वीर अरिष्टनेमि का रथ है ॥6॥ हे राजन् ! जो कृष्ण की दाहिनी ओर रीठा के समान वर्ण वाले घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर ताल की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बलदेव का रथ सुशोभित हो रहा है | <p> हे स्वामिन् ! जिसमें सुवर्णमयी सांकलों से युक्त फेन के समान सफेद घोड़े जुते हुए हैं और जिस पर गरुड़ की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह सूर्य के रथ के समान देदीप्यमान कृष्ण का रथ दिखाई दे रहा है ॥5॥<span id="6" /> जो सुवर्णमयी साँकलों से युक्त तोते के समान हरे रंग के घोड़ों से युक्त है तथा जिस पर बैल की पता का फहरा रही है ऐसा यह शूर-वीर अरिष्टनेमि का रथ है ॥6॥<span id="7" /> हे राजन् ! जो कृष्ण की दाहिनी ओर रीठा के समान वर्ण वाले घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर ताल की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बलदेव का रथ सुशोभित हो रहा है ॥ 7॥<span id="8" /> इधर यह कृष्णवर्ण के घोड़ों से युक्त एवं वानर की ध्वजा से सहित जो बड़ा भारी रथ दिखाई दे रहा है वह सेनापति का रथ है । ॥8॥<span id="82" /><span id="9" /> उधर सुवर्णमयी सांकलों से युक्त, गरदन के नीले-नीले बालों वाले घोड़ों से जुता हुआ यह पांडु राजा के पुत्र युधिष्ठिर का रथ सुशोभित हो रहा है ॥9॥<span id="10" /> जो चंद्रमा के समान सफेद एवं वायु के समान वेगशाली घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर हाथी की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बड़ा भारी अर्जुन का रथ है ॥10॥<span id="11" /> जो नील कमल के समान नीले-नीले घोड़ों से युक्त है तथा जिस पर मणिमय और सुवर्णमय आभूषण सुशोभित हैं ऐसा यह भीमसेन का रथ है ॥11॥<span id="92" /><span id="12" /> वह यादवों की सेना के बीच में लाल रंग के घोड़ों से जुता हुआ तथा बड़े-बड़े सिंहों की ध्वजा से युक्त समुद्र विजय का रथ सुशोभित हो रहा है ॥12॥<span id="13" /> वह कुमार अक्रूर का रथ सुशोभित है जो कदली की ध्वजा से सहित है, बलवान् घोड़ों से युक्त है तथा सुवर्ण और मूंगाओं से देदीप्यमान हो रहा है ॥13 ॥<span id="14" /> तीतर के समान मटमैले घोड़ों से युक्त रथ सत्यक का है और कुमुद के समान सफेद घोड़ों से जुता रथ महा नेमिकुमार का है ॥14॥<span id="15" /> जो सुवर्णमय विशाल दंड की पताका से शोभित है तथा तोते को चोंच के समान लाल-लाल घोड़ों से युक्त है ऐसा यह भोज का महारथ है ॥15॥<span id="16" /> जो सुवर्णमय पलान से युक्त जुते हुए घोड़ों से सुशोभित है ऐसा वह हरिण की ध्वजा के धारक जरत्कुमार का रथ सुशोभित हो रहा है ॥16॥<span id="17" /> वह जो कांबोज के घोड़ों से युक्त, सूर्य के रथ के समान देदीप्यमान सफेद रंग का रथ सुशोभित हो रहा है वह राजा सोम के पुत्र सिंहल का रथ है ॥17॥<span id="18" /> जो सुवर्णमय आभूषणों से चित्र-विचित्र शरीर के धारक कुछ-कुछ लाल रंग के घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर मत्स्य की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह मरुराज का रथ सुशोभित हो रहा है ॥18॥<span id="19" /> यह जो कमल के समान आभा वाले घोड़ों से जुता, सेनाओं के आगे स्थित है वह रणवीर राजा पद्मरथ का रथ सुशोभित है ॥19॥<span id="20" /> वह जो सुवर्णमयी झूलों से युक्त कबूतर के समान रंग वाले तीन वर्ष के घोड़ों से जुता एवं कमल की ध्वजा से सहित रथ सुशोभित हो रहा है वह सारण का है ॥ 20 ॥<span id="21" /> जो सफेद और लाल रंग के पांच वर्ष के घोड़ों से जुता है ऐसा वह नग्नजित् के पुत्र मेरुदत्त का रथ प्रकाशमान है ॥21॥<span id="22" /> जो पांच वर्ण के घोड़ों से जुता है, सूर्य के समान देदीप्यमान है और जिस पर कलश की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह कुमार विदूरथ का वेगशाली रथ सुशोभित है ॥ 22 ॥<span id="23" /> इस प्रकार बलवान् यादवों के रथ सब रंग के घोड़ों से सहित हैं तथा वे सैकड़ों या हजारों की संख्या में हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥23॥<span id="24" /> अपने पक्ष के शूर-वीर राजाओं तथा समस्त राजकुमारों के नाना चिह्नों से युक्त रथों को आप यथायोग्य जानते ही हैं ॥24॥<span id="25" /> नाना देशों से आये हुए अनेक क्षत्रियों से युक्त आपका यह व्यूह अत्यंत शोभित हो रहा है तथा शत्रु सेना के लिए भय उत्पन्न कर रहा है ॥25॥<span id="26" /></p> | ||
<p> यह सुनकर जरासंध ने अपने सारथि से कहा कि हे सारथि ! तू मेरा रथ शीघ्र ही यादवों की ओर ले चल ॥26॥ तदनंतर सारथि ने रथ आगे बढ़ाया और जरासंध लगातार बाणों को वर्षा से समस्त यादवों को आच्छादित करने लगा ॥27॥ रथ आदि वाहनों पर स्थित क्रोध से भरे जरासंध के पुत्र भी यादवों के साथ यथायोग्य रण क्रीड़ा करने लगे ॥28॥ राजा जरासंध का सबसे बड़ा पुत्र कालयवन जो आये हुए साक्षात् यमराज के समान जान पड़ता था, मलय नामक हाथी पर सवार हो अधिक युद्ध करने लगा | <p> यह सुनकर जरासंध ने अपने सारथि से कहा कि हे सारथि ! तू मेरा रथ शीघ्र ही यादवों की ओर ले चल ॥26॥<span id="27" /> तदनंतर सारथि ने रथ आगे बढ़ाया और जरासंध लगातार बाणों को वर्षा से समस्त यादवों को आच्छादित करने लगा ॥27॥<span id="28" /> रथ आदि वाहनों पर स्थित क्रोध से भरे जरासंध के पुत्र भी यादवों के साथ यथायोग्य रण क्रीड़ा करने लगे ॥28॥<span id="29" /> राजा जरासंध का सबसे बड़ा पुत्र कालयवन जो आये हुए साक्षात् यमराज के समान जान पड़ता था, मलय नामक हाथी पर सवार हो अधिक युद्ध करने लगा ॥ 29 ॥<span id="30" /><span id="31" /><span id="32" /><span id="33" /><span id="34" /><span id="35" /><span id="36" /><span id="37" /><span id="38" /><span id="39" /><span id="40" /> इसके सिवाय सहदेव, द्रुमसेन, द्रुम, जलकेतु, चित्रकेतु, धनुर्धर, महीजय, भानु, कांचनरथ, दुर्धर, गंधमादन, सिंहांक, चित्रमाली, महीपाल, बृहद̖ध्वज, सुवीर, आदित्यनाग, सत्यसत्त्व, सुदर्शन, धनपाल, शतानीक, महाशुक्र, महावसु, वीराख्य, गंगदत्त, प्रवर, पार्थिव, चित्रांगद, वसुगिरि, श्रीमान्, सिंहकटि, स्फुट, मेघनाद, महानाद, सिंहनाद, वसुध्वज, वज्रनाभ, महाबाहु, जितशत्रु, पुरंदर, अजित, अजितशत्रु, देवानंद, शतद्रुत, मंदर, हिमवान्, विद्युत्केतु, माली, कर्कोटक, हृषीकेश, देवदत्त, धनंजय, सगर, स्वर्णबाहु, मद्यवान्, अच्युत, दुर्जय, दुर्मुख, वासुकि, कंबल, त्रिसिरस्, धारण, माल्यवान्, संभव, महापद्म, महानाग, महासेन, महाजय, वासव, वरुण, शतानीक, भास्कर, गरुत्मान्, वेणुदारी, वासुवेग, शशिप्रभ, वरुण, आदित्यधर्मा, विष्णुस्वामी, सहस्रदिक्, केतुमाली, महामाली, चंद्रदेव, बृहद्वलि, सहस्ररश्मि और अचिष्मान् आदि जरासंध के पुत्र प्रहार करने लगे ॥30-40 ॥<span id="41" /> गिरते हुए मनुष्य, हाथी, घोड़े और रथों से व्याप्त युद्ध में कालयवन को वसुदेव के पुत्रों ने घेर लिया ॥41 ॥<span id="42" /> तदनंतर यश का संग्रह करने वाले एवं एक-दूसरे के प्रति निंदात्मक वाक्यों का प्रयोग करने वाले उन कुमारों और कालयवन का भयंकर संग्राम हुआ । संग्राम के समय वे अहंकार वश व्यर्थ को डींगे भी हांक रहे थे ॥42॥<span id="43" /> कालयवन ने चक्र, नाराच आदि शस्त्रों से कितने ही कुमारों के सिर छेद डाले जिससे खून के लथ-पथ उन कटे हुए सिरों से पृथ्वी ऐसी सुशोभित होने लगी मानो कमलों से ही सुशोभित हो रही हो ॥ 43 ॥<span id="44" /> यह देख कुमार सारण ने क्रोध में आकर एक ही तलवार के प्रहार से कालयवन को चिरकाल के लिए यमराज के घर भेज दिया ॥44॥<span id="85" /><span id="45" /> जरासंध के शेष शूर-वीर पुत्र युद्ध के लिए सामने आये तो अर्धचंद्र बाणों के द्वारा सिर काटने वाले कृष्ण ने उन्हें मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया ॥45॥<span id="46" /></p> | ||
<p> तदनंतर स्वयं जरासंध, क्रोधवश धनुष तानकर रथ पर सवार हो, रथ पर बैठे हुए कृष्ण के सामने दौड़ा ॥46 | <p> तदनंतर स्वयं जरासंध, क्रोधवश धनुष तानकर रथ पर सवार हो, रथ पर बैठे हुए कृष्ण के सामने दौड़ा ॥46 ॥<span id="47" /> दोनों ही एक-दूसरे के प्रति तिरस्कार के शब्द कह रहे थे तथा दोनों ही उत्कट वीर्य के धारक थे इसलिए दोनों में स्वाभाविक एवं दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से भयंकर युद्ध होने लगा ॥47॥<span id="48" /> उधर जरासंध ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए शीघ्र ही अग्नि के समान देदीप्यमान प्रभा का धारक नागास्त्र छोड़ा ॥48॥<span id="49" /> इधर सावधान चित्त के धारक कृष्ण ने नागास्त्र को नष्ट करने के लिए गारुड़ अस्त्र छोड़ा और उसने शीघ्र ही आगे बढ़कर उस नागास्र को ग्रस लिया ॥49॥<span id="50" /> जरासंध ने प्रलयकाल के मेघ के समान भयंकर वर्षा करने वाला संवर्तक अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने भी महाश्वसन नामक अस्त्र के द्वारा तीव्र आँधी चलाकर उसे दूर कर दिया ॥50॥<span id="51" /> अस्त्रों के प्रयोग को जानने वाले जरासंध ने वायव्य अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने अंतरिक्ष अस्त्र के द्वारा उसका तत्काल निराकरण कर दिया । ॥51॥<span id="52" /></p> | ||
<p> जरासंध ने जलाने में समर्थ देदीप्यमान आग्नेय बाण छोड़ा तो कृष्ण ने वारुणास्त्र के द्वारा उसे दूर कर दिया | <p> जरासंध ने जलाने में समर्थ देदीप्यमान आग्नेय बाण छोड़ा तो कृष्ण ने वारुणास्त्र के द्वारा उसे दूर कर दिया ॥52॥<span id="53" /> क्रोध में आकर जरासंध ने वैरोचन शस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने माहेंद्र अस्त्र से उसे दूर से ही नष्ट कर दिया ॥53॥<span id="54" /> शत्रु ने युद्ध में राक्षस बाण छोड़ा तो कृष्ण ने शीघ्र ही नारायण अस्त्र चलाकर शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिये ॥54॥<span id="55" /> जरासंध ने तामसास्त्र चलाया तो कृष्ण ने भास्कर अस्त्र के द्वारा उसे नष्ट कर दिया और जरासंध ने अश्वग्रीव नामक अत्यंत तीक्ष्ण शस्त्र चलाया तो कृष्ण ने ब्रह्मशिरस नामक शस्त्र से उसे तत्काल रोक दिया ॥55 ॥<span id="56" /> इनके सिवाय शत्रु ने और भी दिव्य अस्त्र चलाये परंतु कृष्ण उन सबका निराकरण कर ज्यों के त्यों स्थिर खड़े रहे उनका बाल भी बांका नहीं हुआ ॥56॥<span id="57" /></p> | ||
<p> इस प्रकार जब जरासंध का समस्त प्रयास व्यर्थ हो गया तब उसने धनुष पृथ्वी पर फेंक दिया और हजार यक्षों के द्वारा रक्षित चक्ररत्न का चिंतवन किया ॥57॥ चिंतवन करते ही सूर्य के समान देदीप्यमान तथा दिशाओं के समूह को प्रकाशित करने वाला चक्ररत्न जरासंध के हाथ में आकर स्थित हो गया | <p> इस प्रकार जब जरासंध का समस्त प्रयास व्यर्थ हो गया तब उसने धनुष पृथ्वी पर फेंक दिया और हजार यक्षों के द्वारा रक्षित चक्ररत्न का चिंतवन किया ॥57॥<span id="58" /> चिंतवन करते ही सूर्य के समान देदीप्यमान तथा दिशाओं के समूह को प्रकाशित करने वाला चक्ररत्न जरासंध के हाथ में आकर स्थित हो गया ॥58॥<span id="59" /> नाना शस्त्रों के व्यर्थ हो जाने से जिसका क्रोध बढ़ रहा था तथा जो भृकुटि के भंग से अत्यंत भयंकर जान पड़ता था, ऐसे जरासंध ने घुमाकर शीघ्र ही वह चक्ररत्न कृष्ण की ओर फेंका ॥59॥<span id="60" /> जिसने अपनी कांति से सूर्य को फीका कर दिया था ऐसे आकाश में आते हुए उस चक्ररत्न को नष्ट करने के लिए कृष्णपक्ष के अन्य समस्त राजाओं ने भी यथायोग्य चक्र छोड़े ॥60॥<span id="61" /><span id="62" /> श्रीकृष्ण शक्ति तथा गदा आदि लेकर, बलदेव हल और मूसल लेकर, भीमसेन गदा लेकर, अस्त्र विद्या के राजा अर्जुन नाना अस्त्र लेकर, सेनापति-अनावृष्टि परिघ लेकर और युधिष्ठिर प्रकट हुए साँप के समान शक्ति को लेकर आगे आये ॥61-62॥<span id="63" /> समुद्रविजय तथा अक्षोभ्य आदि भाई अत्यंत सावधान होकर उस चक्ररत्न की ओर महा अस्त्र छोड़ने लगे ॥63 ॥<span id="64" /> किंतु भगवान् नेमिनाथ, अवधि-ज्ञान के द्वारा आगामी कार्य को गतिविधि को अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे कृष्ण के साथ ही चक्ररत्न के सामने खड़े रहे ॥64॥<span id="65" /><span id="66" /> राजाओं के अस्त्र समूह जिसे रोक रहे थे तथा जिससे देदीप्यमान तिलगों के समूह निकल रहे थे ऐसा वह चक्ररत्न मित्र के समान धीरे-धीरे पास आया और भगवान् नेमिनाथ के साथ-साथ कृष्ण की प्रदक्षिणा देकर शंख, चक्र और अंकुश से चिह्नित कृष्ण के दाहिने हाथ में स्थित हो गया ॥65-66॥<span id="67" /> उसी समय आकाश में दुंदुभि बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी, और यह नौवाँ नारायण प्रकट हुआ है इस प्रकार देव कहने लगे ॥67॥<span id="68" /> अनुकूल एवं सुगंधित वायु बहने लगी तथा वीर यादवों के अस्त्र उनके हृदयों के साथ-साथ उच्छवसित हो उठे ॥68॥<span id="69" /> संग्राम में कृष्ण को चक्र हाथ में लिये देख, जरासंध इस प्रकार विचार करने लगा कि हाय यह चक्र चलाना भी व्यर्थ हो गया ॥69॥<span id="70" /> चक्ररत्न और पराक्रम के समूह से जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रखा था तथा जो तीन खंड का शक्तिशाली अधि पति था ऐसा मैं आज पौरुषहीन हो गया-मेरा पुरुषार्थ खंडित हो गया ॥70॥<span id="71" /> जब तक दैव का बल प्रबल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र एवं पुरुषार्थ कार्यकारी होते हैं ॥71 ॥<span id="72" /> और देव के निर्बल होनेपर काल तथा पुरुषार्थ आदि निरर्थक हो जाते हैं यह जो विद्वानों द्वारा कहा जाता है वह सत्य ही कहा जाता है रंचमात्र भी अन्यथा नहीं है ॥72 ॥<span id="73" /> मैं गर्भ से ही ईश्वर था और बड़े से बड़े लोगों के लिए अलंघनीय था फिर भी गर्भ के प्रारंभ से ही क्लेश उठाने वाले एक छोटे से व्यक्ति के द्वारा क्यों जीता जा रहा हूँ ? ॥73॥<span id="74" /> यदि ऐसा साधारण व्यक्ति भी, विधाता के द्वारा मेरा जीतने वाला देखा गया था तो फिर इसे बाल्य अवस्था में गोकुल में नाना क्लेश क्यों उठाने पड़े? इसलिए विधि की इस चेष्टा को धिक्कार है ॥74॥<span id="75" /> जो लोगों को अंधा बनाने में दक्ष है, धीर-वीर मनुष्यों के भी धैर्य को नष्ट करने वाली है तथा जो वेश्या के समान अन्य पुरुष के पास जाने को इच्छा रखती है ऐसी इस लक्ष्मी को धिक्कार है ॥75॥<span id="76" /> इत्यादि विचार करते-करते जरासंध को यद्यपि यह निश्चय हो चुका था कि हमारा मरणकाल आ चुका है तथापि वह प्रकृति से निर्भय होने के कारण कृष्ण से इस प्रकार बोला ॥76॥<span id="77" /> अरे गोप! तू चक्र चला, व्यर्थ ही समय की उपेक्षा क्यों कर रहा है ? अरे मूर्ख ! समय की उपेक्षा करने वाला दीर्घसूत्री मनुष्य अवश्य ही नष्ट होता है ॥ 77॥<span id="78" /> जरासंध के इस प्रकार कहने पर स्वभाव से विनयी कृष्ण ने उससे कहा कि मैं चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका हूँ इसलिए आज से मेरे शासन में रहिए ॥ 78॥<span id="79" /> यद्यपि यह स्पष्ट है कि तुम हमारा अपकार करने में प्रवृत्त हो तथापि हम नमस्कार मात्र से प्रसन्न हो तुम्हारे अपकार को क्षमा किये देते हैं ॥79 ॥<span id="80" /> श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर अहंकार से भरे हुए जरासंध ने जोर देकर कहा-अरे यह चक्र तो मेरे लिए अलाप चक्र के समान है तू इससे अहंकार को क्यों प्राप्त हो गया है ? ॥80॥<span id="8" /> अथवा जिसने कभी कल्याण देखा ही नहीं ऐसा क्षुद्र मनुष्य थोड़ा-सा वैभव पाकर ही अहंकार करने लगता है और जिसने कल्याण देखा है ऐसा महान् पुरुष बहुत भारी वैभव पाकर भी अहंकार नहीं करता ॥8॥<span id="82" /><span id="9" /> मैं तुझे यादवों के साथ, इस चक्र के साथ तथा तेरी सहायता करने वाले अन्य राजाओं के साथ शीघ्र ही समुद्र में फेंकता हूँ ॥82॥<span id="83" /> जरासंध के इस प्रकार कहने पर चक्रवर्ती कृष्ण ने कुपित हो घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा और उसने शीघ्र ही जाकर जरासंध की वक्षःस्थलरूपी भित्ति को भेद दिया ॥83॥<span id="44" /> वह चक्ररत्न जरासंध को मारकर क्षण-भर में पुनः कृष्ण के हाथ में आ गया सो ठीक ही है क्योंकि भेजे हुए व्यक्ति के कृतकार्य हो चुकने पर कालक्षेप करना निष्फल है ॥44॥<span id="85" /><span id="45" /> कृष्ण ने यादवों के मन को हरण करने वाला अपना पाँच जन्य शंख फूंका और भगवान् नेमिनाथ, अर्जुन तथा सेनापति अनावृष्टि ने भी अपने-अपने शंख फूंके ॥85॥<span id="86" /> क्षोभ को प्राप्त समुद्र के शब्द के समान बाजों के गंभीर शब्द होने लगे और चारों ओर अभय घोषणाएं प्रकट की गयीं ॥86॥<span id="87" /> जिससे स्वसेना और परसेना अपना-अपना भय छोड़ बिना कुछ कहे ही चुपचाप आकर श्रीकृष्ण की आज्ञाकारिणी हो गयीं ॥87॥<span id="88" /> राजा दुर्योधन, द्रोण तथा दुःशासन आदि ने संसार से विरक्त हो मुनिराज विदुर के समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥88॥<span id="89" /> राजा कर्ण ने भी रणदीक्षा के बाद सुदर्शन नामक उद्यान में दमवर मुनिराज के समीप मोक्षफल को देने वाली दीक्षा ग्रहण कर ली ॥89॥<span id="90" /> राजा कर्ण ने जिस स्थानपर सुवर्ण के अक्षरों से भूषित कर्णकुंडल छोड़े थे उस स्थान को लोग कर्ण-सुवर्ण कहने लगे ॥90 ॥<span id="11" /> क्या मैं अपने स्वामी की सेवा करू ? यह पूछकर मातलि अपने स्वामी इंद्र के पास चला गया और यादव भी अन्य राजाओं के साथ अपने-अपने शिविर में चले गये ॥11॥<span id="92" /><span id="12" /></p> | ||
<p> उस समय सूर्य अस्त हो गया और संध्या की लालिमा दशों दिशाओं में फैल गयी, उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासंध को देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोक के कारण खूब रोया इसलिए उसका मुखजपाकुसुम के समान लाल हो गया और पश्चात् जलांजलि देने की इच्छा से उसने समुद्र में मज्जन किया है ॥92॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि ये संसार के प्राणी, शुभकर्म का उदय होने पर बड़े से बड़े पुरुषों पर आक्रमण करने वाली संपदा को प्राप्त होते हैं और शुभकर्म का उदय नष्ट होने पर विपत्तियां भी भोगते हैं इसलिए हे भक्तजनो ! जिनमत में स्थिर हो मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत निर्मल तप करो ॥13॥</p> | <p> उस समय सूर्य अस्त हो गया और संध्या की लालिमा दशों दिशाओं में फैल गयी, उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासंध को देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोक के कारण खूब रोया इसलिए उसका मुखजपाकुसुम के समान लाल हो गया और पश्चात् जलांजलि देने की इच्छा से उसने समुद्र में मज्जन किया है ॥92॥<span id="13" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि ये संसार के प्राणी, शुभकर्म का उदय होने पर बड़े से बड़े पुरुषों पर आक्रमण करने वाली संपदा को प्राप्त होते हैं और शुभकर्म का उदय नष्ट होने पर विपत्तियां भी भोगते हैं इसलिए हे भक्तजनो ! जिनमत में स्थिर हो मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत निर्मल तप करो ॥13॥<span id="52" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में जरासंध के</strong> <strong>वध का वर्णन करने वाला बावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥52॥<span id="53" /></strong></p> | |||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
दूसरे दिन जब संसार का मध्यभाग सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हो गया तब जरासंध और कृष्ण युद्ध करने के लिए तैयार हो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ बाहर निकले ॥1॥ तदनंतर जो पहले के समान व्यूहों की रचना कर स्थित थीं और जिनमें अनेक राजा लोग यथास्थान स्थित थे ऐसी दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरे का घात करने के लिए उद्यत हुई ॥2॥ युद्ध के मैदान में आकर रथ पर बैठा जरासंध, यादवों को देखकर अपने समीपवर्ती हंसक मंत्री से बोला कि हे हंसक ! यादवों में प्रत्येक के नाम-चिह्न आदि तो बता जिससे मैं उन्हीं को देखूं अन्य लोगों के मारने से क्या लाभ है ? इस प्रकार कहने पर हंसक बोला― ॥3-4॥
हे स्वामिन् ! जिसमें सुवर्णमयी सांकलों से युक्त फेन के समान सफेद घोड़े जुते हुए हैं और जिस पर गरुड़ की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह सूर्य के रथ के समान देदीप्यमान कृष्ण का रथ दिखाई दे रहा है ॥5॥ जो सुवर्णमयी साँकलों से युक्त तोते के समान हरे रंग के घोड़ों से युक्त है तथा जिस पर बैल की पता का फहरा रही है ऐसा यह शूर-वीर अरिष्टनेमि का रथ है ॥6॥ हे राजन् ! जो कृष्ण की दाहिनी ओर रीठा के समान वर्ण वाले घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर ताल की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बलदेव का रथ सुशोभित हो रहा है ॥ 7॥ इधर यह कृष्णवर्ण के घोड़ों से युक्त एवं वानर की ध्वजा से सहित जो बड़ा भारी रथ दिखाई दे रहा है वह सेनापति का रथ है । ॥8॥ उधर सुवर्णमयी सांकलों से युक्त, गरदन के नीले-नीले बालों वाले घोड़ों से जुता हुआ यह पांडु राजा के पुत्र युधिष्ठिर का रथ सुशोभित हो रहा है ॥9॥ जो चंद्रमा के समान सफेद एवं वायु के समान वेगशाली घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर हाथी की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बड़ा भारी अर्जुन का रथ है ॥10॥ जो नील कमल के समान नीले-नीले घोड़ों से युक्त है तथा जिस पर मणिमय और सुवर्णमय आभूषण सुशोभित हैं ऐसा यह भीमसेन का रथ है ॥11॥ वह यादवों की सेना के बीच में लाल रंग के घोड़ों से जुता हुआ तथा बड़े-बड़े सिंहों की ध्वजा से युक्त समुद्र विजय का रथ सुशोभित हो रहा है ॥12॥ वह कुमार अक्रूर का रथ सुशोभित है जो कदली की ध्वजा से सहित है, बलवान् घोड़ों से युक्त है तथा सुवर्ण और मूंगाओं से देदीप्यमान हो रहा है ॥13 ॥ तीतर के समान मटमैले घोड़ों से युक्त रथ सत्यक का है और कुमुद के समान सफेद घोड़ों से जुता रथ महा नेमिकुमार का है ॥14॥ जो सुवर्णमय विशाल दंड की पताका से शोभित है तथा तोते को चोंच के समान लाल-लाल घोड़ों से युक्त है ऐसा यह भोज का महारथ है ॥15॥ जो सुवर्णमय पलान से युक्त जुते हुए घोड़ों से सुशोभित है ऐसा वह हरिण की ध्वजा के धारक जरत्कुमार का रथ सुशोभित हो रहा है ॥16॥ वह जो कांबोज के घोड़ों से युक्त, सूर्य के रथ के समान देदीप्यमान सफेद रंग का रथ सुशोभित हो रहा है वह राजा सोम के पुत्र सिंहल का रथ है ॥17॥ जो सुवर्णमय आभूषणों से चित्र-विचित्र शरीर के धारक कुछ-कुछ लाल रंग के घोड़ों से जुता हुआ है तथा जिस पर मत्स्य की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह मरुराज का रथ सुशोभित हो रहा है ॥18॥ यह जो कमल के समान आभा वाले घोड़ों से जुता, सेनाओं के आगे स्थित है वह रणवीर राजा पद्मरथ का रथ सुशोभित है ॥19॥ वह जो सुवर्णमयी झूलों से युक्त कबूतर के समान रंग वाले तीन वर्ष के घोड़ों से जुता एवं कमल की ध्वजा से सहित रथ सुशोभित हो रहा है वह सारण का है ॥ 20 ॥ जो सफेद और लाल रंग के पांच वर्ष के घोड़ों से जुता है ऐसा वह नग्नजित् के पुत्र मेरुदत्त का रथ प्रकाशमान है ॥21॥ जो पांच वर्ण के घोड़ों से जुता है, सूर्य के समान देदीप्यमान है और जिस पर कलश की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह कुमार विदूरथ का वेगशाली रथ सुशोभित है ॥ 22 ॥ इस प्रकार बलवान् यादवों के रथ सब रंग के घोड़ों से सहित हैं तथा वे सैकड़ों या हजारों की संख्या में हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥23॥ अपने पक्ष के शूर-वीर राजाओं तथा समस्त राजकुमारों के नाना चिह्नों से युक्त रथों को आप यथायोग्य जानते ही हैं ॥24॥ नाना देशों से आये हुए अनेक क्षत्रियों से युक्त आपका यह व्यूह अत्यंत शोभित हो रहा है तथा शत्रु सेना के लिए भय उत्पन्न कर रहा है ॥25॥
यह सुनकर जरासंध ने अपने सारथि से कहा कि हे सारथि ! तू मेरा रथ शीघ्र ही यादवों की ओर ले चल ॥26॥ तदनंतर सारथि ने रथ आगे बढ़ाया और जरासंध लगातार बाणों को वर्षा से समस्त यादवों को आच्छादित करने लगा ॥27॥ रथ आदि वाहनों पर स्थित क्रोध से भरे जरासंध के पुत्र भी यादवों के साथ यथायोग्य रण क्रीड़ा करने लगे ॥28॥ राजा जरासंध का सबसे बड़ा पुत्र कालयवन जो आये हुए साक्षात् यमराज के समान जान पड़ता था, मलय नामक हाथी पर सवार हो अधिक युद्ध करने लगा ॥ 29 ॥ इसके सिवाय सहदेव, द्रुमसेन, द्रुम, जलकेतु, चित्रकेतु, धनुर्धर, महीजय, भानु, कांचनरथ, दुर्धर, गंधमादन, सिंहांक, चित्रमाली, महीपाल, बृहद̖ध्वज, सुवीर, आदित्यनाग, सत्यसत्त्व, सुदर्शन, धनपाल, शतानीक, महाशुक्र, महावसु, वीराख्य, गंगदत्त, प्रवर, पार्थिव, चित्रांगद, वसुगिरि, श्रीमान्, सिंहकटि, स्फुट, मेघनाद, महानाद, सिंहनाद, वसुध्वज, वज्रनाभ, महाबाहु, जितशत्रु, पुरंदर, अजित, अजितशत्रु, देवानंद, शतद्रुत, मंदर, हिमवान्, विद्युत्केतु, माली, कर्कोटक, हृषीकेश, देवदत्त, धनंजय, सगर, स्वर्णबाहु, मद्यवान्, अच्युत, दुर्जय, दुर्मुख, वासुकि, कंबल, त्रिसिरस्, धारण, माल्यवान्, संभव, महापद्म, महानाग, महासेन, महाजय, वासव, वरुण, शतानीक, भास्कर, गरुत्मान्, वेणुदारी, वासुवेग, शशिप्रभ, वरुण, आदित्यधर्मा, विष्णुस्वामी, सहस्रदिक्, केतुमाली, महामाली, चंद्रदेव, बृहद्वलि, सहस्ररश्मि और अचिष्मान् आदि जरासंध के पुत्र प्रहार करने लगे ॥30-40 ॥ गिरते हुए मनुष्य, हाथी, घोड़े और रथों से व्याप्त युद्ध में कालयवन को वसुदेव के पुत्रों ने घेर लिया ॥41 ॥ तदनंतर यश का संग्रह करने वाले एवं एक-दूसरे के प्रति निंदात्मक वाक्यों का प्रयोग करने वाले उन कुमारों और कालयवन का भयंकर संग्राम हुआ । संग्राम के समय वे अहंकार वश व्यर्थ को डींगे भी हांक रहे थे ॥42॥ कालयवन ने चक्र, नाराच आदि शस्त्रों से कितने ही कुमारों के सिर छेद डाले जिससे खून के लथ-पथ उन कटे हुए सिरों से पृथ्वी ऐसी सुशोभित होने लगी मानो कमलों से ही सुशोभित हो रही हो ॥ 43 ॥ यह देख कुमार सारण ने क्रोध में आकर एक ही तलवार के प्रहार से कालयवन को चिरकाल के लिए यमराज के घर भेज दिया ॥44॥ जरासंध के शेष शूर-वीर पुत्र युद्ध के लिए सामने आये तो अर्धचंद्र बाणों के द्वारा सिर काटने वाले कृष्ण ने उन्हें मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया ॥45॥
तदनंतर स्वयं जरासंध, क्रोधवश धनुष तानकर रथ पर सवार हो, रथ पर बैठे हुए कृष्ण के सामने दौड़ा ॥46 ॥ दोनों ही एक-दूसरे के प्रति तिरस्कार के शब्द कह रहे थे तथा दोनों ही उत्कट वीर्य के धारक थे इसलिए दोनों में स्वाभाविक एवं दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से भयंकर युद्ध होने लगा ॥47॥ उधर जरासंध ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए शीघ्र ही अग्नि के समान देदीप्यमान प्रभा का धारक नागास्त्र छोड़ा ॥48॥ इधर सावधान चित्त के धारक कृष्ण ने नागास्त्र को नष्ट करने के लिए गारुड़ अस्त्र छोड़ा और उसने शीघ्र ही आगे बढ़कर उस नागास्र को ग्रस लिया ॥49॥ जरासंध ने प्रलयकाल के मेघ के समान भयंकर वर्षा करने वाला संवर्तक अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने भी महाश्वसन नामक अस्त्र के द्वारा तीव्र आँधी चलाकर उसे दूर कर दिया ॥50॥ अस्त्रों के प्रयोग को जानने वाले जरासंध ने वायव्य अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने अंतरिक्ष अस्त्र के द्वारा उसका तत्काल निराकरण कर दिया । ॥51॥
जरासंध ने जलाने में समर्थ देदीप्यमान आग्नेय बाण छोड़ा तो कृष्ण ने वारुणास्त्र के द्वारा उसे दूर कर दिया ॥52॥ क्रोध में आकर जरासंध ने वैरोचन शस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने माहेंद्र अस्त्र से उसे दूर से ही नष्ट कर दिया ॥53॥ शत्रु ने युद्ध में राक्षस बाण छोड़ा तो कृष्ण ने शीघ्र ही नारायण अस्त्र चलाकर शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिये ॥54॥ जरासंध ने तामसास्त्र चलाया तो कृष्ण ने भास्कर अस्त्र के द्वारा उसे नष्ट कर दिया और जरासंध ने अश्वग्रीव नामक अत्यंत तीक्ष्ण शस्त्र चलाया तो कृष्ण ने ब्रह्मशिरस नामक शस्त्र से उसे तत्काल रोक दिया ॥55 ॥ इनके सिवाय शत्रु ने और भी दिव्य अस्त्र चलाये परंतु कृष्ण उन सबका निराकरण कर ज्यों के त्यों स्थिर खड़े रहे उनका बाल भी बांका नहीं हुआ ॥56॥
इस प्रकार जब जरासंध का समस्त प्रयास व्यर्थ हो गया तब उसने धनुष पृथ्वी पर फेंक दिया और हजार यक्षों के द्वारा रक्षित चक्ररत्न का चिंतवन किया ॥57॥ चिंतवन करते ही सूर्य के समान देदीप्यमान तथा दिशाओं के समूह को प्रकाशित करने वाला चक्ररत्न जरासंध के हाथ में आकर स्थित हो गया ॥58॥ नाना शस्त्रों के व्यर्थ हो जाने से जिसका क्रोध बढ़ रहा था तथा जो भृकुटि के भंग से अत्यंत भयंकर जान पड़ता था, ऐसे जरासंध ने घुमाकर शीघ्र ही वह चक्ररत्न कृष्ण की ओर फेंका ॥59॥ जिसने अपनी कांति से सूर्य को फीका कर दिया था ऐसे आकाश में आते हुए उस चक्ररत्न को नष्ट करने के लिए कृष्णपक्ष के अन्य समस्त राजाओं ने भी यथायोग्य चक्र छोड़े ॥60॥ श्रीकृष्ण शक्ति तथा गदा आदि लेकर, बलदेव हल और मूसल लेकर, भीमसेन गदा लेकर, अस्त्र विद्या के राजा अर्जुन नाना अस्त्र लेकर, सेनापति-अनावृष्टि परिघ लेकर और युधिष्ठिर प्रकट हुए साँप के समान शक्ति को लेकर आगे आये ॥61-62॥ समुद्रविजय तथा अक्षोभ्य आदि भाई अत्यंत सावधान होकर उस चक्ररत्न की ओर महा अस्त्र छोड़ने लगे ॥63 ॥ किंतु भगवान् नेमिनाथ, अवधि-ज्ञान के द्वारा आगामी कार्य को गतिविधि को अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे कृष्ण के साथ ही चक्ररत्न के सामने खड़े रहे ॥64॥ राजाओं के अस्त्र समूह जिसे रोक रहे थे तथा जिससे देदीप्यमान तिलगों के समूह निकल रहे थे ऐसा वह चक्ररत्न मित्र के समान धीरे-धीरे पास आया और भगवान् नेमिनाथ के साथ-साथ कृष्ण की प्रदक्षिणा देकर शंख, चक्र और अंकुश से चिह्नित कृष्ण के दाहिने हाथ में स्थित हो गया ॥65-66॥ उसी समय आकाश में दुंदुभि बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी, और यह नौवाँ नारायण प्रकट हुआ है इस प्रकार देव कहने लगे ॥67॥ अनुकूल एवं सुगंधित वायु बहने लगी तथा वीर यादवों के अस्त्र उनके हृदयों के साथ-साथ उच्छवसित हो उठे ॥68॥ संग्राम में कृष्ण को चक्र हाथ में लिये देख, जरासंध इस प्रकार विचार करने लगा कि हाय यह चक्र चलाना भी व्यर्थ हो गया ॥69॥ चक्ररत्न और पराक्रम के समूह से जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रखा था तथा जो तीन खंड का शक्तिशाली अधि पति था ऐसा मैं आज पौरुषहीन हो गया-मेरा पुरुषार्थ खंडित हो गया ॥70॥ जब तक दैव का बल प्रबल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र एवं पुरुषार्थ कार्यकारी होते हैं ॥71 ॥ और देव के निर्बल होनेपर काल तथा पुरुषार्थ आदि निरर्थक हो जाते हैं यह जो विद्वानों द्वारा कहा जाता है वह सत्य ही कहा जाता है रंचमात्र भी अन्यथा नहीं है ॥72 ॥ मैं गर्भ से ही ईश्वर था और बड़े से बड़े लोगों के लिए अलंघनीय था फिर भी गर्भ के प्रारंभ से ही क्लेश उठाने वाले एक छोटे से व्यक्ति के द्वारा क्यों जीता जा रहा हूँ ? ॥73॥ यदि ऐसा साधारण व्यक्ति भी, विधाता के द्वारा मेरा जीतने वाला देखा गया था तो फिर इसे बाल्य अवस्था में गोकुल में नाना क्लेश क्यों उठाने पड़े? इसलिए विधि की इस चेष्टा को धिक्कार है ॥74॥ जो लोगों को अंधा बनाने में दक्ष है, धीर-वीर मनुष्यों के भी धैर्य को नष्ट करने वाली है तथा जो वेश्या के समान अन्य पुरुष के पास जाने को इच्छा रखती है ऐसी इस लक्ष्मी को धिक्कार है ॥75॥ इत्यादि विचार करते-करते जरासंध को यद्यपि यह निश्चय हो चुका था कि हमारा मरणकाल आ चुका है तथापि वह प्रकृति से निर्भय होने के कारण कृष्ण से इस प्रकार बोला ॥76॥ अरे गोप! तू चक्र चला, व्यर्थ ही समय की उपेक्षा क्यों कर रहा है ? अरे मूर्ख ! समय की उपेक्षा करने वाला दीर्घसूत्री मनुष्य अवश्य ही नष्ट होता है ॥ 77॥ जरासंध के इस प्रकार कहने पर स्वभाव से विनयी कृष्ण ने उससे कहा कि मैं चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका हूँ इसलिए आज से मेरे शासन में रहिए ॥ 78॥ यद्यपि यह स्पष्ट है कि तुम हमारा अपकार करने में प्रवृत्त हो तथापि हम नमस्कार मात्र से प्रसन्न हो तुम्हारे अपकार को क्षमा किये देते हैं ॥79 ॥ श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर अहंकार से भरे हुए जरासंध ने जोर देकर कहा-अरे यह चक्र तो मेरे लिए अलाप चक्र के समान है तू इससे अहंकार को क्यों प्राप्त हो गया है ? ॥80॥ अथवा जिसने कभी कल्याण देखा ही नहीं ऐसा क्षुद्र मनुष्य थोड़ा-सा वैभव पाकर ही अहंकार करने लगता है और जिसने कल्याण देखा है ऐसा महान् पुरुष बहुत भारी वैभव पाकर भी अहंकार नहीं करता ॥8॥ मैं तुझे यादवों के साथ, इस चक्र के साथ तथा तेरी सहायता करने वाले अन्य राजाओं के साथ शीघ्र ही समुद्र में फेंकता हूँ ॥82॥ जरासंध के इस प्रकार कहने पर चक्रवर्ती कृष्ण ने कुपित हो घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा और उसने शीघ्र ही जाकर जरासंध की वक्षःस्थलरूपी भित्ति को भेद दिया ॥83॥ वह चक्ररत्न जरासंध को मारकर क्षण-भर में पुनः कृष्ण के हाथ में आ गया सो ठीक ही है क्योंकि भेजे हुए व्यक्ति के कृतकार्य हो चुकने पर कालक्षेप करना निष्फल है ॥44॥ कृष्ण ने यादवों के मन को हरण करने वाला अपना पाँच जन्य शंख फूंका और भगवान् नेमिनाथ, अर्जुन तथा सेनापति अनावृष्टि ने भी अपने-अपने शंख फूंके ॥85॥ क्षोभ को प्राप्त समुद्र के शब्द के समान बाजों के गंभीर शब्द होने लगे और चारों ओर अभय घोषणाएं प्रकट की गयीं ॥86॥ जिससे स्वसेना और परसेना अपना-अपना भय छोड़ बिना कुछ कहे ही चुपचाप आकर श्रीकृष्ण की आज्ञाकारिणी हो गयीं ॥87॥ राजा दुर्योधन, द्रोण तथा दुःशासन आदि ने संसार से विरक्त हो मुनिराज विदुर के समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥88॥ राजा कर्ण ने भी रणदीक्षा के बाद सुदर्शन नामक उद्यान में दमवर मुनिराज के समीप मोक्षफल को देने वाली दीक्षा ग्रहण कर ली ॥89॥ राजा कर्ण ने जिस स्थानपर सुवर्ण के अक्षरों से भूषित कर्णकुंडल छोड़े थे उस स्थान को लोग कर्ण-सुवर्ण कहने लगे ॥90 ॥ क्या मैं अपने स्वामी की सेवा करू ? यह पूछकर मातलि अपने स्वामी इंद्र के पास चला गया और यादव भी अन्य राजाओं के साथ अपने-अपने शिविर में चले गये ॥11॥
उस समय सूर्य अस्त हो गया और संध्या की लालिमा दशों दिशाओं में फैल गयी, उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासंध को देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोक के कारण खूब रोया इसलिए उसका मुखजपाकुसुम के समान लाल हो गया और पश्चात् जलांजलि देने की इच्छा से उसने समुद्र में मज्जन किया है ॥92॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि ये संसार के प्राणी, शुभकर्म का उदय होने पर बड़े से बड़े पुरुषों पर आक्रमण करने वाली संपदा को प्राप्त होते हैं और शुभकर्म का उदय नष्ट होने पर विपत्तियां भी भोगते हैं इसलिए हे भक्तजनो ! जिनमत में स्थिर हो मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत निर्मल तप करो ॥13॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में जरासंध के वध का वर्णन करने वाला बावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥52॥