मोह: Difference between revisions
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<span class="GRef"> धवला 14/5, 6, 15/11/10 </span><span class="PrakritText">पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो। </span>= <span class="HindiText">पंच प्रकार का मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/131 </span><span class="SanskritText"> दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः।</span> = <span class="HindiText">दर्शनमोहनीय के विपाक से जो कलुषित परिणाम होता है, वह मोह है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/99/7 </span><span class="SanskritText">मोहो मिथ्यात्वत्रिवेदसहिताः प्रेमहास्यादयः। </span>=<span class="HindiText"> मिथ्यात्व, त्रिवेद, प्रेम, हास्य आदि मोह है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/9/12 </span><span class="SanskritText">शुद्धात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शनमोहाभिधानो मोह इत्युच्यते।</span> = <span class="HindiText">शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्व के विनाशक दर्शनमोह को मोह कहते हैं। <br /> | |||
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<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/83 </span><span class="SanskritText">मोहरागद्वेषभेदात्त्रिभूमिको मोहः।</span> = <span class="HindiText">मोह, राग व द्वेष इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है। <br /> | |||
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> सांसारिक वस्तुओं में ममत्व भाव । इसे नष्ट करने के लिए परिग्रह का त्याग कर सब वस्तुओं में समताभाव रखा जाता है । यह अहित और अशुभकारी है । इससे मुक्ति नहीं होती । जीव इसी के कारण आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 17.195-196, 59.35, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#34|पद्मपुराण - 123.34]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 5.8, 103 </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- मोह
प्रवचनसार/85 अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु। विसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि। = पदार्थ का अन्यथा ग्रहण (दर्शनमोह); और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति (शुभ व अशुभ प्रवृत्तिरूप चारित्र मोह) ये सब मोह के चिन्ह हैं।
प्रवचनसार व तत्त्वप्रदीपिका/83 दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहोत्ति ।−द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपवर्णितेषु पीतोन्मत्तकस्यैव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढोभावः स खलु मोहः। = जीव के द्रव्यादि संबंधी मूढ़भाव मोह है अर्थात् धतूरा खाये हुए मनुष्य की भाँति जीव के जो पूर्व वर्णित द्रव्य, गुण, पर्याय हैं, उनमें होने वाला तत्त्व-अप्रतिपत्तिलक्षण वाला मूढ़भाव वास्तव में मोह है। ( समयसार / आत्मख्याति/51 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/6 )।
धवला 12/4, 2, 8, 8/283/9 क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्रीपुंनपुंसकवेद-मिथ्यात्वानां समूहो मोहः = क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व इनके समूह का नाम मोह है।
धवला 14/5, 6, 15/11/10 पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो। = पंच प्रकार का मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/131 दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। = दर्शनमोहनीय के विपाक से जो कलुषित परिणाम होता है, वह मोह है।
चारित्रसार/99/7 मोहो मिथ्यात्वत्रिवेदसहिताः प्रेमहास्यादयः। = मिथ्यात्व, त्रिवेद, प्रेम, हास्य आदि मोह है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/9/12 शुद्धात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शनमोहाभिधानो मोह इत्युच्यते। = शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्व के विनाशक दर्शनमोह को मोह कहते हैं।
देखें व्यामोह −(पुत्र कलत्रादि के स्नेह को व्यामोह कहते हैं)।
- मोह के भेद
नयचक्र बृहद्/299, 310 असुह सुह चिय कम्मं दुविहं तं दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स।299। कज्जं पडिं जह पुरिसो इक्को वि अणेक्करूवमापण्णो। तह मोहो बहुभेओ णिद्दिट्ठो पच्चयादीहिं।310। = शुभ व अशुभ के भेद से अथवा द्रव्य व भाव के भेद से कर्म दो प्रकार का है। उसकी प्रतीति से मोह और मोह से संसार होता है।299। जिस प्रकार एक ही पुरुष कार्य के प्रति अनेक रूप को धारण कर लेता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि रूप प्रत्ययों के भेद से मोह भी अनेक भेदरूप है।310।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/83 मोहरागद्वेषभेदात्त्रिभूमिको मोहः। = मोह, राग व द्वेष इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है।
- प्रशस्त व अप्रशस्त मोह निर्देश
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/6 चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त इति। = चार प्रकार के श्रमण संघ के प्रति वात्सल्य संबंधी मोह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त है। (विशेष देखें उपयोग - 1.4.4; योग 2.6 )।
देखें राग - 2 [मोह भाव (दर्शनमोह) अशुभ ही होता है।]
- अन्य संबंधित विषय
- मोह व विषय कषायादि में अंतर।−देखें प्रत्यय - 1।
- कषायों आदि का राग व द्वेष में अंतर्भाव।−देखें कषाय - 4।
- मोह व रागादि टालने का उपाय।−देखें राग - 5।
पुराणकोष से
सांसारिक वस्तुओं में ममत्व भाव । इसे नष्ट करने के लिए परिग्रह का त्याग कर सब वस्तुओं में समताभाव रखा जाता है । यह अहित और अशुभकारी है । इससे मुक्ति नहीं होती । जीव इसी के कारण आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है । महापुराण 17.195-196, 59.35, पद्मपुराण - 123.34, वीरवर्द्धमान चरित्र 5.8, 103