ऋषभ: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) युग के आदि में हुए प्रथम तीर्थंकर । वृषभदेव को इंद्र द्वारा प्राप्त यह नाम । <span class="GRef"> महापुराण3.1, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_8#196|हरिवंशपुराण - 8.196]],9.73, </span>ये कुलकर नाभिराय और उनकी रानी मरुदेवी के पुत्र थे । अयोध्या इनकी जन्मभूमि तथा राजधानी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#89|पद्मपुराण - 3.89-91]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#159|पद्मपुराण -3. 159]], 169, 174, 219 </span>ये सोलह स्वप्नपूर्वक आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन माँ मरुदेवी के गर्भ में आये थे । <span class="GRef"> पांडवपुराण 2.110 </span>इनका जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में और ब्रह्म नामक महायोग में हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 1. 2-3 </span>इंद्र ने सुमेरु पर्वत ले जाकर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । <span class="GRef"> महापुराण 13. 213-215 </span>इनके जन्म से ही कर्ण सछिद्र थे । <span class="GRef"> महापुराण 14.10 </span>ये जन्म से ही मति-श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त थे । <span class="GRef"> महापुराण 14. 178 </span>बाल्यावस्था में देव-बालकों के साथ इन्होंने दंड क्रीड़ा एवं वन क्रीड़ाएँ की थीं । <span class="GRef"> महापुराण 14.200, 207-208 </span>ये तप्त स्वर्ण के समान कांतिधारी स्वेद और मल से तथा त्रिदोष जनित रोगों से रहित, एक हजार आठ लक्षणों से सहित, परमौदारिक शरीरी और समचतुरस्र संस्थान के धारी थे । <span class="GRef"> महापुराण 15.2-3, 30.33 </span>इनके समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे । विशेषता यह थी कि पृथिवी बिना जोते बोये अपने आप उत्पन्न धान्य से युक्त रहती थी । इक्षु ही उस समय का मुख्य भोजन था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#231|पद्मपुराण - 3.231-233]] </span>यशस्वती और सुनंदा इनकी दो रानियाँ थी । इनमें यशस्वती से चरमशरीरी प्रतापी भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामा पुत्री हुई थी । सुनंदा के बाहुबली और सुंदरी उत्पन्न हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 16.1-7 </span>पुत्रियों मे ब्राह्मी को लिपि ज्ञान तथा सुंदरी को इन्होंने अंक ज्ञान में निपुण बनाया था । <span class="GRef"> महापुराण 16.108 </span>प्रजा के निवेदन पर प्रजा को सर्वप्रथम इन्होंने ही असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छ: आजीविका के उपायों का उपदेश दिया था । <span class="GRef"> महापुराण 16.179 </span>सर्वप्रथम इन्होंने समझाया था कि वृक्षों से भोज्य सामग्री प्राप्त की जा सकती है । भोज्य और अभोज्य पदार्थों का भेद करते हुए इन्होंने कहा था कि आम, नारियल, नीबू, जामुन, राजादन (चिरौंजी ), खजूर, पनस, केला, बिजौरा, महुआ, नारंग, सुपारी, तिंदुक, कैथ, बैर, चिंचणी (इमली), भिलमा, चारोली, तथा बेलों में द्राक्षा कुष्मांडी, ककड़ी आदि भोज्य है अन्य (बल्लियाँ) बैल अभोज्य है । ब्रीहि, शालि, मूंग, चौलाई, उड़द, गेहूँ, सरसों, इलायची, तिल, श्यामक, कोद्रव, मसूर, चना, जौ, धान, त्रिपुटक, तुअर, वनमूंग, नीवार आदि इन्होंने खाने योग्य बताये थे । बर्तन बनाने और भोजन पकाने की विधि भी इन्होंने बतायी थी । <span class="GRef"> महापुराण 16. 179, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 2.143-554, </span>क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भी इन्हीं ने ही की थी । आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन इन्होंने कृतयुग का आरंभ किया था इसीलिए ये प्रजापति कहलाये । <span class="GRef"> महापुराण 16.190 </span>इनकी शारीरिक ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#112|पद्मपुराण - 20.112]], 118 </span>बीस लाख वर्ष पूर्व का समय इन्होंने कुमारावस्था में व्यतीत किया था । <span class="GRef"> महापुराण 16.129 </span>तिरेसठ लाख पूर्व काल तक राज्य करने के उपरांत नृत्य करते-करते नीलांजना नाम की अप्सरा के विलीन हो जाने पर इनको संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 16.268, 17.6-11 </span>भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबलि को युवराज पद देकर ये सिद्धार्थक वन गये थे । <span class="GRef"> महापुराण 17. 32-77, 181 </span>वहाँ इन्होंने पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन मुद्रा में पंचमुष्टि केशलोंच किया और चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन अपराह्न काल में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में दीक्षा धारण की थी । स्वामी-भक्ति से प्रेरित होकर चार हजार अन्य राजा भी इनके साथ दीक्षित हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 17.20-203, 212-214 </span>ये छ: मास तक निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ रहे । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#286|पद्मपुराण - 3.286-292]] </span>आहार-विधि जानने वालों के अभाव में एक वर्ष तक इन्हें आहार का अंतराय रहा । एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांस के यहाँ इक्षुरस द्वारा इनकी प्रथम पारणा हुई थी । <span class="GRef"> महापुराण 20.28, 100, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#6|पद्मपुराण - 4.6-16]] </span>ये मेरु के समान अचल प्रतिमा-योग में एक हजार वर्ष तक खड़े रहे । इनकी भुजाएँ नीचे की ओर लटकती रही, केश बढ़कर जटाएँ हो गयी थीं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_11#289|पद्मपुराण - 11.289]] </span>पुरिमताल नगर के समीप शकट नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर इन्होंने चित्त की एकाग्रता धारण की थी । <span class="GRef"> महापुराण 20.218-220 </span>इन्हें फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान और समवसरण की विभूति प्राप्त हुई थी । <span class="GRef"> महापुराण 20.267-268 </span>वटवृक्ष के नीचे इन्हें केवलज्ञान हुआ था । अत: आज भी लोग वटवृक्ष को पूजते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_11#292|पद्मपुराण - 11.292-293]] </span>इंद्र ने एक हजार आठ नामों से इनका गुणगान किया था । <span class="GRef"> महापुराण 25.9-217 </span>भरत की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर बाहुबलि को छोड़कर शेष सभी भाई इनके पास आये और इनसे दीक्षित हो गये थे । <span class="GRef"> महापुराण 34.97,114-125 </span>मरीचि को छोड़कर शेष नृप जो इनके साथ दीक्षित हो गये थे सम्यक्चारित्र का पालन नहीं कर सके । उन्होंने दिगंबरी साधना का मार्ग छोड़ दिया । उनमें से भी बहुत से साधु इनसे बंध और मोक्ष का स्वरूप सुनकर पुन: निर्ग्रंथ हो गये थे । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 2.96-97 </span>संघस्थ मुनियों में चार हजार सात सौ पचास तो पूर्वधर थे, इतने ही श्रुत के शिक्षक थे । नौ हजार अवधिज्ञानी बीस हजार केवलज्ञानी, बीस हजार छ: सौ विक्रियाऋद्धि के धारी, बीस हजार सात सौ विपुलमति-मन:पर्ययज्ञानी और इतने ही असंख्यात गुणों के धारक मुनि थे । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#71|हरिवंशपुराण - 12.71]] -77 </span>इनके संघ में चौरासी गणधर थे—1. वृषभसेन 2. कुंभ 3. दृढ़रथ 4. शत्रुदमन 5. देवशर्मा 6. धनदेव 7. नंदन 8. सोमदत्त 9. सुरदत्त 10. वायुशर्मा 11. सुबाहु 12. देवाग्नि 13. अग्निदेव 14. अग्निभूति 15. तेजस्वी 16. अग्निमित्र 17. हकधर 18. महीधर 19. माहेंद्र 20. वसुदेव 21. वसुंधरा 22. अचल 23. मेरु 24. भूति 25. सर्वसह 26. यज्ञ 27. सर्वगुप्त 28. सर्वदेव 29. सर्वप्रिय 30. विजय 31. विजयगुप्त 32. विजयमित्र 33. विजयश्री 34. परारूप 35. अपराजित 36. वसुमित्र 37. वसुसेन 38. साधुसेन 39. सत्यदेव 40. सत्यवेद 41. सर्वगुप्त 42. मित्र 43. सत्यवान् 44. विनीत 45. संवर 46. ऋषिगुप्त 47 ऋषिदत्त 48. यज्ञदेव 49. यज्ञगुप्त 50. यशमित्र 51. यज्ञदत्त 52. स्वायंभुत 53. भागदत्त 54. भागफल्गु 55. गुप्त 56. गुप्तफल्गु 57. मित्रफल्गु 58. प्रजापति 59. सत्यवश 60. वरुण 61. धनवाहित 62. महेंद्रदत्त 63. तेजोराशि 64. महारथ 65. विजयश्रुति 66. महाबल 67. सुविशाल 68. वज्र 69. वैर 70. चंद्रचूड़ 71. मेघेश्वर 72. कच्छ 73. महाकच्छ 74. सुकच्छ 75. अतिबल 76. भद्राबलि 77. नमि 78. विनमि 79. भद्रबल 80. नंदि 81. महानुभाव 82 नंदिमित्र 83. कामदेव और 84 अनुपम । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#57|पद्मपुराण - 4.57]] </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#53|हरिवंशपुराण - 12.53-70]] </span>संघ में शुद्धात्मतत्त्व को जानने वाली पचास हजार आर्यिकाएँ, पाँच लाख श्राविकाएँ और तीन लाख श्रावक थे । एक लाख पूर्व वर्ष तक इन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार-सागर से पार होने का उपदेश करते हुए पृथिवी पर विहार किया था । इसके पश्चात् ये कैलाश पर्वत पर ध्यानारूढ़ हुए और एक हजार राजाओं के साथ योग-निरोघ कर देवों से पूजित होकर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#78|हरिवंशपुराण - 12.78-81]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_4#130|पद्मपुराण - 4.130]] </span>पूर्वभवों में नौवे पूर्वभव मे ये अलका नगरी के राजा अतिबल के महाबल नाम के पुत्र थे । <span class="GRef"> महापुराण 4.133 </span>आठवें पूर्वभव में ये ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामक देव हुए । <span class="GRef"> महापुराण 5.253 </span>सातवें पूर्वभव में वे राजा वज्रबाहु और उनकी रानी वसुंधरा के वज्रजंघ नामक पुत्र हुए । <span class="GRef"> महापुराण 6.26-29 </span>छठे पूर्वभव में ये उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 9.33 </span>पाँचवें पूर्वभव में ये ऐशान स्वर्ग में श्रीधर नाम के ऋद्धिधारी देव हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 9.185 </span>चौथे पूर्वभव में सुसीम नगर मे सुदृष्टि और उनकी रानी सुंदरनंदा के सुविधि नामक पुत्र हुए । <span class="GRef"> महापुराण 10.121-122 </span>तीसरे पूर्वभव में ये अच्युतेंद्र हुए । <span class="GRef"> महापुराण 10.170 </span>दूसरे पूर्वभव में ये राजा वज्रसेन और उनकी रानी श्रीकांता के वचनाभि नामक पुत्र हुए । <span class="GRef"> महापुराण 11-9 </span>प्रथम पूर्वभव में ये सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 11.111 </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
स्वर सप्तक में से एक-देखें स्वर ।
पुराणकोष से
(1) युग के आदि में हुए प्रथम तीर्थंकर । वृषभदेव को इंद्र द्वारा प्राप्त यह नाम । महापुराण3.1, हरिवंशपुराण - 8.196,9.73, ये कुलकर नाभिराय और उनकी रानी मरुदेवी के पुत्र थे । अयोध्या इनकी जन्मभूमि तथा राजधानी थी । पद्मपुराण - 3.89-91,पद्मपुराण -3. 159, 169, 174, 219 ये सोलह स्वप्नपूर्वक आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन माँ मरुदेवी के गर्भ में आये थे । पांडवपुराण 2.110 इनका जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में और ब्रह्म नामक महायोग में हुआ था । महापुराण 1. 2-3 इंद्र ने सुमेरु पर्वत ले जाकर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । महापुराण 13. 213-215 इनके जन्म से ही कर्ण सछिद्र थे । महापुराण 14.10 ये जन्म से ही मति-श्रुत तथा अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त थे । महापुराण 14. 178 बाल्यावस्था में देव-बालकों के साथ इन्होंने दंड क्रीड़ा एवं वन क्रीड़ाएँ की थीं । महापुराण 14.200, 207-208 ये तप्त स्वर्ण के समान कांतिधारी स्वेद और मल से तथा त्रिदोष जनित रोगों से रहित, एक हजार आठ लक्षणों से सहित, परमौदारिक शरीरी और समचतुरस्र संस्थान के धारी थे । महापुराण 15.2-3, 30.33 इनके समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे । विशेषता यह थी कि पृथिवी बिना जोते बोये अपने आप उत्पन्न धान्य से युक्त रहती थी । इक्षु ही उस समय का मुख्य भोजन था । पद्मपुराण - 3.231-233 यशस्वती और सुनंदा इनकी दो रानियाँ थी । इनमें यशस्वती से चरमशरीरी प्रतापी भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामा पुत्री हुई थी । सुनंदा के बाहुबली और सुंदरी उत्पन्न हुए थे । महापुराण 16.1-7 पुत्रियों मे ब्राह्मी को लिपि ज्ञान तथा सुंदरी को इन्होंने अंक ज्ञान में निपुण बनाया था । महापुराण 16.108 प्रजा के निवेदन पर प्रजा को सर्वप्रथम इन्होंने ही असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छ: आजीविका के उपायों का उपदेश दिया था । महापुराण 16.179 सर्वप्रथम इन्होंने समझाया था कि वृक्षों से भोज्य सामग्री प्राप्त की जा सकती है । भोज्य और अभोज्य पदार्थों का भेद करते हुए इन्होंने कहा था कि आम, नारियल, नीबू, जामुन, राजादन (चिरौंजी ), खजूर, पनस, केला, बिजौरा, महुआ, नारंग, सुपारी, तिंदुक, कैथ, बैर, चिंचणी (इमली), भिलमा, चारोली, तथा बेलों में द्राक्षा कुष्मांडी, ककड़ी आदि भोज्य है अन्य (बल्लियाँ) बैल अभोज्य है । ब्रीहि, शालि, मूंग, चौलाई, उड़द, गेहूँ, सरसों, इलायची, तिल, श्यामक, कोद्रव, मसूर, चना, जौ, धान, त्रिपुटक, तुअर, वनमूंग, नीवार आदि इन्होंने खाने योग्य बताये थे । बर्तन बनाने और भोजन पकाने की विधि भी इन्होंने बतायी थी । महापुराण 16. 179, पांडवपुराण 2.143-554, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भी इन्हीं ने ही की थी । आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन इन्होंने कृतयुग का आरंभ किया था इसीलिए ये प्रजापति कहलाये । महापुराण 16.190 इनकी शारीरिक ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व थी । पद्मपुराण - 20.112, 118 बीस लाख वर्ष पूर्व का समय इन्होंने कुमारावस्था में व्यतीत किया था । महापुराण 16.129 तिरेसठ लाख पूर्व काल तक राज्य करने के उपरांत नृत्य करते-करते नीलांजना नाम की अप्सरा के विलीन हो जाने पर इनको संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ था । महापुराण 16.268, 17.6-11 भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबलि को युवराज पद देकर ये सिद्धार्थक वन गये थे । महापुराण 17. 32-77, 181 वहाँ इन्होंने पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन मुद्रा में पंचमुष्टि केशलोंच किया और चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन अपराह्न काल में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में दीक्षा धारण की थी । स्वामी-भक्ति से प्रेरित होकर चार हजार अन्य राजा भी इनके साथ दीक्षित हुए थे । महापुराण 17.20-203, 212-214 ये छ: मास तक निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ रहे । पद्मपुराण - 3.286-292 आहार-विधि जानने वालों के अभाव में एक वर्ष तक इन्हें आहार का अंतराय रहा । एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांस के यहाँ इक्षुरस द्वारा इनकी प्रथम पारणा हुई थी । महापुराण 20.28, 100, पद्मपुराण - 4.6-16 ये मेरु के समान अचल प्रतिमा-योग में एक हजार वर्ष तक खड़े रहे । इनकी भुजाएँ नीचे की ओर लटकती रही, केश बढ़कर जटाएँ हो गयी थीं । पद्मपुराण - 11.289 पुरिमताल नगर के समीप शकट नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर इन्होंने चित्त की एकाग्रता धारण की थी । महापुराण 20.218-220 इन्हें फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान और समवसरण की विभूति प्राप्त हुई थी । महापुराण 20.267-268 वटवृक्ष के नीचे इन्हें केवलज्ञान हुआ था । अत: आज भी लोग वटवृक्ष को पूजते हैं । पद्मपुराण - 11.292-293 इंद्र ने एक हजार आठ नामों से इनका गुणगान किया था । महापुराण 25.9-217 भरत की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर बाहुबलि को छोड़कर शेष सभी भाई इनके पास आये और इनसे दीक्षित हो गये थे । महापुराण 34.97,114-125 मरीचि को छोड़कर शेष नृप जो इनके साथ दीक्षित हो गये थे सम्यक्चारित्र का पालन नहीं कर सके । उन्होंने दिगंबरी साधना का मार्ग छोड़ दिया । उनमें से भी बहुत से साधु इनसे बंध और मोक्ष का स्वरूप सुनकर पुन: निर्ग्रंथ हो गये थे । वीरवर्द्धमान चरित्र 2.96-97 संघस्थ मुनियों में चार हजार सात सौ पचास तो पूर्वधर थे, इतने ही श्रुत के शिक्षक थे । नौ हजार अवधिज्ञानी बीस हजार केवलज्ञानी, बीस हजार छ: सौ विक्रियाऋद्धि के धारी, बीस हजार सात सौ विपुलमति-मन:पर्ययज्ञानी और इतने ही असंख्यात गुणों के धारक मुनि थे । हरिवंशपुराण - 12.71 -77 इनके संघ में चौरासी गणधर थे—1. वृषभसेन 2. कुंभ 3. दृढ़रथ 4. शत्रुदमन 5. देवशर्मा 6. धनदेव 7. नंदन 8. सोमदत्त 9. सुरदत्त 10. वायुशर्मा 11. सुबाहु 12. देवाग्नि 13. अग्निदेव 14. अग्निभूति 15. तेजस्वी 16. अग्निमित्र 17. हकधर 18. महीधर 19. माहेंद्र 20. वसुदेव 21. वसुंधरा 22. अचल 23. मेरु 24. भूति 25. सर्वसह 26. यज्ञ 27. सर्वगुप्त 28. सर्वदेव 29. सर्वप्रिय 30. विजय 31. विजयगुप्त 32. विजयमित्र 33. विजयश्री 34. परारूप 35. अपराजित 36. वसुमित्र 37. वसुसेन 38. साधुसेन 39. सत्यदेव 40. सत्यवेद 41. सर्वगुप्त 42. मित्र 43. सत्यवान् 44. विनीत 45. संवर 46. ऋषिगुप्त 47 ऋषिदत्त 48. यज्ञदेव 49. यज्ञगुप्त 50. यशमित्र 51. यज्ञदत्त 52. स्वायंभुत 53. भागदत्त 54. भागफल्गु 55. गुप्त 56. गुप्तफल्गु 57. मित्रफल्गु 58. प्रजापति 59. सत्यवश 60. वरुण 61. धनवाहित 62. महेंद्रदत्त 63. तेजोराशि 64. महारथ 65. विजयश्रुति 66. महाबल 67. सुविशाल 68. वज्र 69. वैर 70. चंद्रचूड़ 71. मेघेश्वर 72. कच्छ 73. महाकच्छ 74. सुकच्छ 75. अतिबल 76. भद्राबलि 77. नमि 78. विनमि 79. भद्रबल 80. नंदि 81. महानुभाव 82 नंदिमित्र 83. कामदेव और 84 अनुपम । पद्मपुराण - 4.57 हरिवंशपुराण - 12.53-70 संघ में शुद्धात्मतत्त्व को जानने वाली पचास हजार आर्यिकाएँ, पाँच लाख श्राविकाएँ और तीन लाख श्रावक थे । एक लाख पूर्व वर्ष तक इन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार-सागर से पार होने का उपदेश करते हुए पृथिवी पर विहार किया था । इसके पश्चात् ये कैलाश पर्वत पर ध्यानारूढ़ हुए और एक हजार राजाओं के साथ योग-निरोघ कर देवों से पूजित होकर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था । हरिवंशपुराण - 12.78-81, पद्मपुराण - 4.130 पूर्वभवों में नौवे पूर्वभव मे ये अलका नगरी के राजा अतिबल के महाबल नाम के पुत्र थे । महापुराण 4.133 आठवें पूर्वभव में ये ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामक देव हुए । महापुराण 5.253 सातवें पूर्वभव में वे राजा वज्रबाहु और उनकी रानी वसुंधरा के वज्रजंघ नामक पुत्र हुए । महापुराण 6.26-29 छठे पूर्वभव में ये उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए थे । महापुराण 9.33 पाँचवें पूर्वभव में ये ऐशान स्वर्ग में श्रीधर नाम के ऋद्धिधारी देव हुए थे । महापुराण 9.185 चौथे पूर्वभव में सुसीम नगर मे सुदृष्टि और उनकी रानी सुंदरनंदा के सुविधि नामक पुत्र हुए । महापुराण 10.121-122 तीसरे पूर्वभव में ये अच्युतेंद्र हुए । महापुराण 10.170 दूसरे पूर्वभव में ये राजा वज्रसेन और उनकी रानी श्रीकांता के वचनाभि नामक पुत्र हुए । महापुराण 11-9 प्रथम पूर्वभव में ये सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में अहमिंद्र हुए थे । महापुराण 11.111