इतिहास: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | |||
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<big>किसी भी जाति या संस्कृति का विशेष परिचय पाने के लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनता पर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पाने के लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओं के काल आदि का अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्याति-लाभ की भावनाओं से अतीत वीतरागी जन प्रायः अपने नाम, गाँव व काल का परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जाने वाले उन सम्बन्धी उल्लेखों पर से, अथवा उनकी रचना में ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रों के उद्धरणों पर से, अथवा उनके द्वारा गुरुजनों के स्मरण रूप अभिप्राय से लिखी गयी प्रशस्तियों पर से, अथवा आगम में ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों पर से, अथवा भूगर्भ से प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टों में उल्लखित उनके नामों पर से इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानों ने इस दिशा में खोज की है, जो ग्रन्थों में दी गयी उनकी प्रस्तावनाओं से विदित है। उन प्रस्तावनाओं में से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदि का परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयों में घुसकर देखा जाये तो एक के पश्चात् एक कर के अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्यों का उल्लेख किया जाना आवश्यक समझ कर यहाँ कुछ मात्र का संकलन किया है। विशेष जानकारी के लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखने की आवश्यकता है।</big> | |||
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<h1 style="text-align: center;"><span style="text-decoration: underline;">अनुक्रमणिका</span></h1> | <h1 style="text-align: center;"><span style="text-decoration: underline;">अनुक्रमणिका</span></h1> | ||
<h2>इतिहास -</h2> | <h2>इतिहास -</h2> | ||
<h3>[[ #1 | 1. इतिहास निर्देश व लक्षण।]]</h3> | <h3>[[ #1 | 1. इतिहास निर्देश व लक्षण।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.1 | 1.1 | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.1 | 1.1 इतिहास का लक्षण।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.2 | 1.2 ऐतिह्य | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.2 | 1.2 ऐतिह्य प्रमाण का श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव।]]</h3> | ||
<h3 | <h3>[[ #2 | 2. संवत्सर निर्देश।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.1 | 2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.1 | 2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.2 | 2.2 वीर निर्वाण संवत्।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.2 | 2.2 वीर निर्वाण संवत्।]]</h3> | ||
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<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.8 | 2.8 हिजरी संवत्।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.8 | 2.8 हिजरी संवत्।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.9 | 2.9 मघा संवत्।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.9 | 2.9 मघा संवत्।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.10 | 2.10 सब | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.10 | 2.10 सब संवतों का परस्पर सम्बन्ध।]]</h3> | ||
<h3>[[ #3 | 3. ऐतिहासिक राज्य वंश।]]</h3> | <h3>[[ #3 | 3. ऐतिहासिक राज्य वंश।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.1 | 3.1 भोज वंश।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.1 | 3.1 भोज वंश।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.2 | 3.2 कुरु वंश।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.2 | 3.2 कुरु वंश।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.3 | 3.3 मगध | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.3 | 3.3 मगध देश के राज्य वंश (1. सामान्य; 2. कल्की; 3. हून; 4. काल निर्णय)]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.4 | 3.4 राष्ट्रकूट वंश।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.4 | 3.4 राष्ट्रकूट वंश।]]</h3> | ||
<h3>[[ #4 | 4. दिगम्बर मूलसंघ।]]</h3> | <h3>[[ #4 | 4. दिगम्बर मूलसंघ।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.1 | 4.1 मूल संघ।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.1 | 4.1 मूल संघ।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.2 | 4.2 मूल | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.2 | 4.2 मूल संघ की पट्टावली।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.3 | 4.3 पट्टावलीका समन्वय।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.3 | 4.3 पट्टावलीका समन्वय।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.4 | 4.4 मूलसंघ का विघटन।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.4 | 4.4 मूलसंघ का विघटन।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.5 | 4.5 श्रुत | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.5 | 4.5 श्रुत तीर्थ की उत्पत्ति।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.6 | 4.6 | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.6 | 4.6 श्रुतज्ञान का क्रमिक ह्रास।]]</h3> | ||
<h3>[[ #5 | 5. दिगम्बर जैन संघ।]]</h3> | <h3>[[ #5 | 5. दिगम्बर जैन संघ।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #5.1 | 5.1 सामान्य परिचय।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #5.1 | 5.1 सामान्य परिचय।]]</h3> | ||
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<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.1 | 7.1 मूल संघ विभाजन।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.1 | 7.1 मूल संघ विभाजन।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.2 | 7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.2 | 7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.3 | 7.3 नन्दिसंघ बलात्कार | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.3 | 7.3 नन्दिसंघ बलात्कार गण की भट्टारक आम्नाय।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.4 | 7.4 | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.4 | 7.4 नन्दिसंघ बलात्कार गण की शुभचन्द्र आम्नाय।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.5 | 7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.5 | 7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।]]</h3> | ||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.6 | 7.6 सेन या ऋषभ संघ।]]</h3> | <h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.6 | 7.6 सेन या ऋषभ संघ।]]</h3> | ||
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<h3>[[ #10 | 10. आगम समयानुक्रमणिका।]]</h3> | <h3>[[ #10 | 10. आगम समयानुक्रमणिका।]]</h3> | ||
<p style="text-align: justify;"> </p> | <p style="text-align: justify;"> </p> | ||
<p style="text-align: justify;"> </p> | <p style="text-align: justify;"> </p> | ||
<h3 id="1"><strong>1. इतिहास निर्देश व लक्षण</strong></h3> | <h3 id="1"><strong>1. इतिहास निर्देश व लक्षण</strong></h3> | ||
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<h3 id="2" style="text-align: justify;"><strong>2. संवत्सर निर्देश</strong></h3> | <h3 id="2" style="text-align: justify;"><strong>2. संवत्सर निर्देश</strong></h3> | ||
<h4 id="2.1" style="padding-left: 30px;"><strong>2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद<br /></strong></h4> | <h4 id="2.1" style="padding-left: 30px;"><strong>2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद<br /></strong></h4> | ||
<p style="padding-left: 30px;">इतिहास विषयक इस | <p style="padding-left: 30px;">इतिहास विषयक इस प्रकरण में क्योंकि जैनागम के रचयिता आचार्यों का, साधुसंघ की परम्परा का, तात्कालिक राजाओं का, तथा शास्त्रों का ठीक-ठीक काल निर्णय करने की आवश्यकता पड़ेगी, अतः संवत्सर का परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है। जैनागममें मुख्यतः चार संवत्सरोंका प्रयोग पाया जाता है - 1. वीर निर्वाणसंवत्; 2. विक्रम संवत्; 3. ईसवी संवत्; 4. शक संवत्; परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य संवतोंका व्यवहार होता है - जैसे 1. गुप्त संवत् 2. हिजरी संवत्; 3. मधा संवत्; आदि।</p> | ||
<h4 id="2.2" style="padding-left: 30px;"><strong>2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश</strong></h4> | <h4 id="2.2" style="padding-left: 30px;"><strong>2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> कषायपाहुड़ 1/ $56/75/2 एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। = इद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महावीर का जन्मकाल-देखें [[ महावीर ]]) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्षमें से घटा देने पर, वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण [या पंचम कालका प्रारम्भ] शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात् 3 वर्ष 8 महीने और पन्द्रह दिन। (तिलोयपण्णत्ति 4/1474)। | ||
<br /> धवला 1 (प्र. 32 H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में 470 वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के | <br /> धवला 1 (प्र. 32 H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में 470 वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के प्रारम्भ के सम्बन्ध में प्राचीन काल से बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महावीर के निर्वाण काल के सम्बन्ध में भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि संघकी पट्टावली में आ. इन्द्रनन्दि ने वीर के निर्वाण से 470 वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और 488 वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशीलाल जायसवाल वीर निर्वाणके कालको 18 वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 470 वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोंमें शक संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 605 वर्ष पश्चात् कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम संवत्में 135 वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जै. पी. 284) (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूपमें महात्मा बुद्धके साथ 12-13 वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योंकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ई. पू. 557-527 आता है जबकि बुद्धका ई. पू. 588-544 माना गया है। जैन साहित्य इतिहास इ.पी. 303)</p> | ||
<h4 id="2.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.3 विक्रम संवत् निर्देश</strong></h4> | <h4 id="2.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.3 विक्रम संवत् निर्देश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 470 वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 60 वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् 155 वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. 470 तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 155 वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् 60 वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ 470 वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके 18 वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और 60 वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. 410 में और जन्म 392 में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. 470 में और राज्याभिषेक 488 में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])<br />इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. 470 में होता है, शक संवत्का वी.नि. 605 में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. 741 में। (देखें [[ अगले शीर्षक ]])</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 470 वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 60 वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् 155 वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. 470 तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 155 वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् 60 वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ 470 वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके 18 वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और 60 वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. 410 में और जन्म 392 में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. 470 में और राज्याभिषेक 488 में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])<br />इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. 470 में होता है, शक संवत्का वी.नि. 605 में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. 741 में। (देखें [[ अगले शीर्षक ]])</p> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. 79 (वी.नि. 606) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके 605 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के 135 वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. 79 (वी.नि. 606) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके 605 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के 135 वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])</p> | ||
<h4 id="2.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.5 शालिवाहन संवत्</strong></h4> | <h4 id="2.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.5 शालिवाहन संवत्</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण देश में इसका प्रचार अवश्य रहा है। शक के नाम से प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहन से यह पृथक् है क्योंकि इसकी गणना वीर निर्वाण के 741 वर्ष पश्चात् मानी गई है। (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट - 1]])</p> | ||
<h4 id="2.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.6 ईसवी संवत्</strong></h4> | <h4 id="2.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.6 ईसवी संवत्</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके 525 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से 57 वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके 525 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से 57 वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।</p> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी 320 अर्थात् वी.नि. के 846 वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी 320 अर्थात् वी.नि. के 846 वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।</p> | ||
<h4 id="2.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.8 हिजरी संवत् निर्देश</strong></h4> | <h4 id="2.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.8 हिजरी संवत् निर्देश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस संवत् का प्रचार मुसलमानों में है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहब के मक्का मदीना जाने के समय से उनकी हिजरत में विक्रम संवत् 650 में अर्थात् वीर निर्वाण के 1120 वर्ष पश्चात् स्थापित हुआ था। इसी को मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते हैं।</p> | ||
<h4 id="2.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.9 मघा संवत् निर्देश</strong></h4> | <h4 id="2.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.9 मघा संवत् निर्देश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 76/399 कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के 1000 वर्ष बीतने पर मघा | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 76/399 कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के 1000 वर्ष बीतने पर मघा नाम के संवत में कल्की नामक राजा होगा। आगम के अनुसार दुषमा काल का प्रादुर्भाव वीर निर्वाण के 3 वर्ष व 8 मास पश्चात् हुआ है। अतः मघा संवत्सर वीर निर्वाण के 1003 वर्ष पश्चात् प्राप्त होता है। इस संवत्सर का प्रयोग कहीं भी देखने में नहीं आता।</p> | ||
<h4 id="2.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.10 सर्व | <h4 id="2.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.10 सर्व संवत्सरों का परस्पर सम्बन्ध</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">निम्न | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">निम्न सारणी की सहायता से कोई भी एक संवत् दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है।</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | ||
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<h4 id="3.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.3 मगध देशके राज्यवंश</strong></h4> | <h4 id="3.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.3 मगध देशके राज्यवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.1 सामान्य परिचय</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.1 सामान्य परिचय</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।<br />प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।320। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से 9 वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।316। पालकका राज्य 60 वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।328, 331।<br />श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।331। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने 155 वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।362।<br />चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल 255 वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह 115 वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार 137 वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।316।<br />इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन 230 वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. 605 (ई. 79) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (देखें [[ इतिहास#2.4 | इतिहास - 2.4]])। इस वंशका शासन 242 वर्ष तक रहा।<br />भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य 231 वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि 6 राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. 500 (वी. नि. 1027) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। ( | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।<br />प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।320। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से 9 वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।316। पालकका राज्य 60 वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।328, 331।<br />श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।331। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने 155 वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।362।<br />चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल 255 वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह 115 वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार 137 वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।316।<br />इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन 230 वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. 605 (ई. 79) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (देखें [[ इतिहास#2.4 | इतिहास - 2.4]])। इस वंशका शासन 242 वर्ष तक रहा।<br />भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य 231 वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि 6 राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. 500 (वी. नि. 1027) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र. 54,65/पं. महेन्द्र)। इसलिये शास्त्रकारोंने इस वंशकी स्थिति वी. नि. 958 (ई. 431) तक ही स्वीकार की। जैनआम्नायके अनुसार वी. नि. 958 (ई. 431)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बड़े अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओंसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुक्लके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज 42 वर्ष अर्थात् वी. नि. 1000 (ई. 473) तक रहा। इस कुलका विशेष परिचय आगे पृथक्से दिया गया है। (देखें [[ अगला उपशीर्षक ]])।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.2 कल्की वंश</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.2 कल्की वंश</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> तिलोयपण्णत्ति 4/1509-1511 तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।1509। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।1510।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।1511।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. 958 में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु 70 वर्ष थी और 42 वर्ष अर्थात् वी. नि. 1000 तक उसने राज्य किया ।।1509।। आचारांगधरों (वी.नि. 683) के पश्चात् 275 वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. 958 में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।1510।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।1511।। ( हरिवंशपुराण 60/491-492 )<br /> त्रिलोकसार 850 पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके 394 वर्ष 7 मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके 1000 वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. 76/397-400 दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।397। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।398। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।399। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।40।। = जन्म दुःखम कालके 1000 वर्ष पश्चात्। आयु 70 वर्ष। राज्यकाल 40 वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।<br />नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु 70 वर्ष तथा राज्यकाल 40 अथवा 42 वर्ष था। परन्तु तिलोयपण्णत्ति में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वह वी. नि. 958 में गद्दीपर बैठा, त्रिलोकसार के अनुसार वी. नि. 1000 में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. 3) के 1000 वर्ष पश्चात् अर्थात् 1003 में उसका जन्म हुआ और 1033 से 1073 तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. 958-1000, शिशुपालका 1000-1033, और चतुर्मुखका 1033-1073 । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> तिलोयपण्णत्ति 4/1509-1511 तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।1509। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।1510।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।1511।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. 958 में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु 70 वर्ष थी और 42 वर्ष अर्थात् वी. नि. 1000 तक उसने राज्य किया ।।1509।। आचारांगधरों (वी.नि. 683) के पश्चात् 275 वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. 958 में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।1510।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।1511।। ( हरिवंशपुराण 60/491-492 )<br /> त्रिलोकसार 850 पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके 394 वर्ष 7 मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके 1000 वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. 76/397-400 दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।397। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।398। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।399। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।40।। = जन्म दुःखम कालके 1000 वर्ष पश्चात्। आयु 70 वर्ष। राज्यकाल 40 वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।<br />नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु 70 वर्ष तथा राज्यकाल 40 अथवा 42 वर्ष था। परन्तु तिलोयपण्णत्ति में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वह वी. नि. 958 में गद्दीपर बैठा, त्रिलोकसार के अनुसार वी. नि. 1000 में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. 3) के 1000 वर्ष पश्चात् अर्थात् 1003 में उसका जन्म हुआ और 1033 से 1073 तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. 958-1000, शिशुपालका 1000-1033, और चतुर्मुखका 1033-1073 । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.3 हून वंश</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.3 हून वंश</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> कषायपाहुड़ 1/ प्र. 54/65 (पं. महेन्द्र कुमार) - लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात् कल्कीके स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये हैं और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कल्की और इतिहासोक्त हून एक ही बात है। जैसा कि मगध राज्य वंशोंका सामान्य परिचय देते हुए बताया जा चुका है इस वंशके सरदार गुप्तकालमें बराबर जोर पकड़ते जा रहे थे और गुप्त राजाओंके साथ इनकी मुठभेड़ बराबर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई. 413-435) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए। यद्यपि कुमार गुप्त (ई. 435-460) को परास्त करनेमें यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इसके द्वितीय सरदार तोरमाणने ई. 500 में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्यको अस्त-व्यस्त करके सारे पंजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई. 507 में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।<br />परन्तु अत्याचारी प्रवृत्तिके कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका। इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको संगठित किया और ई. 528 में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई. 540 में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।<br />विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्मकी बहुत वृद्धिकी तदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैन संस्कृतिपर तथा श्रमणोंपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।<br />जैन मान्य कल्कि वंशकी हून वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते हैं वी. नि. 958-1000 (ई. 431-473) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुलका प्रथम सरदार था, वी. नि. 1000-1033 (ई. 473-506) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी. नि. 1033-1073 वाला चतुर्मुख यहाँ ई. 506-546 का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके कालमें सम्मिलित कर लिया गया है।</p> | ||
<p id="3.4" style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.4 काल निर्णय</strong></p> | <p id="3.4" style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.4 काल निर्णय</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।<br />आधार-जैन शास्त्र = तिलोयपण्णत्ति 4/1505-1508; हरिवंशपुराण 60/487-491 ।<br />सन्धान - तिलोयपण्णत्ति 2/ प्र. 7, 14। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; धवला 1/ प्र. 33/एच. एल. जैन; | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।<br />आधार-जैन शास्त्र = तिलोयपण्णत्ति 4/1505-1508; हरिवंशपुराण 60/487-491 ।<br />सन्धान - तिलोयपण्णत्ति 2/ प्र. 7, 14। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; धवला 1/ प्र. 33/एच. एल. जैन; कषायपाहुड़ 1/ प्र. 52-54 (64-65)। पं. महेन्द्रकुमार; दर्शनसार/ प्र. 28/पं. नाथूराम प्रेमी; पं. कैलाश चन्दजी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।<br />प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका/ पृष्ठ संख्या<br />संकेत - वी. नि. = वीर निर्वाण संवत्; ई. पू. = ईसवी पूर्व; ई. = ईसवी; पू. = पूर्व; सं. = संवत्; वर्ष= कुल शासन काल; लोक इतिहास = वर्तमान इतिहास।</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | ||
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Line 671: | Line 672: | ||
<td>-</td> | <td>-</td> | ||
<td>-</td> | <td>-</td> | ||
<td>इसकी बहन | <td>इसकी बहन पद्मावती का विवाह उदयी के साथ होना माना गया है ।323।</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 929: | Line 930: | ||
<td>366-338</td> | <td>366-338</td> | ||
<td>28*</td> | <td>28*</td> | ||
<td>88 तथा 28 वर्ष की | <td>88 तथा 28 वर्ष की गणना में 60 वर्ष का अन्तर है। इसके समाधान के लिए देखो नीचे टिप्पणी।</td> | ||
<td> </td> | <td> </td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 947: | Line 948: | ||
</tbody> | </tbody> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">* जैन | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">* जैन शास्त्र के अनुसार पालक का काल 60 वर्ष और नन्द वंश का 155 वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी. नि. 215 में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक हुआ। श्रुतकेवली भद्रबाहु (वी. नि. 162) के समकालीन बनानेके अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिने इसे वी. नि. 155 में राज्यारूढ़ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नन्द वंश के काल को 155 से घटा कर 95 वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौ र्यके काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद पाया जाता है ।313। दूसरी ओर पुराणों में नन्द वंशीय महापद्मनन्दि के काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद है। वायु पुराण में उसका काल 28 वर्ष है और अन्य पुराणों में 88 वर्ष। 88 वर्ष मानने पर नन्द वंश का काल 183 वर्ष आता है और 28 वर्ष मानने पर 123 वर्ष। इस काल में उदयी (अजक) के अवन्ती राज्य वाले 32 वर्ष मिलाने पर पालक के पश्चात् नन्द वंश का काल 155 वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी (अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन की गणना नन्द वंश में करने की भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तव में ये दोनों राजा श्रेणिक वंश में हैं, नन्द वंश में नहीं। नन्द वंश में नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापद्मनन्द से प्रारम्भ होता है ।331।</p> | ||
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<td>ई. 40 में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. 606 (ई. 79) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। ( | <td>ई. 40 में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. 606 (ई. 79) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र./53/64/पं. महेन्द्र।)</td> | ||
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<td>413-435 वी. नि.</td> | <td>413-435 वी. नि.</td> | ||
<td>22</td> | <td>22</td> | ||
<td>इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. 437 में जबकि गुप्त संवत् 117 था यही राजा राज्य करता था। ( | <td>इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. 437 में जबकि गुप्त संवत् 117 था यही राजा राज्य करता था। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र. /54/65/पं. महेन्द्र)</td> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. 432 से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष देखें [[ शीर्षक#2 | शीर्षक - 2 ]]व 3)<br />नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. 432 से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष देखें [[ शीर्षक#2 | शीर्षक - 2 ]]व 3)<br />नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।</p> | ||
<h4 style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.4 राष्ट्रकूट वंश</strong> (प्रमाणके लिए - देखें [[ वह वह नाम ]])</h4> | <h4 id="3.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.4 राष्ट्रकूट वंश</strong> (प्रमाणके लिए - देखें [[ वह वह नाम ]])</h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।<br />1. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. 716-735 (ई. 794-813) निश्चित किया गया है। 2. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. 871-935 (ई. 814-878) निश्चित है। 3. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. 878-912 निश्चित है। 4. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।<br />1. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. 716-735 (ई. 794-813) निश्चित किया गया है। 2. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. 871-935 (ई. 814-878) निश्चित है। 3. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. 878-912 निश्चित है। 4. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।</p> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ 162 वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष देखें [[ श्वेताम्बर ]])। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. 683 तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. 565-593) के कालमें समाप्त हो गई।<br />ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. 575 में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 100-100 योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#2.2 | परिशिष्ट - 2.2]])<strong><br /></strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ 162 वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष देखें [[ श्वेताम्बर ]])। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. 683 तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. 565-593) के कालमें समाप्त हो गई।<br />ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. 575 में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 100-100 योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#2.2 | परिशिष्ट - 2.2]])<strong><br /></strong></p> | ||
<h4 id="4.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.2 मूलसंघकी पट्टावली</strong></h4> | <h4 id="4.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.2 मूलसंघकी पट्टावली</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#2 | परिशिष्ट - 2]])।<br />दृष्टि नं. 1 = ( तिलोयपण्णत्ति 4/1475-1496 ), ( हरिवंशपुराण 60/476-481 ); ( धवला 9/4,1/44/230 ); ( | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष देखें [[ परिशिष्ट#2 | परिशिष्ट - 2]])।<br />दृष्टि नं. 1 = ( तिलोयपण्णत्ति 4/1475-1496 ), ( हरिवंशपुराण 60/476-481 ); ( धवला 9/4,1/44/230 ); ( कषायपाहुड़ 1/ $64/84); ( महापुराण 2/134-150 )<br />दृष्टि नं. 2 = इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल. 1-17); (ती. 2/16 पर तथा 4/347 पर उद्धृत)<br />दृष्टि नं. 3 = जै.पी. 354 (पं. कैलाश चन्द)।</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | ||
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<h3 id="6" style="text-align: justify;"><strong>6. दिगम्बर जैनाभासी संघ</strong></h3> | <h3 id="6" style="text-align: justify;"><strong>6. दिगम्बर जैनाभासी संघ</strong></h3> | ||
<h4 id="6.1" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.1 सामान्य परिचय </strong></h4> | <h4 id="6.1" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.1 सामान्य परिचय </strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नीतिसार (ती.म.आ.4/358 पर उद्धत) - पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपटः काष्ठस्ततो हि तावाभूद्भादिगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एकः। = मूल संघमें पहले (भद्रबाहु प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ था (देखें [[ श्वेताम्बर ]])। तत्पश्चात् (किसी कालमें) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेकों गच्छोंमें विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी संघ हुआ।<br />नीतिसार ( | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नीतिसार (ती.म.आ.4/358 पर उद्धत) - पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपटः काष्ठस्ततो हि तावाभूद्भादिगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एकः। = मूल संघमें पहले (भद्रबाहु प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ था (देखें [[ श्वेताम्बर ]])। तत्पश्चात् (किसी कालमें) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेकों गच्छोंमें विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी संघ हुआ।<br />नीतिसार ( दर्शनपाहुड़/ टी. 11 में उद्धृत) - गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविड़ो यापनीयः निश्पिच्छश्चेति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिताः। = गोपुच्छ (काष्ठा संघ), श्वेताम्बर, द्रविड़, यापनीयः और निश्पिच्छ (माथुर संघ) ये पांच जैनाभासी कहे गये हैं।<br />हरिभद्र सूरीकृत षट्दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्नकृत टीका-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिंगा पाणिपात्रश्च। ते चतुर्धा. काष्ठसंघ-मूलसंघ-माथुरसंघ गोप्यसंघ भेदात्। आद्यास्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणंति। स्त्रीणां मुक्तिं केवलीना भुक्तिं सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते।....सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुल्यम्। नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः। = दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं। इनके चार भेद हैं, काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ और गोप्य (यापनीय) संघ। पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सद्व्रतोंके सद्भावमें भी सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानते हैं। चारों ही संघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें 32 अन्तराय और 14 मलोंको टालते हैं। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्त्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरोंके तुल्य हैं। इन दोनोंके शास्त्रोंमें तथा तर्कोंमें (सचेलता, स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है। | ||
<br /> दर्शनसार/ प्र. 40 प्रेमी जी-ये संघ वर्तमानमें प्रायः लुप्त हो चुके हैं। गोपुच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारकोंके रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमें आता है।</p> | <br /> दर्शनसार/ प्र. 40 प्रेमी जी-ये संघ वर्तमानमें प्रायः लुप्त हो चुके हैं। गोपुच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारकोंके रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमें आता है।</p> | ||
<h4 id="6.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.2 यापनीय संघ</strong></h4> | <h4 id="6.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.2 यापनीय संघ</strong></h4> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">भद्रबाहुचारित्र 4/154-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्। = उन श्वेताम्बरियोंमें से कापथवर्ती यापनीय संघ उत्पन्न हुआ।<br /> दर्शनसार/ मू. 29 कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।29। = कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्युके 705 वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार 205 वर्ष बीतनेपर) श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">भद्रबाहुचारित्र 4/154-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्। = उन श्वेताम्बरियोंमें से कापथवर्ती यापनीय संघ उत्पन्न हुआ।<br /> दर्शनसार/ मू. 29 कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।29। = कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्युके 705 वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार 205 वर्ष बीतनेपर) श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.2 मान्यतायें</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.2 मान्यतायें</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"> दर्शनपाहुड़/ टी.11/11/15-यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति। = यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोंको मानते हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, (श्वेताम्बरोंके) कल्पसूत्रको बाँचते हैं, (श्वेताम्बरियोंकी भांति) स्त्रियोंका उसी भवसे मुक्त होना, केवलियोंका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोंको और परिग्रहधारियोंको भी मोक्ष होना मानते हैं।<br />हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका-गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति। स्त्रीणां मुक्ति केवलिणां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते। सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिंशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरै स्तुल्यम्। = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते हैं। स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति भी मानते हैं। गोप्यसंघको यापनीय भी कहते हैं। सभी (अर्थात् काष्ठा संघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें और भोजनमें 32 अन्तराय और 14 मलोंको टालते हैं। इनके सिवाय शेष आचारमें (महाव्रतादिमें) और देव गुरुके विषयमें (मूर्ति पूजा आदिके विषयमें) सब (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य हैं।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.3 जैनाभासत्व</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.3 जैनाभासत्व</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यह संघ श्वेताम्बर मतमें से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है। इसलिये जैनाभास कहना युक्ति संगत है।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यह संघ श्वेताम्बर मतमें से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है। इसलिये जैनाभास कहना युक्ति संगत है।</p> | ||
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<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ. और कुमारसेन दोनोंसे बताई गई है और संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा भंग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक संगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका साक्षात् सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है। इसलिये भले ही लोहाचार्यज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात् सम्बन्ध कुमारसेनके साथ ही है।<br />इसकी उत्पत्तिके कालके विषयमें मतभेद है। आ. देवसेनके अनुसार वह वि. 753 है और प्रेमीजी के अनुसार वि. 955 ( दर्शनसार/ प्र. 39)। इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस संघ की जो पट्टावली आगे दी जाने वाली है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योंका उल्लेख है। एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात् 29वें नम्बर पर आता है और दूसरेका 40 वें नम्बर पर। बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि. 753 हो और दूसरेका वि. 955। देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई जबकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आधार पर प्रेमीजी ने अपना सन्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात् हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्यों इस पट्टावलीमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चात् निबद्ध किये गये हैं।<br />अग्रोक्त माथुर संघ अनुसार भी इस संघका काल वि. 753 ही सिद्ध होता है, क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके 200 वर्ष पश्चात् बताई गई है। इसका काल 955 माननेपर वह वि. 1155 प्राप्त होता है, जब कि उक्त ग्रन्थकी रचना ही वि. 990 में होना सिद्ध है। उसमें 1155 की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ. और कुमारसेन दोनोंसे बताई गई है और संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा भंग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक संगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका साक्षात् सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है। इसलिये भले ही लोहाचार्यज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात् सम्बन्ध कुमारसेनके साथ ही है।<br />इसकी उत्पत्तिके कालके विषयमें मतभेद है। आ. देवसेनके अनुसार वह वि. 753 है और प्रेमीजी के अनुसार वि. 955 ( दर्शनसार/ प्र. 39)। इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस संघ की जो पट्टावली आगे दी जाने वाली है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योंका उल्लेख है। एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात् 29वें नम्बर पर आता है और दूसरेका 40 वें नम्बर पर। बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि. 753 हो और दूसरेका वि. 955। देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई जबकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आधार पर प्रेमीजी ने अपना सन्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात् हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्यों इस पट्टावलीमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चात् निबद्ध किये गये हैं।<br />अग्रोक्त माथुर संघ अनुसार भी इस संघका काल वि. 753 ही सिद्ध होता है, क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके 200 वर्ष पश्चात् बताई गई है। इसका काल 955 माननेपर वह वि. 1155 प्राप्त होता है, जब कि उक्त ग्रन्थकी रचना ही वि. 990 में होना सिद्ध है। उसमें 1155 की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।</p> | ||
<h4 id="6.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.5 माथुर संघ</strong></h4> | <h4 id="6.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.5 माथुर संघ</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा संघकी एक शाखा या गच्छ है जो उसके 200 वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरीमें उत्पन्न होनेके कारण ही इसका यह नाम पड़ गया है। पीछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।<br /> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा संघकी एक शाखा या गच्छ है जो उसके 200 वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरीमें उत्पन्न होनेके कारण ही इसका यह नाम पड़ गया है। पीछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।<br /> दर्शनपाहुड़/ मू. 40,42 तत्तो दुसएतीदे मे राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ।40। सम्मतपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदबिंबेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ।41। एसो मम होउ गुरू अवरो णत्थि त्ति चित्तपरियरणं। सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ।42। = इस (काष्ठा संघ) के 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. 953 में मथुरा नगरीमें माथुरसंघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वता निषेध कर दिया ।42। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुये जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा वन्दना करने; मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (संघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्वका उपदेश दिया।<br /> दर्शनपाहुड़/ टी.11/11/18 निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते। उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरए। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्वो ।1। सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य। समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ।2। = निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नहीं मानते। ढाढसी गाथामें कहा भी है - मोर पंख या चमरगायके बालोंकी पिछी हाथमें लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।1। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है, इसमें सन्देह नहीं है ।2। <br /> दर्शनसार/ प्र. /44 प्रेमीजी "माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृताः। = माथुरसंघमें पीछीका आदर सर्वथा नहीं किया जाता।<br />देखें [[ शीर्षक#6.1 | शीर्षक - 6.1 ]]में हरिभद्र सूरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्मबुद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>काल निर्णय</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>काल निर्णय</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि ऊपर कहा गया है, दर्शनसार/40 के अनुसार इसकी उत्पत्ति काष्ठासंघसे 200 वर्ष पश्चात् हुई थी तदनुसार इसका काल 753+200= वि. 953 (वि. श. 10) प्राप्त होता है। परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासंघकी गुर्वावलीमें वि. 953 के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते हैं। अमित गति द्वि. (वि. 1050-1073) कृत सुभाषित रत्नसन्दोहमें अवश्य इस नामका उल्लेख प्राप्त होता है। इसीको लेकर प्रेमीजी अमित गति द्वि. को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. 953 में स्थापित करते हैं; जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि ऊपर कहा गया है, दर्शनसार/40 के अनुसार इसकी उत्पत्ति काष्ठासंघसे 200 वर्ष पश्चात् हुई थी तदनुसार इसका काल 753+200= वि. 953 (वि. श. 10) प्राप्त होता है। परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासंघकी गुर्वावलीमें वि. 953 के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते हैं। अमित गति द्वि. (वि. 1050-1073) कृत सुभाषित रत्नसन्दोहमें अवश्य इस नामका उल्लेख प्राप्त होता है। इसीको लेकर प्रेमीजी अमित गति द्वि. को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. 953 में स्थापित करते हैं; जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।</p> | ||
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[[File: Itihaas_4.PNG ]] | [[File: Itihaas_4.PNG ]] | ||
<p style="padding-left: 30px;">टिप्पणी:-</p> | <p style="padding-left: 30px;">टिप्पणी:-</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. माघनन्दि के सधर्मा=अबद्धिकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। श्ल. 35-39। तदनुसार इनका समय ई. श. 10-11 (देखें [[ अगला पृ ]])।<br />2. गुणचन्द्रके शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकीर्ति योगिन्द्रदेव हैं। नयकीर्तिकी समाधि शक 1099 (ई. 1177) में हुई। तदनुसार इनका समय लगभग ई. 1155।<br />3. मेघचन्द्रके सधर्मा= मल्लधारी देव, श्रीधर, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्ति और बालचन्द्र (श्ल. 24-34)। तदनुसार इनका समय वि. श. 11। (ई. 1018-1048)।<br />5. क्रमशः-नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा<br />प्रमाण :- 1. ती.4/373 पर उद्धृत | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. माघनन्दि के सधर्मा=अबद्धिकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। श्ल. 35-39। तदनुसार इनका समय ई. श. 10-11 (देखें [[ अगला पृ ]])।<br />2. गुणचन्द्रके शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकीर्ति योगिन्द्रदेव हैं। नयकीर्तिकी समाधि शक 1099 (ई. 1177) में हुई। तदनुसार इनका समय लगभग ई. 1155।<br />3. मेघचन्द्रके सधर्मा= मल्लधारी देव, श्रीधर, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्ति और बालचन्द्र (श्ल. 24-34)। तदनुसार इनका समय वि. श. 11। (ई. 1018-1048)।<br />5. क्रमशः-नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा<br />प्रमाण :- 1. ती.4/373 पर उद्धृत मेघचन्द्र की प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. 47/ती. 4/186 पर उद्धृत देवकीर्ति की प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. 40। 2. ती. 3/224 पर उद्धृत वसुनन्दि श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति। 3. ( धवला 2/ प्र. 4/H. L. Jain); (पं. विं./प्र. 28/H. L. Jain)</p> | ||
[[File: Itihaas_5.PNG ]] | [[File: Itihaas_5.PNG ]] | ||
<h4 id="7.6" style="padding-left: 30px;"><strong>7.6 सेन या वृषभ | <h4 id="7.6" style="padding-left: 30px;"><strong>7.6 सेन या वृषभ संघ की पट्टावली</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">पद्मपुराण के कर्ता आचार्य रविषेण को इस संघ का आचार्य माना गया है। अपने पद्मपुराण में उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा में चार नामों का उल्लेख किया है। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#167|पद्मपुराण - 123.167]])। इसके अतिरिक्त इस संघ के भट्टारकों की भी एक पट्टावली प्रसिद्ध है --<br />सेनसंघ पट्टावली/श्ल. नं. (ति. 4/426 पर उद्धृत)-<span class="SanskritText"> श्रीमूलसंघवृषभसेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलिविराजमान श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।38। </span></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वर्यांतककमलभद्रभट्टारक....।26। = | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><span class="SanskritText"> दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वर्यांतककमलभद्रभट्टारक....।26। </span>= श्रीमूलसंघ में वृषभसेन अन्वय के पुष्करगच्छ की विरुदावली में विराजमान श्रीमद् गुणभद्र भट्टारक हुए ।38। काष्ठासंघ के संशय रूपी अन्धकार में डूबे हुओं को आशा प्रदान करने वाले श्रीमूल संघ के उपदेश से पितृलोक के वनरूपी स्वर्ग से उत्पन्न कमल भट्टारक हुए ।26।</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | ||
<thead> | <thead> | ||
Line 3,101: | Line 3,102: | ||
<tbody> | <tbody> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td>1. आचार्य गुर्वावली- ( पद्मपुराण 123 | <td>1. आचार्य गुर्वावली- ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_123#167|पद्मपुराण - 123.167]]); (ती.2/276)</td> | ||
<td> </td> | <td> </td> | ||
<td> </td> | <td> </td> | ||
Line 3,110: | Line 3,111: | ||
<td>इन्द्रसेन</td> | <td>इन्द्रसेन</td> | ||
<td>620-660</td> | <td>620-660</td> | ||
<td>सं. 1 से 4 तक का काल | <td>सं. 1 से 4 तक का काल रविषेण के आधार पर कल्पित किया गया है।</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 3,291: | Line 3,292: | ||
<td>*सोमसेन</td> | <td>*सोमसेन</td> | ||
<td> </td> | <td> </td> | ||
<td>पूर्वोक्त | <td>पूर्वोक्त हेतु से पट्टपरम्परा से बाहर हैं। </td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 3,303: | Line 3,304: | ||
<td>गुणभद्र</td> | <td>गुणभद्र</td> | ||
<td>17 का मध्य</td> | <td>17 का मध्य</td> | ||
<td>सोमसेन तथा | <td>सोमसेन तथा नेमिषेण के आधार पर</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 3,327: | Line 3,328: | ||
<td>छत्रसेन</td> | <td>छत्रसेन</td> | ||
<td>18 का मध्य</td> | <td>18 का मध्य</td> | ||
<td>श्ल. 50 में इन्हें | <td>श्ल. 50 में इन्हें सेनगण के अग्रगण्य कहा गया है। वि. 1754 में मूर्ति स्थापना</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 3,343: | Line 3,344: | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - उपरोक्त आचार्योंमें केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित हैं। शेषके समयोंका उनके आधारपर अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - उपरोक्त आचार्योंमें केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित हैं। शेषके समयोंका उनके आधारपर अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।</p> | ||
<h4 id="7.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.8 पुन्नाटसंघ</strong></h4> | <h4 id="7.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.8 पुन्नाटसंघ</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 66/25-32 के अनुसार यह संघ साक्षात् अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 66/25-32 के अनुसार यह संघ साक्षात् अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुर्वावलि में इसका सम्बन्ध लोहाचार्य व अर्हद्बलि से मिलाया गया है। लोहाचार्य व अर्हद्बलिके समयका निर्णय मूलसंघ में हो चुका है। उसके आधार पर इनके निकटवर्ती 6 आचार्यों के समय का अनुमान किया गया है। इसी प्रकार अन्त में जयसेन व जयसेनाचार्य का समय निर्धारित है, उनके आधार पर उनके निकटवर्ती 4 आचार्यों के समयों का भी अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें। ( हरिवंशपुराण 60/25-62 ), ( महापुराण/ प्र.48 पं. पन्नालाल) (ती.2/451)</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | ||
<thead> | <thead> | ||
Line 8,527: | Line 8,528: | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.प्र.16/258-294 भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियोंको बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान्से कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंशको अलंकृत करने लगा, क्योंकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिंहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान्से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ। कश्यप भगवान्से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंशका मुख्य हुआ। उस समय भगवान्नने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करनेका उपदेश दिया था, इसलिए जगत्के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.प्र.16/258-294 भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियोंको बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान्से कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंशको अलंकृत करने लगा, क्योंकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिंहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान्से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ। कश्यप भगवान्से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंशका मुख्य हुआ। उस समय भगवान्नने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करनेका उपदेश दिया था, इसलिए जगत्के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।</p> | ||
<h4 id="9.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.2 इक्ष्वाकुवंश</strong></h4> | <h4 id="9.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.2 इक्ष्वाकुवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथसे यह वंश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी दो शाखाएँ हो गयीं एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश। ( हरिवंशपुराण 13/33 ) सूर्यवंशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई, क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है। ( पद्मपुराण 5 | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथसे यह वंश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी दो शाखाएँ हो गयीं एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश। ( हरिवंशपुराण 13/33 ) सूर्यवंशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई, क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#4|पद्मपुराण - 5.4]]) इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध है। ( परमात्मप्रकाश 5/261 ) चन्द्रवंशकी शाखा बाहुबलीके पुत्र सोमयशसे प्रारम्भ हुई ( हरिवंशपुराण 13/16 )। इसीका नाम सोमवंश भी है, क्योंकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची हैं ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#12|पद्मपुराण - 5.12]]) और भी देखें सामान्य राज्य वंश। इसकी वंशावली निम्नप्रकार है - ( हरिवंशपुराण 13/1-15 ) ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#4|पद्मपुराण - 5.4-9]])<strong><br /></strong></p> | ||
[[File: Itihaas_8.PNG ]] | [[File: Itihaas_8.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">स्मितयश, बल, सुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभद्रसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन्, प्रतापवान, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूर्य, इन्द्रद्युम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वंस-वीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाङ्क, मृगाङ्क आदि अनेक राजा अपने-अपने | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">स्मितयश, बल, सुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभद्रसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन्, प्रतापवान, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूर्य, इन्द्रद्युम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वंस-वीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाङ्क, मृगाङ्क आदि अनेक राजा अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर मुक्ति गये। इस प्रकार (1400000) चौदह लाख राजा बराबर इस वंशसे मोक्ष गये, तत्पश्चात् एक अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष को गये, परन्तु इनके बीच में एक-एक राजा इन्द्र पद को प्राप्त होता रहा।<br />पु.5 श्लोक नं. भगवान् आदिनाथ का युग समाप्त होने पर जब धार्मिक क्रियाओं में शिथिलता आने लगी, तब अनेकों राजाओं के व्यतीत होने पर अयोध्या नगरी में एक धरणीधर नामक राजा हुआ (57-59)</p> | ||
[[File: Itihaas_9.PNG ]] | [[File: Itihaas_9.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मुनिसुव्रतनाथ | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान् का अन्तराल शुरू होने पर अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नामक बड़ा राजा हुआ।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#73|21/73-74]]) इसके भी महागुणवान् `सुरेन्द्रमन्यु' नामक पुत्र हुआ। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#75|21/75]])</p> | ||
[[File: Itihaas_10.PNG ]] | [[File: Itihaas_10.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सौदास, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, तुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, (22 | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सौदास, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, तुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#131|22.131]]) (([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#1145|22.145]]) वीरसेन, प्रतिमन्यु, दीप्ति, कमलबन्धु, प्रताप, रविमन्यु, वसन्ततिलक, कुबेरदत्त, कीर्तिमान्, कुन्थुभक्ति, शरभरथ, द्विरदरथ, सिंहदमन, हिरण्यकशिपु, पुंजस्थल, ककुत्थ, रघु। (अनुमानतः ये ही रघुवंशके प्रवर्तक हों अतः देखें [[ इतिहास#9.11|रघुवंश]]। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#153|22.153-158]])।</p> | ||
<h4 id="9.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.3 उग्रवंश</strong></h4> | <h4 id="9.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.3 उग्रवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व चन्द्रवंश की तथा उसी समय कुरुवंश और उग्रवंश की उत्पत्ति हुई।<br /> हरिवंशपुराण 22/51-53 जिस समय भगवान् आदिनाथ भरत को राज्य देकर दीक्षित हुए, उसी समय चार हजार भोजवंशीय तथा उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए। पीछे चलकर तप भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओं में से नमि विनमि हैं। दे.-`सामान्य राज्यवंश'। <br />नोट - इस प्रकार इस वंश का केवल नामोल्लेख मात्र मिलता है।</p> | ||
<h4 id="9.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.4 ऋषिवंश</strong></h4> | <h4 id="9.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.4 ऋषिवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण 5 | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#2|पद्मपुराण - 5.2]] "चन्द्रवंश (सोमवंश) को ही ऋषिवंश कहा है। विशेष देखें [[सोमवंश]]" </p> | ||
<h4 id="9.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.5 कुरुवंश</strong></h4> | <h4 id="9.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.5 कुरुवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 20/111 "ऋषभ | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 20/111 "ऋषभ भगवान् को हस्तिनापुर में सर्वप्रथम आहारदान करके दान तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाला राजा श्रेयान् कुरुवंशी थे। अतः उनकी सर्व सन्तति भी कुरुवंशीय है। और भी देखें [[सामान्य राज्यवंश]]'<br />नोट - हरिवंश पुराण व महापुराण दोनों में इसकी वंशवाली दी गयी है। पर दोनों में अन्तर है। इसलिए दोनों की वंशावली दी जाती है।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>प्रथम वंशावली -( हरिवंशपुराण 45/6-38 )</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>प्रथम वंशावली -( हरिवंशपुराण 45/6-38 )</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुतमार, कुरु, कुरुचन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोड़ों राजाओं पश्चात्...तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, ब्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि करोड़ों राजा....धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैकड़ों राजा...धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए... भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए.. विजय महाराज, जयराज... इनके पश्चात् इसी वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु, बृहध्वज...तदनन्तर विश्वसेन, 16 वें तीर्थंकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काङ्क, कुरु...इसी वंशमें सूर्य भगवान्कुन्थुनाथ (ये तीर्थंकर व चक्रवर्ती थे)...तदनन्तर अनेक राजाओं के पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व 18 वें तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप, चारुपद्म,.....अनेक राजाओंके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुतमार, कुरु, कुरुचन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोड़ों राजाओं पश्चात्...तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, ब्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि करोड़ों राजा....धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैकड़ों राजा...धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए... भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए.. विजय महाराज, जयराज... इनके पश्चात् इसी वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु, बृहध्वज...तदनन्तर विश्वसेन, 16 वें तीर्थंकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काङ्क, कुरु...इसी वंशमें सूर्य भगवान्कुन्थुनाथ (ये तीर्थंकर व चक्रवर्ती थे)...तदनन्तर अनेक राजाओं के पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व 18 वें तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप, चारुपद्म,.....अनेक राजाओंके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत</p> | ||
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[[File: Itihaas_12.PNG ]] | [[File: Itihaas_12.PNG ]] | ||
<h4 id="9.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.6 चन्द्रवंश</strong></h4> | <h4 id="9.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.6 चन्द्रवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#12|5/12]]) सोम नाम चन्द्रमा का है सो सोमवंश को ही चन्द्रवंश कहते हैं। ( हरिवंशपुराण 13/16 ) विशेष देखें [[ सोमवंश]]</p> | ||
<h4 id="9.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.7 नाथवंश</strong></h4> | <h4 id="9.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.7 नाथवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पाण्डवपुराण 2/163-165 "इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है। देखें [[ ]]`सामान्य राज्यवंश'</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पाण्डवपुराण 2/163-165 "इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है। देखें [[ ]]`सामान्य राज्यवंश'</p> | ||
<h4 id="9.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.8 भोजवंश</strong></h4> | <h4 id="9.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.8 भोजवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/51-53 जब आदिनाथ भगवान् | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/51-53 जब आदिनाथ भगवान् भरतेश्वर को राज्य देकर दीक्षित हुए थे, तब उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार राजा भी तप में स्थित हुए थे। परन्तु पीछे तप भ्रष्ट हो गये। उसमेंसे नमी व विनमि दो भाई भी थे। हरिवंशपुराण 55/72,111 "कृष्ण ने नेमिनाथ के लिए जिस कुमारी राजीमती की याचना की थी वह भोजवंशियों की थी। नोट - इस वंश का विस्तार उपलब्ध नहीं है।</p> | ||
<h4 id="9.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.9 मातङ्गवंश</strong></h4> | <h4 id="9.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.9 मातङ्गवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/110-113 "राजा | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/110-113 "राजा विनमि के पुत्रों में जो मातङ्ग नामका पुत्र था, उसी से मातङ्गवंश की उत्पत्ति हुई। सर्व प्रथम राजा विनमि का पुत्र मातङ्ग हुआ। उसके बहुत पुत्र-पौत्र थे, जो अपनी-अपनी क्रियाओं के अनुसार स्वर्ग व मोक्ष को प्राप्त हुए। इसके बहुत दिन पश्चात् इसी वंश में एक प्रहसित राजा हुआ, उसका पुत्र सिंहदृष्ट था। नोट - इस वंश का अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं है।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. मातङ्ग विद्याधरोंके चिन्ह -</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. मातङ्ग विद्याधरोंके चिन्ह -</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 26/15-22 मातङ्ग जाति | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 26/15-22 मातङ्ग जाति विद्याधरों के भी सात उत्तर भेद हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं - मातङ्ग = नीले वस्त्र व नीली मालाओं सहित। श्मशान निलय = धूलि धूसरति तथा श्मशान की हड्डियों से निर्मित आभूषणों से युक्त। पाण्डुक = नील वैडूर्य मणि के सदृश नीले वस्त्रों से युक्त। कालश्वपाकी = काले मृग चर्म व चमड़े से निर्मित वस्त्र व मालाओं से युक्त। पार्वतये = हरे रंग के वस्त्रों से पत्रों की मालाओं से युक्त। वार्क्षमूलिक = सर्प चिन्ह के आभूषण से युक्त।</p> | ||
<h4 id="9.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.10 यादव वंश</strong></h4> | <h4 id="9.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.10 यादव वंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 18/5-6 | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 18/5-6 हरिवंश में उत्पन्न यदु राजा से यादववंश की उत्पत्ति हुई। देखो [[हरिवंश]] </p> | ||
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[[File: Itihaas_15.PNG ]] | [[File: Itihaas_15.PNG ]] | ||
<h4 id="9.11" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.11 रघुवंश</strong></h4> | <h4 id="9.11" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.11 रघुवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इक्ष्वाकु | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न रघु राजा से ही सम्भवतः इस वंश की उत्पत्ति है - देखें [[इक्ष्वाकुवंश]] [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_22#160|22.160-162]]</p> | ||
[[File: Itihaas_16.PNG ]] | [[File: Itihaas_16.PNG ]] | ||
<h4 id="9.12" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.12 राक्षसवंश</strong></h4> | <h4 id="9.12" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.12 राक्षसवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मेघवाहन नामक | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मेघवाहन नामक विद्याधर को राक्षसों के इन्द्र भीम व सुभीम ने भगवान् अजितनाथ के समवशरण में प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीप में लंका का राज्य दिया था। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#159|5.159-160]]) तथा पाताल लंका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#161|5/161-167]]) इसी मेघवाहन की सन्तान परम्परा में एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसी के नाम पर इस वंश का नाम `राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#378|5/378]]) इसकी वंशावली निम्न प्रकार है-</p> | ||
[[File: Itihaas_17.PNG ]] | [[File: Itihaas_17.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस प्रकार | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस प्रकार मेघवाहन की सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#377|5.377]]) उसी सन्तान परम्परा में एक मनोवेग राजा हुआ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#378|5.378]]) </p> | ||
[[File: Itihaas_18.PNG ]] | [[File: Itihaas_18.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भीमप्रभ, पूर्जाह आदि 108 पुत्र, जिनभास्कर, संपरिकीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, चिन्तागति, इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवन, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड लंकाशोक, मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ, नक्षत्रदम आदि करोड़ों विद्याधर इस वंशमें हुए...धनप्रभ, कीर्तिधवल। (5 | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भीमप्रभ, पूर्जाह आदि 108 पुत्र, जिनभास्कर, संपरिकीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, चिन्तागति, इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवन, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड लंकाशोक, मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ, नक्षत्रदम आदि करोड़ों विद्याधर इस वंशमें हुए...धनप्रभ, कीर्तिधवल। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#382|5.382-388]])<br />भगवान् मुनिसुव्रत के तीर्थ में विद्युत्केश नामक राजा हुआ। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#222|6.222-223]]) इसका पुत्र सुकेश हुआ। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#341|6.341]])</p> | ||
[[File: Itihaas_19.PNG ]] | [[File: Itihaas_19.PNG ]] | ||
<h4 id="9.13" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.13 वानरवंश</strong></h4> | <h4 id="9.13" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.13 वानरवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक नं. राक्षस वंशीय राजा | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक नं. राक्षस वंशीय राजा कीर्तिध्वज ने राजा श्रीकण्ठ को (जब वह पद्मोत्तर विद्याधर से हार गया) सुरक्षित रूप से रहने के लिए वानर द्वीप प्रदान किया था ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#83|6.83-84]])। वहाँ पर उसने किष्कु पर्वतपर किष्कुपुर नगरीकी रचना की। वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठ को बहुत अधिक प्रेम हो गया था। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#107|6.107-122]])। तदनन्तर इसी श्रीकण्ठ की पुत्र परम्परा में अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाह के समय मण्डप में वानरों की पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभ ने वृद्ध मन्त्रियों से यह जाना कि "हमारे पूर्वजनों ने वानरों से प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जान कर राजा ने अपने मुकुटों में वानरों के चिह्न कराये। उसी समय से इस वंश का नाम वानरवंश पड़ गया। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#175|6.175-217]]) (इसकी वंशावली निम्न प्रकार है) :-<br /> पद्मपुराण 6/ श्लोक विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का राजा अतीन्द्र (3) था। तदनन्तर श्रीकण्ठ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#5|5]]), वज्रकण्ठ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#152|152]]), वज्रप्रभ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#160|160]]), इन्द्रमत ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#161|161]]) मेरु ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#161|161]]), मन्दर ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#161|161]]), समीरणगति ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#161|161]]), रविप्रभ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#161|161]]), अमरप्रभ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#162|162]]), कपिकेतु ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#198|198]]), प्रतिबल ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#200|200]]), गगनानन्द ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#205|205]]), खेचरानन्द ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#205|205]]), गिरिनन्दन ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#205|205]]), इस प्रकार सैकड़ों राजा इस वंश में हुए, उनमें से कितनों ने स्वर्ग व कितनों ने मोक्ष प्राप्त किया।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#206|206]]) जिस समय भगवान् मुनिसुव्रत का तीर्थ चल रहा था ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#222|222]]) तब इसी वंश में एक महोदधि राजा हुआ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#218|218]])। उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#349|349]])।</p> | ||
[[File: Itihaas_20.PNG ]] | [[File: Itihaas_20.PNG ]] | ||
<h4 id="9.14" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.14 विद्याधर वंश</strong></h4> | <h4 id="9.14" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.14 विद्याधर वंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जिस समय भगवान् ऋषभदेव | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वर को राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवंशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तप में स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये। उनमें-से नमि और विनमि आकर भगवान् के चरणों में राज्य की इच्छा से बैठ गये। उसी समय रक्षा में निपुण धरणेन्द्र ने अनेकों देवों तथा अपनी दीति और अदीति नामक देवियों के साथ आकर इन दोनों को अनेकों विद्याएँ तथा औषधियाँ दीं। ( हरिवंशपुराण 22/51-53 ) इन दोनों के वंश में उत्पन्न हुए पुरुष विद्याएँ धारण करने के कारण विद्याधर कहलाये।<br />([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#10|पद्मपुराण - 6.10]]) </p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>1. विद्याधर जातियाँ</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>1. विद्याधर जातियाँ</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/76-83 नमि तथा | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 22/76-83 नमि तथा विनमि ने सब लोगों को अनेक औषधियाँ तथा विद्याएँ दीं। इसलिए वे वे विद्याधर उस उस विद्यानिकाय के नाम से प्रसिद्ध हो गये। जैसे.....गौरी विद्या से गौरिक, कौशिकी से कौशिक, भूमितुण्ड से भूमितुण्ड, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकुक से शंकुक, पाण्डुकीसे पाण्डुकेय, कालक से काल, श्वपाक से श्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूलिक से पांशुमूलिक, वृक्षमूलसे वार्क्षमूल, इस प्रकार विद्या निकायों से सिद्ध होने वाले विद्याधरों का वर्णन हुआ।<br />नोट - कथन पर से अनुमान होता है कि विद्याधर जातियाँ दों भागों में विभक्त हो गयीं-आर्य व मातंग।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2. आर्य | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2. आर्य विद्याधरों के चिह्न</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण/26/6-14 आर्य | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण/26/6-14 आर्य विद्याधरों की आठ उत्तर जातियाँ हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं-गौरिक-हाथ में कमल तथा कमलों की माला सहित। गान्धार-लाल मालाएँ तथा लाल कम्बल के वस्त्रों से युक्त। मानवपुत्रक-नाना वर्णों से युक्त पीले वस्त्रोंसहित। मनुपुत्रक-कुछ-कुछ लाल वस्त्रों से युक्त एवं मणियों के आभूषणों से सहित। मूलवीर्य-हाथ में औषधि तथा शरीर पर नाना प्रकार के आभूषणों और मालाओं सहित। भूमितुण्ड-सर्व ऋतुओं की सुगन्धि से युक्त स्वर्णमय आभरण व मालाओं सहित। शंकुक-चित्रविचित्र कुण्डल तथा सर्पाकार बाजूबन्द से युक्त। कौशिक-मुकुटों पर सेहरे व मणि मय कुण्डलों से युक्त।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3. मातंग विद्याधरोंके चिन्ह</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3. मातंग विद्याधरोंके चिन्ह</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">- देखें [[ मातंगवंश सं#9 | मातंगवंश सं - 9]]।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">- देखें [[ मातंगवंश सं#9 | मातंगवंश सं - 9]]।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4. | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4. विद्याधर की वंशावली</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">1. विनमि के पुत्र- हरिवंशपुराण/22/103-106 "राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिधूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ...पुत्रों के सिवाय भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ हुईं। इनमें-से सुभद्रा भरत चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में-से एक स्त्री-रत्न थी।<br />2. नमि के पुत्र- हरिवंशपुराण/22/107/108 नमि के भी रवि, सोम, पुरहूत, अंशुमान, हरिजय, पुलस्त्य, विजय, मातंग, वासव, रत्नमाली ( हरिवंशपुराण/13/20 ) आदि अत्यधिक कान्ति के धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नाम की दो कन्याएँ भी हुई।<br /> हरिवंशपुराण/13/20-25 नमि के पुत्र रत्नमाली के आगे उत्तरोत्तर रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रजंघ, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, सुवज्र, वज्रभृत्, वज्राभ, वज्रबाहु, वज्रसंज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजानु, वज्रवान, विद्युन्मुख, सुवक्त्र, विद्युदंष्ट्र, विद्युत्वान्, विद्युदाभ, विद्युद्वेग, वैद्युत, इस प्रकार अनेक राजा हुए। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#16|पद्मपुराण - 5.16-21]])<br /> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#25|पद्मपुराण - 5.25-26]]) ......तदन्तर इसी वंश में विद्युद्दृढ राजा हुआ (इसने संजयन्त मुनिपर उपसर्ग किया था)। तदनन्तर ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#48|पद्मपुराण - 5/48-54]]) दृढरथ, अश्वधर्मा, अश्वायु, अश्वध्वज, पद्मनिभ, पद्ममाली, पद्मरथ, सिंहयान, मृगोद्धर्मा, सिंहसप्रभु, सिंहकेतु, शशांकमुख, चन्द्र, चन्द्रशेखर, इन्द्र, चन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध, चक्रध्वज, मणिग्रीव, मण्यंक, मणिभासुर, मणिस्यन्दन, मण्यास्य, विम्बोष्ठ, लम्बिताधर, रक्तोष्ठ, हरिचन्द्र, पुण्यचन्द्र, पूर्णचन्द्र बालेन्दु, चन्द्रचूड़, व्योमेन्दु, उडुपालन, एकचूड़, द्विचूड़, त्रिचूड़, वज्रचूड़, भरिचूड़, अर्कचूड़, वह्निजरी, वह्नितेज, इस प्रकार बहुत राजा हुए। अजितनाथ भगवान् के समय में इस वंश में एक पूर्णधन नामक राजा हुआ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#78|पद्मपुराण - 5.78]]) जिसके मेघवाहन ने धरणेन्द्र से लंका का राज्य प्राप्त किया ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#149|पद्मपुराण - 5.149-160]])। उससे राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई। - देखें [[ राक्षस वंश ]]</p> | ||
<h4 id="9.15" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.15 श्री वंश</strong></h4> | <h4 id="9.15" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.15 श्री वंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 भगवान् | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए उनका उत्कृष्ट वंश श्री वंश प्रचलित हुआ। नोट-इस वंश का नामोल्लेख के अतिरिक्त अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं।</p> | ||
<h4 id="9.16" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.16 सूर्यवंश</strong></h4> | <h4 id="9.16" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.16 सूर्यवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 ऋषभनाथ | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/33 ऋषभनाथ भगवान् के पश्चात् इक्ष्वाकु वंश की दो शाखाएँ हों गयीं-एक सूर्यवंश व दूसरी चन्द्रवंश।<br /> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#4|पद्मपुराण - 5.4]]) सूर्यवंश की शाखा भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से प्रारम्भ हुई क्योंकि अर्क नाम सूर्य का है।<br /> ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#561|पद्मपुराण - 5.561]]) इस सूर्यवंश का नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध है। - देखें [[ इक्ष्वाकुवंश ]]</p> | ||
<h4 id="9.17" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.17 सोमवंश</strong></h4> | <h4 id="9.17" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.17 सोमवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/16 भगवान् | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 13/16 भगवान् ऋषभदेव की दूसरी रानी से बाहुबली नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, उसके भी सोमयश नाम का सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। `सोम' नाम चन्द्रमा का है सो उसी सोमयश से सोमवंश अथवा चन्द्रवंश की परम्परा चली। ( पद्मपुराण 10/13 ) ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#2|पद्मपुराण - 5.2]]) चन्द्रवंश का दूसरा नाम ऋषिवंश भी है। हरिवंशपुराण 13/16-17; ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#11|पद्मपुराण - 5.11-14]]) ।</p> | ||
[[File: Itihaas_21.PNG ]] | [[File: Itihaas_21.PNG ]] | ||
<h4 id="9.18" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.18 हरिवंश</strong></h4> | <h4 id="9.18" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.18 हरिवंश</strong></h4> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 15/57-58 हरि | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण 15/57-58 हरि राजा के नाम पर इस वंश की उत्पत्ति हुई। (और भी देखें [[ सामान्य राज्य वंश सं#1 | सामान्य राज्य वंश सं - 1]]) इस वंश की वंशावली आगम में तीन प्रकार से वर्णन की गयी। जिसमें कुछ भेद हैं। तीनों ही नीचे दी जाती हैं।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>1. हरिवंश | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>1. हरिवंश पुराण की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक राजा का पुत्र हरि हुआ। इसी से इस वंश की उत्पत्ति हुई। उसके पश्चात् उत्तरोत्तर क्रम से महागिरी, गिरि, आदि सैंकड़ों राजा इस वंश में हुए (15/57-61)। फिर भगवान् मुनिसुव्रत (16/12), सुव्रत (16/55) दक्ष, ऐलेय (17/2,3), कुणिम (17/22) पुलोम, (17/24)</p> | ||
[[File: Itihaas_22.PNG ]] | [[File: Itihaas_22.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र, वसु ( | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र, वसु (असत्य से नरक गया) (17/31-37)।</p> | ||
[[File: Itihaas_23.PNG ]] | [[File: Itihaas_23.PNG ]] | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">तदनन्तर बृहद्रथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, वप्रथु, बिन्दुसार, देवगर्भ, शतधनु,....लाखों राजाओंके पश्चात् निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध के कालयवनादि सैकड़ों पुत्र हुए थे। (18/17-25) बृहद्वसुका पुत्र सुबाहु, तदनन्तर, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान, भानु, यवु, सुभानु, कुभानु, भीम आदि सैकड़ों राजा हुए। (18/1-5) भगवान् | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">तदनन्तर बृहद्रथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, वप्रथु, बिन्दुसार, देवगर्भ, शतधनु,....लाखों राजाओंके पश्चात् निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध के कालयवनादि सैकड़ों पुत्र हुए थे। (18/17-25) बृहद्वसुका पुत्र सुबाहु, तदनन्तर, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान, भानु, यवु, सुभानु, कुभानु, भीम आदि सैकड़ों राजा हुए। (18/1-5) भगवान् नमिनाथ के तीर्थ में राजा यदु (18/5) हुआ जिससे यादववंश की उत्पत्ति हुई। - देखें [[ यादववंश ]]।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2. | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2. पद्यपुराण की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण 21/ श्लोक सं. हरि, महागिरि, वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला, सम्भूत, भूतदेव, आदि सैकड़ों राजा हुए (8-9)। तदनन्तर इसी | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> पद्मपुराण 21/ श्लोक सं. हरि, महागिरि, वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला, सम्भूत, भूतदेव, आदि सैकड़ों राजा हुए ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#8|पद्मपुराण - 21.8-9]])। तदनन्तर इसी वंश में सुमित्र ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#10|10]]), मुनिसुव्रतनाथ ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#22|22]]), सुव्रत, दक्ष, इलावर्धन, श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारथ, पुलोमादि हजारों राजा बीतने पर वासवकेतु राजा जनक मिथिला का राजा हुआ। ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_21#49|49-55]])</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3. महापुराण व पाण्डवपुराण की अपेक्षा</strong></p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3. महापुराण व पाण्डवपुराण की अपेक्षा</strong></p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 70/90-101 मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि सैंकड़ों राजा हुए। तदनन्तर इसी वंशमें</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"> महापुराण 70/90-101 मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि सैंकड़ों राजा हुए। तदनन्तर इसी वंशमें</p> | ||
<p style="text-align: justify;"> </p> | <p style="text-align: justify;"> </p> | ||
<h3 id="10" style="text-align: justify;"><strong>10. आगम समयानुक्रमणिका</strong></h3> | <h3 id="10" style="text-align: justify;"><strong>10. आगम समयानुक्रमणिका</strong></h3> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट-प्रमाणके लिए देखें [[ उस उसके | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट-प्रमाणके लिए देखें [[ उस उसके रचयिता का नाम ]]।</p> | ||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">संकेत सं. = संस्कृत; प्रा. = प्राकृत; अप. = अपभ्रंश; टी. = टीका; वृ. = वृत्ति; व. = वचनिका; प्र. = प्रथम; सि. = सिद्धान्त; श्वे. = श्वेताम्बर; क. = कन्नड; भ. = भट्टारक, भा. = भाषा; त. = तमिल; मरा. = मराठी; हिं. = हिन्दी; श्रा. = श्रावकाचार।</p> | <p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">संकेत सं. = संस्कृत; प्रा. = प्राकृत; अप. = अपभ्रंश; टी. = टीका; वृ. = वृत्ति; व. = वचनिका; प्र. = प्रथम; सि. = सिद्धान्त; श्वे. = श्वेताम्बर; क. = कन्नड; भ. = भट्टारक, भा. = भाषा; त. = तमिल; मरा. = मराठी; हिं. = हिन्दी; श्रा. = श्रावकाचार।</p> | ||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | <table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | ||
Line 8,765: | Line 8,766: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td>17</td> | <td>17</td> | ||
<td>रत्नकरण्ड | <td>रत्नकरण्ड श्रावकाचार.</td> | ||
<td> | <td>-</td> | ||
<td> | <td>-</td> | ||
<td>श्रावकाचार</td> | <td>श्रावकाचार</td> | ||
<td>सं.</td> | <td>सं.</td> | ||
Line 8,774: | Line 8,775: | ||
<td>18</td> | <td>18</td> | ||
<td>पद्धति टी.</td> | <td>पद्धति टी.</td> | ||
<td>-</td> | <td>127-179</td> | ||
<td> | <td>शामकुण्ड</td> | ||
<td>कषाय पा. तथा षट्खण्डागमकी टीका</td> | <td>कषाय पा. तथा षट्खण्डागमकी टीका</td> | ||
<td>सं.</td> | <td>सं.</td> | ||
Line 9,189: | Line 9,190: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td>66</td> | <td>66</td> | ||
<td>नवकार | <td>नवकार श्रावकाचार</td> | ||
<td>-</td> | <td>-</td> | ||
<td>-</td> | <td>-</td> | ||
Line 9,280: | Line 9,281: | ||
<td>600</td> | <td>600</td> | ||
<td>कीर्तिधर</td> | <td>कीर्तिधर</td> | ||
<td> | <td>इसी के आधार पर पद्मपुराण रचा गया</td> | ||
<td>सं.</td> | <td>सं.</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 13,997: | Line 13,998: | ||
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[[Category: इ]] | [[Category: इ]] | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1"> (1) <span class="GRef"> महापुराण </span>का अपरनाम इतिहास का अर्थ है― ‘‘इति इह आसीत्’’ (यहाँ ऐसा हुआ) इसके दूसरे नाम हैं― इतिवृत्ति और ऐतिह्य । यह ऋषियों द्वारा कथित होता है । इसमें पूर्व घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण </span>1.25, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9.128 </span></p> | <p id="1" class="HindiText"> (1) <span class="GRef"> महापुराण </span>का अपरनाम इतिहास का अर्थ है― ‘‘इति इह आसीत्’’ (यहाँ ऐसा हुआ) इसके दूसरे नाम हैं― इतिवृत्ति और ऐतिह्य । यह ऋषियों द्वारा कथित होता है । इसमें पूर्व घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण </span>1.25, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#128|हरिवंशपुराण - 9.128]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) पूर्व घटनाओं की स्मृति । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 9.198 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) पूर्व घटनाओं की स्मृति । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#198|हरिवंशपुराण - 9.198]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
किसी भी जाति या संस्कृति का विशेष परिचय पाने के लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनता पर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पाने के लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओं के काल आदि का अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्याति-लाभ की भावनाओं से अतीत वीतरागी जन प्रायः अपने नाम, गाँव व काल का परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जाने वाले उन सम्बन्धी उल्लेखों पर से, अथवा उनकी रचना में ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रों के उद्धरणों पर से, अथवा उनके द्वारा गुरुजनों के स्मरण रूप अभिप्राय से लिखी गयी प्रशस्तियों पर से, अथवा आगम में ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों पर से, अथवा भूगर्भ से प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टों में उल्लखित उनके नामों पर से इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानों ने इस दिशा में खोज की है, जो ग्रन्थों में दी गयी उनकी प्रस्तावनाओं से विदित है। उन प्रस्तावनाओं में से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदि का परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयों में घुसकर देखा जाये तो एक के पश्चात् एक कर के अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्यों का उल्लेख किया जाना आवश्यक समझ कर यहाँ कुछ मात्र का संकलन किया है। विशेष जानकारी के लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखने की आवश्यकता है।
अनुक्रमणिका
इतिहास -
1. इतिहास निर्देश व लक्षण।
1.1 इतिहास का लक्षण।
1.2 ऐतिह्य प्रमाण का श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव।
2. संवत्सर निर्देश।
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।
2.2 वीर निर्वाण संवत्।
2.3 विक्रम संवत्।
2.4 शक संवत्।
2.5 शालिवाहन संवत्।
2.6 ईसवी संवत्।
2.7 गुप्त संवत्।
2.8 हिजरी संवत्।
2.9 मघा संवत्।
2.10 सब संवतों का परस्पर सम्बन्ध।
3. ऐतिहासिक राज्य वंश।
3.1 भोज वंश।
3.2 कुरु वंश।
3.3 मगध देश के राज्य वंश (1. सामान्य; 2. कल्की; 3. हून; 4. काल निर्णय)
3.4 राष्ट्रकूट वंश।
4. दिगम्बर मूलसंघ।
4.1 मूल संघ।
4.2 मूल संघ की पट्टावली।
4.3 पट्टावलीका समन्वय।
4.4 मूलसंघ का विघटन।
4.5 श्रुत तीर्थ की उत्पत्ति।
4.6 श्रुतज्ञान का क्रमिक ह्रास।
5. दिगम्बर जैन संघ।
5.1 सामान्य परिचय।
5.2 नन्दिसंघ।
5.3 अन्य संघ।
6. दिगम्बर जैनाभासी संघ।
6.1 सामान्य परिचय।
6.2 यापनीय संघ।
6.3 द्राविड़ संघ।
6.4 काष्ठा संघ।
6.5 माथुर संघ।
6.6 भिल्लक संघ।
6.7 अन्य संघ तथा शाखायें।
7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें।
7.1 मूल संघ विभाजन।
7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।
7.3 नन्दिसंघ बलात्कार गण की भट्टारक आम्नाय।
7.4 नन्दिसंघ बलात्कार गण की शुभचन्द्र आम्नाय।
7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।
7.6 सेन या ऋषभ संघ।
7.7 पंचस्तूप संघ।
7.8 पुन्नाट संघ।
7.9 काष्ठा संघ।
7.10 लाड़ बागड़ गच्छ।
7.11 माथुर गच्छ।
8. आचार्य समयानुक्रमणिका।
9. पौराणिक राज्य वंश।
9.1 सामान्य वंश।
9.2 इक्ष्वाकु वंश।
9.3 उग्र वंश।
9.4 ऋषि वंश।
9.5 कुरुवंश।
9.6 चन्द्र वंश।
9.7 नाथ वंश।
9.8 भोज वंश।
9.9 मातङ्ग वंश।
9.10 यादव वंश।
9.11 रघुवंश।
9.12 राक्षस वंश।
9.13 वानर वंश।
9.14 विद्याधर वंश।
9.15 श्रीवंश।
9.16 सूर्य वंश।
9.17 सोम वंश।
9.18 हरिवंश।
10. आगम समयानुक्रमणिका।
1. इतिहास निर्देश व लक्षण
1.1 इतिहासका लक्षण
महापुराण 1/25 इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः। इति वृत्तमथै तिह्यमाम्नायं चामनस्ति तत् ।25। = `इति इह आसीत्' (यहाँ ऐसा हुआ) ऐसी अनेक कथाओंका इसमें निरूपण होनेसे ऋषिगण इसे (महापुराणको) `इतिहास', `इतिवृत्त' `ऐतिह्य' भी कहते हैं ।25।
1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव
राजवार्तिक 1/20/15/78/19 ऐतिह्यस्य च `इत्याह स भगवान् ऋषभः' इति परंपरीणपुरुषागमाद् गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भावः। = `भगवान् ऋषभने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है। इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।
2. संवत्सर निर्देश
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद
इतिहास विषयक इस प्रकरण में क्योंकि जैनागम के रचयिता आचार्यों का, साधुसंघ की परम्परा का, तात्कालिक राजाओं का, तथा शास्त्रों का ठीक-ठीक काल निर्णय करने की आवश्यकता पड़ेगी, अतः संवत्सर का परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है। जैनागममें मुख्यतः चार संवत्सरोंका प्रयोग पाया जाता है - 1. वीर निर्वाणसंवत्; 2. विक्रम संवत्; 3. ईसवी संवत्; 4. शक संवत्; परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य संवतोंका व्यवहार होता है - जैसे 1. गुप्त संवत् 2. हिजरी संवत्; 3. मधा संवत्; आदि।
2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश
कषायपाहुड़ 1/ $56/75/2 एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। = इद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महावीर का जन्मकाल-देखें महावीर ) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्षमें से घटा देने पर, वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण [या पंचम कालका प्रारम्भ] शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात् 3 वर्ष 8 महीने और पन्द्रह दिन। (तिलोयपण्णत्ति 4/1474)।
धवला 1 (प्र. 32 H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में 470 वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के प्रारम्भ के सम्बन्ध में प्राचीन काल से बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महावीर के निर्वाण काल के सम्बन्ध में भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि संघकी पट्टावली में आ. इन्द्रनन्दि ने वीर के निर्वाण से 470 वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और 488 वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशीलाल जायसवाल वीर निर्वाणके कालको 18 वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 470 वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोंमें शक संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 605 वर्ष पश्चात् कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम संवत्में 135 वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जै. पी. 284) (विशेष देखें परिशिष्ट - 1)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूपमें महात्मा बुद्धके साथ 12-13 वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योंकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ई. पू. 557-527 आता है जबकि बुद्धका ई. पू. 588-544 माना गया है। जैन साहित्य इतिहास इ.पी. 303)
2.3 विक्रम संवत् निर्देश
यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके 470 वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 60 वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् 155 वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. 470 तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् 155 वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् 225 वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् 60 वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ 470 वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके 18 वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और 60 वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. 410 में और जन्म 392 में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. 470 में और राज्याभिषेक 488 में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष देखें परिशिष्ट - 1)
इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. 470 में होता है, शक संवत्का वी.नि. 605 में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. 741 में। (देखें अगले शीर्षक )
2.4 शक संवत् निर्देश
यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. 79 (वी.नि. 606) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके 605 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के 135 वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष देखें परिशिष्ट - 1)
2.5 शालिवाहन संवत्
शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण देश में इसका प्रचार अवश्य रहा है। शक के नाम से प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहन से यह पृथक् है क्योंकि इसकी गणना वीर निर्वाण के 741 वर्ष पश्चात् मानी गई है। (विशेष देखें परिशिष्ट - 1)
2.6 ईसवी संवत्
यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके 525 वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से 57 वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।
2.7 गुप्त संवत् निर्देश
इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी 320 अर्थात् वी.नि. के 846 वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।
2.8 हिजरी संवत् निर्देश
इस संवत् का प्रचार मुसलमानों में है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहब के मक्का मदीना जाने के समय से उनकी हिजरत में विक्रम संवत् 650 में अर्थात् वीर निर्वाण के 1120 वर्ष पश्चात् स्थापित हुआ था। इसी को मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते हैं।
2.9 मघा संवत् निर्देश
महापुराण 76/399 कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के 1000 वर्ष बीतने पर मघा नाम के संवत में कल्की नामक राजा होगा। आगम के अनुसार दुषमा काल का प्रादुर्भाव वीर निर्वाण के 3 वर्ष व 8 मास पश्चात् हुआ है। अतः मघा संवत्सर वीर निर्वाण के 1003 वर्ष पश्चात् प्राप्त होता है। इस संवत्सर का प्रयोग कहीं भी देखने में नहीं आता।
2.10 सर्व संवत्सरों का परस्पर सम्बन्ध
निम्न सारणी की सहायता से कोई भी एक संवत् दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रम | नाम | संकेत | 1वी.नि. | 2 विक्रम | 3 ईसवी | 4 शक | 5 गुप्त | 6 हिजरी |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | वीर | वी. | - | - | - | - | - | - |
- | निर्वाण | नि. | 1 | पूर्व 470 | पूर्व 527 | पूर्व 605 | पूर्व 846 | पूर्व 1120 |
2 | विक्रम | वि. | 470 | 1 | पूर्व 57 | पूर्व 135 | पूर्व 376 | पूर्व 650 |
3 | ईसवी | ई. | 527 | 57 | 1 | पूर्व 78 | पूर्व 319 | पूर्व 593 |
4 | शक | श. | 605 | 135 | 78 | 1 | पूर्व 241 | पूर्व 515 |
5 | गुप्त | गु. | 846 | 376 | 319 | 241 | 1 | पूर्व 274 |
6 | हिजरी | हि. | 1120 | 650 | 594 | 535 | 274 | 1 |
3. ऐतिहासिक राज्यवंश
3.1 भोज वंश
दर्शनसार/ प्र. 36-37 (बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम 5/पृ. 378 पर छपा हुआ अर्जुनदेवका दानपत्र); ( ज्ञानार्णव/ प्र./पं. पन्नालाल) = यह वंश मालवा देशपर राज्य करता था। उज्जैनी इनकी राजधानी थी। अपने समयका बड़ा प्रसिद्ध व प्रतापी वंश रहा है। इस वंशमें धर्म व विद्याका बड़ा प्रचार था। बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम 5/पृ. 378 पर छपे हुए अर्जुनदेवके अनुसार इसकी वंशावली निम्न प्रकार है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | समय | विशेष | |
---|---|---|---|---|
- | - | वि.सं. | ईसवी सन् | |
1 | सिंहल | 957-997 | 900-940 | दानपत्रसे बाहर |
2 | हर्ष | 997-1031 | 940-974 | इतिहासके अनुसार |
3 | मुञ्ज | 1031-1060 | 974-1003 | दानपत्र तथा इतिहास |
4 | सिन्धु राज | 1060-1065 | 1003-1008 | इतिहासके अनुसार |
5 | भोज | 1065-1112 | 1008-1055 | दानपत्र तथा इतिहास |
6 | जयसिंह राज | 1112-1115 | 1055-1058 | दानपत्र तथा इतिहास |
7 | उदयादित्य | 1115-1150 | 1058-1093 | समय निश्चित है |
8 | नरधर्मा | 1150-1200 | 1093-1143 | - |
9 | यशोधर्मा | 1200-1210 | 1143-1153 | दानपत्रसे बाहर |
10 | अजयवर्मा | 1210-1249 | 1153-1192 | - |
11 | विन्ध्य वर्मा | 1249-1257 | 1192-1200 | इसका समय निश्चित है |
- | विजय वर्मा | - | - | - |
12 | सुभटवर्मा | 1257-1264 | 1200-1207 | - |
13 | अर्जुनवर्मा | 1264-1275 | 1207-1218 | - |
14 | देवपाल | 1275-1285 | 1218-1228 | - |
15 | जैतुगिदेव | 1285-1296 | 1228-1239 | - |
नोट - इस वंशावलीमें दर्शाये गये समय, उदयादित्य व विन्ध्यवर्माके समयके आधारपर अनुमानसे भरे गये हैं। क्योंकि उन दोनोंके समय निश्चित हैं, इसलिए यह समय भी ठीक समझना चाहिए।
3.2 कुरु वंश
इस वंशके राजा पाञ्चाल देशपर राज्य करते थे। कुरुदेश इनकी राजधानी थी। इस वंशमें कुल चार राजाओं का उल्लेख पाया जाता है - 1. प्रवाहण जैबलि (ई. पू. 1400); 2. शतानीक (ई. पू. 1400-1420); 3. जन्मेजय (ई. पू. 1420-1450) 4. परीक्षित (ई. पू. 1450-1470)।
3.3 मगध देशके राज्यवंश
3.3.1 सामान्य परिचय
जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।
प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।320। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से 9 वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।316। पालकका राज्य 60 वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।328, 331।
श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।331। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने 155 वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।362।
चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल 255 वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह 115 वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार 137 वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।316।
इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन 230 वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. 605 (ई. 79) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (देखें इतिहास - 2.4)। इस वंशका शासन 242 वर्ष तक रहा।
भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य 231 वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि 6 राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. 500 (वी. नि. 1027) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र. 54,65/पं. महेन्द्र)। इसलिये शास्त्रकारोंने इस वंशकी स्थिति वी. नि. 958 (ई. 431) तक ही स्वीकार की। जैनआम्नायके अनुसार वी. नि. 958 (ई. 431)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बड़े अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओंसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुक्लके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज 42 वर्ष अर्थात् वी. नि. 1000 (ई. 473) तक रहा। इस कुलका विशेष परिचय आगे पृथक्से दिया गया है। (देखें अगला उपशीर्षक )।
3.3.2 कल्की वंश
तिलोयपण्णत्ति 4/1509-1511 तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।1509। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।1510।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।1511।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. 958 में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु 70 वर्ष थी और 42 वर्ष अर्थात् वी. नि. 1000 तक उसने राज्य किया ।।1509।। आचारांगधरों (वी.नि. 683) के पश्चात् 275 वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. 958 में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।1510।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।1511।। ( हरिवंशपुराण 60/491-492 )
त्रिलोकसार 850 पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके 605 वर्ष 5 मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके 394 वर्ष 7 मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके 1000 वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. 76/397-400 दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।397। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।398। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।399। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।40।। = जन्म दुःखम कालके 1000 वर्ष पश्चात्। आयु 70 वर्ष। राज्यकाल 40 वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।
नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु 70 वर्ष तथा राज्यकाल 40 अथवा 42 वर्ष था। परन्तु तिलोयपण्णत्ति में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वह वी. नि. 958 में गद्दीपर बैठा, त्रिलोकसार के अनुसार वी. नि. 1000 में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. 3) के 1000 वर्ष पश्चात् अर्थात् 1003 में उसका जन्म हुआ और 1033 से 1073 तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. 958-1000, शिशुपालका 1000-1033, और चतुर्मुखका 1033-1073 । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।
3.3.3 हून वंश
कषायपाहुड़ 1/ प्र. 54/65 (पं. महेन्द्र कुमार) - लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात् कल्कीके स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये हैं और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कल्की और इतिहासोक्त हून एक ही बात है। जैसा कि मगध राज्य वंशोंका सामान्य परिचय देते हुए बताया जा चुका है इस वंशके सरदार गुप्तकालमें बराबर जोर पकड़ते जा रहे थे और गुप्त राजाओंके साथ इनकी मुठभेड़ बराबर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई. 413-435) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए। यद्यपि कुमार गुप्त (ई. 435-460) को परास्त करनेमें यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इसके द्वितीय सरदार तोरमाणने ई. 500 में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्यको अस्त-व्यस्त करके सारे पंजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई. 507 में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।
परन्तु अत्याचारी प्रवृत्तिके कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका। इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको संगठित किया और ई. 528 में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई. 540 में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।
विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्मकी बहुत वृद्धिकी तदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैन संस्कृतिपर तथा श्रमणोंपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।
जैन मान्य कल्कि वंशकी हून वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते हैं वी. नि. 958-1000 (ई. 431-473) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुलका प्रथम सरदार था, वी. नि. 1000-1033 (ई. 473-506) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी. नि. 1033-1073 वाला चतुर्मुख यहाँ ई. 506-546 का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके कालमें सम्मिलित कर लिया गया है।
3.3.4 काल निर्णय
अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
आधार-जैन शास्त्र = तिलोयपण्णत्ति 4/1505-1508; हरिवंशपुराण 60/487-491 ।
सन्धान - तिलोयपण्णत्ति 2/ प्र. 7, 14। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; धवला 1/ प्र. 33/एच. एल. जैन; कषायपाहुड़ 1/ प्र. 52-54 (64-65)। पं. महेन्द्रकुमार; दर्शनसार/ प्र. 28/पं. नाथूराम प्रेमी; पं. कैलाश चन्दजी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।
प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका/ पृष्ठ संख्या
संकेत - वी. नि. = वीर निर्वाण संवत्; ई. पू. = ईसवी पूर्व; ई. = ईसवी; पू. = पूर्व; सं. = संवत्; वर्ष= कुल शासन काल; लोक इतिहास = वर्तमान इतिहास।
नाम | जैन शास्त्र ( तिलोयपण्णत्ति 4/1505 ) | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
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- | प्रमाण | वी.नि. | ई.पू. | प्रमाण | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
अवन्ती राज्य | |||||||||
1. प्रद्योत वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | 317 | 125 | - | - | - | |
प्रद्योत | - | - | - | 317 | 23 | 325 | 560-527 | 33 | श्रेणिक तथा अजातशत्रुका समकालीन ।322। श्रेणिकके मन्त्री अभयकुमारने बन्दी बनाकर श्रेणिकके आधीन किया था ।320। |
पालक | 326 | Jan-1960 | 527-467 | - | - | 325 | 527-467 | 60 | इसे गद्दीसे उतारकर जनताने मगध नरेश उदयी (अजक) को राजा स्वीकार कर लिया ।332। |
विशाखयूप | - | - | - | 317 | 53 | - | - | - | |
आर्यक, सूर्यक | - | - | - | 318 | 21 | - | - | - | |
अजक (उदयी) | - | - | - | - | - | - | 499-467 | 32 | मगध शासनके 53 वर्षोंमें से अन्तिम 32 वर्ष इसने अवन्ती पर शासन किया ।289। परन्तु दुष्टताके कारण किसी भ्रष्ट राजकुमारके हाथों धोखेसे निःसन्तान मारा गया ।232। |
नन्दि वर्द्धन | - | - | - | - | - | - | 467-449 | 18 | इसने मगधमें मिलाकर इस राज्यका अन्तकर दिया ।328। |
मगध राज्य | |||||||||
1. शिशुनाग वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | - | 126 | - | - | - | |
शिशुनाग | - | - | - | 318 | 40 | - | - | - | जायसवालजीके अनुसार श्रेणिक वंशीय दर्शकके अपर नाम हैं। शिशुनाग तथा काकवण उसके विशेषण हैं ।322। |
काकवर्ण | - | - | - | 318 | 26 | - | - | - | |
क्षेत्रधर्मा | - | - | - | 318 | 36 | - | - | - | |
क्षतौजा | - | - | - | 318 | 24 | - | - | - |
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नाम | बौद्ध शास्त्र महावंश | मत्स्यपुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
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- | प्रमाण | बु.नि. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
2. श्रेणिक वंश | |||||||||
सामान्य | राज्यके लोभसे अपने अपने पिताकी हत्या करनेके कारण यह कुल पितृघाती नामसे प्रसिद्ध है ।314। | ||||||||
श्रेणिक (बिम्बसार) | - | - | - | - | 28 | 308 | 604-652 | 52 | बुद्ध तथा महावीरके समकालीन ।304। इसके पुत्र अजातशत्रुका राज्याभिषेक ई. पू. 552 में निश्चित है। |
अजातशत्रु (कुणिक) | 316 | पू. 8-सं.24 | 552-520 | 32 | 27 | 308 | 552-520 | 32 | |
भूमिमित्र | - | - | - | - | 14 | - | - | - | बौद्ध ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख नहीं है ।322। |
दर्शक | - | - | - | - | 27 | - | - | - | इसकी बहन पद्मावती का विवाह उदयी के साथ होना माना गया है ।323। |
- | - | - | - | - | 24 | - | - | - | |
वंशक | |||||||||
उदयी | 314 | 24-40 | 520-504 | 16 | 33 | 333 | 520-467 | 53 | अजातशत्रुका पुत्र ।314। अपरनाम अजक । 328। ई. पू. 429 में पालकको गद्दीसे हटाकर जनताने इसे अवन्तीका शासक बना दिया परन्तु यह उसे अपने देशमें नहीं मिला सका ।328। |
अनुरुद्ध | 314 | 40-44 | 504-500 | 4 | - | 335 | 467-458 | 9 | |
मुण्ड | 314 | 44-48 | 500-496 | 4 | - | 335 | 458-449 | 8 | |
नागदास | 314 | 48-72 | 496-472 | 24 | - | 314 | 449-449 | 0 | पितृघाती कुलको समाप्त करनेके लिए जनताने उसके स्थानपर इसके मन्त्रीको राजा बना दिया ।314। |
सुसुनाग (नन्दिवर्धन) | 315 | 72-90 | 472-454 | 18 | 40 | 314 | 449-409 | 40 | नागदासका मन्त्री जिसे जनताने राजा बनाया ।314। अवन्ती राज्यको मिलाकर अपने देशकी वृद्धि करनेके कारण नन्दिवर्द्धन नाम पड़ा ।331। |
कालासोक | 315 | 90-118 | 454-426 | 28 | - | - | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
नाम | जैन शास्त्र ( तिलोयपण्णत्ति 4 ) 1506 | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | ||||||
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- | प्रमाण | वी.नी. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ||
3. नन्द वंश | ||||||||||
सामान्य | 329 | 60-215 | 467-312 | 155* | 183 | - | - | - | खारवेल शिलालेखके आधारपर क्योंकि नंदिवर्द्धनका राज्याभिषेक ई. पू. 458 में होना सिद्ध होता है इसलिए जायसवाल जीने राजाओंके उपर्युक्त क्रममें कुछ हेर-फेर करके संगति बैठानेका प्रयत्न किया है ।334। श्रेणिक वंशीय नामदासका मन्त्री ही नन्दिवर्द्धनसे प्रसिद्ध हो गया था। (देखें ऊपर )। वास्तवमें यह नन्द वंशके राजाओंमें सम्मिलित नहीं थे। इस वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख आगे किया गया है ।331। | |
अनुरुद्ध | - | - | - | - | - | 334 | 467-458 | 9 | ||
नन्दिवर्द्धन (सुसुनाग) | - | - | - | - | 40 | 334 | 458-418 | 40 | ||
मुण्ड | - | - | - | - | - | 334 | 418-410 | 8 | ||
लोक इतिहास | ||||||||||
नव नन्द :- | - | - | 526-322 | 204 | - | - | 410-326 | 84 | ||
महानन्द | - | - | - | - | 43 | 334 | 410-374 | 36 | नन्दिवर्द्धनका उत्तराधिकारी तथा नन्द वंशका प्रथम राजा ।331। | |
महानन्दके 2 पुत्र | - | - | - | - | - | 334 | 374-366 | 8 | ||
महापद्मनन्द (तथा इनके 4 पुत्र) | - | - | - | - | 88 | 334 | 366-338 | 28* | 88 तथा 28 वर्ष की गणना में 60 वर्ष का अन्तर है। इसके समाधान के लिए देखो नीचे टिप्पणी। | |
धनानन्द | - | - | - | - | 12 | 334 | 338-326 | 12 | भोग विलासमें पड़ जानेके कारण इसके कुलको नष्ट कर के इसके मन्त्री शाकटालने चाणक्यकी सहायतासे चन्द्र गुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।364। |
* जैन शास्त्र के अनुसार पालक का काल 60 वर्ष और नन्द वंश का 155 वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी. नि. 215 में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक हुआ। श्रुतकेवली भद्रबाहु (वी. नि. 162) के समकालीन बनानेके अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिने इसे वी. नि. 155 में राज्यारूढ़ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नन्द वंश के काल को 155 से घटा कर 95 वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौ र्यके काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद पाया जाता है ।313। दूसरी ओर पुराणों में नन्द वंशीय महापद्मनन्दि के काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद है। वायु पुराण में उसका काल 28 वर्ष है और अन्य पुराणों में 88 वर्ष। 88 वर्ष मानने पर नन्द वंश का काल 183 वर्ष आता है और 28 वर्ष मानने पर 123 वर्ष। इस काल में उदयी (अजक) के अवन्ती राज्य वाले 32 वर्ष मिलाने पर पालक के पश्चात् नन्द वंश का काल 155 वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी (अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन की गणना नन्द वंश में करने की भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तव में ये दोनों राजा श्रेणिक वंश में हैं, नन्द वंश में नहीं। नन्द वंश में नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापद्मनन्द से प्रारम्भ होता है ।331।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नाम | जैन शास्त्र तिलोयपण्णत्ति 4/1506 | जैन इतिहास | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
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- | वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | |
4. मौर्य या मुरुड़ वंश- | |||||||||
सामान्य | 215-470 | 312-57 | 255 | - | 326-211 | 115 | 322-185 | 137 | |
चन्द्रगुप्त प्र. | 215-255 | 312-272 | 40 | 358 | 326-302 | 24 | 322-298 | 24 | जिन दीक्षा धारण करने वाले ये अन्तिम राजा थे। |
- | - | - | - | 336 | - | - | - | - | तिलोयपण्णत्ति 4/1481 । बुद्ध निर्वाण (ई. पू. 544) से 218 वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठे ।287। श्रुतकेवली भद्र बाहु (वी. नि. 162) के साथ दक्षिण गये। (देखें इतिहास - 4)। |
बिन्दुसार | - | - | - | - | 302-277 | 25 | 298-273 | 25 | चन्द्रगुप्तका पुत्र ।358। |
अशोक | - | - | - | - | 277-236 | 41 | 273-232 | 41 | |
कुनाल | - | - | - | 359 | 236-228 | 8 | 232-185 | 47 | |
दशरथ | - | - | - | 359 | 228-220 | 8 | - | - | कुनालके ज्येष्ठ पुत्र अशोकका पोता ।351। |
सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वि.) | - | - | - | 358 | 220-211 | 9 | - | - | कुनालका लघु पुत्र अशोकका पोता चन्द्रगुप्तके 105 वर्ष पश्चात् और अशोकके 16 वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा ।359। |
विक्रमादित्य* | 410-470 | 117-57 | 60 | - | - | - | - | - | *यह नाम क्रमबाह्य है। |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | जैन शास्त्र तिलोयपण्णत्ति 4/1507 | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
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वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | ||||
5. शक वंश- | ||||||||
सामान्य | 255-485 | 272-42 | 230 | 185-120 | 65 | यह वास्तवमें कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशकी सीमाओंपर बिखरा हुआ था। यद्यपि विक्रम वंशका राज्य वी. नि. 470 में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुप्तके कालमें ही इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधिकार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. 255 से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नहीं आता। | ||
प्रारम्भिक अवस्था में | 255-345 | 272-182 | 90 | - | - | |||
1. पुष्य मित्र | 255-285 | 272-242 | 30 | - | - | |||
2. चक्षु मित्र (वसुमित्र) | 285-345 | 242-182 | 60 | - | - | |||
अग्निमित्र (भानुमित्र) | 285-345 | 242-182 | 60 | - | - | वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे | ||
प्रबल अवस्थामें | अनुमानतः | |||||||
गर्दभिल्ल (गन्धर्व) | 345-445 | 182-82 | 100 | 181-141 | 40 | यद्यपि गर्दभिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू. 142-82 दिया है, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. 605 (ई. 79) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है। अतः मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोंके बीच कोई अन्य सरदार रहे होंगे, जिनका उल्लेख नहीं किया गया है। यदि इनके मध्यमें 5 या 6 सरदार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. 120 को स्पर्श कर जायेगी। और इस प्रकार इतिहासकारोंके समयके साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहनके समयके साथ भी। | ||
अन्य सरदार | 445-566 | ई.पू. 82-ई. 39 | 121 | 141-ई. 80 | 221 | |||
नरवाहन (नमःसेन) | 566-606 | 39-79 | 40 | 80-120 | 40 | |||
6. भृत्य वंश (कुशान वंश) - | - | - | - | - | - | इतिहासकारोंकी कुशान जाति ही आगमकारोंका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनों ही शकों पर विजय पानेवाले थे। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय में ही शकोंका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनों ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोंका ही साम्राज्य विस्तृत था। कुशान जाति एक बहिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमें देशसे निकाल दिया गया था। वहाँसे चलकर बखतियार व काबुलके मार्गसे ई. पू. 41 के लगभग भारतमें प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशों पर इन्होंने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. 40 में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओंमें इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें 80 वर्षका अन्तर है। | ||
सामान्य | 485-727 | पू. 42-- ई. 200 | 242 | 40-320 | 280 | |||
प्रारम्भिक-अवस्थामें | 485-566 | पू. 42-ई. 39 | 81 | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||
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ईसवी | वर्ष | ||||
प्रबल स्थितिमें | - | - | ई. 40 में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. 606 (ई. 79) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र./53/64/पं. महेन्द्र।) | ||
गौतम | 40-74 | 34 | |||
शालिवाहन (सातकर्णि) | 74-120 वी.नि. 601-647 | 46 | |||
कनिष्क | 120-162 | 42 | राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोंका मूलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की। | ||
अन्य राजा | 162-201 | 39 | कनिष्कके पश्चात् भी इस जातिका एकछत्र शासन ई. 201 तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोंने यहाँ तक ही इसकी अवधि अन्तिम स्वीकार की है। परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलोच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थितिमें इसकी सत्ता ई. 201-320 तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि ई. 201 की बजाये 320 स्वीकार करते हैं। | ||
क्षीण अवस्थामें | 201-320 | 119 | |||
7. गुप्त वंश- | आगमकारों व इतिहासकारोंकी अपेक्षा इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. 201-320 तक यह कुछ प्रारम्भिक रहा है। | ||||
सामान्य | जैन शास्त्र | 231 | |||
प्रारम्भिक | इतिहास | ||||
अवस्थामें | 320-460 | 140 | इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्यमें गुप्त सम्वत् चलाया। इसका विवाह लिच्छिव जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था। यह विद्वानोंका बड़ा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था। | ||
चन्द्रगुप्त | 320-330 | 10 | |||
समुद्रगुप्त | 330-375 | 45 | |||
चन्द्रगुप्त - (विक्रमादित्य) | 375-413 | 38 | |||
स्कन्द गुप्त | 413-435 वी. नि. | 22 | इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. 437 में जबकि गुप्त संवत् 117 था यही राजा राज्य करता था। ( कषायपाहुड़ 1/ प्र. /54/65/पं. महेन्द्र) | ||
- | 940-962 | - | इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तवमें स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात्, हूनोंके आक्रमणके द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयी। यही कारण है कि आगमकारोंने इस वंशकी अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वी. नि. 958) तक ही स्वीकार की है। कुमारगुप्तके कालमें भी हूनों के अनेकों आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्यका बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्तके समयमें तो यह वंश इतना कमजोर हो गया कि ई. 500 में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालवा पर अधिकार जमा लिया। तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया। | ||
कुमार गुप्त | 435-460 | 25 | |||
भानु गुप्त | 460-507 | 47 |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
जैन शास्त्रका कल्की वंश | इतिहासका हून वंश | ||||
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8. कल्की तथा हून वंश* | |||||
नाम | वी.नि. | वर्ष | नाम | ईस.वी. | वर्ष |
सामान्य | 958-1073 | 115 | सामान्य | 431-546 | 115 |
इन्द्र | 958-1000 | 42 | - | 431-473 | 42 |
शिशुपाल | 1000-1033 | 33 | तोरमाण | 476-506 | 33 |
चतुर्मुख | 1033-1055 | 40 | मिहिरकुल | 506-528 | 2 |
चतुर्मुख | 1055-1073 | - | विष्णु यशोधर्म | 528-546 | 18 |
आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. 432 से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष देखें शीर्षक - 2 व 3)
नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।
3.4 राष्ट्रकूट वंश (प्रमाणके लिए - देखें वह वह नाम )
सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।
1. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. 716-735 (ई. 794-813) निश्चित किया गया है। 2. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. 871-935 (ई. 814-878) निश्चित है। 3. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. 878-912 निश्चित है। 4. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।
4. दिगम्बर मूल संघ
4.1 मूलसंघ
भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ 162 वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष देखें श्वेताम्बर )। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. 683 तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. 565-593) के कालमें समाप्त हो गई।
ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. 575 में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 100-100 योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष देखें परिशिष्ट - 2.2)
4.2 मूलसंघकी पट्टावली
वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष देखें परिशिष्ट - 2)।
दृष्टि नं. 1 = ( तिलोयपण्णत्ति 4/1475-1496 ), ( हरिवंशपुराण 60/476-481 ); ( धवला 9/4,1/44/230 ); ( कषायपाहुड़ 1/ $64/84); ( महापुराण 2/134-150 )
दृष्टि नं. 2 = इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल. 1-17); (ती. 2/16 पर तथा 4/347 पर उद्धृत)
दृष्टि नं. 3 = जै.पी. 354 (पं. कैलाश चन्द)।
क्रम | नाम | अपर नाम | दृष्टि नं. 1 | दृष्टि नं. 2 | दृष्टि नं. 3 | विशेष | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | - | - | ज्ञान | समुदित काल | ज्ञान | कुल वर्ष | वी.नि.सं. | समुदित काल | वी.नि.सं. | कुल वर्ष | |
वीर निर्वाण के पश्चात्- | वर्ष | 0 | - | 0 | |||||||
1 | गौतम | इन्द्रभूति गणधर | केवली | 62 वर्ष | केवली | 12 | 0-12 | 62 वर्ष | 0-12 | 12 | |
2 | सुधर्मा | लोहार्य | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 62 वर्ष | केवली | 12 | 24-Dec | 62 वर्ष | 24-Dec | 12 | |
3 | जम्बू | - | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 62 वर्ष | केवली | 38 | 24-62 | 62 वर्ष | 24-62 | 38 | |
4 | विष्णु | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 100 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 14 | 62-76 | 62 वर्ष | 62-88 | 26 | |
5 | नन्दि मित्र | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 100 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 16 | 76-92 | 62 वर्ष | 88-116 | 28 | |
6 | अपराजित | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 100 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 22 | 92-114 | 62 वर्ष | 116-150 | 34 | ||
7 | गोवर्धन | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 100 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 19 | 114-133 | 100 वर्ष | 150-180 | 30 | ||
8 | भद्रबाहु प्र. | पूर्ण श्रुतकेवली 11 अंग 14 पूर्व | 100 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 29 | 133-162 | 100 वर्ष | 180-222 | 41 | ||
9 | विशाखाचार्य | विशाखदत्त | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | श्रुतकेवली या 11 अंग 14 पूर्वधारी | 10 | 162-172 | 100 वर्ष | 222-232 | 10 | |
10 | प्रोष्ठिल | चन्द्रगुप्त मौर्य | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 19 | 172-191 | 100 वर्ष | 232-251 | 19 | |
11 | क्षत्रिय | कृति कार्य | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 17 | 191-208 | 100 वर्ष | 251-268 | 17 | |
12 | जयसेन | जय | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 21 | 208-229 | 100 वर्ष | 268-289 | 21 | |
13 | नागसेन | नाग | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 18 | 229-247 | 100 वर्ष | 289-307 | 18 | |
14 | सिद्धार्थ | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 17 | 247-264 | 100 वर्ष | 307-324 | 17 | ||
15 | धृतषेण | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 18 | 264-282 | 183 वर्ष | 324-342 | 18 | ||
16 | विजय | विजयसेन | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 13 | 282-295 | 183 वर्ष | 342-355 | 13 | |
17 | बुद्धिलिंग | बुद्धिल | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 20 | 295-315 | 183 वर्ष | 355-375 | 20 | |
18 | देव | गंगदेव, गंग | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 14 | 315-329 | 183 वर्ष | 375-389 | 14 | |
19 | धर्मसेन | धर्म, सुधर्म | 11 अंग व 10 पूर्वधारी | 183 वर्ष | 11 अंग 10 पूर्वधारी | 14 (16) | 329-345 | 183 वर्ष | 389-405 | 16 | 14 की बजाय 16 वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
20 | क्षत्र | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 18 | 345-363 | 183 वर्ष | 405-417 | 12 | ||
21 | जयपाल | यशपाल | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 20 | 363-383 | 183 वर्ष | 417-430 | 13 | |
22 | पाण्डु | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 39 | 383-422 | 183 वर्ष | 430-442 | 12 | ||
23 | ध्रुवसेन | द्रुमसेन | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 14 | 422-436 | 183 वर्ष | 442-454 | 12 | |
24 | कंस | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 32 | 436-468 | 220 वर्ष | 454-468 | 14 | ||
25 | सुभद्र | 11 अंग धारी | 220 वर्ष | 11 अंगधारी | 6 | 468-474 | 220 वर्ष | 468-474 | 6 | ||
26 | यशोभद्र | अभय | आचारांग धारी | 118 वर्ष | 10 अंगधारी | 18 | 474-492 | 220 वर्ष | 474-492 | 18 | |
27 | भद्रबाहु द्वि. | यशोबाहु जयबाहु | आचारांगधारी | 118 वर्ष | 9 अंगधारी | 23 | 492-515 | 220 वर्ष | 492-515 | 23 | |
28 | लोहाचार्य | लोहार्य | आचारांग धारी | 118 वर्ष | 8 अंगधारी | 52 (50) | 515-565 | 220 वर्ष | 515-565 | 50 | 52 की बजाय 50 वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
- | 683 | 565 | - | 565 | |||||||
28 | लोहाचार्य | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | 8 अंगधारी | 52(50) | 515-565 | 565 | 515-565 | 50 | श्रुतावतारकी मूल पट्टावलीमें इन चारोंका नाम नहीं है। ( धवला 1/ प्र. 24/H. L. Jain)। एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन हैं। इनका समुदित काल 20 वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (देखें परिशिष्ट - 2) | ||
29 | विनयदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | 1 अंगधारी | 20 | 565-585 | 20 वर्ष | - | - | |||
30 | श्रीदत्त नं. 1 | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | 1 अंगधारी | समकालीन है 20 | 565-585 | 20 वर्ष | - | - | |||
31 | शिवदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | 1 अंगधारी | समकालीन है 20 | 565-585 | 20 वर्ष | - | - | |||
32 | अर्हदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | 1 अंगधारी | - | - | 20 वर्ष | - | - | |||
33 | अर्हद्बलि (गुप्तिगुप्त) | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | 28 | 565-593 | 118 वर्ष | 565-575 | 10 | आचार्य काल। | ||
- | - | - | - | - | 575-593 | 118 वर्ष | संघ विघटनके पश्चात्से समाधिसरण तक (विशेष देखें परिशिष्ट - 2) | ||||
34 | माघनन्दि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | 21 | 593-614 | 118 वर्ष | 575-579 | 4 | नन्दि संघके पट्ट पर। | ||
- | - | - | - | - | - | 118 वर्ष | 579-614 | 35 | पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात् समाधिमरण तक। (विशेष देखें परिशिष्ट - 2) | ||
35 | धरसेन | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | 19 | 614-633 | 118 वर्ष | 565-633 | 68 | अर्हद्बलीके समकालीन थे। वी. नि. 633 में समाधि। (विशेष देखें परिशिष्ट - 2) | ||
36 | पुष्पदन्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | 30 | 633-663 | 118 वर्ष | 593-633 | 40 | धरसेनाचार्यके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोंने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष देखें परिशिष्ट - 2) | ||
37 | भूतबलि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक 683 वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | 20 | 663-683 | 593-683 | 90 | ||||
- | 683 |
4.3 पट्टावली का समन्वय
धवला 1/ प्र./H. L. Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक आचार्यके कालका पृथक्-पृथक् निर्देश होनेसे द्वितीय दृष्टि प्रथमकी अपेक्षा अधिक ग्राह्य है ।28। इसके अन्य भी अनेक हेतु हैं। यथा - (1) प्रथम दृष्टिमें नक्षत्रादि पाँच एकादशांग धारियोंका 220 वर्ष समुदित काल बहुत अधिक है ।29। (2) पं. जुगल किशोरजीके अनुसार विनयदत्तादि चार आचार्योंका समुदित काल 20 वर्ष और अर्हद्बलि तथा माघनन्दिका 10-10 वर्ष कल्पित कर लिया जाये तो प्रथम दृष्टिसे धरसेनाचार्यका काल वी. नि. 723 के पश्चात् हो जाता है, जबकि आगे इनका समय वी. नि. 565-633 सिद्ध किया गया है ।24। (3) सम्भवतः मूलसंघका विभक्तिकरण हो जानेके कारण प्रथम दृष्टिकारने अर्हद्बली आदिका नाम वी. नि. के पश्चात्वाली 683 वर्षकी गणनामें नहीं रखा है, परन्तु जैसा कि परिशिष्ट 2 में सिद्ध किया गया है इनकी सत्ता 683 वर्षके भीतर अवश्य है।28। इसलिये द्वितीय दृष्टि ने इन नामोंका भी संग्रहकर लिया है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनके कालकी जो स्थापना यहाँ की गई है उसमें पट्टपरम्परा या गुरु शिष्य परम्पराकी कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि लोहाचार्यके पश्चात् वी. नि. 574 में अर्हद्बलीके द्वारा संघका विभक्तिकरण हो जानेपर मूल संघकी सत्ता समाप्त हो जाती है (देखें परिशिष्ट - 2 में `अर्हद्बली')। ऐसी स्थितिमें यह सहज सिद्ध हो जाता है कि इनकी काल गणना पूर्वावधिकी बजाय उत्तरावधिको अर्थात् उनके समाधिमरणको लक्ष्यमें रखकर की गई है। वस्तुतः इनमें कोई पौर्वापर्य नहीं है। पहले पहले वालेकी उत्तरावधि ही आगे आगे वालेकी पूर्वावधि बन गई है। यही कारण है कि सारणीमें निर्दिष्ट कालोंके साथ इनके जीवन वृत्तोंकी संगति ठीक ठीक घटित नहीं होती है। (4) दृष्टि नं. 3 में जैन इतिहासकारोंने इनका सुयुक्तियुक्त काल निर्धारित किया है जिसका विचार परिशिष्ट 2 के अन्तर्गत विस्तारके साथ किया गया है। (5) एक चतुर्थ दृष्टि भी प्राप्त है। वह यह कि द्वितीय दृष्टिका प्रतिपादन करनेवाले श्रुतवतार में प्राप्त एक श्लोक (देखें परिशिष्ट - 4) के अनुसार यशोभद्र तथा भद्रबाहु द्वि. के मध्य 4-5 आचार्य और भी हैं जिनका ज्ञान श्रुतावतारके कर्त्ता श्री इन्द्रनन्दिको नहीं है। इनका समुदित काल 118 वर्ष मान लिया जाय तो द्वि. दृष्टिसे भी लोहाचार्य तक 683 वर्ष पूरे हो जाने चाहिए। (पं. सं./प्र./H.L.Jain); ( सर्वार्थसिद्धि/ प्र. 78/पं. फूलचन्द)। परंतु इस दृष्टिको विद्वानोंका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अर्हद्बली आदिका काल उनके जीवन वृत्तोंसे बहुत आगे चला जाता है।
4.4 मूल संघका विघटन
जैसा कि उपर्युक्त सारणीमें दर्शाया गया है भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम गणधरसे लेकर अर्हद्बली तक उनका मूलसंघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। आ. अर्हद्बलीने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसर परमहिमानगर जिला सतारामें एक महान यतिसम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके साधु सम्मिलित हुए। उस समय उन साधुओंमें अपने अपने शिष्योंके प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर उन्होंने मूलसंघकी सत्ता समाप्त करके उसे पृथक् पृथक् नामोंवाले अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित कर दिया जिसमें से कुछके नाम ये हैं - 1. नन्दि, 2. वृषभ, 3. सिंह, 4. देव, 5. काष्ठा, 6. वीर, 7. अपराजित, 8. पंचस्तूप, 9. सेन, 10. भद्र, 11. गुणधर, 12. गुप्त, 13. सिंह, 14. चन्द्र इत्यादि
( धवला 1/ प्र. 14/H.L.Jain)।
इनके अतिरिक्त भी अनेकों अवान्तर संघ भी भिन्न भिन्न समयोंपर परिस्थितिवश उत्पन्न होते रहे। धीरे धीरे इनमें से कुछ संघों में शिथिलाचार आता चला गया, जिनके कारण वे जैनाभासी कहलाने लगे (इनमें छः प्रसिद्ध हैं - 1. श्वेताम्बर, 2. गोपुच्छ या काष्ठा, 3. द्रविड़, 4. यापनीय या गोप्य, 5. निष्पिच्छ या माथुर और 6. भिल्लक)।
4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति
धवला 4/1,44/130 चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमास-बहुलपक्ख-जुगादिपडिवयपुव्वदिवसे जेण रयणा कदा तेणिंदभूदिभडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उक्तं च-`वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि 40।'
धवला 1/1,1/65 तित्थयरादो सुदपज्जएण गोदमो परिणदो त्ति दव्व-सुदस्स गोदमो कत्ता।
= चौदह अंगबाह्य प्रकीर्णकोंकी श्रावण मासके कृष्ण पक्षमें युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमें रचना की गई थी। अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्द्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्त्ता हुए। कहा भी है कि `वर्षके प्रथम (श्रावण) मासमें, प्रथम (कृष्ण) पक्षमें अर्थात् श्रावण कृ. प्रतिपदाके दिन सवेरे अभिजित नक्षणमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई।। तीर्थसे आगत उपदेशोंको गौतमने श्रुतके रूपमें परिणत किया। इसलिये गौतम गणधर द्रव्य श्रुतके कर्ता हैं।
4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास
भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके पश्चात् 62 वर्ष तक इन्द्रभूति (गौतम गणधर) आदि तीन केवली हुए। इनके पश्चात् यद्यपि केवलज्ञानकी व्युच्छित्ति हो गई तदपि 11 अंग 14 पूर्वके धारी पूर्ण श्रुतकेवली बने रहे इनकी परम्परा 100 वर्ष तक (विद्वानोंके अनुसार 160 वर्ष तक) चलती रही। तत्पश्चात् श्रुत ज्ञानका क्रमिक ह्रास होना प्रारम्भ हो गया। वी. नि. 565 तक 10,9,8 अंगधारियोंकी परम्परा चली और तदुपरान्त वह भी लुप्त हो गई। इसके पश्चात् वी. नि. 683 तक श्रुतज्ञानके आचारांगधारी अथवा किसी एक आध अंग के अंशधारी ही यत्र-तत्र शेष रह गए।
इस विषयका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमें दो स्थानोंपर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति, हरिवंश पुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थोंमें और दूसरा आ. इन्द्रनन्दि (वि. 996) कृत श्रुतावारमें। पहले स्थानपर श्रुतज्ञानके क्रमिक ह्रासको दृष्टिमें रखते हुए केवल उस उस परम्पराका समुदित काल दिया गया है, जब कि द्वितीय स्थान पर समुदित कालके साथ-साथ उस-उस परम्परामें उल्लिखित आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी निर्दिष्ट किया है, जिसके कारण सन्धाता विद्वानोंके लिये यह बहुत महत्व रखता है। इन दोनों दृष्टियोंका समन्वय करते हुए अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझानेके लिए विद्वानोंने थोड़े हेरफेरके साथ इस विषयमें अपनी एक तृतीय दृष्टि स्थापित की है। मूलसंघकी अग्रोक्त पट्टावलीमें इन तीनों दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
5. दिगम्बर जैन संघ
5.1 सामान्य परिचय
ती.म.आ. /4/358 पर उद्धृत नीतिसार-तस्मिन् श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेन-नन्दी च संघौ। स्यातां सिंहारव्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः।। अर्हद्बलीगुरुश्चक्रे संघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दि संघः सेनसंघस्तथापरः।। = मुनिजनोंके अत्यन्त विमल श्री मूलसंघमें सेनसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और अत्यन्त महिमावन्त देवसंघ ये चार संघ हुए। श्री गुरु अर्हद्बलीके समयमें सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ (और देवसंघ) का संघटन किया गया।
श्रुतकीर्ति कृत पट्टावली-ततः परं शास्त्रविदां मुनिनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरिः। ....तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षौ दिव...स योगि संघश्चचतुरः प्रभेदासाद्य भूयानाविरुद्धवृत्तान्। ....देव नन्दि-सिंह-सेन संघभेद वर्त्तिनां देशभेदतः प्रभोदभाजि देवयोगिनां।
= इन (पूज्यपाद जिनेन्द्र बुद्धि) के पश्चात् शास्त्रवेत्ता मुनियोंमें अग्रेसर अकलंकसूरि हुए। इनके दिवंगत हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान् संघके चार भेदोंको लेकर शोभित होने लगे-देवसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और सेनसंघ।
नीतीसार (ती./4/358) - अर्हद्बलीगुरुश्चक्रेसंघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघस्तथापरः।। देवसंघ इति स्पष्टं स्थ्पनस्थितिविशेषतः।
= अर्हद्बली गुरुके कालमें स्थान तता स्थितिकी अपेक्षासे सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ इन चार संघोंका संगठन हुआ। यहाँ स्थानस्थितिविशेषतः इस पदपरसे डा. नेमिचन्द्र इस घटनाका सम्बन्ध उस कथाके साथ जोड़ते हैं जिसके अनुसार आ. अर्हद्बलीने परीक्षा लेनेके लिए अपने चार तपस्वी शिष्योंको विकट स्थानों में वर्षा योग धारण करनेका आदेश दिया था। तदनुसार नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेवाले माघनन्दि का संघ नन्दिसंघ कहलाया, तृणतलमें वर्षायोग धारण करनेसे श्री जिनसेनका नाम वृषभ पड़ा और उनका संघ वृषभ संघ कहलाया। सिंहकी गुफामें वर्षा योग धारण करनेवालेका सिंहसंघ और दैव दत्ता वेश्याके नगरमें वर्षायोग धारण करनेवाले का देवसंघ नाम पड़ा। (विशेष देखें परिशिष्ट - 2.8)
5.2 नन्दि संघ
5.2.1 सामान्य परिचय
आ. अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित संघमें इसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है यद्यपि इसकी पट्टावलीमें भद्रबाहु तथा अर्हद्बलीका नाम भी दिया गया परन्तु वह परम्परा गुरुके रूपमें उन्हें नमस्कार करने मात्र के प्रयोजनसे है। संघका प्रारम्भ वास्तवमें माघनन्दिसे होता है। गुरु अर्हद्बलीकी आज्ञासे नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेके कारण इन्हें नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी और उसी कारण इनके इस संघका नाम नन्दिसंघ पड़ा। माघनन्दिसे कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी तक यह संघ मूल रूपसे चलता रहा। तत्पश्चात् यह दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। पूर्व शाखा नन्दिसंघ बलात्कार गणके नामसे प्रसिद्ध हुई और दूसरी शाखा जैनाभासी काष्ठा संघकी ओर चली गई। "लोहोचार्यस्ततो जातो जातरूपधरोऽमरैः। ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात्" (विशेष देखें आगे शीर्षक - 6.4)।
5.2.2 बलात्कार गण
इस संघकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है। आचार्योंका पृथक् पृथक् काल निर्देश करनेके कारण यह जैन इतिहासकारोंके लिये आधारभूत समझी जाती परन्तु इसमें दिये गए काल मूल संघकी पूर्वोक्त पट्टावली के साथ मेल नहीं खाते हैं, और न ही कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके जीवन वृत्तोंके साथ इनकी संगति घटित होती प्रतीत होती है। पट्टावली आगे शीर्षक 7के अन्तर्गत निबद्ध की जानेवाली है। तत्सम्बन्धी विप्रतिपत्तियोंका सुमक्तियुक्त समाधान यद्यपि परिशिष्ट 4में किया गया है तदपि उस समाधानके अनुसार आगे दी गई पट्टावली में जो संक्षिप्त संकेत दिये गये हैं उन्हें समझनेके लिए उसका संक्षिप्त सार दे देना उचित प्रतीत होता है।
पट्टावलीकार श्री इन्द्रनन्दिने आचार्योंके कालकी गणना विक्रम के राज्याभिषेकसे प्रारम्भ की है और उसे भ्रान्तिवश वी. नि. 488 मानकर की है। (विशेष देखें परिशिष्ट - 1)। ऐसा मानने पर कुन्दकुन्दके कालमें 117 वर्ष की कमी रह जाती है। इसे पाटनेके लिये 4 स्थानों पर वृद्धि की गई है - 1. भद्रबाहुके कालमें 1 वर्षकी वृद्धि करके उसे 22 वर्षकी बजाय 23 वर्ष बनाया गया है। 2. भद्रबाहु तथा गुप्तिगुप्त (अर्हद्बली) के मध्यमें मूल संघकी पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्यका नाम जोड़कर उनके 50 वर्ष बढ़ाये गए हैं। 3. माघनन्दिकी उत्तरावधि वी. नि. 579 में 35 वर्ष जोड़कर उसे मूलसंघके अनुसार वी. नि. 614 तक ले जाया गया है। 4. इस प्रकार 1+50+35 = 86 वर्ष की वृद्धि हो जानेपर माघनन्दि तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्रके मध्य 31 वर्षका अन्तर शेष रह जाता है, जिसे पाटनेके लिये या तो यहाँ एक और नाम कल्पित किया जा सकता है और या जिनचन्द्रके कालकी पूर्वावधिको 31 वर्ष ऊपर उठाकर वी. नि. 645 की बजाय 614 किया जा सकता है।
ऐसा करने पर क्योंकि वी. नि. 488 में विक्रम राज्य मानकर की गई आ. इन्द्वनन्दिकी काल गणना वी. नि. 488+117 = 605 होकर शक संवत्के साथ ऐक्यको प्राप्त हो जाती है, इसलिए कुन्दकुन्द से आगे वाले सभी के कालोंमें 117 वर्षकी वृद्धि करते जानेकी बजाये उनकी गणना पट्टावली में शक संवत्की अपेक्षा से कर दी गई है। (विशेष देखें परिशिष्ट - 4)।
5.2.3 देशीय गण
कुन्दकुन्दके प्राप्त होने पर नन्दिसंघ दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। एक तो उमास्वामीकी आम्नायकी ओर चली गई और दूसरी समन्तभद्रकी ओर जिसमें आगे जाकर अकलंक भट्ट हुए। उमास्वामीकी आम्नाय पुनः दो शाखाओंमें विभक्त हो गई। एक तो बलात्कारगण की मूल शाखा जिसके अध्यक्ष गोलाचार्य तृ. हुए और दूसरी बलाकपिच्छकी शाखा जो देशीय गणके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह गण पुनः तीन शाखाओंमें विभक्त हुआ, गुणनन्दि शाखा, गोलाचार्य शाखा और नयकीर्ति शाखा। (विशेष देखें शीर्षक - 7.1,5)
5.3 अन्य संघ
आचार्य अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित चार प्रसिद्ध संघोंमें से नन्दिसंघ का परिचय देनेके पश्चात् अब सिंहसंघ आदि तीनका कथन प्राप्त होता है। सिंहकी गुफा पर वर्षा योग धारण करने वाले आचार्यकी अध्यक्षतामें जिस संघ का गठन हुआ उसका नाम सिंह संघ पड़ा। इसी प्रकार देव दत्ता नामक गणिकाके नगरमें वर्षा योग धारण करनेवाले तपस्वीके द्वारा गठित संघ देव संघ कहलाया और तृणतल में वर्षा योग धारण करने वाले जिनसेन का नाम वृषभ पड़ गया था उनके द्वारा गठित संघ वृषभ संघ कहलाया इसका ही दूसरा नाम सेन संघ है। इसकी एक छोटी-सी गुर्वावली उपलब्ध है जो आगे दी जानेवाली है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने जिस संघको महिमान्वित किया उसका नाम पंचस्तूप संघ है इसीमें आगे जाकर जैनाभासी काष्ठा संघ के प्रवर्तक श्री कुमारसेन जी हुए। हरिवंश पुराणके रचयिता श्री जिनसेनाचार्य जिस संघमें हुए वह पुन्नाट संघ के नामसे प्रसिद्ध है। इसकी एक पट्टावली है जो आगे दी जाने वाली है।
6. दिगम्बर जैनाभासी संघ
6.1 सामान्य परिचय
नीतिसार (ती.म.आ.4/358 पर उद्धत) - पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपटः काष्ठस्ततो हि तावाभूद्भादिगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एकः। = मूल संघमें पहले (भद्रबाहु प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ था (देखें श्वेताम्बर )। तत्पश्चात् (किसी कालमें) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेकों गच्छोंमें विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी संघ हुआ।
नीतिसार ( दर्शनपाहुड़/ टी. 11 में उद्धृत) - गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविड़ो यापनीयः निश्पिच्छश्चेति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिताः। = गोपुच्छ (काष्ठा संघ), श्वेताम्बर, द्रविड़, यापनीयः और निश्पिच्छ (माथुर संघ) ये पांच जैनाभासी कहे गये हैं।
हरिभद्र सूरीकृत षट्दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्नकृत टीका-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिंगा पाणिपात्रश्च। ते चतुर्धा. काष्ठसंघ-मूलसंघ-माथुरसंघ गोप्यसंघ भेदात्। आद्यास्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणंति। स्त्रीणां मुक्तिं केवलीना भुक्तिं सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते।....सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुल्यम्। नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः। = दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं। इनके चार भेद हैं, काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ और गोप्य (यापनीय) संघ। पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सद्व्रतोंके सद्भावमें भी सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानते हैं। चारों ही संघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें 32 अन्तराय और 14 मलोंको टालते हैं। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्त्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरोंके तुल्य हैं। इन दोनोंके शास्त्रोंमें तथा तर्कोंमें (सचेलता, स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है।
दर्शनसार/ प्र. 40 प्रेमी जी-ये संघ वर्तमानमें प्रायः लुप्त हो चुके हैं। गोपुच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारकोंके रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमें आता है।
6.2 यापनीय संघ
6.2.1 उत्पत्ति तथा काल
भद्रबाहुचारित्र 4/154-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्। = उन श्वेताम्बरियोंमें से कापथवर्ती यापनीय संघ उत्पन्न हुआ।
दर्शनसार/ मू. 29 कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।29। = कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्युके 705 वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार 205 वर्ष बीतनेपर) श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।
6.2.2 मान्यतायें
दर्शनपाहुड़/ टी.11/11/15-यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति। = यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोंको मानते हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, (श्वेताम्बरोंके) कल्पसूत्रको बाँचते हैं, (श्वेताम्बरियोंकी भांति) स्त्रियोंका उसी भवसे मुक्त होना, केवलियोंका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोंको और परिग्रहधारियोंको भी मोक्ष होना मानते हैं।
हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका-गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति। स्त्रीणां मुक्ति केवलिणां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते। सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिंशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरै स्तुल्यम्। = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते हैं। स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति भी मानते हैं। गोप्यसंघको यापनीय भी कहते हैं। सभी (अर्थात् काष्ठा संघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें और भोजनमें 32 अन्तराय और 14 मलोंको टालते हैं। इनके सिवाय शेष आचारमें (महाव्रतादिमें) और देव गुरुके विषयमें (मूर्ति पूजा आदिके विषयमें) सब (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य हैं।
6.2.3 जैनाभासत्व
उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यह संघ श्वेताम्बर मतमें से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है। इसलिये जैनाभास कहना युक्ति संगत है।
6.2.4 काल निर्णय
इसके समयके सम्बन्धमें कुछ विवाद है क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थकी दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं। एकमें वि. 705 लिखा है और दूसरेमें वि. 205। प्रेमीजीके अनुसार वि. 205 युक्त है क्योंकि आ. शाकटायन और पाल्य कीर्ति जो इसी संघके आचार्य माने गये हैं उन्होंने `स्त्री मुक्ति और केवलभुक्ति' नामक एक ग्रन्थ रचा है जिसका समय वि. 705 से बहुत पहले है।
6.3 द्राविड़ संघ
देखें सा मू. 24/27 सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुड़वेदी महासत्तो ।24। अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो सुणिंदेहिं। परिरइयं विवरीतं विसेसयं वग्गणं चोज्जं ।25। बीएसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि। सवज्जं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं ।26। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवँतो। ण्हंतो सयिलणीरे पावं पउरं स संजेदि ।27।
= श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविड़संघको उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थोंका ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजोंने उसे अप्रासुक या सचित्त चने खानेसे रोका, परन्तु वह न माना और बिगड़ कर प्रायश्चितादि विषयक शास्त्रोंकी विपरीत रचनाकर डाली ।24-25। उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं होते, जगतमें कोई भी वस्तु अप्रासुक नहीं है। वह नतो मुनियोंके लिये खड़े-खड़े भोजनकी विधिको अपनाता है, न कुछ सावद्य मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थको कुछ गिनता है ।26। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, वसतिका निर्माण करावें, वाणिज्य करावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।
दर्शनसार/ टी. 11 द्राविड़ाः......सावद्यं प्रासुकं च न मन्यते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति। = द्रविड़ संघके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुकको नहीं मानते और मुनियोंको खड़े होकर भोजन करनेका निषेध करते हैं।
दर्शनसार/ प्र. 54 प्रेमी जी-"द्रविड़ संघके विषयमें दर्शनसारकी वचनिकाके कर्ता एक जगह जिन संहिताका प्रमाण देकर कहते हैं कि `सभूषणं सवस्त्रंस्यात् बिम्ब द्राविड़संघजम्' अर्थात् द्राविड़ संघकी प्रतिमायें वस्त्र और आभूषण सहित होती हैं। ....न मालूम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक हमें इस विषयमें बहुत संदेह है कि द्राविड़ संघ सग्रन्थ प्रतिमाओंका पूजक होगा।
6.3.1 प्रमाणिकता
यद्यपि देवसेनाचार्यने दर्शनसार की उपर्युक्त गाथाओंमें इसके प्रवर्तक वज्रनन्दिके प्रति दुष्ट आदि अपशब्दोंका प्रयोग किया है, परन्तु भोजन विषयक मान्यताओंके अतिरिक्त मूलसंघके साथ इसका इतना पार्थक्य नहीं है कि जैनाभासी कहकर इसको इस प्रकार निन्दा की जाये। (देखें सा प्र.45 प्रेमीजी)
इस बातकी पुष्टि निम्न उद्धरणपर से होती है -
हरिवंशपुराण 1/32 वज्रसूरेर्विचारण्यः सहेत्वोर्वन्धमोक्षयोः। प्रमाणं धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ।32। = जो हेतु सहित विचार करती है, वज्रनन्दिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करने वाले गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाण हैं।
दर्शनसार/ प्र. पृष्ठ संख्या (प्रेमी जी) - इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि हरिवंश पुराणके कर्ता श्री जिनसेनाचार्य स्वयं द्राविड़ संघी हों, परन्तु वे अपने संघके आचार्य बताते हैं। यह भी सम्भव है कि द्राविड़ संघका ही अपर नाम पुन्नाट संघ हो क्योंकि `नाट' शब्द कर्णाटक देशके लिये प्रयुक्त होता है जो कि द्राविड़ देश माना गया है। द्रमिल संघ भी इसीका अपर नाम है ।42। 2. (कुछ भी हो, इसकी महिमासे इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि) त्रैविद्यविश्वेश्वर, श्रीपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्याद्वाद् विद्यापति श्री वगदिराज सूरि जैसे बड़े-बड़े विद्वान इस संघमें हुए हैं।42। 3. तीसरी बात यह भी है कि आ. देवसेनने जितनी बातें इस संघके लिये कहीं हैं, उनमें से बीजोंको प्रासुकमाननेके अतिरिक्त अन्य बातोंका अर्थ स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सावद्य अर्थात् पापको न माननेवाला कोई भी जैन संघ नहीं है। सम्भवतः सावद्यका अर्थ भी (यहाँ) कुछ और ही हो ।43। 4. तात्पर्य यह है कि यह संघ मूल दिगम्बर संघसे विपरीत नहीं है। जैनाभास कहना तो दूर यह आचार्योंको अत्यन्त प्रमाणिक रूपसे सम्मत है।
6.3.2 गच्छ तथा शाखायें
इस संघके अनेकों गच्छ हैं, यथा-1. नन्दि अन्वय, 2. उरुकुल गण, 3. एरेगित्तर गण, 4. मूलितल गच्छ इत्यादि। ( दर्शनसार/ प्र. 42 प्रेमीजी)।
6.3.3 काल निर्णय
दर्शनसार मू.28-पंचसए छब्बीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्खिणमहुरादो द्राविड़ संघो महामोहो ।28। = विक्रमराजकी मृत्युके 526 वर्ष बीतनेपर दक्षिण मथुरा नगरमें (पूज्यपाद देवनन्दिके शिष्य श्री वज्रनन्दिके द्वारा) यह संघ उत्पन्न हुआ।
6.3.4 गुर्वावली
इस संघके नन्दिगण उरुङ्गलान्वय शाखाकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है। जिसमें अनन्तवीर्य, देवकीर्ति पण्डित तथा वादिराजका काल विद्वद सम्मत है। शेषके काल इन्हींके आधार पर कल्पित किये गए हैं। ( सिद्धि विनिश्चय / प्र. 75 पं. महेन्द्र); (ती. 3/40-41, 88-12)।
6.4 काष्ठा संघ
जैनाभासी संघोंमें यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका कुछ एक अन्तिम अवशेष अब भी गोपुच्छकी पीछीके रूपने किन्हीं एक भट्टारकोंमें पाया जाता है। गोपुच्छकी पीछीको अपना लेनेके कारण इस संघ का नाम गोपुच्छ संघ भी सुननेमें आता है। इसकी उत्पत्तिके विषय में दो धारणायें है। पहलीके अनुसार इसके प्रवर्तक नन्दिसंघ बलात्कार गणमें कथित उमास्वामीके शिष्य श्री लोहाचार्य तृ. हुए, और दूसरीके अनुसार पंचस्तूप संघमें प्राप्त कुमार सेन हुए। सल्लेखना व्रतका त्याग करके चरित्रसे भ्रष्ट हो जानेकी कथा दोनोंके विषयमें प्रसिद्ध है, तथापि विद्वानोंको कुमार सेनवाली द्वितीय मान्यता ही अधिक सम्मत है।
प्रथम दृष्टि
नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली। श्ल. 6-7 (ती. 4/393) पर उद्धृत)-"लोहाचार्यस्ततो जातो जात रूपधरोऽमरैः। ....ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात् ।6-7। = नन्दिसंघमें कुन्दकुन्द उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) के पश्चात् लोहाचार्य तृतीय हुए। इनके कालसे संघमें दो भेद उत्पन्न हो गए। पूर्व शाखा (नन्दिसंघकी रही) और उत्तर शाखा (काष्ठा संघकी ओर चली गई)।
ती. 4/351 दिल्लीकी भट्टारक गद्दियोंसे प्राप्त लेखोंके अनुसार इस संघकी स्थापनाका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है-दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरमें विराजमान् श्री लोहाचार्य तृ. को असाध्य रोगसे आक्रान्त हो जानेके कारण, श्रावकोंने मूर्च्छावस्थामें यावुज्जीवन संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा दिला दी। परन्तु पीछे रोग शान्त हो गया। तब आचार्यने भिक्षार्थ उठनेकी भावना व्यक्तकी जिसे श्रावकोंने स्वीकार नहीं किया। तब वे उस नगरको छोड़कर अग्रीहा चले गए और वहाँके लोगोंको जैन धर्ममें दीक्षित करके एक नये संघकी स्थापना कर दी।
द्वितीय दृष्टि
दर्शनसार/ मू.33,38,39-आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहिय पुण दिक्खओ जादो ।33। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। णंदियवरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ।।38।। णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थ विण्णाणी। कट्ठो दंसणभट्ठो जादो सल्लेहणाकाले ।38। = आ. विनयसेनके द्वारा दीक्षित आ. कुमारसेन जिन्होंने संन्यास मरणकी प्रतिज्ञाको भंग करके पुनः गुरुसे दीक्षा नहीं ली, और सल्लेखनाके अवसरपर, विक्रम की मृत्युके 753 वर्ष पश्चात्, नन्दितट ग्राममें काष्ठा संघी हो गये।
दर्शनसार/ मू. 37 सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तो व समो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदी ।37। = मुनिसंघसे वर्जित, समय मिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमार सेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणा की।
स्वरूप
दर्शनसार/ मू.34-36 परिवज्जिऊण पिच्छं चमरं घित्तूण मोहकलिएण। उम्मग्गं संकलियं बागड़विसएसु सव्वेसु ।34। इत्थीणं पूण दिक्खा खुल्लयलोयस्स वीर चरियत्तं। कक्कसकेसग्गहणं छट्ठं च गुणव्वदं णाम ।35। आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि। विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएसु ।36। = मयूर पिच्छीको त्यागकर तथा चँवरी गायकी पूंछको ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया ।34। उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकों को वीर्याचारका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका और रात्रिभोजन नामक छठे गुणव्रत (अणुव्रत) का विधान किया ।35। इसके सिवाय इसने अपने आगम शास्त्र पुराण और प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकार रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया ।36।
देखें ऊपर शीर्षक 6/1 में हरि भद्रसूरि कृत षट्दर्शन का उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्म वृद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
निन्दनीय
द.स./मू. 37 सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तोवसमो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदि ।37। = मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमारसेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणाकी।
सेनसंघ पट्टावली 26 (ती. 4/426 पर उद्धृत) - `दारुसंघ संशयतमो निमग्नाशाधर मूलसंघोपदेश। = काष्ठा संघके संशय रूपी अन्धकारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करने वाले मूलसंघके उपदेशसे।
देखें सा प्र. 45 प्रेमी जी-मूलसंघसे पार्थक्य होते हुए भी यह इतना निन्दनीय नहीं है कि इसे रौद्र परिणामी आदि कहा जा सके। पट्टावलीकारने इसका सम्बन्ध गौतमके साथ जोड़ा है। (देखें आगे शीर्षक - 7)
विविध गच्छ
आ. सुरेन्द्रकीर्ति-काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ। श्रीनन्दितटसंज्ञाश्च माथुरो बागडाभिधः। लाड़बागड़ इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले। = पृथिवी पर प्रसिद्ध काष्ठा संघको नर सुर तथा असुर सब जानते हैं। इसके चार गच्छपृथिवीपर शोभित सुने जाते हैं - नन्दितटगच्छ, माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, और लाड़बागड़गच्छ। (इनमेंसे नंदितट गच्छ तो स्वयं इस संघ का ही अवान्तर नाम है जो नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण इसे प्राप्त हो गया है। माथुर गच्छ जैनाभासी माथुर संघके नामसे प्रसिद्ध है जिसका परिचय आगे दिया जानेवाला है। बागड़ देशमें उत्पन्न होनेवाली इसकी एक शाखाका नाम बागड़ गच्छ है और लाड़बागड़ देशमें प्रसिद्ध व प्रचारित होनेवाली शाखाका नाम लाड़बागड़ गच्छ है। इसकी एक छोटीसी गुर्वावली भी उपलब्ध है जो आगे शीर्षक 7 के अन्तर्गत दी जाने वाली है।
काल निर्णय
यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ. और कुमारसेन दोनोंसे बताई गई है और संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा भंग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक संगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका साक्षात् सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है। इसलिये भले ही लोहाचार्यज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात् सम्बन्ध कुमारसेनके साथ ही है।
इसकी उत्पत्तिके कालके विषयमें मतभेद है। आ. देवसेनके अनुसार वह वि. 753 है और प्रेमीजी के अनुसार वि. 955 ( दर्शनसार/ प्र. 39)। इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस संघ की जो पट्टावली आगे दी जाने वाली है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योंका उल्लेख है। एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात् 29वें नम्बर पर आता है और दूसरेका 40 वें नम्बर पर। बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि. 753 हो और दूसरेका वि. 955। देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई जबकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आधार पर प्रेमीजी ने अपना सन्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात् हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्यों इस पट्टावलीमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चात् निबद्ध किये गये हैं।
अग्रोक्त माथुर संघ अनुसार भी इस संघका काल वि. 753 ही सिद्ध होता है, क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके 200 वर्ष पश्चात् बताई गई है। इसका काल 955 माननेपर वह वि. 1155 प्राप्त होता है, जब कि उक्त ग्रन्थकी रचना ही वि. 990 में होना सिद्ध है। उसमें 1155 की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।
6.5 माथुर संघ
जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा संघकी एक शाखा या गच्छ है जो उसके 200 वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरीमें उत्पन्न होनेके कारण ही इसका यह नाम पड़ गया है। पीछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।
दर्शनपाहुड़/ मू. 40,42 तत्तो दुसएतीदे मे राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ।40। सम्मतपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदबिंबेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ।41। एसो मम होउ गुरू अवरो णत्थि त्ति चित्तपरियरणं। सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ।42। = इस (काष्ठा संघ) के 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. 953 में मथुरा नगरीमें माथुरसंघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वता निषेध कर दिया ।42। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुये जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा वन्दना करने; मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (संघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्वका उपदेश दिया।
दर्शनपाहुड़/ टी.11/11/18 निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते। उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरए। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्वो ।1। सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य। समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ।2। = निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नहीं मानते। ढाढसी गाथामें कहा भी है - मोर पंख या चमरगायके बालोंकी पिछी हाथमें लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।1। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है, इसमें सन्देह नहीं है ।2।
दर्शनसार/ प्र. /44 प्रेमीजी "माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृताः। = माथुरसंघमें पीछीका आदर सर्वथा नहीं किया जाता।
देखें शीर्षक - 6.1 में हरिभद्र सूरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्मबुद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
काल निर्णय
जैसाकि ऊपर कहा गया है, दर्शनसार/40 के अनुसार इसकी उत्पत्ति काष्ठासंघसे 200 वर्ष पश्चात् हुई थी तदनुसार इसका काल 753+200= वि. 953 (वि. श. 10) प्राप्त होता है। परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासंघकी गुर्वावलीमें वि. 953 के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते हैं। अमित गति द्वि. (वि. 1050-1073) कृत सुभाषित रत्नसन्दोहमें अवश्य इस नामका उल्लेख प्राप्त होता है। इसीको लेकर प्रेमीजी अमित गति द्वि. को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. 953 में स्थापित करते हैं; जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।
6.6 भिल्लक संघ
दर्शनसार/ मू. 45-46 दक्खिदेसे बिंझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो। अट्ठारसएतीदे भिल्लयसंघं परूवेदि ।45। सोणियगच्छं किच्चा पडिकमणं तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचार विवाई जिणमग्गं सुट्ठु गिहणेदि ।46। = दक्षिणदेशमें विन्ध्य पर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द नामका मुनिपति विक्रम राज्यकी मृत्युके 1800 वर्ष बीतनेके पश्चात् भिल्लकसंघको चलायेगा ।45। वह अपना एक अलग गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायेगा। भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा। इस तरह वह सच्चे जैनधर्म का नाश करेगा।
दर्शनसार/ प्र. 45 प्रेमीजी-उपर्युक्त गाथाओंमें ग्रन्थकर्ता (श्री देवसेनाचार्य) ने जो भविष्य वाणीकी है वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वि. 1800 को आज 200 वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु इस नामसे किसी संघ की उत्पत्ति सुननेमें नहीं आई है। अतः भिल्लक नामका कोई भी संघ आज तक नहीं हुआ है।
6.7 अन्य संघ तथा शाखायें
जैसा कि उस संघका परिचय देते हुए कहा गया है, प्रत्येक जैनाभासी संघकी अनेकानेक शाखायें या गच्छ हैं, जिसमें से कुछ ये हैं - 1. गोप्य संघ यापनीय संघका अपर नाम है। द्राविड़संघके अन्तर्गत चार शाखायें प्रसिद्ध हैं, 2. नन्दि अन्वय गच्छ, 3. उरुकुल गण, 4. एरिगित्तर गण, और 5. मूलितल गच्छ। इसी प्रकार काष्ठासंघमें भी गच्छ हैं, 6. नन्दितट गच्छ वास्तवमें काष्ठासंघ की कोई शाखा न होकर नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण स्वयं इसका अपना ही अपर नाम है। मथुरामें उत्पन्न होनेवाली इस संघकी एक शाखा 7. माथुर गच्छ के नामसे प्रसिद्ध है, जिसका परिचय माथुर संघ के नामसे दिया जा चुका है। काष्ठासंघकी दो शाखायें 8. बागड़ गच्छ और 9. लाड़बागड़ गच्छ के नामसे प्रसिद्ध हैं जिनके ये नाम उस देश में उत्पन्न होने के कारण पड़ गए हैं।
7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें
7.1 मूलसंघ विभाजन
मूल संघकी पट्टावली पहले दे दी गई (देखें शीर्षक - 4.2) जिसमें वीर-निर्वाणके 683 वर्ष पश्चात् तक की श्रुतधर परम्पराका उल्लेख किया गया और यह भी बताया गया कि आ. अर्हद्बलीके द्वारा यह मूल संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित हो गया था। आगे चलने पर ये अवान्तर संघ भी शाखाओं तथा उपशाखाओंमें विभक्त होते हुए विस्तारको प्राप्त हो गए। इसका यह विभक्तिकरण किस क्रमसे हुआ, यह बात नीचे चित्रित करनेका प्रयास किया गया है।
7.2 नन्दि संघ बलात्कारगण
प्रमाण-दृष्टि 1= वि. रा. सं. = शक संवत्; दृष्टि नं. 2 = वि. रा. सं. = वी. नि. 488। विधि = भद्रबाहुके कालमें 1 वर्ष की वृद्धि करके उसके आगे अगले-अगलेका पट्टकाल जोड़ते जाना तथा साथ-साथ उस पट्टकालमें यथोक्त वृद्धि भी करते जाना - (विशेष देखें शीर्षक - 5.2)
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नाम | प्र. दृष्टि | द्वि. दृष्टि | |||
---|---|---|---|---|---|
- | वि.रा.सं. | वी.नि. | काल | वी.नि. | विशेषता |
1 भद्रबाहु 2 | 26-Apr | 609-631 | 22 | 492-514 | - |
- | - | - | 1 | 514-515 | मूलसंघके |
लोहाचार्य 2 | - | - | 50 | 515-565 | तुल्य |
2 गुप्तिगुप्त | 26-36 | 631-641 | 10 | 565-575 | नन्दिसंघोत्पत्ति तक |
3 माघनन्दि - प्र. आचार्यत्व | 36-40 | 641-645 | 4 | 575-579 | भ्रष्ट होनेसे पहले |
द्वि. आचार्यत्व | - | - | 35 | 579-614 | पुनः दीक्षाके बाद |
4 जिनचन्द्र | 40-49 | 645-654 | 9 | 614-623 | |
- | 31 | 623-654 | कालवृद्धि | ||
5 पद्मनन्दि | 49-101 | 654-706 | 52 | 654-706 | अपर नाम कुन्दकुन्द |
6 गृद्धपिच्छ | 101-142 | 706-747 | 41 | 706-747 | उमास्वामी का नाम |
- | - | - | 23 | 747-770 | - |
नोट - इससे आगे शक संवत् घटित हो जानेसे द्वि. दृष्टिका प्रयोजन समाप्त हो जाता है। | |||||
7 लोहाचार्य 3 | 142-153 | 747-758 | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
क्रम | नाम | शक सं. | ई.सं. | वर्ष | विशेष |
---|---|---|---|---|---|
7 | लोहाचार्य 3 | 142-153 | 220-231 | 11 | |
8 | यशकीर्ति 1 | 153-211 | 231-289 | 58 | |
9 | यशोनन्दि 1 | 211-258 | 289-336 | 47 | |
10 | देवनन्दि | 258-308 | 336-386 | 50 | जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद |
11 | जयनन्दि | 308-358 | 386-436 | 50 | |
12 | गुणनन्दि | 358-364 | 436-442 | 6 | |
13 | वज्रनन्दि नं. 1 | 364-386 | 442-464 | 22 | द्रविड़ संघके प्रवर्तक |
14 | कुमारनन्दि | 386-427 | 464-505 | 41 | |
15 | लोकचन्द्र | 427-453 | 505-531 | 26 | |
16 | प्रभाचन्द्र नं. 1 | 453-478 | 531-556 | 25 | |
17 | नेमीचन्द्र नं. 1 | 478-487 | 556-565 | 9 | |
18 | भानुनन्दि | 487-508 | 565-586 | 11 | |
19 | सिंहनन्दि 2 | 508-525 | 586-603 | 17 | |
20 | वसुनन्दि 1 | 525-531 | 603-609 | 6 | |
21 | वीरनन्दि 1 | 531-561 | 609-639 | 30 | |
22 | रत्ननन्दि | 561-585 | 639-663 | 24 | |
23 | माणिक्यनन्दि 1 | 585-601 | 663-679 | 16 | |
24 | मेघचन्द्र नं. 1 | 601-627 | 679-705 | 26 | |
25 | शान्तिकीर्ति | 627-642 | 705-720 | 15 | |
26 | मेरुकीर्ति | 642-680 | 720-758 | 38 |
7.3 नन्दिसंघ बलात्कारगण की भट्टारक आम्नाय
नोट - इन्द्र नन्दिकृत श्रुतावतारकी उपर्युक्त पट्टावली इस संघकी भद्रपुर या भद्दिलपुर गद्दीसे सम्बन्ध रखती है। इण्डियन एण्टीक्वेरी के आधारपर डॉ. नेमिचन्दने इसकी अन्य गद्दियोंसे सम्बन्धित भी पट्टावलियें ती. 4/441 पर भदी हैं-
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. व. नाम | वि. वर्ष | |
---|---|---|
2 उज्जयनी गद्दी | ||
27 महाकीर्ति | 686 | 18 |
28 विष्णुनन्दि (विश्वनन्दि) | 704 | 22 |
29 श्री भूषण | 726 | 9 |
30 शीलचन्द | 735 | 14 |
31 श्रीनन्दि | 749 | 16 |
32 देशभूषण | 765 | 10 |
33 अनन्तकीर्ति | 775 | 10 |
34 धर्म्मनन्दि | 785 | 23 |
35 विद्यानन्दि | 808 | 32 |
36 रामचन्द्र | 840 | 17 |
37 रामकीर्ति | 857 | 21 |
38 अभय या निर्भयचन्द्र | 878 | 19 |
39 नरचन्द्र | 897 | 19 |
40 नागचन्द्र | 916 | 23 |
41 नयनन्दि | 939 | 9 |
42 हरिनन्दि | 948 | 26 |
43 महीचन्द्र | 974 | 16 |
44 माघचन्द्र (माधवचन्द्र) | 990 | 33 |
3 चन्देरी गद्दी | ||
45 लक्ष्मीचन्द | 1023 | 14 |
46 गुणनन्दि (गुणकीर्ति) | 1037 | 11 |
47 गुणचन्द्र | 1048 | 18 |
48 लोकचन्द्र | 1066 | 13 |
4 भेलसा (भोपाल) गद्दी | ||
49 श्रुतकीर्ति | 1079 | 15 |
50 भावचन्द्र (भानुचन्द्र) | 1094 | 21 |
51 महीचंद्र | 1115 | 25 |
5 कुण्डलपुर (दमोह) गद्दी | ||
52 मोघचन्द्र (मेघचन्द्र) | 1140 | 4 |
6 वारां की गद्दी | ||
53 ब्रह्मनन्दि | 1144 | 4 |
54 शिवनन्दि | 1148 | 7 |
55 विश्वचन्द्र | 1155 | 1 |
56 हृदिनन्दि | 1156 | 4 |
57 भावनन्दि | 1160 | 7 |
58 सूर (स्वर) कीर्ति | 1167 | 3 |
59 विद्याचन्द्र | 1170 | 6 |
60 सूर (राम) चन्द्र | 1176 | 8 |
61 माघनन्दि | 1184 | 4 |
62 ज्ञाननन्दि | 1188 | 11 |
63 गंगकीर्ति | 1199 | 7 |
64 सिंहकीर्ति | 1206 | 3 |
65 हेमकीर्ति | 1209 | 7 |
66 चारु कीर्ति | 1216 | 7 |
67 नेमिनन्दि | 1223 | 7 |
68 नाभिकीर्ति | 1230 | 2 |
69 नरेन्द्रकीर्ति | 1232 | 9 |
70 श्रीचन्द्र | 1241 | 7 |
71 पद्मकीर्ति | 1248 | 5 |
72 वर्द्धमानकीर्ति | 1253 | 3 |
73 अकलंकचन्द्र | 1256 | 1 |
74 ललितकीर्ति | 1257 | 4 |
75 केशवचन्द्र | 1261 | 1 |
76 चारुकीर्ति | 1262 | 2 |
77 अभयकीर्ति | 1264 | 0 |
78 वसन्तकीर्ति | 1264 | 2 |
8 अजमेर गद्दी | ||
79 प्रख्यातकीर्ति | 1266 | 2 |
80 शुभकीर्ति | 1268 | 3 |
81 धर्म्मचन्द्र | 1271 | 25 |
82 रत्नकीर्ति | 1296 | 14 |
83 प्रभाचन्द्र | 1310 | 75 |
9 दिल्ली गद्दी | ||
84 पद्मनन्दि | 1385 | 65 |
85 शुभचन्द्र | 1450 | 57 |
86 जिनचन्द्र | 1507 | 70 |
10.चित्तौड़ गद्दी | ||
87 प्रभाचन्द्र | 1571 | 10 |
88 धर्म्मचन्द्र | 1581 | 22 |
89 ललितकीर्ति | 1603 | 19 |
90 चन्द्रकीर्ति | 1622 | 40 |
91 देवेन्द्रकीर्ति | 1662 | 29 |
92 नरेन्द्रकीर्ति | 1611 | 31 |
93 सुरेन्द्रकीर्ति | 1722 | 11 |
94 जगत्कीर्ति | 1733 | 37 |
95 देवेन्द्रकीर्ति | 1770 | 22 |
96 महेन्द्रकीर्ति | 1792 | 23 |
97 क्षेमेन्द्रकीर्ति | 1815 | 7 |
98 सुरेन्द्रकीर्ति | 1822 | 37 |
99 खेन्द्रकीर्ति | 1859 | 20 |
100 नयनकीर्ति | 1879 | 4 |
101 देवेन्द्रकीर्ति | 1883 | 55 |
102 महेन्द्रकीर्ति | 1938 | |
11 नागौर गद्दी | ||
1 रत्नकीर्ति | 1581 | 5 |
2 भुवनकीर्ति | 1586 | 4 |
3 धर्म्मकीर्ति | 1590 | 11 |
4 विशालकीर्ति | 1601 | - |
5 लक्ष्मीचन्द्र | - | - |
6 सहस्रकीर्ति | - | - |
7 नेमिचन्द्र | - | - |
8 यशःकीर्ति | - | - |
9 वनकीर्ति | - | - |
10 श्रीभूषण | - | - |
11 धर्म्मचन्द्र | - | - |
12 देवेन्द्रकीर्ति | - | - |
13 अमरेन्द्रकीर्ति | - | - |
14 रत्नकीर्ति | - | - |
15 ज्ञानभूषण | -श. 18 | - |
16. चन्द्रकीर्ति | - | - |
17 पद्मनन्दी | - | - |
18 सकलभूषण | - | - |
19 सहस्रकीर्ति | - | - |
20 अनन्तकीर्ति | - | - |
21 हर्षकीर्ति | - | - |
22 विद्याभूषण | - | - |
23 हेमकीर्ति* | 1910 | - |
हेमकीर्ति भट्टारक माघ शु. 2 सं. 1910 को पट्टपर बैठे।
7.4 नन्दिसंघ बलात्कारगणकी शुभचन्द्र आम्नाय
(गुजरात वीरनगरके भट्टारकोंकी दो प्रसिद्ध गद्दियें)-
प्रमाण = जै. 1/456-459; गै. 2/377 378; ती. 3/369।
देखो पीछे - ग्वालियर गद्दीके वसन्तकीर्ति (वि. 1264) तत्पश्चात् अजमेर गद्दीके प्रख्यातकीर्ति (वि. 1266), शुभकीर्ति (वि. 1268), धर्मचन्द्र (वि. 1271), रत्नकीर्ति (वि. 1296), प्रभाचन्द्र नं. 7 (वि. 1310-1385)
7.5 नन्दिसंघ देशीयगण
(तीन प्रसिद्ध शाखायें)
प्रमाण = 1. ती. 4/3/93 पर उद्धृत नयकीर्ति पट्टावली।
( धवला 2/ प्र. 2/H. L. Jain); ( तत्त्वार्थवृत्ति / प्र. 97)।
2. धवला 2/ प्र. 11/H. L. Jain/शिलालेख नं. 64 में उद्धृत गुणनन्दि परम्परा। 3. ती. 4/373 पर उद्धृत मेघचन्द्र प्रशस्ति तथा ती. 4/387 पर उद्धृत देवकीर्ति प्रशस्ति।
टिप्पणी:-
1. माघनन्दि के सधर्मा=अबद्धिकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। श्ल. 35-39। तदनुसार इनका समय ई. श. 10-11 (देखें अगला पृ )।
2. गुणचन्द्रके शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकीर्ति योगिन्द्रदेव हैं। नयकीर्तिकी समाधि शक 1099 (ई. 1177) में हुई। तदनुसार इनका समय लगभग ई. 1155।
3. मेघचन्द्रके सधर्मा= मल्लधारी देव, श्रीधर, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्ति और बालचन्द्र (श्ल. 24-34)। तदनुसार इनका समय वि. श. 11। (ई. 1018-1048)।
5. क्रमशः-नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा
प्रमाण :- 1. ती.4/373 पर उद्धृत मेघचन्द्र की प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. 47/ती. 4/186 पर उद्धृत देवकीर्ति की प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. 40। 2. ती. 3/224 पर उद्धृत वसुनन्दि श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति। 3. ( धवला 2/ प्र. 4/H. L. Jain); (पं. विं./प्र. 28/H. L. Jain)
7.6 सेन या वृषभ संघ की पट्टावली
पद्मपुराण के कर्ता आचार्य रविषेण को इस संघ का आचार्य माना गया है। अपने पद्मपुराण में उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा में चार नामों का उल्लेख किया है। (पद्मपुराण - 123.167)। इसके अतिरिक्त इस संघ के भट्टारकों की भी एक पट्टावली प्रसिद्ध है --
सेनसंघ पट्टावली/श्ल. नं. (ति. 4/426 पर उद्धृत)- श्रीमूलसंघवृषभसेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलिविराजमान श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।38।
दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वर्यांतककमलभद्रभट्टारक....।26। = श्रीमूलसंघ में वृषभसेन अन्वय के पुष्करगच्छ की विरुदावली में विराजमान श्रीमद् गुणभद्र भट्टारक हुए ।38। काष्ठासंघ के संशय रूपी अन्धकार में डूबे हुओं को आशा प्रदान करने वाले श्रीमूल संघ के उपदेश से पितृलोक के वनरूपी स्वर्ग से उत्पन्न कमल भट्टारक हुए ।26।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | वि.सं. | विशेषतचा |
---|---|---|---|
1. आचार्य गुर्वावली- (पद्मपुराण - 123.167); (ती.2/276) | |||
1 | इन्द्रसेन | 620-660 | सं. 1 से 4 तक का काल रविषेण के आधार पर कल्पित किया गया है। |
2 | दिवाकरसेन | 640-680 | |
3 | अर्हत्सेन | 660-700 | |
4 | लक्ष्मणसेन | 680-720 | |
5 | रविषेण | 700-740 | वि. 734 में पद्मचरित पूरा किया। |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
सं. | नाम | वि.श. | विशेष |
---|---|---|---|
1 | नेमिसेन | ||
2 | छत्रसेन | ||
3 | आर्यसेन | ||
4 | लोहाचार्य | ||
5 | ब्रह्मसेन | ||
6 | सुरसेन | ||
7 | कमलभद्र | ||
8 | देवेन्द्रमुनि | ||
9 | कुमारसेन | ||
10 | दुर्लभसेन | ||
11 | श्रीषेण | ||
12 | लक्ष्मीसेन | ||
13 | सोमसेन | ||
14 | श्रुतवीर | ||
15 | धरसेन | ||
16 | देवसेन | ||
17 | सोमसेन | ||
18 | गुणभद्व | ||
19 | वीरसेन | ||
20 | माणिकसेन | 17 का मध्य | नीचेवालोंके आधार पर |
*नमिषेण | 17 का मध्य | शक 1515 के प्रतिमालेखमें माणिकसेन के शिष्य रूपसे नामोल्लेख (जै.4/59) | |
21 | गुणसेन | 17 का मध्य | देखें नीचे गुणभद्र (सं.23)। |
22 | लक्ष्मीसेन | ||
*सोमसेन | पूर्वोक्त हेतु से पट्टपरम्परा से बाहर हैं। | ||
*माणिक्यसेन | केवल प्रशस्ति के अर्थ स्मरण किये गये प्रतीत होते हैं। | ||
23 | गुणभद्र | 17 का मध्य | सोमसेन तथा नेमिषेण के आधार पर |
24 | सोमसेन | 17 का उत्तर पाद | वि. 1656, 1666, 1667 में रामपुराण आदिकी रचना |
25 | जिनसेन | श. 18 | शक 1577 तथा वि. 1780 में मूर्ति स्थापना |
26 | समन्तभद्र | श. 18 | ऊपर नीचेवालोंके आधारपर |
27 | छत्रसेन | 18 का मध्य | श्ल. 50 में इन्हें सेनगण के अग्रगण्य कहा गया है। वि. 1754 में मूर्ति स्थापना |
*नरेन्द्रसेन | 18 का अन्त | शक 1652 में प्रतिमा स्थापन |
नोट - सं. 16 तकके सर्व नाम केवल प्रशस्तिके लिये दिये गये प्रतीत होते हैं। इनमें कोई पौर्वापर्य है या नहीं यह बात सन्दिग्ध है, क्योंकि इनसे आगे वाले नामोंमें जिस प्रकार अपने अपनेसे पूर्ववर्तीके पट्टपर आसीन होने का उल्लेख है उस प्रकार इनमें नहीं है।
7.7 पंचस्तूपसंघ
यह संघ हमारे प्रसिद्ध धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीका था। इसकी यथालब्ध गुर्वावली निम्न प्रकार है- (मु.पु./प्र.31/पं. पन्नालाल)
नोट - उपरोक्त आचार्योंमें केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित हैं। शेषके समयोंका उनके आधारपर अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।
7.8 पुन्नाटसंघ
हरिवंशपुराण 66/25-32 के अनुसार यह संघ साक्षात् अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुर्वावलि में इसका सम्बन्ध लोहाचार्य व अर्हद्बलि से मिलाया गया है। लोहाचार्य व अर्हद्बलिके समयका निर्णय मूलसंघ में हो चुका है। उसके आधार पर इनके निकटवर्ती 6 आचार्यों के समय का अनुमान किया गया है। इसी प्रकार अन्त में जयसेन व जयसेनाचार्य का समय निर्धारित है, उनके आधार पर उनके निकटवर्ती 4 आचार्यों के समयों का भी अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें। ( हरिवंशपुराण 60/25-62 ), ( महापुराण/ प्र.48 पं. पन्नालाल) (ती.2/451)
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नं. | नाम | वी. नि. | ई.सं. |
---|---|---|---|
1 | लोहाचार्य 2 | 515-565 | |
2 | विनयंधर | 530 | |
3 | गुप्तिश्रुति | 540 | |
4 | गुप्तऋद्धि | 550 | |
5 | शिवगुप्त | 560 | |
6 | अर्बद्बलि | 565-593 | |
7 | मन्दरार्य | 580 | |
8 | मित्रवीर | 590 | |
9 | बलदेव | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
10 | मित्रक | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
11 | सिंहबल | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
12 | वीरवित | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
13 | पद्मसेन | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
14 | व्याघ्रहस्त | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
15 | नागहस्ती | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
16 | जितदन्ड | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
17 | नन्दिषेण | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
18 | दीपसेन | ||
19 | धरसेन नं.2 | ई. श. 5 | |
20 | सुधर्मसेन | ||
21 | सिंहसेन | ||
22 | सुनन्दिसेन 1 | ||
23 | ईश्वरसेन | ||
24 | सुनन्दिषेण 2 | ||
25 | अभयसेन | ||
26 | सिद्धसेन | ||
27 | अभयसेन | ||
28 | भीभसेन | ||
29 | जिनसेन 1 | ई. श. 7 अन्त | |
30 | शान्तिसेन | वि. श. 7-8 | ई. श. 8 पूर्व |
31 | जयसेन 2 | 780-830 | 723-773 |
32 | अमितसेन | 800-850 | 743-793 |
33 | कीर्तिषेण | 820-870 | 761-813 |
34 | $जिनसेन 2 | 835-885 | 778-828 |
$श.सं.705 में हरिवंश पुराणकी रचना हरिवंशपुराण 66/52
7.9 काष्ठासंघकी पट्टावली
गौतमसे लोहाचार्य तकके नामोंका उल्लेख करके पट्टालीकारने इस संघका साक्षात् सम्बन्ध मूलसंघके साथ स्थापित किया है, परन्तु आचार्योंका काल निर्देश नहीं किया है। कुमारसेन प्र. तथा द्वि. का काल पहले निर्धारित किया जा चुका है (देखें शीर्षक - 6.4)। उन्हींके आधार पर अन्य कुछ आचार्योंका काल यहाँ अनुमानसे लिखा गया है जिस असंदिग्ध नहीं कहा जा सकता। (ती.4/360-366 पर उद्धृत)-
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम |
---|---|
• | गौतमसे लेकर लोहाचार्य द्वि. तकके सर्व नाम |
1 | जयसेन |
2 | वीरसेन |
3 | ब्रह्मसेन |
4 | रुद्रसेन |
5 | भद्रसेन |
6 | कीर्तिसेन |
7 | जयकीर्ति |
8 | विश्वकीर्ति |
9 | अभयसेन |
10 | भूतसेन |
11 | भावकीर्ति |
12 | विश्वचन्द्र |
13 | अभयचन्द्र |
14 | माघचन्द्र |
15 | नेमिचन्द्र |
16 | विनयचन्द्र |
17 | बालचन्द्र |
18 | त्रिभुवनचन्द्र 1 |
19 | रामचन्द्र |
20 | विजयचन्द्र |
21 | यशःकीर्ति 1 |
22 | अभयकीर्ति |
23 | महासेन |
24 | कुन्दकीर्ति |
25 | त्रिभुवचन्द्र 2 |
26 | रामसेन |
27 | हर्षसेन |
28 | गुणसेन |
29 | कुमारसेन 1 (वि. 753) |
30 | प्रतापसेन |
31 | महावसेन |
32 | विजयसेन |
3 | नयसेन |
34 | श्रेयांससेन |
35 | अनन्तकीर्ति |
36 | कमलकीर्ति 1 |
37 | क्षेमकीर्ति 1 |
38 | हेमकीर्ति |
39 | कमलकीर्ति 2 |
40 | कुमारसेन 2 (वि. 955) |
41 | हेमचन्द्र |
42 | पद्मनन्दि |
43 | यशकीर्ति 2 |
44 | क्षेमकीर्ति 2 |
45 | त्रिभुवकीर्ति |
46 | सहस्रकीर्ति |
47 | महीचन्द्र |
48 | देवेन्द्रकीर्ति |
49 | जगतकीर्ति |
50 | ललितकीर्ति |
51 | राजेन्द्रकीर्ति |
52 | शुभकीर्ति |
53 | रामसेन (वि. 1431) |
54 | रत्नकीर्ति |
55 | लक्षमणसेन |
56 | भीमसेन |
57 | सोमकीर्ति |
प्रद्युम्न चारित्रको अन्तिम प्रशस्ति के आधारपर प्रेमीजी कुमारसेन 2 को इस संघका संस्थापक मानते हैं, और इनका सम्बन्ध पंचस्तूप संघ के साथ घटित करके इन्हें वि. 955 में स्थापित करते हैं। साथ ही `रामसेन' जिनका नाम ऊपर 53 वें नम्बर पर आया है उन्हें वि. 1431 में स्थापित करके माथुर संघका संस्थापक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं (परन्तु इसका निराकरण शीर्षक 6/4 में किया जा चुका है)। तथापि उनके द्वारा निर्धारित इन दोनों आचार्योंके काल को प्रमाण मानकर अन्य आचार्योंके कालका अनुमान करते हुए प्रद्युम्न चारित्रकी उक्त प्रशस्तिमें निर्दिष्ट गुर्वावली नीचे दी जाती है।
(प्रद्युम्न चारित्रकी अन्तिम प्रशस्ति); (प्रद्युम्न चारित्रकी प्रस्तावना/प्रेमीजी); ( दर्शनसार/ प्र.39/प्रेमीजी); (ला.स.1/64-70)।
सं. | नाम | वि.सं. | ई. सन् |
---|---|---|---|
40 | कुमारसेन 2 | 955 | 898 |
41 | हेमचन्द्र 1 | 980 | 923 |
42 | पद्मनन्दि 2 | 1005 | 948 |
43 | यशःकीर्ति 2 | 1030 | 973 |
44 | क्षेमकीर्ति 1 | 1055 | 998 |
53 | रामसेन | 1431 | 1374 |
54 | रत्नकीर्ति | 1456 | 1399 |
55 | लक्ष्मणसेन | 1481 | 1424 |
56 | भीमसेन | 1506 | 1449 |
57 | सोमकीर्ति | 1531 | 1494 |
नोट - प्रशस्तिमें 45 से 52 तकके 8 नाम छोड़कर सं. 53 पर कथित रामसेनसे पुनः प्रारम्भ करके सोमकीर्ति तकके पाँचों नाम दे दिये गये हैं।
7.10 लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली
यह काष्ठा संघका ही एक अवान्तर गच्छ है। इसकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है जो नीचे दी जाती है। इसमें केवल आ. नरेन्द्र सेनका काल निर्धारित है। अन्यका उल्लेख यहाँ उसीके आधार पर अनुमान करके लिख दिया गया है। (आ. जयसेन कृत धर्म रत्नाकर रत्नक्रण्ड श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह 12/88-95 प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह प्र.8/A.N. Up)।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>वि. सं. ई. सन् | |||
---|---|---|---|
1 | धर्मसेन | 955 | 898 |
2 | शान्तिसेन | 980 | 923 |
3 | गोपसेन | 1005 | 948 |
4 | भावसेन | 1030 | 973 |
5 | जयसेन 4 | 1055 | 998 |
6 | ब्रह्मसेन | 1080 | 1013 |
7 | वीरसेन 3 | 1105 | 1048 |
8 | गुणसेन 1 | 1131 | 1073 |
7.11 माथुर गच्छ या संघकी गुर्वावली
(सुभाषित रत्नसन्दोह तथा अमितगति श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); ( दर्शनसार/ प्र.40/प्रेमीजी)।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | वि.सं. |
---|---|---|
1 | रामसेन1 | 880-920 |
2 | वीरसेन1 2 | 940-980 |
3 | देवसेन 2 | 960-1000 |
4 | अमितगति 1 | 980-1020 |
5 | नेमिषेण | 1000-1040 |
6 | माधवसेन | 1020-1060 |
7 | अमितगति 2 | 1040-1080* |
1 = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।1 = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।• = वि. 1050 में सुभाषित रत्नसन्दोह पूरा किया।
8. आचार्य समयानुक्रमणिका
नोट - प्रमाणके लिए दे, वह वह नाम
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रमांक | समय (ई.पू.) | नाम | गुरु | विशेष |
---|---|---|---|---|
1. ईसवी पूर्व :- | ||||
1 | 1500 | अर्जुन अश्वमेघ | - | कवि |
2 | 527-515 | गौतम (गणधर) | भगवान् महावीर | केवली |
3 | 515-503 | सुधर्माचार्य (लोहार्य 1) | भगवान् महावीर | केवली |
4 | 503-465 | जम्बूस्वामी | भगवान् महावीर | केवली |
5 | 465-451 | विष्णु | जम्बूस्वामी | द्वादशांग धारी |
6 | 451-435 | नन्दिमित्र | विष्णु | द्वादशांग धारी |
7 | 435-413 | अपराजित | नन्दिमित्र | द्वादशांग धारी |
8 | 413-394 | गोवर्धन | अपराजित | द्वादशांग धारी |
9 | 394-365 | भद्रबाहु 1 | गोवर्धन | द्वादशांग धारी |
10 | 394-360 | स्थूलभद्र स्थूलाचार्यरामल्य | भद्रबाहु 1 | श्वेताम्बर संघ प्रवर्तक |
11 | 365-355 | विशाखाचार्य | भद्रबाहु 1 | 11 अंग 10 पूर्वधर |
12 | 355-336 | प्रोष्ठिल | विशाखाच्रय | 11 अंग 10 पूर्वधर |
13 | 336-319 | क्षत्रिय | प्रोष्ठिल | 11 अंग 10 पूर्वधर |
14 | 319-298 | जयसेन 1 | क्षत्रिय | 11 अंग 10 पूर्वधर |
15 | 298-280 | नागसेन | जयसेन 1 | 11 अंग 10 पूर्वधर |
16 | 280-263 | सिद्धार्थ | नागसेन | 11 अंग 10 पूर्वधर |
17 | 263-245 | धृतिषेण | सिद्धार्थ | 11 अंग 10 पूर्वधर |
18 | 245-232 | विजय | धृतिषेण | 11 अंग 10 पूर्वधर |
19 | 232-212 | बुद्धिलिंग | विजय | 11 अंग 10 पूर्वधर |
20 | 212-198 | गंगदेव | बुद्धिलिंग | 11 अंग 10 पूर्वधर |
21 | 198-182 | धर्मसेन 1 | गंगदेव | 11 अंग 10 पूर्वधर |
22 | 182-164 | नक्षत्र | धर्मसेन | 11 अंगधारी |
23 | 164-144 | जयपाल | नक्षत्र | 11 अंगधारी |
24 | 144-105 | पाण्डु | जयपाल | 11 अंगधारी |
25 | 105-91 | ध्रुवसेन | पाण्डु | 11 अंगधारी |
26 | 91-59 | कंस | ध्रुवसेन | 11 अंगधारी |
27 | 59-53 | सुभद्राचार्य | कंस | 10 अंगधारी |
28 | 53-35 | यशोभद्र 1 | सुभद्राचार्य | 9 अंगधारी |
29 | 35-12 | भद्रबाहु 2 | यशोभद्र | 8 अंगधारी |
30 | ई.पू. 12 | लोहाचार्य 2 | भद्रबाहु 2 | 8 अंगधारी |
क्रमांक | समय ई. सन् | नाम | गुरु या विशेषता | प्रधानकृति |
2. ईसवी शताब्दी 1 :- | ||||
31 | पूर्वपाद | गणधर | लोहाचार्य | कषायपाहुड़ |
32 | पूर्वपाद | चन्द्रनन्दि 1 | - | - |
33 | पूर्वपाद | बलदेव 1 | चन्द्रनन्दि | - |
34 | पूर्वपाद | जिननन्दि | बलदेव 1 | - |
35 | पूर्वपाद | आर्य सर्व गुप्त | जिननन्दि | - |
36 | पूर्वपाद | मित्रनन्दि | सर्वगुप्त | - |
37 | पूर्वपाद | शिवकोटि | मित्रनन्दि | भगवती आरा. |
38 | 30-Mar | विनयधर | पुन्नाट संघी | - |
39 | 15-45 | गुप्ति श्रुति | पुन्नाट विनयधर | - |
40 | 20-50 | गुप्ति ऋद्धि | पुन्नाट गुप्तिश्रुति | - |
41 | 35-60 | शिव गुप्त | पुन्नाट गुप्ति ऋद्धि | - |
42 | मध्यपाद | रत्न नन्दि | शुभनंदिकेसधर्मा | - |
43 | मध्यपाद | शुभनन्दि | बप्पदेवके गुरु | - |
44 | मध्यपाद | बप्पदेव | शुभनन्दि | व्याख्याप्रज्ञप्ति |
45 | मध्यपाद | कुमार नन्दि | - | सरस्वतीआन्दोशिल्पड्डिकारं |
46 | मध्यपाद | इलंगोवडिगल | - | - |
47 | मध्यपाद | शिवस्कन्द | - | - |
48 | 38-48 | गुप्तिगुप्त | - | - |
49 | 38-66 | (अर्हद्बलि) | - | अंगांशधारी |
50 | 38-55 | अर्हदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
51 | 38-55 | शिवदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
52 | 38-55 | विनयदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
53 | 38-55 | श्रीदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
54 | 38-66 | अर्हद्बलि | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
55 | 38-48 | (गुप्तिगुप्त) | - | - |
56 | 48-87 | माघनन्दि | अर्हद्बलि | अंगांशधारी |
57 | 38-106 | धरसेन 1 | क्रमबाह्य | षट्खण्डागम |
58 | 66-106 | पुष्पदन्त | धरसेन | षट्खण्डागम |
59 | 66-156 | भूतबली | धरसेन | षट्खण्डागम |
60 | 53-63 | मन्दार्य (पुन्नाट संघी) | अर्हद्बलि | - |
61 | 63 | मित्रवीर | मन्दार्य | - |
62 | 63-133 | इन्द्रसेन | - | |
63 | 80-150 | दिवाकरसेन | इन्द्रसेन | - |
64 | 68-88 | यशोबाहु (भद्रबाहु द्वि.) | यशोभद्रके शिष्य लोहाचार्य 2 के गुरु | - |
65 | 73-123 | आर्यमंक्षु | - | कषायपाहुड़ |
66 | 90-93 | वज्रयश (श्वेताम्बर) | - | - |
67 | 93-162 | नागहस्ति | - | कषायपाहुड़ |
68 | 143-173 | यतिवृषभ | नागहस्ति | कषायपाहुड़ |
3. ईसवी शताब्दी 2 :- | ||||
69 | 87-127 | जिनचन्द्र | कुन्दकुन्दके गुरु | - |
70 | 127-179 | कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) | जिनचन्द्र | समयसार |
71 | 127-179 | वट्टकेर | - | मूलाचार |
72 | 179-243 | उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) | कुन्दकुन्द | - |
73 | पूर्वपाद | देवऋद्धिगणी | श्वे. के. अनुसार | श्वे. आगम |
74 | 120-185 | समन्तभद्र | - | आप्तमीमांसा |
75 | 123-163 | अर्हत्सेन | दिवाकरसेन | - |
76 | मध्य पाद | सिंहनन्दि 1 (योगीन्द्र) | भानुनन्दि | - |
77 | मध्य पाद | कुमार स्वामी | - | कार्तिकेयानुप्रेक्षा |
4. ईसवी शताब्दी 3 :- | ||||
78 | 220-231 | बलाक पिच्छ | गृद्धपिच्छ | - |
79 | 220-231 | लोहाचार्य 3 | - | - |
80 | 231-289 | यशःकीर्ति | लोहाचार्य 3 | - |
81 | 289-336 | यशोनन्दि | यशःकीर्ति | - |
82 | उत्तरार्ध | शामकुण्ड | - | पद्धति टीका |
5. ईसवी शताब्दी 4 :- | ||||
83 | पूर्व पाद | विमलसूरि | - | पउमचरिउ |
84 | 336-386 | देवनन्दि | यशोनन्दि | - |
85 | मध्यपाद | श्री दत्त | - | जल्प निर्णय |
86 | 357 | मल्लवादी | - | द्वादशारनयचक्र |
87 | 386-436 | जयनन्दि | देवनन्दि | - |
6. ईसवी शताब्दी 5 :- | ||||
88 | मध्यपाद | धरसेन 2 | दीपसेन | - |
89 | मध्यपाद | पूज्यपाददेवनन्दि | - | सर्वार्थसिद्धि |
90 | 436-442 | गुणनन्दि | जयनन्दि | - |
91 | 437 | अपराजित | सुमति आचार्य | - |
92 | 442-464 | वज्रनन्दि | गुणनन्दि | - |
93 | 443 | शिवशर्म सूरि (श्वेताम्बर) | - | कर्म प्रकृति |
94 | 453 | देवार्द्धिगणी | दि.के. अनुसार | श्वे. आगम |
95 | 458 | सर्वनन्दि | - | सं. लोक विभाग |
96 | 464-515 | कुमारनन्दि | वज्रनन्दि | - |
97 | 480-528 | हरिभद्र सूरि | (श्वेताम्बर) | षट्दर्शन समु. |
7. ईसवी शताब्दी 6 :- | ||||
98 | पूर्वपाद | वज्रनन्दि | पूज्यपाद | प्रमाण ग्रन्थ |
99 | 505-531 | लोकचन्द्र | कुमारनन्दि | - |
100 | 531-556 | प्रभाचन्द्र 1 | लोकचन्द्र | - |
101 | उत्तरार्ध | योगेन्दु | - | परमात्मप्रकाश |
102 | 56-565 | नेमिचन्द्र 1 | प्रभाचन्द्र | - |
103 | 565-586 | भानुनन्दि | नेमि चन्द्र 1 | - |
104 | 568 | सिद्धसेन दिवा. (दिगम्बर) | सन्मतितर्क | - |
105 | 583-623 | दिवाकरसेन | इन्द्रसेन | - |
106 | 586-613 | सिंहनन्दि 2 | भानुनन्दि | - |
107 | 593 | जिनभद्रगणी (श्वेताम्बराचार्य) | - | विशेषावश्यक भाष्य |
108 | ई.श.7 से पूर्व | तोलामुलितेवर | - | चूलामणि |
109 | अन्तिम पाद | सिंह सूरि (श्वे.) | - | नयचक्र वृत्ति |
110 | अन्तिम पाद | शान्तिषेण | जिनसेन प्र. | - |
111 | श. 6-7 | पात्रकेसरी | समन्तभद्र | पात्रकेसरी स्तोत्र |
112 | श. 6-7 | ऋषि पुत्र | - | निमित्त शास्त्र |
8. ईसवी शताब्दी 7 :- | ||||
113 | पूर्व पाद | सिंहसूरि (श्वे.) | सिद्धसेन गणी के दादा गुरु | द्वादशार नयचक्र की वृत्ति |
114 | 603-619 | वसुनन्दि 1 | सिंहनन्दि | - |
115 | 603-643 | अर्हत्सेन | दिवाकरसेन | - |
116 | 609-639 | वीरनन्दि 1 | वसुनन्दि | - |
117 | 618 | मानतुङ्ग | - | भक्तामर स्तोत्र |
118 | 620-680 | अकलङ्क भट्ट | - | राजवार्तिक |
119 | 623-663 | लक्ष्मणसेन | अर्हत्सेन | - |
120 | 625 | कनकसेन | बलदेवके गुरु | - |
121 | 625-650 | धर्मकीर्ति (बौद्ध) | - | - |
122 | 639-663 | रत्ननंदि | वीरनन्दि | - |
123 | मध्य पाद | तिरुतक्कतेवर | - | जीवनचिन्तामणि |
124 | उत्तरार्ध | प्रभाचन्द्र 2 | - | तत्त्वार्थसूत्र द्वि. |
125 | 650 | बलदेव | कनकसेन | - |
126 | 663-679 | माणिक्यनन्दि 1 | रत्ननन्दि | - |
127 | 675 | धर्मसेन | - | - |
128 | 677 | रविषेण | लक्ष्मणसेन | पद्मपुराण |
129 | 679-705 | मेघचन्द्र | माणिक्यनन्दि 1 | - |
130 | 696 | कुमासेन | प्रभाचन्द्र 4 के गुरु | आत्ममीमांसा विवृत्ति |
131 | अन्तिम पाद | सिद्धसेन गणी | श्वेताम्बराचार्य | न्यायावतार |
132 | 700 | बालचन्द्र | धर्मसेन | - |
133 | ई. श. 7-8 | अर्चट (बौद्ध) | - | हेतु बिन्दु टीका |
134 | ई. श. 7-8 | सुमतिदेव | - | सन्मतितर्कटीका |
135 | ई. श. 7-8 | जटासिंह नन्दि | - | वराङ्गचरित |
136 | ई. श. 7-8 | चतुर्मुखदेव | अपभ्रंशकवि | - |
8. ईसवी शताब्दी 8 :- | ||||
137 | 705-721 | शान्तिकीर्ति | मेधचन्द्र | - |
138 | 716 | चन्द्रनन्दि 2 | - | - |
139 | 720-758 | मेरुकीर्ति | शान्तिकीर्ति | - |
140 | 720-780 | पुष्पसेन | अकलङ्कके सधर्मा | - |
141 | 723-773 | जयसेन 2 | शान्तिसेन | - |
142 | 725-825 | जयराशि (अजैन नैयायिक) | - | तत्त्वोपप्लवसिंह |
143 | मध्य पाद | बुद्ध स्वामी | - | बृ. कथा श्लोक संग्रह |
144 | मध्य पाद | हरिभद्र 2 (याकिनीसूनु) | - | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टीका |
145 | मध्य पाद | श्रीदत्त द्वि. | - | जल्प निर्णय |
146 | मध्य पाद | काणभिक्षु | - | चरित्रग्रंथ |
147 | 736 | अपराजित | विजय | विजयोदया (भग.आ.टीका) |
148 | 738-840 | स्वयम्भू | - | पउमचरिउ |
149 | 742-773 | चन्द्रसेन | पंचस्तूपसंघी | - |
150 | 743-793 | अमितसेन | पुन्नाटसंघी | - |
151 | 748-818 | जिनसेन 1 | - | हरिवंश पुराण |
152 | 757-815 | चारित्रभूषण | विद्यानन्दिके गुरु | - |
153 | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | - | प्रामाण्य भंग |
154 | 762 | आविद्धकरण (नैयायिक) | - | - |
155 | 763-813 | कीर्तिषेण | जयसेन 2 | - |
156 | 767-798 | आर्यनन्दि | पंचस्तूपसंघी | - |
157 | 770-827 | जयसेन 3 | आर्यनन्दि | - |
158 | 770-860 | वादीभसिंह | पुष्पसेन | क्षत्रचूड़ामणि |
159 | 775-840 | विद्यानन्दि 1 | - | आप्त परीक्षा |
160 | 783 | उद्योतन सूरि | - | कुवलय माला |
161 | 797 | प्रभाचन्द्र 3 | तोरणाचार्य | - |
162 | 770 | एलाचार्य | - | - |
163 | 770-827 | वीरसेन स्वामी | एलाचार्य | धवला |
164 | ई.श. 8-9 | धनञ्जय | दशरथ | विषापहार |
165 | ई.श. 8-9 | कुमारनन्दि | चन्द्रनन्दि | वादन्याय |
166 | ई. श. 8-9 | महासेन | - | सुलोचना कथा |
167 | ई. श. 8-9 | श्रीपाल | वीरसेन स्वामी | - |
168 | ई. श. 8-9 | श्रीधर 1 | - | गणितसार संग्रह |
10. ईसवी शताब्दी 9 :- | ||||
169 | पूर्वपाद | परमेष्ठी | अपभ्रंश कवि | वागर्थ संग्रह |
170 | 800-830 | महावीराचार्य | - | गणितसार संग्रह |
171 | 814 | शाकटायन-पाल्यकीर्ति | यापनीयसंघी | शाकटायन-शब्दानुशासन |
172 | 814 | नृपतुंग | कन्नड़ कवि | कविराज मार्ग |
173 | 818-878 | जिनसेन 3 | वीरसेन स्वामी | आदिपुराण |
174 | 820-870 | दशरथ | वीरसेन स्वामी | - |
175 | 820-870 | पद्मसेन | वीरसेन स्वामी | - |
176 | 820-870 | देवसेन 1 | वीरसेन स्वामी | - |
177 | 828 | उग्रादित्य | श्रीनन्दि | कल्याणकारक |
178 | मध्य पाद | गर्गर्षि (श्वे.) | - | कर्मविपाक |
179 | 843-873 | गुणनन्दि | बलाकपिच्छ | - |
180 | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | - | - |
181 | उत्तरार्ध | त्रिभुवन स्वयंभू | कवि स्वयंभूका पुत्र | बृहत्सर्वज्ञसिद्धि |
182 | 858-898 | देवेन्द्र सैद्धान्तिक | गुणनन्दि | - |
183 | 883-923 | वीरसेन 2 | रामसेन | - |
184 | 893-923 | कलधौतनन्दि | देवेन्द्रसैद्धान्तिक | - |
185 | 893-923 | वसुनन्दि 2 | देवेन्द्र सैद्धान्तिक | - |
186 | 898 | कुमारसेन | काष्ठा संघ संस्थापक | - |
187 | 898 | धर्मसेन 2 | लाड़बागड़गच्छ | - |
188 | 898 | गुणभद्र 1 | जिनसेन 3 | उत्तरपुराण |
189 | अन्तिम पाद | धनपाल | - | भवियसत्त कहा |
190 | ई. श. 9-10 | चन्द्रर्षि महत्तर | - | पंचसंग्रह (श्वे.) |
11. ईसवी शताब्दी 10 :- | ||||
191 | 900-920 | गोलाचार्य | कलधौतनन्दि | उत्तरपुराण (शेष) |
192 | 90-940 | लोकसेन | गुणभद्र 1 | - |
193 | 903-943 | देवसेन 1 | वीरसेन 2 | - |
194 | 905 | सिद्धर्षि | दुर्गा स्वामी | उपमिति भवप्रपञ्च कथा |
195 | 905-955 | अमृतचन्द्र | - | आत्मख्याति |
196 | 909 | विमलदेव | देवसेनके गुरु | - |
197 | पूर्वार्ध | कनकसेन | - | कोई काव्यग्रन्थ |
198 | 918-943 | नेमिदेव | वाद विजेता | - |
199 | 918-948 | सर्वचन्द्र | वसुनन्दि | - |
200 | 920-930 | त्रैकाल्ययोगी | गोलाचार्य | - |
201 | 923 | शान्तिसेन | धर्मसेन | - |
202 | 923 | हेमचन्द्र | कुमारसेन | - |
203 | मध्य पाद | विजयसेन | नागसेनके गुरु | - |
204 | मध्य पाद (अभयदेव (श्वे.) | - | वाद महार्णव | - |
205 | मध्य पाद | हरिचन्द | एक कवि | धर्मशर्माभ्युदय |
206 | मध्य पाद | माधवचन्द (त्रैविद्य) | नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती | त्रिलोकसार टीका |
207 | 923-963 | अमितगति 1 | देवसेन सूरि | योगसार प्राभृत |
208 | 930-950 | अभयनन्दि | वीरनन्दिके गुरु | जैनेन्द्रमहावृत्ति |
209 | 930-1023 | पद्यनन्दि (आविद्धकरण) | त्रैकाल्ययोगी | - |
210 | 931 | हरिषेण | भरतसेन | बृहत्कथाकोश |
211 | 933-955 | देवसेन 2 | विमलदेव | दर्शनसार |
212 | 935-999 | मेघचन्द्र त्रिविद्य | त्रैकाल्ययोगी | ज्वालामालिनी |
213 | 997 | कुलभद्र | - | सारसमुच्चय |
214 | 939 | इन्द्रनन्दि | बप्पनन्दि | श्रुतावतार |
215 | 939 | कनकनन्दि | - | सत्त्वत्रिभंगी |
216 | 940-1000 | सिद्धान्तसेन | गोणसेनके गुरु | - |
217 | 943-968 | सोमदेव 1 | नेमिदेव | नीतिवाक्यामृत |
218 | 943-973 | दामनन्दि | सर्वचन्द्र | - |
219 | 943-983 | नेमिषेण | अमितगति | - |
220 | 94 | गोपसेन | शान्तिसेन | - |
221 | 94 | पद्यनन्दि | हेमचन्द्र | - |
222 | 90 | पोन्न | (कन्नड़कवि) | शान्तिपुराण |
223 | 960-993 | रन्न | (कन्नड़कवि) | अजितनाथपुराण |
224 | उत्तरार्ध | पुष्पदन्त | अपभ्रंश कवि | जसहर चरिउ |
225 | उत्तरार्ध | भट्टवोसरि | दामननन्दि | आय ज्ञान |
226 | 950-990 | रविभद्र | - | आराधनासार |
- | वीरनन्दि 2 | अभयनन्दि | आचारसार | |
227 | 950-1020 | सकलचन्द्र | अभयनन्दि | - |
228 | 950-1020 | प्रभाचन्द्र 4 | पद्मनन्दि सै. | प्रमेयकमल मा. |
229 | 953-973 | सिंहनन्दि 4 | अजितसेनके गुरु | - |
230 | 960-1000 | गोणसेन पं. | सिद्धान्तसेन | - |
231 | 963-1003 | अजितसेन | सिंहनन्दि | - |
232 | 963-1007 | माधवसेन | नेमिषेण | करकंडु चरिऊ |
233 | 65-1051 | कनकामर | बुधमंगलदेव | - |
234 | 968-998 | वीरनन्दि | दामनन्दि | - |
235 | 972 | यशोभद्र (श्वे.) | साडेरक गच्छ | - |
236 | 973 | यशःकीर्ति 2 | पद्मनन्दि | - |
237 | 973 | भावसेन | गोपसेन | - |
238 | 974 | महासेन | गुणकरसेन | प्रद्युम्न चरित्र सिद्धि विनि. वृ. |
239 | 975-1025 | अनन्तवीर्य 1 | द्रविड़ संघी | जम्बूदीव पण्णति |
240 | 977-1043 | पद्मनन्दि 4 | बालनन्दि | कुंदकुंदत्रयी टी. |
241 | 980-1065 | प्रभाचन्द्र 5 | - | चारित्रसार |
242 | 978 | चामुण्डराय | अजितसेन | गोमट्टसार |
243 | 981 | नेमिचन्द्र | इन्द्रनन्दि | - |
- | - | सिद्धान्तचक्रवर्ती | - | - |
244 | 983 | बालचन्द्र | अनन्तवीर्य | - |
245 | 983-1023 | अमितगति 2 | माधवसेन | श्रावकाचार |
246 | 987 | हरिषेण | अपभ्रंश कवि | धम्मपरिक्खा |
247 | 988 | असग | नागनन्दि | वर्द्धमान चरित्र |
248 | 990 | नागवर्म 1 | कन्नड़कवि | छन्दोम्बुधि |
249 | 990-1000 | गुणकीर्ति | अनन्तवीर्य | - |
250 | 990-1040 | देवकीर्ति 2 | अनन्तवीर्य | - |
251 | 984 | उदयनाचार्य | (नैयायिक) | किरणावली |
252 | 991 | श्रीधर 2 | (नैयायिक) | न्यायकन्दली |
253 | लगभग 993 | देवदत्त रत्न | अपभ्रंश कवि | वरांग चरिउ अजित |
254 | 993-1023 | श्रीधर 3 | वीरनन्दि | - |
255 | 993-1050 | नयनन्दि | माणिक्यनन्दि | सुंदसण चरिऊ |
256 | 993-1118 | शान्त्याचार्य | - | जैनतर्क वार्तिकवृत्ति |
257 | 998 | क्षेमकीर्ति 1 | यशःकीर्ति | - |
258 | 998 | जयसेन 4 | भावसेन | - |
259 | 998-1023 | बालनन्दि | वीरनन्दि | - |
260 | 999-1023 | श्रीनन्दि | सकलचन्द्र | - |
261 | अन्तिमपाद | ढड्ढा | श्रीपालके पुत्र | पंचसंग्रह अनुवाद |
262 | 1000 | क्षेमन्धर | - | बृ. कथामञ्जरी |
263 | ई. श. 10-11 | इन्द्रनन्दि 2 | - | छेदपिण्ड |
12. ईसवी शताब्दी 11 :- | ||||
264 | 1003-1028 | माणिक्यनन्दि | रामनन्दि | परीक्षामुख |
265 | 1003-1068 | शुभचन्द्र | - | ज्ञानार्णव |
266 | पूर्वार्ध | विजयनन्दि | बालनन्दि | - |
267 | 1010-1065 | वादिराज 2 | मति सागर | एकीभाव स्तोत्र |
268 | 1015-1045 | सिद्धान्तिक देव | शुभचन्द्र 2 | - |
269 | 1019 | वीर कवि | - | जंबूसामि चरिउ |
270 | 1020-1110 | मेघचन्द्र त्रैविद्य | सकलचन्द्र | - |
271 | 1023 | ब्रह्मसेन | जयसेन | - |
272 | 1023-1066 | उदयसेन | गुणसेन | - |
273 | 1023-1078 | कुल भूषण | पद्मनन्दि आविद्ध | - |
274 | 1029 | पद्मसिंह | - | ज्ञानसार |
275 | 1030-1080 | श्रुतकीर्ति | पद्मनन्दि आविद्ध | - |
276 | मध्य पाद | यशःकीर्ति | अपभ्रंश कवि | चंदप्पह चरिउ |
277 | 1031-1078 | अभयदेव (श्वे.) | - | नवांग वृत्ति |
278 | 1032 | दुर्गदेव | संयमदेव | रिष्ट समुच्चय |
279 | 1043-1073 | चन्द्कीर्ति | मल्लधारी देव 1 | - |
280 | 1043 | नयनन्दि | नेमिचन्द्र के गुरु | - |
281 | 1046 | कीर्ति वर्मा | आयुर्वेद विद्वान | जाततिलक |
282 | 1047 | महेन्द्र देव | नागसेनके गुरु | - |
283 | 1047 | मलल्लिषेण | जिनसेन | महापुराण |
284 | 1047 | नागसेन | महेन्द्रदेव | - |
285 | 1048 | वीरसेन 3 | ब्रह्मसेन | - |
286 | उत्तरार्ध | रामसेन | नागसेन | - |
287 | उत्तरार्ध | धवलाचार्य | - | हरिवंश |
288 | उत्तरार्ध | मलयगिरि (श्वे.) | श्वे. टीकाकार | - |
289 | उत्तरार्ध | पद्मनन्दि 5 | वीरनन्दि | पंचविंशतिका |
290 | 1062-1081 | सोमदेव 2 | - | कथा सरित सागर |
291 | 1066 | श्रीचन्द | वीरचन्द | पुराणसार संग्रह |
292 | 1068 | नेमिचन्द 3 सैद्धान्तिक देव | नयनन्दि | द्रव्यसंग्रह |
293 | 1068-1098 | दिवाकरनन्दि | चन्द्रकीर्ति | - |
294 | 1068-1118 | वसुनन्दि तृ. | - | प्रतिष्ठापाठ |
295 | 1072-1093 | नेमिचन्द (श्वे.) | आम्रदेव | प्रवचनसारोद्धार |
296 | 1074 | गुणसेन 1 | वीरसेन 3 | - |
297 | 1075-1110 | जिनवल्लभ गणी | जिनेश्वर सूरि | षडशीति |
298 | 1075-1125 | वाग्भट्ट 1 | - | नेमिनिर्वाणकाव्य |
299 | 1075-1135 | देवसेन 3 | विमलसेन गणधर | सुलोयणा चरिउ |
300 | 1077 | पद्मकीर्ति (भ.) | जिनसेन | पासणाह चरिउ |
301 | 1078-1173 | हेमचन्द्र (श्वे.) | - | शब्दानुशासन |
302 | 1089 | श्रुतकीर्ति | अग्गल के गुरु | पंचवस्तु (टीका) |
303 | 1089 | अग्गल कवि | श्रुतकीर्ति | चन्द्रप्रभ चरित |
304 | अन्तिम पाद | वृत्ति विलास | कन्नड़ कवि | धर्मपरीक्षा |
305 | अन्तिम पाद | देवचन्द्र 1 | वासवचन्द्र | पासणाह चरिउ |
306 | अन्तिम पाद | ब्रह्मदेव | - | द्रव्य संग्रह टीका |
307 | अन्तिम पाद | नरेन्द्रसेन 1 | गुणसेन | सिद्धांतसार संग्रह |
308 | 1093-1123 | शुभचन्द्र 2 | दिवाकरनन्दि | - |
309 | 1093-1125 | बूचिराज | शुभचन्द्र | - |
310 | 1100 | नागचन्द्र (पम्प) | कन्नड़ कवि | मल्लिनाथ पुराण |
311 | ई. श. 11-12 | सुभद्राचार्य | अपभ्रंश कवि | वैराग्गसार |
312 | ई.श. 11-12 | जयसेन 5 | सोमसेन | कुन्दकुन्दत्रयी टीका |
313 | ई. श. 11-12 | जिनचन्द्र 3 | - | सिद्धान्तसार |
314 | ई. श. 11-12 | वसुनन्दि 3 | नेमिचन्द्र | श्रावकाचार |
13. ईसवी शताब्दी 12 :- | ||||
315 | पूर्व पाद | बालचन्द्र 2 | नयकीर्ति | कुन्दकुन्दत्रयी टीका |
316 | पूर्व पाद | वक्रग्रीवाचार्य | द्रविड़ संघी | - |
317 | पूर्व पाद | विमलकीर्ति | रामकीर्ति | सौखबड़ विहाण |
318 | 1102 | चन्द्रप्रभ | - | प्रमेय रत्नकोश |
319 | 1103 | वादीभसिंह | वादिराज द्वि. | स्याद्वाद्सिद्धि |
320 | 1108-1136 | माघनंदि (कोल्हा) | कुलचन्द्र | - |
321 | 1115 | हरिभद्र सूरि | जिनदेव उपा. | - |
322 | 1115-1231 | गोविन्दाचार्य | - | कर्मस्तव वृत्ति |
323 | 1119 | प्रभाचन्द्र 6 | मेघचन्द्र त्रैविद्य | - |
324 | 1120-1147 | शुभचन्द्र 3 | मेघचन्द्र त्रैविद्य | - |
325 | 1120 | राजादित्य | कन्नड़ गणितज्ञ | व्यवहार गणित |
326 | 1123 | जयसेन 6 | नरेन्द्रसेन | - |
327 | 1123 | गुणसेन 2 | नरेन्द्रसेन | - |
328 | 1125 | नयसेन | नरेन्द्रसेन | धर्मामृत |
329 | मध्यपाद | योगचन्द्र | - | दोहासार |
330 | मध्यपाद | अनन्तवीर्य लघु | - | प्रमेयरत्नमाला |
331 | मध्य पाद | वीरनन्दि 4 | - | आचारसार |
332 | मध्य पाद | श्रीधर 4 | - | पासगाह चरिउ |
333 | मध्य पाद | पद्मप्रभ मल्लधारी देव | वीरनान्द तथा श्रीधर 1 | नियमसार टीका |
334 | मध्य पाद | सिंह | भ.अमृतचन्द्र | प्रद्युम्नचरित |
335 | 1128 | मल्लिषेण (मल्लधारी देव) | - | सज्जनचित्त |
336 | 1132 | गुणधरकीर्ति | कुवलयचन्द्र | अध्यात्म त. टीका |
337 | 1133-1163 | देवचन्द्र | माघनंदि (कोल्हा) | - |
338 | 1133-1163 | कनक नन्दि | माघनंदि (कोल्हा) | - |
339 | 1133-1163 | गण्ड विमुक्त देव 1 | माघनंदि (कोल्हा) | - |
340 | 1133-1163 | देवकीर्ति 3 | माघनंदि (कोल्हा) | - |
341 | 1133-1163 | माघनंदि त्रैविद्य 3 | माघनंदि (कोल्हा) | - |
342 | 1133-1163 | श्रुतकीर्ति | माघनंदि (कोल्हा) | - |
343 | 1140 | कर्ण पार्य | कन्नड़ कवि | नेमिनाथ पुराण |
344 | 1142-1173 | परमानन्द सूरि | - | - |
345 | 1143 | श्रीधर (विबुध) 5 | अपभ्रंश कवि | भविसयत्त चरिउ |
346 | 1145 | नागवर्म 2 | कन्नड़ कवि | काव्यालोचन |
347 | 1150 | उदयादित्य | कन्नड़ कवि | उदयदित्यालंकार |
348 | 1150 | सोमनाथ | वैद्यक विद्वान् | कल्याण कारक |
349 | 1150 | केशवराज | कन्नड़ कवि | शब्दमणिदर्पण |
350 | 1150-1196 | उदयचन्द्र | अपभ्रंश कवि | सुअंधदहमीकहा |
351 | 1150-1196 | बालचन्द्र | उदय चन्द्र | णिद्दुक्खसत्तमी |
352 | 1151 | श्रीधर 6 | अपभ्रंश कवि | सुकुमाल चरिउ |
353 | उतरार्ध | विनयचन्द | अपभ्रंश कवि | कल्याणक रास |
354 | 1155-1163 | देवकीर्ति 4 | गण्डविमुक्तदेव 1 | - |
355 | 1158-1182 | गण्डविमुक्त देव 2 | गण्डविमुक्त देव 1 | - |
356 | 1158-1182 | अकलंक 2 | गण्डविमुक्तदेव 1 | - |
357 | 1158-1182 | भानुकीर्ति | गण्डविमुक्तदेव 1 | - |
358 | 1158-1182 | रामचन्द्र त्रैविद्य | गण्डविमुक्त देव 1 | - |
359 | 1161-1181 | हस्तिमल | सेनसंघी | विक्रान्त कौरव |
360 | 1163 | शुभचन्द्र 4 | देवेन्द्रकीर्ति | - |
361 | 1170 | ओडय्य | कन्नड़ कवि | कव्वगर काव्य |
362 | 1170-1125 | जत्र | कन्नड़ कवि | यशोधर चरित्र |
363 | 1173-1243 | पं. आशाधर | पं. महावीर | अनगारधर्मामृत |
364 | 1185-1243 | प्रभाचन्द्र 6 | बालचंद भट्टारक | क्रियाकलाप |
365 | 1187-1190 | अमरकीर्ति गणी | चन्द्रकीर्ति | णेमिणाहचरिउ |
366 | 1189 | अग्गल | कन्नड़ कवि | चन्द्रप्रभु पुराण |
367 | 1193 | माघनन्दि 4 | - | - |
- | 1193-1260 | माघनन्दि 4 | कुमुदचंद्रके गुरु | शास्त्रसार समुच्चय |
368 | - | (योगीन्द्र) | - | - |
369 | अन्तिम पाद | नेमिचंद सैद्धा.4 | - | कर्म प्रकृति |
370 | अन्तिम पाद | आच्चण कन्नड़ कवि | वर्द्धमान पुराण | - |
371 | अन्तिम पाद | प्रभाचन्द्र 7 | कन्नड़ कवि | सिद्धांतसार टीका |
372 | अन्तिम पाद | लक्खण | अपभ्रंश कवि | अणुवयरयण पईव |
373 | अन्तिम पाद | पार्श्वदेव | यशुदेवाचार्य | संगीतसमयसार |
374 | 1200 | देवेन्द्र मुनि | आयुर्वैदि विद्वान् | बालग्रह चिकित्सा |
375 | 1200 | बन्धु वर्मा | कन्नड़ कवि | हरवंश पुराण |
376 | 1200 | शुभचन्द्र 5 | - | नरपिंगल |
377 | ई. श. 12-13 | रविचन्द्र | - | आराधनासार समुच्चय |
378 | ई. श. 12-13 | वामन मुनि | तमिल कवि | मेमन्दर पुराण |
14. ईसवी शताब्दी 13 :- | ||||
379 | पूर्वपाद | गुणभद्र 2 | नेमिसेन | धन्यकुमारचरित |
380 | 1205 | पार्श्व पण्डित | कन्नड़ कवि | पार्श्वनाथ पुराण |
381 | 1213 | माधवचन्द्र त्रैविद्य | - | क्षपणसार |
382 | 1213-1256 | लाखू | अपभ्रंश कवि | जिणयत्तकहा |
383 | 1225 | गुणवर्ण | कन्नड़ कवि | पुष्पदन्त पुराण |
385 | 1228 | जगच्चन्द्रसूरि (श्वे.) | देलवाड़ा मन्दिर के निर्माता | - |
385 | 1230 | दामोदर | अपभ्रंश कवि | णेमिणाह चरिउ |
386 | मध्य पाद | अभयचन्द्र 1 | - | स्याद्वाद् भूषण |
387 | मध्य पाद | विनयचन्द्र | अपभ्रंश कवि | उवएसमाला |
388 | मध्य पाद | यशःकीर्ति 3 | - | जगत्सुन्दरी |
389 | 1234 | ललितकीर्ति | यशःकीर्ति 3 | - |
390 | 1239 | यशःकीर्ति 4 | ललितकीर्ति | धर्मशर्माभ्युदय |
391 | मध्य पाद | नेमिचन्द्र 5 | कन्नड़ कवि | अर्धनेमिपुराण |
392 | मध्य पाद | भावसेन त्रैविद्य | प्रमाप्रमेय | - |
393 | मध्य पाद | रामचन्द्रमुमुक्षु केशवनन्दि | पुण्यास्रवकथा | - |
394 | 1230-1258 | शुभचन्द्र 6 | गण्डविमुक्तदेव | - |
395 | 1235 | कमलभव | कन्नड़ कवि | शान्तीश्वर पु. |
396 | 1245-1270 | देवेन्द्रसूरि (श्वे.) | जगच्चन्द्रसूरि | कर्मस्तव |
397 | 1249-1279 | अभयचन्द्र 2 | श्रुतमुनिके गुरु | गो.सा./नन्दप्रबोधिनी टीका |
398 | 1250-1260 | अजितसेन | - | शृङ्गार मञ्जरी |
399 | उत्तरार्द्ध | विजय वर्णी | विजयकीर्ति | श्रंगारार्णव |
400 | ई.श. 13 | धरसेन | मुनिसेन | विश्वलोचन |
401 | उत्तरार्ध | अर्हद्दास | पं. आशाधर | पुरुदेव चम्पू |
402 | 1253-1328 | प्रभाचन्द्र 8 | रत्नकीर्तिके गुरु | - |
403 | 1259 | प्रभाचन्द्र 9 | श्रुतमुनिके गुरु | - |
404 | 1260 | माघनन्दि 5 | कुमुदचन्द्र | शास्त्रसार समु. |
405 | 1275 | कुमुदेन्दु | कन्नड़ कवि | रामायण |
406 | 1292 | मल्लिशेण (श्वे.) | - | स्याद्वादमंजरी |
407 | 1296 | जिनचन्द्र 5 | भास्कर के गुरु | तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति |
408 | 1296 | भास्करनन्दि | जिनचन्द्र 5 | ध्यानस्तव |
409 | 1298-1323 | धर्मभूषण 1 | शुभकीर्ति | - |
410 | अन्तिमपाद | इन्द्रनन्दि | - | नन्दि संहिता |
411 | अन्तिम पाद | नरसेन | अपभ्रंश कवि | सिद्धचक्क कहा |
412 | अन्तिम पाद | नागदेव | - | मदन पराजय |
413 | अन्तिम पाद | लक्ष्मण देव | अपभ्रंश कवि | णेमिणाह चरिउ |
414 | अन्तिम पाद | वाग्भट्ट द्वि. | - | छन्दानुशासन |
415 | अन्तिम पाद | श्रुतमुनि | अभयचन्द्र सं. | परमागमसार |
416 | ई.श. 13-14 | वामदेव पंडित | विनयचन्द्र | भावसंग्रह |
15 ईसवी शदाब्दी 14 :- | ||||
417 | 1305 | पद्मनन्दि लघु 8 | - | यत्याचार |
418 | 311 | बालचन्द्र सै. | अभयचन्द्र | द्रव्यसंग्रहटीका |
419 | पूर्वार्ध | हरिदेव | अपभ्रंश कवि | मयणपराजय |
420 | 1328-1393 | पद्मनन्दि 9 | प्रभाचन्द्र | भावनापद्धति |
421 | मध्यपाद | श्रीधर 7 | - | श्रुतावतार |
422 | मध्यपाद | जयतिलकसूरि | - | चार कर्म ग्रन्थ |
423 | 1348-1373 | धर्मभूषण 2 | अमरकीर्ति | - |
424 | 1350-1390 | मुनिभद्र | - | - |
425 | उत्तरार्ध | वर्द्धमान भट्टा. | - | वरांगचरितकाव्य |
426 | 1358-1418 | धर्मभूषण 3 | वर्द्धमान मुनि | - |
427 | 1359 | केशव वर्णी | अभयचंद्र सै. | गो.सा. कर्णाटक |
428 | 1384 | श्रुतकीर्ति | प्रभाचन्द्र | वृत्ति |
429 | 1385 | मधुर | कन्नड़ कवि | धर्मनाथ पुराण |
430 | 1390-1392 | विनोदी लाल | भाषा कवि | भक्तामर कथा |
431 | 1393-1442 | देवेन्द्रकीर्ति भ. | - | - |
432 | 1393-1468 | जिनदास 1 | सकलकीर्ति | जम्बूस्वामीचरित |
433 | 1397 | धनपाल 2 | अपभ्रंश कवि | बाहूबलि चरिउ |
434 | 1399 | रत्नकीर्ति 2 | रामसेन | - |
435 | अन्तिम पाद | हरिचन्द 2 | अपभ्रंश कवि | अणत्थिमियकहा |
436 | अन्तिम पाद | जल्हिमले | अपभ्रंश कवि | अनुपेहारास |
437 | अन्तिम पाद | देवनन्दि | अपभ्रंश कवि | रोहिणी विहाण |
438 | ई. श. 14-15 | नेमिचन्द्र 6 | अपभ्रंश कवि | रविवय कहा |
439 | 1400-1479 | रइधु | अपभ्रंश कवि | महेसरचरिउ |
16. ईसवी शताब्दी 15 :- | ||||
440 | पूर्वपाद | जयमित्रहल | अपभ्रंश कवि | मल्लिणाह कव्व |
441 | 1405-1425 | पद्मनाभ | गुणकीर्ति भट्टा. | यशोधर चरित्र, |
442 | 1406-1442 | सकलकीर्ति | - | मूलाचार प्रदीप |
443 | पूर्वपाद | ब्रह्म साधारण | नरेन्द्र कीर्ति | अणुपेहा |
444 | 1422 | असवाल | अपभ्रंश कवि | पासणाह चरिउ |
445 | 1424 | लक्ष्मणसेन 2 | रत्नकीर्ति | - |
446 | 1424 | भास्कर | कन्नड़ कवि | जीवन्धररचित |
447 | 1425 | लक्ष्मीचन्द | अपभ्रंश कवि | सावयधम्म दोहा |
448 | 1429-1440 | यशःकीर्ति 6 | गुणकीर्ति | जिणरत्ति कहा |
449 | मध्यपाद | सिंहसूरि (श्वे.) | - | लोक विभाग |
450 | मध्य पाद | गुणभद्र 3 | अपभ्रंश कवि | पक्खइवयकहा |
451 | मध्यपाद | सोमदेव 2 | प्रतिष्ठाचार्य | आस्रवत्रिभंगीकी लाटी भाषाटीका |
452 | मध्यपाद | विमलदास | अनन्तदेव | - |
453 | मध्यपाद | पं. योगदेव | अपभ्रंश कवि | बारस अणुवेक्खा |
454 | 1432 | प्रभाचन्द्र 10 | धर्मचन्द्र | तत्त्वार्थ रत्न? |
455 | 1436 | मलयकीर्ति | धर्मकीर्ति | मूलाचारप्रशस्ति |
456 | 1437 | शुभकीर्ति | देवकीर्ति | संतिणाहचरिउ |
457 | 1439 | कल्याणकीर्ति | कन्नड़ कवि | ज्ञानचन्द्राभ्युदय |
458 | 1442-1481 | विद्यानन्दि 2 | देवेन्द्रकीर्ति | सुदर्शनचरित |
459 | 1442-1483 | भानुकीर्ति भट्ट | सकलकीर्ति | जीवन्धर रास |
460 | 1443-1458 | तेजपाल | अपभ्रंश कवि | वरंगचरिउ |
461 | 1448 | विजयसिंह | - | अजितपुराण |
462 | 1448-1515 | तारण स्वामी | - | उपदेशशुद्धसार |
463 | 1449 | भीमसेन | लक्ष्मणसेन | - |
464 | 1450-1514 | जिनचन्द्र भट्टा. | शुभचन्द्र | सिद्धान्तसार |
465 | 1450-1514 | ब्रह्म दामोदर | जिनचन्द्रभट्टा. | सिरिपालचरिउ |
466 | 1454 | धर्मधर | - | नागकुमारचरित |
467 | 1461-1483 | सोमकीर्ति भट्टा. | भीमसेन | सप्तव्यसन कथा |
468 | 1462-1484 | मेधावी | जिनचन्द्र भट्टा. | धर्मसंग्रहश्रावका |
469 | 1468-1498 | ज्ञानभूषण 1 | भुवनकीर्ति | तत्त्वज्ञानतरंगिनी |
470 | 1481-1499 | मल्लिभूषण | विद्यानन्दि 2 | - |
471 | 1481-1499 | श्रुतसागर | विद्यानन्दि 2 | तत्त्वार्थवृत्ति |
472 | 1485 | वोम्मरस | कन्नड़ कवि | सनत्कुमार चरित |
473 | 1495-1513 | विजयकीर्ति | ज्ञानभूषण 1 | - |
474 | 1499-1518 | सिंहनन्दि | मल्लिभूषण | - |
475 | 1499-1518 | लक्ष्मीचन्द | मल्लिभूषण | - |
476 | 1499-1528 | वीरचन्द | लक्ष्मीचन्द्र | जंबूसामि बेलि |
477 | 1499-1518 | श्रीचन्द | श्रुतसागर | - |
478 | अन्तिम पाद | महनन्दि | वीरचन्द्र | पाहुड़ दोहा |
479 | अन्तिम पाद | श्रुतकीर्ति | भुवनकीर्ति | हरिवंश पुराण |
480 | अन्तिम पाद | दीडुय्य | पण्डित मुनि | भुजबलि चरितम् |
481 | अन्तिम पाद | जीवन्धर | यशःकीर्ति | गुणस्थान बेलि |
482 | 1500 | श्रीधर | कन्नड़ विद्वान् | वैद्यामृत |
483 | 1500 | कोटेश्वर | कन्नड़ कवि | जीवन्धरषडपादि |
17. ईसवी शताब्दी 16 :- | ||||
484 | पूर्वपाद | अल्हू | अपभ्रंश कवि | अणुवेक्खा |
485 | पूर्वपाद | सिंहनन्दि | - | नमस्कार मन्त्र माहात्म्य |
486 | 1500-1541 | विद्यानन्दि 3 | विशालकीर्ति | - |
487 | 1501 | जिनसेन भट्टा, 4 | यशःकीर्ति | नेमिनाथ रास |
488 | पूर्वार्ध | नेमिचन्द्र 7 | ज्ञानभूषण | गो.सा. टीका |
489 | 1508 | मङ्गरस | कन्नड़ कवि | सम्यक्त्व कौ. |
490 | 1513-1528 | जिनसेन भट्टा.5 | सोमसेन | - |
491 | 1514-29 | प्रभाचन्द्र 11 | जिनचन्द्र भट्टा. | - |
492 | 1515 | रत्नकीर्ति 3 | ललितकीर्ति | भद्रबाहु चरित |
493 | 1516-56 | शुभचन्द्र 5 | विजयकीर्ति | करकण्डु चरित |
494 | 1518-28 | नेमिदत्त | मल्लिभूषण | नेमिनाथ पुराण |
495 | 1519 | शान्तिकीर्ति | कन्नड़ कवि | शान्तिनाथ पुराण |
- | माणिक्यराज | अपभ्रंश कवि | नागकुमार चरिउ | |
496 | 1525-59 | ज्ञानभूषण 2 | वीरचन्द | कर्मप्रकृति टीका |
497 | 1530 | महीन्दु | अपभ्रंश कवि | संतिणाह चरिउ |
498 | 1535 | बूचिराज | अपभ्रंश कवि | म. जुज्झ |
499 | 1538 | सालिवाहन | हिन्दी कवि | हरिवंशका अनुवाद |
500 | 1542 | वर्द्धमान द्वि. | देवेन्द्र कीर्ति | दशभक्त्यादि |
501 | 1543-93 | पं. जिनराज | आयुर्वेद विद्वान् | होली रेणुका |
502 | 1544 | चारुकीर्ति पं. | - | प्रमेयरत्नालंकार |
503 | 1550 | दौड्डैय्य | कन्नड कवि | - |
504 | 1550 | मंगराज | कन्न? कवि | खगेन्द्रमणि |
505 | 1550 | साल्व | कन्नड़ कवि | रसरत्नाकर |
506 | 1550 | योगदेव | कन्नड़ कपवि | तत्त्वार्थ सूत्र टी. |
507 | 1551 | त्नाकरवर्णी | कन्नड़ कवि | भरतैश वैभव |
508 | 1556-73 | सकल भूषण | शुभचन्द्र भट्टा. | उपदेश रत्नमाला |
509 | 1556-73 | सुमतिकीर्ति | - | कर्मकाण्ड |
510 | 1556-96 | गुणचन्द्र | यशःकीर्ति | मौनव्रत कथा |
511 | 1556-1601 | क्षेमचन्द्र | - | कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका |
512 | 1557 | पं. पद्मसुन्दर | पं. पद्ममेरु | भविष्यदत्तचरित |
513 | 1559 | यशःकीर्ति 7 | क्षेमकीर्ति | - |
514 | 1559-1606 | रायमल | अनन्तकीर्ति | भविष्यदत्त च. |
515 | 1559-1680 | प्रभाचंद्र 12 | ज्ञानभूषण | - |
516 | 1560 | बाहुबलि | कन्नड़ कवि | नागकुमार च. |
517 | 1573-93 | गुणकीर्ति | सुमतिकीर्ति | - |
518 | 1575 | शिरोमणि दास | पं. गंगदास | धर्मसार |
519 | 1575-93 | पं. राजमल | हेमचन्द्र भट्टा. | - |
520 | 1579-1619 | श्रीभूषण | विद्याभूषण | द्वादशांग पूजा |
521 | 1580 | माणिक चन्द | अपभ्रंश कवि | सत्तवसणकहा |
522 | 1580 | पद्मनाभ | यशःकीर्ति | रामपुराण |
523 | 1584 | क्षेमकीर्ति | यशःकीर्ति | - |
524 | 1580-1607 | वादिचन्द | प्रभाचन्द | पवनदूत |
525 | 1583-1605 | देवेन्द्र कीर्ति | - | कथाकोश |
526 | 1588-1625 | धर्मकीर्ति | ललितकीर्ति | - |
527 | 1590-1640 | विद्यानन्दि 4 | देवकीर्ति | पद्मपुराण |
528 | 1593 | शाहठाकुर | विशालकीर्ति | संतिणाह चरिउ |
529 | 1593-1675 | वादिभूषण | गुणकीर्ति | - |
530 | 1596-1689 | सुन्ददास | - | - |
531 | 1597-1624 | चन्द्रकीर्ति | श्रीभूषण | पार्श्वनाथ पुराण |
532 | 1599-1610 | सोमसेन | गुणभद्र | शब्दरत्न प्रदीप |
18. ईसवी शताब्दी 17 :- | ||||
533 | 1604 | अकलंक | कन्नड़ कवि | शब्दानुशासन |
534 | 1605 | चन्द्रभ | कन्नड़ कवि | गोमटेश्वरचरित |
535 | 1602 | ज्ञानकीर्ति | वादि भूषण | यशोधरचरित सं. |
536 | 1607-1665 | महीचन्द्र | प्रभाचन्द्र | - |
537 | पूर्वपाद | ज्ञानसागर | श्री भूषण | अक्षर बावनी |
538 | पूर्वार्ध | कुँवरपाल | हिन्दी कवि | - |
539 | पूर्वार्ध | रूपचन्द पाण्डेय | हिन्दी कवि | गीत परमार्थी |
540 | 1610 | रायम | सकलचन्द्र | भक्तामर कथा |
541 | 1616 | अभयकीर्ति | अजितकीर्ति | अनन्तव्रत कथा |
542 | 1617 | जयसागर 1 | रत्नभूषण | तीर्थ जयमाला |
543 | 1617 | कृष्णदास | रत्नकीर्ति | मुनिसुव्रत पुराण |
544 | 1623-1643 | पं. बनारसीदास | हिन्दी कवि | समयसार नाटक |
545 | 1623-1643 | भगवतीदास | मही चन्द्र | दंडाणारास |
546 | 1628 | चुर्भुज | जयपुरसे लाहौर | - |
547 | 1631 | केशवसेन | - | कर्णामृत पुराण |
548 | मध्यपाद | पासकीर्ति | भट्टा. धर्मचन्द 2 | सुदर्शन चरित |
549 | मध्यपाद | जगजीवनदास | हिन्दी कवि | बनारसी विलास का सम्पादन |
550 | मध्यपाद | जयसागर 2 | मही चन्द्र | सीता हरण |
551 | मध्यपाद | हेमराज पाण्डेय | पं. रूपचन्द पाण्डे | प्रवचनसार वच. |
552 | मध्यपाद | पं. हीराचन्द | - | पञ्चास्तिकाय टी. |
553 | 1638-1688 | यशोविजय (श्वे.) | लाभ विजय | अध्यात्मसार |
554 | 1642-1646 | पं. जगन्नाथ | नरेन्द्र कीर्ति | सुखनिधान |
555 | 1643-1703 | जोधराज गोदिका | हिन्दी कवि | प्रीतंकर चारित्र |
556 | 1656 | खड्गसेन | हिन्दी कवि | त्ररिलोक दर्पण |
557 | 1659 | अरुणमणि | बुधराघव | अजित पुराण |
558 | 1665 | सावाजी | मराठी कवि | सुगन्ध दशमी |
559 | 1665-1675 | मेरुचन्द्र | महीचन्द्र | - |
560 | 1676-1723 | द्यानत राय | हिन्दी कवि | रूपक काव्य |
561 | 1687-1716 | सुरेन्द्र कीर्ति | इन्द्रभूषण | पद्मावती पूजा |
562 | 1690-1693 | गंगा दास | धर्मचन्द्र भट्टा. | श्रुतस्कन्ध पूजा |
563 | 1696 | महीचन्द्र | मराठी कवि | आदि पुराण |
564 | 1697 | बुलाकी दास | हिन्दी कवि | पाण्डव पुराण |
565 | अन्त पाद | छत्रसेन | समन्तभद्र 2 | द्रौपदी हरण |
566 | अन्त पाद | भैया भगवतीदास | हिन्दी कवि | ब्रह्म विलास |
567 | ई. श. 17-18 | सन्तलाल | हिन्दी कवि | सिद्धचक्र विधान |
568 | ई. श. 17-18 | महेन्द्र सेन | विजयकीर्ति | - |
19. ईसवी शताब्दी 18 :- | ||||
569 | 1703-1734 | सुरेन्द्र भूषण | देवेन्द् भूषण | ऋषिपंचमी कथा |
570 | 1705 | गोवर्द्धन दास | पानीपतवासी पं. | शकुन विचार |
571 | पूर्वार्ध | खुशालचन्द | भट्टा. लक्ष्मीचन्द्र | व्रत कथाकोष |
- | - | - | काला | हिन्दी कवि |
572 | 1716-1728 | किशनसिंह | हिन्दी कवि | क्रियाकोश |
573 | 1717 | सहवा | मराठी कवि | नेमिनाथ पुराण |
574 | 1718 | ज्ञानचन्द | - | पञ्चास्ति टी. |
575 | 1718 | मनोहरलाल | हिन्दी कवि | धर्मपरीक्षा |
576 | 1720-72 | पं. दौलतराम | हिन्दी कवि | क्रियाकोश |
577 | 1721-29 | देवेन्द्रकीर्ति | धर्मचन्द्र | विषापहार पूजा |
578 | 1721-40 | जिनदास | भुवनकीर्ति | हरिवंश पुराण |
579 | 1722 | दीपचन्द शाह | आध्यात्मिक | चिद्विलास |
580 | 1724-44 | जिनसागर | देवेन्द्रकीर्ति | जिनकथा |
581 | 1724-32 | भूधरदास | हिन्दी कवि | जिन शतक |
582 | 1728 | लक्ष्मीचन्द्र | मराठी कवि | मेघमाला |
583 | 1730-33 | नरेन्द्रसेन 2 | छत्रसेन | प्रमाणप्रमेय |
584 | 1740-67 | पं. टोडरमल्ल | प्रकाण्ड विद्वान | गोमट्टसार टीका |
585 | 1741 | रूपचन्द पाण्डेय | - | समयसार नाटक टीका |
586 | 1754 | रायमल 3 | टोडरमल | - |
587 | 1761 | शिवलाल विद्वान् | चर्चासंग्रह | - |
588 | 1767-78 | नथमल विलाल | हिन्दी कवि | जिनगुणविलास |
589 | 1768 | जनार्दन | मराठी कवि | श्रेणिकचारित्र |
590 | 1770-1840 | पन्नालाल | पं. सदासुखके गुरु | राजवार्तिक वच. |
591 | 1773-1833 | मुन्ना लाल | पं. सदासुखके गुरु | - |
592 | 1780 | गुमानीराम | टोडरमलके पुत्र | - |
593 | 1788 | रघु | मराठी कवि | सोठ माहात्म्या |
594 | 1795-1867 | सदासुखदास | पन्नालाल | रत्नक्रण्ड वचनि. |
595 | 1798-1866 | दौलतराम 2 | हिन्दी कवि | छहढाला |
596 | अन्तिम पाद | नयनसुख | हिन्दी कवि | - |
597 | 1800-32 | मनरंग लाल | हिन्दी कवि | सप्तर्षि पूजा |
598 | 1800-48 | वृन्दावन | हिन्दी कवि | चौबीसी पूजा |
20. ईसवी शताब्दी 19 :- | ||||
599 | 1801-32 | महितसागर | मराठी कवि | रत्नत्रयपूजा |
600 | 1804-30 | जयचन्द छाबड़ा | हिन्दी भाष्यकार | समयसार वच. |
601 | 1808 | पं. जगमोहन | हिन्दी कवि | धर्मरत्नोद्योत |
602 | 1812 | रत्नकीर्ति | मराठी कवि | उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला |
603 | 1813 | दयासागर | मराठी कवि | हनुमान पुराण |
604 | 1814-35 | बुधजन | हिन्दी कवि | तत्त्वार्थबोध |
605 | 1817 | विशालकीर्ति | मराठी कवि | धर्मपरीक्षा |
606 | मध्यपाद | परमेष्ठी सहाय | हिन्दी कवि | अर्थ प्रकाशिका |
607 | 1821 | जिनसेन 6 | मराठी कवि | जंबूस्वामीपुराण |
608 | 1828 | ललितकीर्ति | जगत्कीर्ति | अनेकों कथायें |
609 | 1850 | ठकाप्पा | मराठी कवि | पाण्डव पुराण |
610 | 1856 | पं. भागचन्द | हिन्दी कवि | प्रमाण परीक्षा वचनिका |
611 | 1859 | छत्रपति | - | द्वादशानुप्रेक्षा |
612 | 1867 | मा. बिहारीलाल | विद्वान् | बृहत्जैन शब्दार्णव |
612 | 1878-1948 | ब्र. शीतल प्रशाद | आध्यात्मिक विद्वान् | समयसार की भाषा टीका |
21. ईसवी शताब्दी 20 :- | ||||
614 | 1919-1955 | आ. शान्ति सागर | वर्तमान संघाधिपति | - |
615 | 1924-1957 | वीर सागर | शान्तिसागर | पंचविंशिका |
616 | 1933 | गजाधर लाल | - | - |
617 | 1949-65 | शिवसागर | वीरसागर | - |
618 | 1965-82 | धर्मसागर | शिवसागर | - |
9. पौराणिक राज्यवंश
9.1 सामान्य वंश
म.प्र.16/258-294 भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियोंको बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान्से कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंशको अलंकृत करने लगा, क्योंकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिंहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान्से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ। कश्यप भगवान्से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंशका मुख्य हुआ। उस समय भगवान्नने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करनेका उपदेश दिया था, इसलिए जगत्के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।
9.2 इक्ष्वाकुवंश
सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथसे यह वंश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी दो शाखाएँ हो गयीं एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश। ( हरिवंशपुराण 13/33 ) सूर्यवंशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई, क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है। (पद्मपुराण - 5.4) इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध है। ( परमात्मप्रकाश 5/261 ) चन्द्रवंशकी शाखा बाहुबलीके पुत्र सोमयशसे प्रारम्भ हुई ( हरिवंशपुराण 13/16 )। इसीका नाम सोमवंश भी है, क्योंकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची हैं (पद्मपुराण - 5.12) और भी देखें सामान्य राज्य वंश। इसकी वंशावली निम्नप्रकार है - ( हरिवंशपुराण 13/1-15 ) (पद्मपुराण - 5.4-9)
स्मितयश, बल, सुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभद्रसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन्, प्रतापवान, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूर्य, इन्द्रद्युम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वंस-वीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाङ्क, मृगाङ्क आदि अनेक राजा अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर मुक्ति गये। इस प्रकार (1400000) चौदह लाख राजा बराबर इस वंशसे मोक्ष गये, तत्पश्चात् एक अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष को गये, परन्तु इनके बीच में एक-एक राजा इन्द्र पद को प्राप्त होता रहा।
पु.5 श्लोक नं. भगवान् आदिनाथ का युग समाप्त होने पर जब धार्मिक क्रियाओं में शिथिलता आने लगी, तब अनेकों राजाओं के व्यतीत होने पर अयोध्या नगरी में एक धरणीधर नामक राजा हुआ (57-59)
पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान् का अन्तराल शुरू होने पर अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नामक बड़ा राजा हुआ।(21/73-74) इसके भी महागुणवान् `सुरेन्द्रमन्यु' नामक पुत्र हुआ। (21/75)
सौदास, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, तुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, (22.131) ((22.145) वीरसेन, प्रतिमन्यु, दीप्ति, कमलबन्धु, प्रताप, रविमन्यु, वसन्ततिलक, कुबेरदत्त, कीर्तिमान्, कुन्थुभक्ति, शरभरथ, द्विरदरथ, सिंहदमन, हिरण्यकशिपु, पुंजस्थल, ककुत्थ, रघु। (अनुमानतः ये ही रघुवंशके प्रवर्तक हों अतः देखें रघुवंश। (22.153-158)।
9.3 उग्रवंश
हरिवंशपुराण 13/33 सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व चन्द्रवंश की तथा उसी समय कुरुवंश और उग्रवंश की उत्पत्ति हुई।
हरिवंशपुराण 22/51-53 जिस समय भगवान् आदिनाथ भरत को राज्य देकर दीक्षित हुए, उसी समय चार हजार भोजवंशीय तथा उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए। पीछे चलकर तप भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओं में से नमि विनमि हैं। दे.-`सामान्य राज्यवंश'।
नोट - इस प्रकार इस वंश का केवल नामोल्लेख मात्र मिलता है।
9.4 ऋषिवंश
पद्मपुराण - 5.2 "चन्द्रवंश (सोमवंश) को ही ऋषिवंश कहा है। विशेष देखें सोमवंश"
9.5 कुरुवंश
महापुराण 20/111 "ऋषभ भगवान् को हस्तिनापुर में सर्वप्रथम आहारदान करके दान तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाला राजा श्रेयान् कुरुवंशी थे। अतः उनकी सर्व सन्तति भी कुरुवंशीय है। और भी देखें सामान्य राज्यवंश'
नोट - हरिवंश पुराण व महापुराण दोनों में इसकी वंशवाली दी गयी है। पर दोनों में अन्तर है। इसलिए दोनों की वंशावली दी जाती है।
प्रथम वंशावली -( हरिवंशपुराण 45/6-38 )
श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुतमार, कुरु, कुरुचन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोड़ों राजाओं पश्चात्...तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, ब्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि करोड़ों राजा....धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैकड़ों राजा...धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए... भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए.. विजय महाराज, जयराज... इनके पश्चात् इसी वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु, बृहध्वज...तदनन्तर विश्वसेन, 16 वें तीर्थंकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काङ्क, कुरु...इसी वंशमें सूर्य भगवान्कुन्थुनाथ (ये तीर्थंकर व चक्रवर्ती थे)...तदनन्तर अनेक राजाओं के पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व 18 वें तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप, चारुपद्म,.....अनेक राजाओंके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत
द्वितीय वंशावली
( पाण्डवपुराण/ सर्ग/श्लोक) जयकुमार-अनन्तवीर्य, कुरु, कुरुचन्द, शुभङ्कर, धृतिङ्कर,.....धृतिदेव, गङ्गदेव, धृतिदेव, धृत्रिमित्र,......धृतिक्षेम, अक्षयी, सुव्रत, व्रातमन्दर, श्रीचन्द्र, कुलचन्द्र, सुप्रतिष्ठ,......भ्रमघोष, हरिघोष, हरिध्वज, रविघोष, महावीर्य, पृथ्वीनाथ, पृथु गजवाहन,...विजय, सनत्कुमार (चक्रवर्ती), सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वध्वज, बृहत्केतु.....विश्वसेन, शान्तिनाथ (तीर्थंकर), ( पाण्डवपुराण 4/2-9 )। शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, चन्द्रचिह्न, कुरु....सूरसेन, कुन्थुनाथ भगवान् (6/2-3, 27)....अनेकों राजा हो चुकनेपर सुदर्शन (7/7), अरहनाथ, भगवान् अरविन्द, सुचार, शूर, पद्मरथ, मेघरथ, विष्णु व पद्मरथ (7/36-37) (इन्हीं विष्णुकुमारने अकम्पनाचार्य आदि 700 मुनियोंका उपसर्ग दूर किया था) पद्मनाभ, महापद्म, सुपद्म, कीर्ति, सुकीर्ति वसुकीर्ति, वासुकि,.....अनेकों राजाओंके पश्चात् शान्तनु (शक्ति) राजा हुआ।
9.6 चन्द्रवंश
(5/12) सोम नाम चन्द्रमा का है सो सोमवंश को ही चन्द्रवंश कहते हैं। ( हरिवंशपुराण 13/16 ) विशेष देखें सोमवंश
9.7 नाथवंश
पाण्डवपुराण 2/163-165 "इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है। देखें [[ ]]`सामान्य राज्यवंश'
9.8 भोजवंश
हरिवंशपुराण 22/51-53 जब आदिनाथ भगवान् भरतेश्वर को राज्य देकर दीक्षित हुए थे, तब उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार राजा भी तप में स्थित हुए थे। परन्तु पीछे तप भ्रष्ट हो गये। उसमेंसे नमी व विनमि दो भाई भी थे। हरिवंशपुराण 55/72,111 "कृष्ण ने नेमिनाथ के लिए जिस कुमारी राजीमती की याचना की थी वह भोजवंशियों की थी। नोट - इस वंश का विस्तार उपलब्ध नहीं है।
9.9 मातङ्गवंश
हरिवंशपुराण 22/110-113 "राजा विनमि के पुत्रों में जो मातङ्ग नामका पुत्र था, उसी से मातङ्गवंश की उत्पत्ति हुई। सर्व प्रथम राजा विनमि का पुत्र मातङ्ग हुआ। उसके बहुत पुत्र-पौत्र थे, जो अपनी-अपनी क्रियाओं के अनुसार स्वर्ग व मोक्ष को प्राप्त हुए। इसके बहुत दिन पश्चात् इसी वंश में एक प्रहसित राजा हुआ, उसका पुत्र सिंहदृष्ट था। नोट - इस वंश का अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं है।
1. मातङ्ग विद्याधरोंके चिन्ह -
हरिवंशपुराण 26/15-22 मातङ्ग जाति विद्याधरों के भी सात उत्तर भेद हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं - मातङ्ग = नीले वस्त्र व नीली मालाओं सहित। श्मशान निलय = धूलि धूसरति तथा श्मशान की हड्डियों से निर्मित आभूषणों से युक्त। पाण्डुक = नील वैडूर्य मणि के सदृश नीले वस्त्रों से युक्त। कालश्वपाकी = काले मृग चर्म व चमड़े से निर्मित वस्त्र व मालाओं से युक्त। पार्वतये = हरे रंग के वस्त्रों से पत्रों की मालाओं से युक्त। वार्क्षमूलिक = सर्प चिन्ह के आभूषण से युक्त।
9.10 यादव वंश
हरिवंशपुराण 18/5-6 हरिवंश में उत्पन्न यदु राजा से यादववंश की उत्पत्ति हुई। देखो हरिवंश
9.11 रघुवंश
इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न रघु राजा से ही सम्भवतः इस वंश की उत्पत्ति है - देखें इक्ष्वाकुवंश 22.160-162
9.12 राक्षसवंश
पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक मेघवाहन नामक विद्याधर को राक्षसों के इन्द्र भीम व सुभीम ने भगवान् अजितनाथ के समवशरण में प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीप में लंका का राज्य दिया था। (5.159-160) तथा पाताल लंका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। (5/161-167) इसी मेघवाहन की सन्तान परम्परा में एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसी के नाम पर इस वंश का नाम `राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ। (5/378) इसकी वंशावली निम्न प्रकार है-
इस प्रकार मेघवाहन की सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही (5.377) उसी सन्तान परम्परा में एक मनोवेग राजा हुआ (5.378)
भीमप्रभ, पूर्जाह आदि 108 पुत्र, जिनभास्कर, संपरिकीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, चिन्तागति, इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवन, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड लंकाशोक, मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ, नक्षत्रदम आदि करोड़ों विद्याधर इस वंशमें हुए...धनप्रभ, कीर्तिधवल। (5.382-388)
भगवान् मुनिसुव्रत के तीर्थ में विद्युत्केश नामक राजा हुआ। (6.222-223) इसका पुत्र सुकेश हुआ। (6.341)
9.13 वानरवंश
पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक नं. राक्षस वंशीय राजा कीर्तिध्वज ने राजा श्रीकण्ठ को (जब वह पद्मोत्तर विद्याधर से हार गया) सुरक्षित रूप से रहने के लिए वानर द्वीप प्रदान किया था (6.83-84)। वहाँ पर उसने किष्कु पर्वतपर किष्कुपुर नगरीकी रचना की। वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठ को बहुत अधिक प्रेम हो गया था। (6.107-122)। तदनन्तर इसी श्रीकण्ठ की पुत्र परम्परा में अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाह के समय मण्डप में वानरों की पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभ ने वृद्ध मन्त्रियों से यह जाना कि "हमारे पूर्वजनों ने वानरों से प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जान कर राजा ने अपने मुकुटों में वानरों के चिह्न कराये। उसी समय से इस वंश का नाम वानरवंश पड़ गया। (6.175-217) (इसकी वंशावली निम्न प्रकार है) :-
पद्मपुराण 6/ श्लोक विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का राजा अतीन्द्र (3) था। तदनन्तर श्रीकण्ठ (5), वज्रकण्ठ (152), वज्रप्रभ (160), इन्द्रमत (161) मेरु (161), मन्दर (161), समीरणगति (161), रविप्रभ (161), अमरप्रभ (162), कपिकेतु (198), प्रतिबल (200), गगनानन्द (205), खेचरानन्द (205), गिरिनन्दन (205), इस प्रकार सैकड़ों राजा इस वंश में हुए, उनमें से कितनों ने स्वर्ग व कितनों ने मोक्ष प्राप्त किया।(206) जिस समय भगवान् मुनिसुव्रत का तीर्थ चल रहा था (222) तब इसी वंश में एक महोदधि राजा हुआ (218)। उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ (349)।
9.14 विद्याधर वंश
जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वर को राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवंशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तप में स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये। उनमें-से नमि और विनमि आकर भगवान् के चरणों में राज्य की इच्छा से बैठ गये। उसी समय रक्षा में निपुण धरणेन्द्र ने अनेकों देवों तथा अपनी दीति और अदीति नामक देवियों के साथ आकर इन दोनों को अनेकों विद्याएँ तथा औषधियाँ दीं। ( हरिवंशपुराण 22/51-53 ) इन दोनों के वंश में उत्पन्न हुए पुरुष विद्याएँ धारण करने के कारण विद्याधर कहलाये।
(पद्मपुराण - 6.10)
1. विद्याधर जातियाँ
हरिवंशपुराण 22/76-83 नमि तथा विनमि ने सब लोगों को अनेक औषधियाँ तथा विद्याएँ दीं। इसलिए वे वे विद्याधर उस उस विद्यानिकाय के नाम से प्रसिद्ध हो गये। जैसे.....गौरी विद्या से गौरिक, कौशिकी से कौशिक, भूमितुण्ड से भूमितुण्ड, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकुक से शंकुक, पाण्डुकीसे पाण्डुकेय, कालक से काल, श्वपाक से श्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालयगण, पांशुमूलिक से पांशुमूलिक, वृक्षमूलसे वार्क्षमूल, इस प्रकार विद्या निकायों से सिद्ध होने वाले विद्याधरों का वर्णन हुआ।
नोट - कथन पर से अनुमान होता है कि विद्याधर जातियाँ दों भागों में विभक्त हो गयीं-आर्य व मातंग।
2. आर्य विद्याधरों के चिह्न
हरिवंशपुराण/26/6-14 आर्य विद्याधरों की आठ उत्तर जातियाँ हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं-गौरिक-हाथ में कमल तथा कमलों की माला सहित। गान्धार-लाल मालाएँ तथा लाल कम्बल के वस्त्रों से युक्त। मानवपुत्रक-नाना वर्णों से युक्त पीले वस्त्रोंसहित। मनुपुत्रक-कुछ-कुछ लाल वस्त्रों से युक्त एवं मणियों के आभूषणों से सहित। मूलवीर्य-हाथ में औषधि तथा शरीर पर नाना प्रकार के आभूषणों और मालाओं सहित। भूमितुण्ड-सर्व ऋतुओं की सुगन्धि से युक्त स्वर्णमय आभरण व मालाओं सहित। शंकुक-चित्रविचित्र कुण्डल तथा सर्पाकार बाजूबन्द से युक्त। कौशिक-मुकुटों पर सेहरे व मणि मय कुण्डलों से युक्त।
3. मातंग विद्याधरोंके चिन्ह
- देखें मातंगवंश सं - 9।
4. विद्याधर की वंशावली
1. विनमि के पुत्र- हरिवंशपुराण/22/103-106 "राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिधूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ...पुत्रों के सिवाय भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएँ हुईं। इनमें-से सुभद्रा भरत चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में-से एक स्त्री-रत्न थी।
2. नमि के पुत्र- हरिवंशपुराण/22/107/108 नमि के भी रवि, सोम, पुरहूत, अंशुमान, हरिजय, पुलस्त्य, विजय, मातंग, वासव, रत्नमाली ( हरिवंशपुराण/13/20 ) आदि अत्यधिक कान्ति के धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नाम की दो कन्याएँ भी हुई।
हरिवंशपुराण/13/20-25 नमि के पुत्र रत्नमाली के आगे उत्तरोत्तर रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रजंघ, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, सुवज्र, वज्रभृत्, वज्राभ, वज्रबाहु, वज्रसंज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजानु, वज्रवान, विद्युन्मुख, सुवक्त्र, विद्युदंष्ट्र, विद्युत्वान्, विद्युदाभ, विद्युद्वेग, वैद्युत, इस प्रकार अनेक राजा हुए। (पद्मपुराण - 5.16-21)
(पद्मपुराण - 5.25-26) ......तदन्तर इसी वंश में विद्युद्दृढ राजा हुआ (इसने संजयन्त मुनिपर उपसर्ग किया था)। तदनन्तर (पद्मपुराण - 5/48-54) दृढरथ, अश्वधर्मा, अश्वायु, अश्वध्वज, पद्मनिभ, पद्ममाली, पद्मरथ, सिंहयान, मृगोद्धर्मा, सिंहसप्रभु, सिंहकेतु, शशांकमुख, चन्द्र, चन्द्रशेखर, इन्द्र, चन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध, चक्रध्वज, मणिग्रीव, मण्यंक, मणिभासुर, मणिस्यन्दन, मण्यास्य, विम्बोष्ठ, लम्बिताधर, रक्तोष्ठ, हरिचन्द्र, पुण्यचन्द्र, पूर्णचन्द्र बालेन्दु, चन्द्रचूड़, व्योमेन्दु, उडुपालन, एकचूड़, द्विचूड़, त्रिचूड़, वज्रचूड़, भरिचूड़, अर्कचूड़, वह्निजरी, वह्नितेज, इस प्रकार बहुत राजा हुए। अजितनाथ भगवान् के समय में इस वंश में एक पूर्णधन नामक राजा हुआ (पद्मपुराण - 5.78) जिसके मेघवाहन ने धरणेन्द्र से लंका का राज्य प्राप्त किया (पद्मपुराण - 5.149-160)। उससे राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई। - देखें राक्षस वंश
9.15 श्री वंश
हरिवंशपुराण 13/33 भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए उनका उत्कृष्ट वंश श्री वंश प्रचलित हुआ। नोट-इस वंश का नामोल्लेख के अतिरिक्त अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं।
9.16 सूर्यवंश
हरिवंशपुराण 13/33 ऋषभनाथ भगवान् के पश्चात् इक्ष्वाकु वंश की दो शाखाएँ हों गयीं-एक सूर्यवंश व दूसरी चन्द्रवंश।
(पद्मपुराण - 5.4) सूर्यवंश की शाखा भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से प्रारम्भ हुई क्योंकि अर्क नाम सूर्य का है।
(पद्मपुराण - 5.561) इस सूर्यवंश का नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध है। - देखें इक्ष्वाकुवंश
9.17 सोमवंश
हरिवंशपुराण 13/16 भगवान् ऋषभदेव की दूसरी रानी से बाहुबली नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, उसके भी सोमयश नाम का सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। `सोम' नाम चन्द्रमा का है सो उसी सोमयश से सोमवंश अथवा चन्द्रवंश की परम्परा चली। ( पद्मपुराण 10/13 ) (पद्मपुराण - 5.2) चन्द्रवंश का दूसरा नाम ऋषिवंश भी है। हरिवंशपुराण 13/16-17; (पद्मपुराण - 5.11-14) ।
9.18 हरिवंश
हरिवंशपुराण 15/57-58 हरि राजा के नाम पर इस वंश की उत्पत्ति हुई। (और भी देखें सामान्य राज्य वंश सं - 1) इस वंश की वंशावली आगम में तीन प्रकार से वर्णन की गयी। जिसमें कुछ भेद हैं। तीनों ही नीचे दी जाती हैं।
1. हरिवंश पुराण की अपेक्षा
हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक राजा का पुत्र हरि हुआ। इसी से इस वंश की उत्पत्ति हुई। उसके पश्चात् उत्तरोत्तर क्रम से महागिरी, गिरि, आदि सैंकड़ों राजा इस वंश में हुए (15/57-61)। फिर भगवान् मुनिसुव्रत (16/12), सुव्रत (16/55) दक्ष, ऐलेय (17/2,3), कुणिम (17/22) पुलोम, (17/24)
मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र, वसु (असत्य से नरक गया) (17/31-37)।
तदनन्तर बृहद्रथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, वप्रथु, बिन्दुसार, देवगर्भ, शतधनु,....लाखों राजाओंके पश्चात् निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध के कालयवनादि सैकड़ों पुत्र हुए थे। (18/17-25) बृहद्वसुका पुत्र सुबाहु, तदनन्तर, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान, भानु, यवु, सुभानु, कुभानु, भीम आदि सैकड़ों राजा हुए। (18/1-5) भगवान् नमिनाथ के तीर्थ में राजा यदु (18/5) हुआ जिससे यादववंश की उत्पत्ति हुई। - देखें यादववंश ।
2. पद्यपुराण की अपेक्षा
पद्मपुराण 21/ श्लोक सं. हरि, महागिरि, वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला, सम्भूत, भूतदेव, आदि सैकड़ों राजा हुए (पद्मपुराण - 21.8-9)। तदनन्तर इसी वंश में सुमित्र (10), मुनिसुव्रतनाथ (22), सुव्रत, दक्ष, इलावर्धन, श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारथ, पुलोमादि हजारों राजा बीतने पर वासवकेतु राजा जनक मिथिला का राजा हुआ। (49-55)
3. महापुराण व पाण्डवपुराण की अपेक्षा
महापुराण 70/90-101 मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि सैंकड़ों राजा हुए। तदनन्तर इसी वंशमें
10. आगम समयानुक्रमणिका
नोट-प्रमाणके लिए देखें उस उसके रचयिता का नाम ।
संकेत सं. = संस्कृत; प्रा. = प्राकृत; अप. = अपभ्रंश; टी. = टीका; वृ. = वृत्ति; व. = वचनिका; प्र. = प्रथम; सि. = सिद्धान्त; श्वे. = श्वेताम्बर; क. = कन्नड; भ. = भट्टारक, भा. = भाषा; त. = तमिल; मरा. = मराठी; हिं. = हिन्दी; श्रा. = श्रावकाचार।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रमांक | ग्रन्थ | समय ई. सन् | रचयिता | विषय | भाषा |
---|---|---|---|---|---|
1. ईसवी शताब्दी 1 :- | |||||
1 | लोकविनिश्चय | अज्ञात | अज्ञात | यथानाम (गद्य) | प्रा. |
2 | भगवती आरा | पूर्व पाद | शिवकोटि | यत्याचार | प्रा. |
3 | कषाय पाहुड़ | पूर्व पाद | गुणधर | मूल 180 गाथा | प्रा. |
4 | शिल्पड्डिकार | मध्य पाद | इलंगोवडि | जीवनवृत्त (काव्य) | त. |
5 | जोणि पाहुड़ | 43 | धरसेन | मन्त्र तन्त्र | प्रा. |
6 | षट्खण्डागम | 66-156 | भूतबलि | कर्मसिद्धान्त मूलसूत्र | प्रा. |
7 | व्याख्या प्र. | मध्यपाद | बप्पदेव | आद्य 5 खण्डोंकी टीका | प्रा. |
2. ईसवी शताब्दी 2 :- | |||||
8 | आप्तमीमांसा | 120-185 | समन्तभद्र | न्याय | सं. |
9 | स्तुति विद्या (जिनशतक) | - | - | भक्ति | सं. |
10 | स्वयंभूस्तोत्र | - | - | न्याययुक्त भक्ति | सं. |
11 | जीव सिद्धि | - | - | न्याय | सं. |
12 | तत्त्वानुशासन | - | - | न्याय | सं. |
13 | युक्त्यनुशासन | - | - | न्याय | सं. |
14 | कर्मप्राभृत टी. | - | - | कर्मसिद्धान्त | सं. |
15 | षटखण्ड टी. | - | - | आद्य 5 खण्डों पर | सं. |
16 | गन्धहस्ती-महाभाष्य | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
17 | रत्नकरण्ड श्रावकाचार. | - | - | श्रावकाचार | सं. |
18 | पद्धति टी. | 127-179 | शामकुण्ड | कषाय पा. तथा षट्खण्डागमकी टीका | सं. |
19 | परिकर्म | 127-179 | कुन्दकुन्द | षट्खण्डके आद्य 5 खण्डोंकी टीका | प्रा. |
20 | समयसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
21 | प्रवचनसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
22 | नियमसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
23 | रयणसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
24 | अष्ट पाहुड़ | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
25 | पञ्चास्तिकाय | - | - | तत्त्वार्थ | प्रा. |
26 | वारस अणुवेक्खा | - | - | वैराग्य | प्रा. |
27 | मूलाचार | - | - | यत्याचार | प्रा. |
28 | दश भक्ति | - | - | भक्ति | प्रा. |
29 | कार्तिकेयानुप्रे. | मध्य पाद | कुमार स्वामी | वैराग्य | प्रा. |
30 | कषाय पाहुड़ | 143-173 | यतिवृषभ | मूल 180 गाथाओं पर चूर्णिसूत्र | प्रा. |
31 | तिल्लोयपण्णत्ति | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
32 | जम्बूद्वीप समास | 179-243 | उमास्वामी | लोकविभाग | सं. |
33 | तत्त्वार्थसूत्र | - | - | - | सं. |
3. ईसवी शताब्दी 3 :- | |||||
34 | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य | - | उमास्वाति संदिग्ध हैं। | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
4. ईसवी शताब्दी 4 :- | |||||
35 | पउम चरिउ | पूर्वपाद | विमलसूरि | प्रथमानुयोग | अप. |
36 | द्वादशा चक्र | 357 | मल्लवादी | न्याय (नयवाद) | सं. |
5. ईसवी शताब्दी 5 :- | |||||
37 | जैनेन्द्र व्याकरण | मध्यपाद | पूज्यपाद | संस्कृत व्याकरण | सं. |
38 | मुग्धबोध | - | - | संस्कृत व्याकरण | सं. |
39 | शब्दावतार | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
40 | छन्द शास्त्र | - | - | संस्कृत छन्द शास्त्र | सं. |
41 | वैद्यसार | - | - | आयुर्वेद | सं. |
42 | सिद्धि प्रिय स्तोत्र | - | - | चतुर्विंशतिस्तव | सं. |
43 | दशभक्ति | - | - | भक्ति | सं. |
44 | शान्त्यष्टक | - | - | भक्ति | सं. |
45 | सार संग्रह | - | - | भक्ति | सं. |
46 | सर्वार्थ सिद्धि | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
47 | आत्मानुशासन | - | - | त्रिविध आत्मा | सं. |
48 | समाधि तन्त्र | - | - | अध्यात्म | सं. |
49 | इष्टोपदेश | - | - | प्रेरणापरक उपदेश | सं. |
50 | कर्म प्रकृति संग्रहिणी | 443 | शिवशर्म सूरि (श्वे.) | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
51 | शतक | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
52 | शतक चूर्णि | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
53 | लोक विभाग | 458 | सर्वनन्दि | यथा नाम | प्रा. |
54 | बन्ध स्वामित्व | 480-528 | हरिभद्रसूरि (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
55 | जंबूदीव संघायणी | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
56 | षट्दर्शन समु. | - | - | यथा नाम | सं. |
57 | कर्मप्रकृति चूर्णि | 493-693 | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
6. ईसवी शताब्दी 6 :- | |||||
58 | परमात्मप्रकाश | उत्तरार्ध | योगेन्दुदेव | अध्यात्म | अप. |
59 | योगसार | - | - | अध्यात्म | अप. |
60 | दोहापाहुड़ | - | - | अध्यात्म | अप. |
61 | अध्यात्म सन्दोह | - | - | अध्यात्म | अप. |
62 | सुभाषित तन्त्र | - | - | अध्यात्म | अप. |
63 | तत्त्वप्रकाशिका | श.6 उत्तरार्ध | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | प्रा. |
64 | अमृताशीति | - | - | अध्यात्म | अप. |
65 | निजाष्टक | - | - | अध्यात्म | अप |
66 | नवकार श्रावकाचार | - | - | श्रावकाचार | अप. |
67 | पंचसंग्रह | श.5-8 | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
68 | चन्द्रप्रज्ञप्ति | लगभग 560 | अज्ञात (श्वे.) | ज्योतिष लोक | प्रा. |
69 | सूर्यप्रज्ञप्ति | - | - | ज्योतिष लोक | प्रा. |
70 | ज्योतिष्करण्ड | - | - | ज्योतिष लोक | प्रा. |
71 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
72 | कल्याण मन्दिर | 568 | सिद्धसेन | भक्ति (स्तोत्र) | सं. |
73 | सन्मति सूत्र | - | दिवाकर | तत्त्वार्थ, नयवाद | प्रा. |
74 | द्वात्रिंशिका | - | - | भक्ति | सं. |
75 | एकविंशतिगुणस्थान प्रकरण | - | - | जीव काण्ड | सं. |
76 | शाश्वत जिनस्तुति | - | भक्ति | सं. | |
77 | रामकथा | 600 | कीर्तिधर | इसी के आधार पर पद्मपुराण रचा गया | सं. |
78 | विशेषावश्यक भाष्य | 593 | जिनभद्रगणी (श्वे.) | जैन दर्शन | प्रा. |
79 | त्रिलक्षण कदर्थन | ई. श. 6-7 | पात्रकेसरी | न्याय | सं. |
80 | जिनगुण स्तुति (पात्रकेसरी स्त.) | - | - | भक्ति | सं. |
7. ईसवी शताब्दी 7 :- | - | - | |||
81 | सप्ततिका (सत्तरि) | पूर्वपद | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
82 | बृ. क्षेत्र समास | 609 | जिनभद्र गणी | अढाई द्वीप | प्रा. |
83 | बृ. संघायणी सुत्त | - | - | आयु अवगाहना आदि | प्रा. |
84 | भक्तामर स्तोत्र | 618 | मानतुंग | भक्ति | सं. |
85 | राजवार्तिक | 620-680 | अकलंक भट्ट | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
86 | अष्टशती | - | - | आप्त मी. टीका | सं. |
87 | लघीयस्त्रय | - | - | न्याय | सं. |
88 | बृहद् त्रयम् | - | - | न्याय | सं. |
89 | न्यायविनिश्चय | - | - | न्याय | सं. |
90 | सिद्धि विनिश्चय | - | - | न्याय | सं. |
91 | प्रमाण संग्रह | - | - | न्याय | सं. |
92 | न्याय चूलिका | - | - | न्याय | सं. |
93 | स्वरूप सम्बो. | - | - | अध्यात्म | सं. |
94 | अकलंक स्तोत्र | - | - | भक्ति | सं. |
95 | जीवक चिन्तामणि | मध्यपाद | तिरुतक्कतेवर | तमिल काव्य | त. |
96 | पद्मपुराण | 677 | रविषेण | जैन रामायण | सं. |
97 | लघु तत्त्वार्थ सूत्र | 700 | प्रभाचन्द्रबृ. | तत्त्वार्थ | सं. |
98 | कर्म स्तव | ई.श. 7-8 | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
8. ईसवी शताब्दी 8 :- | |||||
99 | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य लघु वृत्ति | मध्यपाद | हरिभद्र (याकिनी सूनु) | तत्त्वार्थ | सं. |
100 | पउमचरिउ | 734-840 | कविस्वयंभू | जैन रामायण | अप. |
101 | रिट्ठणेमि चरिउ | - | - | नेमिनाथ चारित्र | अप. |
102 | स्वयम्भू छन्द | - | - | छन्द शास्त्र | अप. |
103 | विजयोदया | 736 | अपराजित सूरि | भगवती आराधना टीका | सं. |
104 | प्रामाण्य भंग | मध्यपाद | अनन्तकीर्ति | न्याय | सं. |
105 | सत्कर्म | 770-827 | वीरसेन | षट्खण्डागमका अतिरिक्त अधि. | प्रा. |
106 | धवला | - | - | षट्खण्डागम टी. | प्रा. |
107 | जय धवला | - | - | कषाय पाहुड़ टी. | प्रा. |
108 | शतकचूर्णि बृहत् | 770-860 | अज्ञात (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | सं. |
109 | गद्य चिन्तामणि | - | वादीभसिंह | जीवन्धर चरित्र | सं. |
110 | छत्र चूड़ामणि | - | - | जीवन्धर चरित्र | सं. |
111 | अष्ट सहस्री | - | विद्यानन्दि | अष्टशतीकी टी. | सं. |
112 | आप्त परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
113 | पत्र परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
114 | प्रमाण परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
115 | प्रमाण मीमांसा | - | - | न्याय | सं. |
116 | जल्प निर्णय | - | - | न्याय | सं. |
117 | नय विवरण | - | - | न्याय | सं. |
118 | युक्त्यनुशासन | - | - | न्याय | सं. |
119 | सत्य शासन परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
120 | श्लोकवार्तिक | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
121 | विद्यानन्द महोदय | - | - | सर्वप्रथम रचना न्याय | सं. |
122 | बुद्धेशभवन व्याख्यान | - | - | न्याय | सं. |
123 | श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र | - | - | अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तोत्र | सं. |
124 | वाद न्याय | 776 | कुमार नन्दि | न्याय | सं. |
125 | हरिवंश पुराण | 783 | जिनसेन 1 | प्रथमानुयोग | सं. |
126 | चन्द्रोदय | 797 से पहले | प्रभाचन्द्र 3 | - | सं. |
127 | ज्योतिर्ज्ञानविधि | 799 | श्रीधर | ज्योतिष शास्त्र | सं. |
128 | द्विसन्धान महाकाव्य | अन्तपाद | धनञ्जय | पाण्डव चरित्र | सं. |
129 | विषापहार | - | - | स्तोत्र | सं. |
130 | धनञ्जय निघण्टु | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
131 | तत्त्वार्थाधिगम भाष्यवृत्ति | ई.श. 8-9 | सिद्धसेनगणी | तत्त्वार्थ भाष्यकी टीका | सं. |
132 | जातक तिलक | - | श्रीधर | ज्योतिष | सं. |
133 | ज्योतिर्ज्ञानविधि | - | - | ज्योतिष | सं. |
134 | गणितसार संग्रह | 800-830 | महावीराचा. | ज्योतिष | सं. |
9 ईसवी शताब्दी 9 :- | |||||
135 | केवलिभुक्ति प्रकरण | 814 | शाकटायन पाल्यकीर्ति | यथा नाम | सं. |
136 | स्त्रीमुक्ति प्रकरण | - | - | यथा नाम | सं. |
137 | शब्दानुशासन | - | - | सं. व्याकरण | सं. |
138 | आदिपुराण | 818-878 | जिनसेन 2 | ऋषभदेव चरित | सं. |
139 | पार्श्वाभ्युदय | - | - | कमठ उपसर्ग | सं. |
140 | कर्मविपाक | मध्यपाद | गर्गर्षि श्वे. | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
141 | कल्याणकारक | 828 | उग्रादित्य | आयुर्वेद | सं. |
142 | वागर्थ संग्रह | 837 | कविपरमेष्ठी | 63 शलाका पु. | सं. |
143 | सत्कर्म पंजिका | 827 के पश्चात् | अज्ञात | - | सं. |
144 | लीलाविस्तार टीका | 840-852 | हेमचन्द्र सूरि (श्वे.) | - | सं. |
145 | लघुसर्वज्ञ सिद्धि | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | न्याय | सं. |
146 | बृ. सर्वज्ञ सिद्धि | - | - | न्याय | सं. |
147 | जिनदत्त चरित | 870-900 | गुणभद्र | यथा नाम | सं. |
148 | उत्तरपुराण | 898 | - | 23 तीर्थंकरोंका जीवन वृत्त | सं. |
149 | आत्मानुशासन | - | - | त्रिविध आत्मा | सं. |
150 | भविसयत्त कहा | अन्तपाद | धनपाल कवि | यथा नाम | अप. |
10. ईसवी शताब्दी 10 :- | |||||
151 | उपमिति भव प्रपञ्च कथा | 905 | सिद्धर्थि (श्वे.) | अध्यात्म | सं. |
152 | आत्मख्याति | 905-955 | अमृतचन्द्र | समयसार टीका | सं. |
153 | समयसार कलश | - | - | - | सं. |
154 | तत्त्वप्रदीपिका | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
155 | तत्त्वप्रदीपिका | - | - | पञ्चास्तिकाय टीका | सं. |
156 | तत्त्वार्थसार | - | - | अध्यात्म | सं. |
157 | पुरुषार्थ सिद्धि उपाय | - | - | श्रावकाचार | सं. |
158 | जीवन्धर चम्पू | मध्यपाद | हरिचन्द्र | जीवन्धर चरित्र | सं. |
159 | त्रिलोकसार टी. | मध्यपाद | माधवचन्द्र त्रैविद्य | लोक विभाग | सं. |
160 | नीतिसार | मध्यपाद | इन्द्रनन्दि | यथानाम | सं. |
161 | वाद महार्णव | मध्यपाद | अभयदेव (श्वे.) | न्याय | सं. |
162 | सप्ततिका चूर्णि | मध्यपाद | अज्ञात (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
163 | बृ. कथा कोष | 931 | हरिषेण | यथानाम | सं. |
164 | भावसंग्रह | 948 | देवसेन | अन्य मत निन्दा | प्रा. |
165 | दर्शन | 933 | - | अन्य मत निन्दा | प्रा. |
166 | तत्त्वसार | 933-955 | - | अध्यात्म | प्रा. |
167 | ज्ञानसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
168 | आराधनासार | - | - | चतुर्विध आराधना | प्रा. |
169 | आलाप पद्धति | - | - | नयवाद | प्रा. |
170 | नय चक्र | - | - | नयवाद | प्रा. |
171 | सार समुच्चय | 937 | कुलभद्र | तत्त्वार्थ | सं. |
172 | ज्वालामालिनी कल्प | 939 | इन्द्रनन्दि | मन्त्र तन्त्र | सं. |
173 | सत्त्व त्रिभंगी | 939 | कनकन्न्दि | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
174 | पार्श्वपुराण | 942 | पद्मकीर्ति | यथा नाम | सं. |
175 | तात्पर्यवृत्ति | 943 | समन्तभद्र 2 | अष्टसहस्री टीका | सं. |
176 | योगसार | 943 | अमितगति 1 | अध्यात्म | सं. |
177 | पुराण संग्रह | 943-973 | दामनन्दि | यथा नाम | सं. |
178 | महावृत्ति | 943-993 | अभयनन्दि | जैन व्याकरण टी. | सं. |
179 | कर्मप्रकृति रहस्य | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
180 | तत्त्वार्थ वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थ सूत्र टीका | सं. |
181 | आयज्ञान | उत्तरार्ध | भट्टवोसरि | ज्योतिष | प्रा. |
182 | जयसहर चरिउ | उत्तरार्ध | पुष्पदन्तकवि | यशोधर चरित्र | अप. |
183 | णायकुमार चरिउ | - | - | नागकुमार चरित्र | अप. |
184 | नीतिवाक्यामृत | 943-968 | सोमदेव | राज्यनीति | सं. |
185 | यशस्तिलक | - | - | यशोधर चरित्र | सं. |
186 | अध्यात्मतरंगिनी | - | - | अध्यात्म | सं. |
187 | स्याद्वादो नषद् | - | - | न्याय | सं. |
188 | षण्णवति करण | - | - | न्याय | सं. |
189 | त्रिवर्ण महेन्द्र | - | - | न्याय | सं. |
190 | मातलि जल्प | - | - | न्याय | सं. |
191 | युक्तिचिन्तामणि | - | - | न्याय | सं. |
192 | योग मार्ग | - | - | अध्यात्म | सं. |
193 | चन्द्रप्रभ चरित्र | 950-999 | वीरनन्दि | यथानाम काव्य | सं. |
194 | शिल्पि संहिता | - | - | - | सं. |
195 | अर्हत्प्रवचन | 950-1020 | प्रभाचन्द्र 5 | तत्त्वार्थ | सं. |
196 | प्रवचन सारोद्धार | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
197 | पञ्चास्ति प्रदीप | - | - | पञ्चास्तिकाय टी. | सं. |
198 | गद्यकथा कोष | - | - | यथा नाम | सं. |
199 | तत्त्वार्थवृत्तिपद | - | - | सर्वार्थसिद्धि टीका | सं. |
200 | समाधितन्त्रटी. | - | - | यथा नाम | सं. |
201 | महापुराणतिसट्टिमहापुरिस | 965 | पुष्पदन्तकवि | आदिपुराण व उत्तरपुराण | अप. |
202 | करकंड चरिउ | 965-1051 | कनकामर | महाराजा करकंडु | अप. |
203 | प्रद्युम्न चरित | 974 | महासेन | यथा नाम | सं. |
204 | सिद्धिविनिश्चय टीका | 975-1022 | अनन्तवीर्य | यथा नाम न्याय | सं. |
205 | प्रमाणसंग्रहालंकार | - | प्रमाण संग्रह टीका | सं. | |
206 | जम्बूदीव पण्णत्ति | 977-1043 | पद्मनन्दि | लोक विभाग | प्रा. |
207 | पंचसंग्रह वृत्ति | - | - | जीवकाण्ड | प्रा. |
208 | धम्मसायण | - | - | वैराग्य | प्रा. |
209 | गोमट्टसार | 981 के | नेमिचन्द्र | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
210 | त्रिलोकसार | आसपास | (सिद्धान्त चक्रवर्ती) | लोक विभाग | प्रा. |
211 | लब्धिसार | - | - | उपशम विधान | प्रा. |
212 | क्षपणसार | - | - | क्षपणा विधान | प्रा. |
213 | वीर मातण्डी | 981 के | चामुण्डराय | गो.सा. वृत्ति | क. |
214 | चारित्रसार | आस-पास | - | यत्याचार | सं. |
215 | चामुण्डराय पुराण | - | - | शलाका पुरुष | सं. |
216 | धम्म परिक्खा | 987 | हरिषेण | वैदिकका उपहास | अप. |
217 | धर्मशर्माभ्युदय | 988 | असग कवि | धर्मनाथ चरित | सं. |
218 | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
219 | शान्तिनाथ चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
220 | छन्दोबिन्दु | 990 | नागवर्म | छन्दशास्त्र | सं. |
221 | महापुराण | 990 | मल्लिषेण | शलाका पुरुष | सं. |
222 | पंचसंग्रह | अन्तपाद | ढड्ढा | मूलका रूपान्तर | सं. |
223 | धर्म रत्नाकर | 998 | जयसेन 1 | श्रावकाचार | सं. |
224 | दोहा पाहुड | 1000 | अनुमानतः देवसेन | - | प्रा. |
225 | जैनतर्क वार्तिक | 993-1118 | शान्त्याचार्य | - | सं. |
226 | पंचसंग्रह | 993-1023 | अमितगति 1 | मूलके आधार पर | सं. |
227 | सार्धद्वय प्रज्ञप्ति | - | - | अढाई द्वीप | सं. |
228 | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति | - | - | जम्बूद्वीप | सं. |
229 | चन्द्र प्रज्ञप्ति | - | - | ज्योतिष लोक | सं. |
230 | व्याख्या प्रज्ञप्ति | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
231 | आराधना प्रज्ञप्ति | - | - | भगवती आरा. के मूलार्थक श्ल. | सं. |
232 | श्रावकाचार | - | - | यथानाम | सं. |
233 | द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ) | - | - | वैराग्य | सं. |
234 | सुभाषित रत्न सन्दोह | - | - | अध्यात्माचार | सं. |
235 | छेद पिण्ड | श. 10-11 | इन्द्रनन्दि | यत्याचार | सं. |
11. ईसवी शताब्दी 11 :- | |||||
236 | परीक्षामुख | 1003 | माणिक्यनंदि | न्याय सूत्र | सं. |
237 | प्रमेयकमल मार्तण्ड | 1003-1065 (980-1065) | प्रभाचन्द्र 5 | परीक्षामुख टी. न्याय | सं. |
238 | न्यायकुमुदचन्द्र (लघीस्त्रयालंकार) | - | - | लघीस्त्रय टीका न्याय | सं. |
239 | शाकटायन न्यास | - | - | व्याकरण | सं. |
240 | शब्दाम्भोज भास्कर | - | - | शब्दकोश | सं. |
241 | महापुराण टिप्पणी | - | - | प्रथमानुयोग | सं. |
242 | क्रियाकलाप टी. | - | - | सं. | |
243 | समयसार टी. | - | - | अध्यात्म | सं. |
244 | ज्ञानार्णव | 1003-1068 | शुभचन्द्र | अध्यात्माचार | सं. |
245 | पुराणसार संग्रह | 1009 | श्री चन्द्र | यथा नाम | सं. |
246 | एकीभाव स्तोत्र | 1010-1065 | वादिराज | भक्ति | सं. |
247 | न्यायविनिश्चय विवरण | - | - | न्याय वि टीका न्याय | सं. |
248 | प्रमाण निर्णय | - | - | न्याय | सं. |
249 | यशोधर चारित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
250 | धर्म परीक्षा | 1013 | अमितगति 1 | अन्यमत उपहास | सं. |
251 | पंचसंग्रह | - | - | कर्म सिद्धान्त (मूलके आधारपर) | सं. |
252 | द्रव्य संग्रह लघु | 1018-1068 | नेमिचन्द्र 2 | तत्त्वार्थ | प्रा. |
253 | द्रव्य संग्रह बृ. | - | सिद्धा. देव | - | |
254 | द्रव्य संग्रह वृत्ति | 980-1065 | प्रभाचन्द्र 5 | लघु द्रव्यसंग्रह टी. | सं. |
255 | जंबूसामि चरिउ | 1019 | कवि वीर | यथा नाम | अप. |
256 | कथाकोष | मध्यपाद | ब्रह्मदेव | यथा नाम | सं. |
257 | बृ. द्रव्य संग्रहटी. | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
258 | तत्त्वदीपिका | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
259 | प्रतिष्ठा तिलक | - | - | पूजापाठ | सं. |
260 | चंदप्पह चरिउ | मध्यपाद | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
261 | पार्श्वनाथ चरित्र | 1025 | वादिराज 2 | यथा नाम | सं. |
262 | ज्ञानसार | 1029 | कर्महेतुक भ्रमण | सं. | |
263 | अर्धकाण्ड | 1032 | दुर्ग देव | मन्त्र तन्त्र | सं. |
264 | मन्त्र महोदधि | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
265 | मरण काण्डिका | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
266 | रिष्ट समुच्चय | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
267 | सयलविहिविहाण | 1043 | नय नन्दि | श्रावकाचार | अप. |
268 | सुदंसण चरिउ | - | - | यथानाम | अप. |
269 | काम चाण्डाली कल्प | 1047 | मल्लिषेण | मन्त्र तन्त्र | सं. |
270 | ज्वालिनी कल्प | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
271 | भैरव पद्मावती | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
272 | सरस्वती मन्त्र | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
273 | वज्रपंजर विधान | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
274 | नागकुमार काव्य | - | - | यथा नाम | सं. |
275 | सज्जन चित्त | - | - | अध्यात्मोपदेश | सं. |
276 | कर्म प्रकृति | उत्तरार्ध | नेमिचन्द्र 3 | कर्म सिद्धान्त | सं. |
277 | तत्त्वानुशासन | उत्तरार्ध | रामसेन | ध्यान | सं. |
278 | पंचविंशतिका | उत्तरार्ध | पद्मनन्दि | अध्यात्माचार | सं. |
279 | चरणसार | - | - | अध्यात्माचार | सं. |
280 | एकत्व सप्ततिका | - | - | शुद्धात्मस्वरूप | सं. |
281 | निश्चय पंचाशत | - | - | शुद्धात्मस्वरूप | सं. |
282 | हरिवंश पुराण | उत्तरार्ध | कवि धवल | यथानाम | अप. |
283 | कथाकोष | 1066 | श्रीचन्द | यथानाम | अप. |
284 | दंसणकह रयणकरंडु | - | - | कथाओंके द्वारा धर्मोपदेश | अप. |
285 | प्रवचन सारोद्धार (श्वे.) | 1062-1093 (1080) | नेमिचन्द्र 4 (श्वे.) | गति अगति आयु आदि | अप. |
286 | सुख बोधिनी बृ. | 1072 | नेमिचन्द्र 4 (श्वे.) | उत्तराध्ययन सूत्र | सं. |
287 | श्रावकाचार | 1068-1118 | वसुनन्दि | यथा नाम | सं. |
288 | प्रतिष्ठासार संग्रह | - | - | यथा नाम | सं. |
289 | सार्ध शतक | 1075-1110 | जिनवल्लभ | यथा नाम | प्रा. |
290 | नेमिनिर्वाणकाव्य | 1075-1125 | वाग्भट्ट | सं. | |
291 | सुलोयणा चरिउ | 1075 | देवसेन मुनि | यथा नाम | अप. |
292 | पारसणाह चरिउ | 1077 | पद्मकीर्ति | यथा नाम | अप. |
293 | पारसणाह चरिउ | अन्त पाद | कवि देवचन्द्र | यथा नाम | अप. |
294 | सिद्धान्तसार संग्रह | अन्तपाद | नरेन्द्र सेन | तत्त्वार्थसूत्रका सार | सं. |
295 | प्रमाण मीमांसा | 1088-117 | हेमचन्द्रसूरि | न्याय | सं. |
296 | शब्दानुशासन | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
297 | अभिधान-चिन्तामणि | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
298 | देशीनाममाला | - | - | संस्कृत शब्द कोश | सं. |
299 | काव्यानुशासन | - | - | काव्य शिक्षा | सं. |
300 | द्वयाश्रयमहाकाव्य | - | - | सं. | |
301 | योगशास्त्र | - | - | ध्यान समाधि | सं. |
302 | द्वात्रिंशिका | - | - | सं. | |
303 | चन्द्रप्रभचारित्र | 1089 | कवि अग्गल | यथानाम | कन्न. |
304 | तात्पर्य वृत्ति | श. 11-12 | जयसेन | समयसार टीका | सं. |
- | - | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
- | - | - | - | पंचास्तिकाय टीका | सं. |
305 | वैराग्गसार | श. 11-12 | सुभद्राचार्य | यथानाम | अप. |
12 ईसवी शताब्दी 12 :- | |||||
306 | प्रमेयरत्नकोष | 1102 | चन्द्रप्रभसूरि (श्वे.) | न्याय | सं. |
307 | स्याद्वाद् सिद्धि | 1103 | वादीभ सिंह | न्याय | सं. |
308 | तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति | पूर्व पाद | बालचन्द्र मुनि | यथानाम | सं. |
309 | धर्म परीक्षा | पूर्वार्ध | वृत्ति विलास | वैदिकोंका उपहास | कन्नड़ |
310 | प्रमाणनय तत्त्वालङ्कार (स्याद्वाद रत्नाकर) | 1117-69 | वादिदेव सूरि (श्वे.) | न्याय | सं. |
311 | आचार सार | मध्यपाद | वीर नन्दि | यत्याचार | सं. |
312 | पार्श्वनाथ स्तोत्र | मध्यपाद | पद्मप्रभ | यथा नाम | सं. |
313 | नियमसार टीका | - | मल्लधारी देव | अध्यात्म | सं. |
314 | कन्नड़ व्याकरण | 1125 | नयसेन | यथा नाम | कन्नड़. |
315 | धर्मामृत | - | - | कथा संग्रह | कन्नड़ |
316 | ब्रह्म विद्या | 1128 | मल्लिषेण | अध्यात्म | सं. |
317 | पासणाह चरिउ | 1132 | कवि श्रीधर 2 | पार्श्वनाथ चरित्र | अप. |
318 | वड्ढमाण चरिउ | - | - | वर्द्धमान चरित्र | अप. |
319 | संतिणाह चरिउ | - | - | शान्तिनाथ चरित्र | अप. |
320 | भविसयत्त चरिउ | 1143 | - | भविष्यदत्त चरित्र | अप. |
321 | सितपट चौरासी | 1143-1167 | पं. हेमचन्द | यशोविजयके दिग्पट चौरासीका उत्तर | हिं. |
322 | सुअंध दहमी कहा | 1150-96 | उदय चन्द | सुगन्धदशमी कथा | अप. |
323 | सुकुमाल चरिउ | 1151 | श्रीधर 3 | सुकुमालचरित्र | अप. |
324 | अञ्जनापवनंजय | 1161-1181 | हस्तिमल | यथा नाम नाटक | सं. |
325 | मैथिली कल्याणम् | - | - | सीता-राम प्रेम नाटक | सं. |
326 | विक्रान्त कौरव | - | - | सुलोचना नाटक | सं. |
327 | सुभद्रानाटिका | - | - | भरत-सुभद्रा प्रेम | सं. |
328 | अनगार धर्मा | 1173-1243 | पं. आशाधर | यत्याचार | सं. |
329 | मूलाराधना दर्पण | - | - | यत्याचार | सं. |
330 | सागार धर्मामृत | - | - | श्रावकाचार | सं. |
331 | क्रिया कलाप | - | - | व्याकरण | सं. |
332 | अध्यात्म रहस्य | - | - | अध्यात्म | सं. |
333 | इष्टोपदेश टीका | - | - | अध्यात्मोपदेश | सं. |
334 | ज्ञानदीपिका | - | - | अध्यात्म | सं. |
335 | प्रमेय रत्नाकर | - | - | न्याय | सं. |
336 | वाग्भट्टसंहिता | - | - | न्याय | सं. |
337 | काव्यालङ्कार टी. | - | - | काव्य शिक्षा | सं. |
338 | अमरकोष टीका | - | - | संस्कृत शब्दकोष | सं. |
339 | भव्यकुमुद चन्द्रिका | - | - | - | सं. |
340 | अष्टाङ्ग हृदयोद्योत | - | - | - | सं. |
341 | भरतेश्वराभ्युदय काव्य | - | - | भरत चक्री चरित्र | सं. |
342 | त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र | - | - | शलाका पुरुष | सं. |
343 | राजमतिविप्रलम्भ सटीक | - | - | नेमिराजुल संवाद | सं. |
344 | भूपाल चतुर्विंशतिका टीका | - | - | - | सं. |
345 | नित्य महोद्योत | - | - | पूजा पाठ | सं. |
346 | जिनयज्ञ कल्प | - | - | पूजा पाठ | सं. |
347 | प्रतिष्ठा पाठ | - | - | पूजा पाठ | सं. |
348 | सहस्रनाम स्तव | - | - | पूजा पाठ | सं. |
349 | रत्नत्य विधान टीका | - | - | पूजा पाठ | सं. |
350 | धन्यकुमार चा. | 1182 | गुणभद्र 2 | यथानाम काव्य | सं. |
351 | णेमिगाह चरिउ | 1187 | अमरकीर्ति | यथानाम काव्य | अप. |
352 | छक्कम्मुवएस | - | - | गृहस्थ षट्कर्म | अप. |
353 | पज्जुण्ण चरिउ | अन्तपाद | कवि सिंह | प्रद्युम्न चरित्र | अप. |
354 | शास्त्रसार समुच्चय | अन्तपाद | माघनन्दि योगिन्द्र | शलाका पुरुष, तत्त्व तथा आचार | सं. |
355 | सङ्गीत समयसार | अन्तपाद | पार्श्व देव | सङ्गीत शास्त्र | सं. |
356 | आराधनासार समुच्चय | श. 12-13 | रविचन्द्र | चतुर्विध आराधना | सं. |
357 | मेमन्दर पुराण | - | वामन मुनि | विमलनाथके दो गणधर | त. |
358 | उदय त्रिभंगी | 1180 | नेमिचन्द्र 4 | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
359 | सत्त्व त्रिभंगी | - | (सैद्धान्तिक) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
13. ईसवी शताब्दी 13 :- | |||||
360 | बन्ध त्रिभंगी | 1203 | माधवचन्द्र | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
361 | क्षपणासार टी. | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
362 | चंदप्पहचरिउ | पूर्व पाद | ब्रह्मदामोदर | यथानाम | प्रा. |
363 | चंदणछट्ठीकहा | - | पं. लाखू | चन्दनषष्टी व्रत | प्रा. |
364 | जिणयत्तकहा | - | - | यथानाम | प्रा. |
365 | कथा विचार | मध्य पाद | भावसेन त्रैविद्य | न्यायाजल्प वितण्डा निराकरण | सं. |
366 | कातन्त्र रूपमाला | - | - | शब्द रूप | सं. |
367 | न्याय दीपिका | - | - | न्याय | सं. |
368 | न्याय सूर्यावली | - | - | न्याय | सं. |
369 | प्रमाप्रमेय | - | - | न्याय | सं. |
370 | भुक्तिमुक्तिविचार | - | - | श्वे. निराकरण | सं. |
371 | विश्व तत्त्वप्रकाश | - | - | अन्यदर्शन निराकरण | सं. |
372 | शाकटायन व्याकरण टी. | - | - | यथानाम | सं. |
373 | सप्तपदार्थी टीका | - | - | - | सं. |
374 | सिद्धान्तसार | - | - | - | सं. |
375 | पुण्यास्रव कथा कोष | मध्यपाद | रामचन्द्र मुमुक्षु | यथानाम | सं. |
376 | जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला | मध्यपाद | यशःकीर्ति | - | सं. |
377 | स्याद्वाद भूषण | मध्यपाद | अभयचन्द्र | न्याय | सं. |
378 | णेमिणाह चरिउ | 1230 | ब्रह्मदामोदर | यथानाम | अप. |
379 | पुष्पदन्त पुराण | 1230 | गुण वर्म | यथानाम | सं. |
380 | सागार धर्मामृत | 1239 | पं. आशाधार | श्रावकाचार | सं. |
381 | त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र | 1234 | पं. आशाधर | शलाका पुरुष | सं. |
382 | कर्म विपाक | 1240-67 | देवेन्द्रसूरि | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
383 | कर्म स्तव | - | (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
384 | बन्ध स्वामित्व | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
385 | षडषीति (सूक्ष्मार्थ विचार) | - | - | - | प्रा. |
386 | कर्म प्रकृति | उत्तरार्ध | अभयचन्द | कर्म सिद्धान्त | सं. |
387 | मन्दप्रबोधिनी | - | सिद्धान्त चक्र. | गो.सा.टी. | सं. |
388 | पुरुदेव चम्पू. | उत्तरार्ध | अर्हद्दास | ऋषभ चरित्र | सं. |
389 | भव्यजन कण्ठाभरण | - | - | - | सं. |
390 | मुनिसुव्रत काव्य | - | - | यथानाम | सं. |
391 | विश्वलोचन कोष | उत्तरार्ध | धरसेन | नानार्थक कोष | सं. |
392 | शृंगारार्णव चन्द्रिका | - | विजयवर्णी | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
393 | अलंकार चिन्तामणि | 1250-60 | अजितसेन | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
394 | शृंगार मञ्जरी | - | - | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
395 | अणुवयय्यण पईव | 1256 | पं. लाखू | अणुव्रत रत्न प्रदीप | अप. |
396 | त्रिभंगीसार टीका | अन्त पाद | श्रुत मुनि | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
397 | आस्रव त्रिभंगी | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
398 | भाव त्रिभंगी | - | - | औपशमिकादि | प्रा. |
399 | काव्यानुशासन | अन्त पाद | वाग्भट्ट | काव्य शिक्षा | सं. |
400 | छन्दानुशासन | - | - | छन्द शिक्षा | सं. |
401 | जिणत्तिविहाण (वड्ढमाणकहा) | अन्त पाद | नरसेन | यथानाम | अप. |
402 | मयणपराजय | - | - | उपमिति कथा | अप. |
403 | सिद्धचक्ककहा | - | - | श्रीपाल मैना | अप. |
404 | स्याद्वाद्मंजरी | 1292 | मल्लिषेण | न्याय | सं. |
405 | महापुराण कालिका | 1293 | शाह ठाकुर | शलाका पुरुष | अप. |
406 | संतिणाह चरिउ | 1295 | - | यथानाम | अप. |
407 | तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति | 1296 | भास्कर नन्दि | यथानाम | सं. |
408 | ध्यान स्तव | - | - | ध्यान | सं. |
409 | सुखबोध वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
410 | सुदर्शन चरित | 1298 | विद्यानन्दि 2 | यथानाम | सं. |
411 | त्रैलोक्य दीपक | श. 13-14 | वामदेव | लोक विभाग | सं. |
412 | भावसंग्रह | - | - | देवसेन कृतका सं. रूपान्तर | सं. |
14 ईसवी शताब्दी 14 :- | |||||
413 | णेमिणाह चरिउ | पूर्वपाद | लक्ष्मणदेव | यथानाम | अप. |
414 | मयणपराजय चरिउ | पूर्वपाद | हरिदेव | उपमिति कथा (खण्ड काव्य) | अप. |
415 | भविष्यदत्त कथा | मध्यपाद | श्रीधर 4 | यथानाम | सं. |
416 | अनन्तव्रत कथा | 1328-93 | पद्मनन्दि | यथानाम | सं. |
417 | जीरापल्लीपार्श्वनाथ स्तोत्र | - | भट्टारक | यथानाम | सं. |
418 | भावना पद्धति | - | - | भक्तिपूर्ण स्तव | सं. |
419 | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
420 | श्रावकाचार सारोद्धार | - | - | सं. | |
421 | परमागमसार | 1341 | श्रुत मुनि | आगमका स्वरूप | प्रा. |
422 | वरांग चरित्र | उत्तरार्ध | वर्द्धमानभट्टा. | यथानाम | सं. |
423 | गोमट्टसार टी. | 1359 | केशववर्णी | यथानाम | क. |
424 | न्यायदीपिका | 1390-1418 | धर्मभूषण | न्याय | सं. |
425 | जम्बूस्वामीचरित्र | 1393-1468 | ब्रह्म जिनदास | यथानाम | सं. |
426 | राम चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
427 | हरिवंश पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
428 | बाहूबलि चरिउ | 1397 | कवि धनपाल | यथानाम | अप. |
429 | अणत्थमिय कहा | - | कवि हरिचन्द | रात्रिभुक्ति हानि | अप. |
15. ईसवी शताब्दी 15 :- | |||||
430 | अणत्थमिउ कहा | 1400-79 | कवि रइधु | रात्रिभुक्ति त्याग | अप. |
431 | धण्णकुमार चरिउ | - | - | यथानाम | अप. |
432 | पउम चरिउ | - | - | जैन रामायण | अप. |
433 | बलहद्द चरिउ | - | - | बलभद्र चरित्र | अप. |
434 | मेहेसर चरिउ | - | - | सुलोचना चरित्र | अप. |
435 | वित्तसार | - | - | श्रावक मुनि धर्म | अप. |
436 | सम्मइजिणचरिउ | - | - | भगवान् महावीर | अप. |
437 | सिद्धान्तसार | - | - | श्रावक मुनि धर्म | अप. |
438 | सिरिपाल चरिउ | - | - | श्रीपाल चरित्र | अप. |
439 | हरिवंश पुराण | - | - | यथा नाम | अप. |
440 | जसहर चरिउ | - | - | यशोधर चरित्र | अप. |
441 | वड्ढमाण चरिउ (सेणिय चरिउ) | पूर्वपाद | जयमित्रहल | यथा नाम | अप. |
442 | मल्लिणाहकव्व | - | - | यथा नाम | अप. |
443 | यशोधर चरित्र | - | पद्मनाथ | यथा नाम | सं. |
444 | कर्म विपाक | 1406-1442 | सकलकीर्ति | कर्मसिद्धान्त | सं. |
445 | प्रश्नोत्तर श्राव. | - | - | श्रावकाचार | सं. |
446 | तत्त्वार्थसारदीपक | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
447 | सद्भाषितावली | - | - | अध्यात्मोप. | सं. |
448 | परमात्मराजस्तोत्र | - | - | भक्ति | सं. |
449 | आदि पुराण | - | - | ऋषभ चरित्र | सं. |
450 | उत्तर पुराण | - | - | 23 तीर्थंकर | सं. |
451 | पुराणसार संग्रह | - | - | 6 तीर्थंकर | सं. |
452 | शान्तिनाथचरित | - | - | यथा नाम | सं. |
453 | मल्लिनाथ चरित | - | - | यथा नाम | सं. |
454 | पार्श्वनाथ पुराण | - | - | यथा नाम | सं. |
455 | महावीर पुराण | - | - | यथा नाम | सं. |
456 | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
457 | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
458 | यशोधर चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
459 | धन्यकुमार चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
460 | सुकुमाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
461 | सुदर्शन चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
462 | व्रत कथाकोष | - | - | सं. | |
463 | मूलाचार प्रदीप | 1424 | - | यत्याचार | सं. |
464 | सिद्धान्तसार दीपक | - | - | यत्याचार | सं. |
465 | लोक विभाग | मध्यपाद | सिंहसूरि (श्वे.) | प्राचीन कृतिका सं. रूपान्तर | सं. |
466 | पासणाह चरिउ | 1422 | कवि असवाल | यथानाम | अप. |
467 | धर्मदत्त चरित्र | 1429 | दयासागर सूरि | यथानाम | सं. |
468 | हरिवंश पुराण | 1429-40 | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
469 | जिणरत्ति कहा | - | - | रात्रि भुक्ति | अप. |
470 | रविवय कहा | - | - | यथानाम | अप. |
471 | ततक्त्वार्थ रत्न प्रभाकर | 1432 | प्रभाचन्द्र 8 | तत्त्वार्थ सूत्र टीका | सं. |
472 | संतिणाह चरिउ | 1437 | शुभकीर्ति | यथानाम | अप. |
473 | पासणाह चरिउ | 1439 | - | - | अप. |
474 | सक्कोसल चरिउ | - | - | - | अप. |
475 | सम्मत्तगुण विहाण कव्व | 1442 | - | यथानाम लोकप्रिय | अप. |
476 | सुदर्शन चरित्र | 1442-82 | विद्यानन्दि 3 भट्टारक | यथानाम | सं. |
477 | संभव चरिउ | 1443 | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
478 | आत्म सम्बोधन | 1443-1505 | ज्ञानभूषण | अध्यात्म | सं. |
479 | अजित पुराण | 1448 | कवि विजय | यथानाम | अप. |
480 | जिनचतुर्विंशति | 1450-1514 | जिनचंद्रभट्टा | स्तोत्र | सं. |
481 | सिद्धान्तसार | - | - | जीवकाण्ड | सं. |
482 | सिरिपाल चरिउ | 1450-1514 | ब्रह्म दामोदर | यथानाम | अप. |
483 | वरंग चरिउ | 1450 | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
484 | नागकुमार चरिउ | 1454 | धर्मधर | यथानाम | अप. |
485 | पासपुराण | 1458 | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
486 | यशोधर चरित्र | 1461 | सोमकीर्ति | यथानाम | सं. |
487 | सप्तव्यसन कथा | 1461-1483 | - | यथानाम | सं. |
488 | चारुदत्त चरित्र | 1474 | - | यथानाम | सं. |
489 | प्रद्युम्न चारित्र | - | - | यथानाम | सं. |
490 | तत्त्वज्ञान तरंगिनी | 471 | ज्ञानभूषण | अध्यात्म | सं. |
491 | आत्म सम्बोधन आराधना | 1443-1505, 1469 | अज्ञात | अध्यात्म, पंचसंग्रह प्रा. की प्राकृत टीका | प्रा. |
492 | पाण्डव पुराण | 1478-1556 | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
493 | धर्मसंग्रहश्रावका | 1484 | मेधावी | श्रावकाचार | सं. |
494 | औदार्य चिन्तामणि | 1487-1499 | श्रुतसागर | प्राकृत व्याकरण | प्रा. |
495 | तत्त्वार्थ वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
496 | षट्प्राभृत टीका | - | - | कुन्दकुन्दके प्राभृतों की टीका | सं. |
497 | तत्त्वत्रय प्रकाशिका | - | - | ज्ञानार्णव कथित गद्य भागकी टीका | सं. |
498 | यशस्तिलक चन्दिका | यशस्तिलक चम्पूकी टीका | - | - | सं. |
499 | यशोधर चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
500 | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
501 | श्रुतस्कन्ध पूजा | - | - | यथानाम | सं. |
502 | योगसार | अन्तपाद | श्रुतकीर्ति | श्रावकमुनि आचार | अप. |
503 | धम्म परिक्खा | - | - | वैदिकोंका उपहास | अप. |
504 | परमेष्ठी प्रकाश सार | - | - | यथा नाम | अप. |
505 | हरिवंश पुराण | - | - | यथानाम | अप. |
506 | भुजबलि रितम् | अन्तपाद | दोड्डय्य | गोमटेश मूर्तिका इतिहास | सं. |
507 | पाहुड़ दोहा | - | महनन्दि | अध्यात्म | अप. |
508 | पुराणसार वैराग्य माला | 1498-1518 | श्रीचन्द | यथानाम | सं. |
16. ईसवी शताब्दी 16 :- | |||||
509 | सम्यक्त्व कौमुदी | 1508 | जोधराज | तत्त्वार्थ | हिं. |
510 | सम्यक्त्व कौमुदी | - | मंगरस | तत्त्वार्थ | कन्नड़ |
511 | जीवतत्त्व प्रदीपिका | 1515 | नेमिचन्द्र 5 | गो.सा. टीका | सं. |
512 | भद्रबाहु चरित्र | 1515 | रत्नकीर्ति | यथानाम | सं. |
513 | अंग पण्णत्ति | 1516-56 | शुभचन्द्र | - | प्रा. |
514 | शब्द चिन्तामणि | - | भट्टारक | सं. शब्दकोष | सं. |
515 | स्याद्वाद्वहन विदारण | - | - | न्याय | सं. |
516 | सम्यक्त्व कौमुदी | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
518 | अध्यात्मपद टी. | - | - | अध्यात्म | सं. |
515 | परमाध्यात्म तरंगिनी | - | - | अध्यात्म | सं. |
520 | सुभाषितार्णव | - | - | अध्यात्म | सं. |
521 | चन्द्रप्रभ चरित्र | - | - | अध्यात्म | सं. |
522 | पार्श्वनाथ काव्य पंजिका | - | - | यथानाम | सं. |
523 | महावीर पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
524 | पद्मनाभ चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
525 | चन्दना चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
526 | चन्दन कथा | - | - | चन्दना चरित्र | सं. |
527 | अमसेन चरिउ | 1519 | माणिक्यराज | मुनि अमसेनका जीवन वृत | अप. |
528 | नागकुमार चरिउ | 1522 | - | यथानाम | अप. |
529 | आराधना कथाकोष | 1518 | ब्र. नेमिदत्त | सं. | |
530 | धर्मोपदेश पीयूष | 1518-28 | - | श्रावकाचार | सं. |
531 | रात्रि भोजनत्याग व्रतकथा | - | - | यथानाम | सं. |
532 | नेमिनाथ पुराण | 1528 | - | यथानाम | सं. |
533 | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
534 | सिद्धांतसारभाष्य | 1528-59 | ज्ञानभूषण | यथानाम | सं. |
535 | संतिणाह चरिउ | - | कवि महीन्दु | - | अप. |
536 | चेतनपुद्गलधमाल | 1532 | बूचिराज | यथानाम रूपक | अप. |
537 | मयण जुज्झ | - | - | मदनयुद्ध रूपक | अप. |
538 | मोहविवेक युद्ध | - | - | यथानाम रूपक | अप. |
539 | संतोषतिल जयमाल | - | - | सन्तोष द्वारा लोभको जीतना (रूपक) | अप. |
540 | टंडाणा गीत | - | - | संसार सुखदर्शन | अप. |
541 | भुवनकीर्ति गीत | - | - | भुवनकीर्तिकी प्रशस्ति | अप. |
542 | नेमिनाथ बारहमासा | - | - | राजमतिके उद्गार | अप. |
543 | नेमिनाथ वसंत | - | - | नेमिनाथ वैराग्य | अप. |
544 | कार्तिकेयानु प्रेक्षा टीका | 1543 | शुभचन्द्र भट्टारक | यथानाम | सं. |
545 | जीवन्धर चरित्र | 1546 | यथानाम | सं. | |
546 | प्रमेयरत्नालंकार | 1544 | चारुकीर्ति | न्याय | सं. |
547 | गीत वीतराग | - | - | ऋषभदेवके 10 जन्म | सं. |
548 | पाण्डवपुराण | 1551 | शुभचन्द्र भट्टारक | यथानाम | सं. |
549 | भरतेशवैभव | 1551 | रत्नाकर | यथानाम | सं. |
550 | होलीरेणुकाचरित्र | पं. जिनदास | पंचनमस्कारमहात्म्य | हिं. | |
551 | करकण्डु चरित्र | 1554 | शुभचन्द्र भ. | यथानाम | सं. |
552 | कर्म प्रकृति टी. | 1556-73 | ज्ञानभूषण | कर्म सिद्धान्त | सं. |
553 | भविष्यदत्तचरित्र | 1558 | पं. सुन्दरदास | यथानाम | सं. |
554 | रायमल्लाभ्युदय | - | - | 24 तीर्थङ्करोंका जीवन वृत्त | सं. |
555 | कर्म प्रकृति टी. | 1563-73 | सुमतिकार्ति | कर्म सिद्धान्त | सं. |
556 | कर्मकाण्ड | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
557 | पंच संग्रह वृत्ति | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
558 | सुखबोध वृत्ति | लगभग 1570 | पं. योगदेव भट्टारक | तत्त्वार्थ सूत्र टी. | सं. |
559 | अनन्तनाथ पूजा | 1573 | गुणचन्द्र | यथानाम | सं. |
560 | अध्यात्मकमल मार्तण्ड | 1575-1593 | पं. राजमल | अध्यात्म | सं. |
561 | पंचाध्यायी | 1593 | - | पदार्थ विज्ञान | सं. |
562 | पिंगल शास्त्र | - | - | छन्द शास्त्र | सं. |
563 | लाटी संहिता | -1584 | - | श्रावकाचार | सं. |
564 | जम्बूस्वामीचरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
565 | हनुमन्त चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
566 | द्वादशांग पूजा | 1579-1619 | श्रीभूषण | यथानाम | सं. |
567 | प्रतिबोध चिंतामणि | - | - | मूलसंघकी उत्पत्तिकी कथा | सं. |
568 | शान्तिनाथपुराण | - | - | यथानाम | सं. |
569 | सत्तवसनकहा | 1580 | मणिक्यराज | यथानाम | अप. |
570 | ज्ञानसूर्योदय ना. | 1580-1607 | वादिचन्द्र | रूपक काव्य | सं. |
571 | पवनदूत | - | - | मेघदूतकी नकल | सं. |
572 | पार्श्व पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
573 | श्रीपाल आख्यान | - | - | यथानाम | सं. |
574 | सुभग सुलोचना चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
575 | कथाकोष | 1583-1605 | देवेन्द्रकीर्ति | यथा नाम | सं. |
576 | श्रीपाल चरित्र | 1594 | कवि परिमल्ल | यथा नाम | सं. |
577 | पार्श्वनाथ पुराण | 1597-1624 | चन्द्रकीर्ति | यथानाम | सं. |
578 | शब्दत्न प्रदीप | 1599-1610 | सोमसेन | सं. शब्दकोष | सं. |
579 | धर्मरसिक (त्रिवर्णाचार) | - | - | पंचामृत अभषेक आदि | सं. |
580 | रामपुराण | - | - | यथानाम | सं. |
17. ईसवी शताब्दी 17 :- | |||||
581 | अध्यात्म सवैया | 1600-1625 | रूपचन्दपाण्डे | अध्यात्म | हिं. |
582 | खटोलनागीत | - | - | (रूपक) चार कषायरूप पायों का खटोलना | हिं. |
583 | परमार्थगीत | - | - | अध्यात्म | हिं. |
584 | परमार्थ दोहा शतक | - | - | अध्यात्म | हिं. |
585 | स्फुटपद | - | - | भक्ति | हिं. |
586 | यशोधर चरित्र | 1602 | ज्ञानकीर्ति | यथानाम | सं. |
587 | शब्दानुशासन | 1604 | भट्टाकलंक | सं. शब्द कोश | सं. |
588 | चूड़ामणि | 1604 | तुम्बूलाचार्य | षट्खण्ड टीका | सं. |
589 | भक्तामर कथा | 1610 | रायमल | यथानाम | सं. |
590 | विमल पुराण | 1617 | ब्र. कृष्णदास | यथानाम | सं. |
591 | मुनिसुव्रत पुराण | 1624 | - | यथानाम | सं. |
592 | ब्रह्म विलास | 1624-1643 | भगवती दास | अध्यात्म | हिं. |
593 | नाममाला | -1613 | पं. बनारसी दास | एकार्थक शब्द | हिं. |
594 | समयसार नाटक | -1636 | - | - | हिं. |
595 | अर्धकथानक | -1644 | - | अपनी आत्मकथा | हिं. |
596 | बनारसी विलास | -1701 | - | - | हिं. |
597 | अध्यात्मोपनिषद | 1638-1688 | यशोविजय | अध्यात्म | सं. |
598 | अध्यात्मसार | - | (श्वे.) | अध्यात्म | सं. |
599 | जय विलास | - | - | पदसंग्रह | सं. |
600 | जैन तर्क | - | - | न्याय | सं. |
601 | स्याद्वाद मञ्जूषा | - | - | न्याय | सं. |
602 | शास्त्रवार्ता समुच्चय | - | - | न्याय | सं. |
603 | दिग्पद चौरासी | - | - | दिगम्बरका खंडन | हिं. |
604 | चतुर्विंशति सन्धानकाव्य | 1642 | पं. जगन्नाथ | 24 अर्थों वाला एक पद्य | सं. |
605 | श्वे. पराजय | 1646 | - | केवलि भक्ति निराकृति | सं. |
606 | सुखनिधान | 1643 | - | श्रीपालकथा | सं. |
607 | शीलपताका | 1696 | महीचन्द्र | सीताकी अग्नि परीक्षा | मरा. |
18 . ईसवी शताब्दी 18 :- | |||||
608 | चिद्विलास | 1722 | पं. दीपचन्द | अध्यात्म | हिं. |
609 | स्वरूपसम्बोधन | - | - | अध्यात्म | हिं. |
610 | जीवन्धर पुराण | 1724-44 | जिनसागर | यथानाम | हिं. |
611 | जैन शतक | 1724 | पं. भूधरदास | पद संग्रह | हिं. |
612 | पद साहित्य | 1724-32 | अध्यात्मपद | हिं. | |
613 | पार्श्वपुराण | 1732 | यथानाम | हिं. | |
614 | क्रिया कोष | 1727 | पं. किशनचंद | गृहस्थोचित क्रियायें | हिं. |
615 | प्रमाणप्रमेय कालिका | 1730-33 | नरेन्द्रसेन | न्याय | सं. |
616 | क्रियाकोष | 1738 | पं. दौलतराम 1 | गृहस्थोचित क्रियायें | हिं. |
617 | श्रीपाल चारित्र | 1720-72 | यथा नाम | हिं. | |
318 | गोमट्टसार टीका | 1716-40 | पं. टोडरमल | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
619 | लब्धिसार टी. | - | - | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
620 | क्षपणसार टीका | - | - | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
621 | गोमट्टसार पूजा | 1736 | - | यथानाम | हिं. |
622 | अर्थसंदृष्टि | 1740-67 | - | गो.सा. गणित | हिं. |
623 | रहस्यपूर्ण चिट्ठी | 1753 | - | अध्यात्म | हिं. |
624 | सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका | -1761 | - | अध्यात्म | हिं. |
625 | मोक्षमार्ग प्रका. | -1767 | - | अध्यात्म | हिं. |
626 | परमानन्दविलास | 1755-67 | पं. देवीदयाल | पदसंग्रह | हिं. |
627 | दर्शन कथा | 1756 | भारामल | यथानाम | हिं. |
628 | दान कथा | - | - | यथानाम | हिं. |
629 | निशिकथा | - | - | यथानाम | हिं. |
630 | शील कथा | - | - | यथानाम | हिं. |
631 | छह ढाला | 1798-1866 | पं. दौलतराम 2 | ततत्वार्थ | हिं. |
19. ईसवी शताब्दी 19 :- | |||||
632 | वृन्दावन विलास | 1803-1808 | वृन्दावन | पद संग्रह | हिं. |
633 | छन्द शतक | - | - | पद संग्रह | हिं. |
634 | अर्हत्पासा केवली | - | - | भाग्य निर्धारिणी | हिं. |
635 | चौबीसी पूजा | - | - | थानाम | हिं. |
636 | समयसार वच. | 1807 | जयचन्द | - | हिं. |
637 | अष्टपाहुड़ा वच. | 1810 | छाबड़ा | - | हिं. |
638 | सर्वार्थ सिद्धि वच. | 1804 | - | - | हिं. |
639 | कार्तिकेया वच. | 1806 | - | - | हिं. |
640 | द्रव्यसंग्रह वच. | 1806 | - | - | हिं. |
641 | ज्ञानार्णव वच. | 1812 | - | - | हिं. |
642 | आप्तमीमांसा | 1829 | - | - | हिं. |
643 | भक्तामर कथा | 1813 | - | - | हिं. |
644 | तत्त्वार्थ बोध | 1814 | पं. बुधजन | तत्त्वार्थ | हिं. |
645 | सतसई | 1822 | - | अध्यात्मपद | हिं. |
646 | बुधजन विलास | 1835 | - | अध्यात्मपाद | हिं. |
647 | सप्तव्यसन चारित्र | 1850-1890 | मनरंगलाल | यथानाम | हिं. |
648 | सप्तर्षि पूजा | - | - | यथानाम | हिं. |
649 | सम्मेदाचल माहात्म्य | - | - | यथानाम | हिं. |
650 | चौबीसी पूजा | - | - | यथानाम | हिं. |
651 | महावीराष्टक | - | पं. भागचन्द | स्तोत्र | हिं. |
पुराणकोष से
(1) महापुराण का अपरनाम इतिहास का अर्थ है― ‘‘इति इह आसीत्’’ (यहाँ ऐसा हुआ) इसके दूसरे नाम हैं― इतिवृत्ति और ऐतिह्य । यह ऋषियों द्वारा कथित होता है । इसमें पूर्व घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । महापुराण 1.25, हरिवंशपुराण - 9.128
(2) पूर्व घटनाओं की स्मृति । हरिवंशपुराण - 9.198