पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 10 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥10॥
अर्थ:
जो सत लक्षणवाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त है अथवा गुण-पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ भगवान द्रव्य कहते हैं।
समय-व्याख्या:
अत्र त्रेधा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । सद᳭द्रव्यलक्षणम् । उक्त लक्षणाया: सत्ताया अविशेषाद᳭द्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम् । न चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वं रूपं यतो लक्ष्यलक्षणविभागाभाव इति । उत्पादव्ययध्रौव्याणि वा द्रव्यलक्षणम् । एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां संताने पूर्वभावविनाश: समुच्छेद:, उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पाद:, पूर्वोत्ताभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रौव्यम् । तानि सामान्यादेशादभिन्नानि विशेषादेशाद᳭भिन्नानि युगपद᳭भावीनि स्वभावभूतानि द्रव्यस्य लक्षणं भवन्तीति । गुणपर्याया वा द्रव्यलक्षणम् । अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा विशेषा गुणा व्यतिरिकेण: पर्यायास्ते द्रव्ये यौगपद्येन क्रमेण च प्रवर्तमाना: कथंचिद᳭भिन्ना: स्वभावभूता: द्रव्यलक्षणतामापद्यन्ते । त्रयाणाप्यमीषां द्रव्यलक्षणानामेकस्मिन्नभिहितेऽन्यदुभयमर्थादेवापद्यते । सच्चेदुत्पादव्ययध्रौव्यवच्च गुणपर्यायवच्च । उत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेत्सच्च गुणपर्यायवच्च । गुणपर्यायवच्चेत्सच्चोत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेति । सद्धि नित्यनित्यस्वभावत्वाद् ध्रुवत्वमुत्पादव्ययात्मकतां च प्रथयति, ध्रुवत्वात्मकैर्गुणैरुत्पादव्ययात्मकै: पर्यायैश्च सहैकत्वं चाख्याति । उत्पादव्ययध्रौव्याणि तु नित्यानित्यस्वरूपं परमार्तं सदावेदयन्ति, गुणपर्यायाश्चात्मलाभनिबन्धनभूतान् प्रथयन्ति । गुणपर्यायाम्त्वन्वयव्यतिरेकित्वाद् ध्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सूचयन्ति, नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं सच्चेपलक्षयन्तीति ॥१०॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ तीन प्रकार से द्रव्य का लक्षण कहा है ।
'सत्' द्रव्य का लक्षण है । पूर्वोक्त लक्षण-वाली सत्ता से द्रव्य अभिन्न होने के कारण 'सत्' स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है । और अनेकान्तामक द्रव्य का लक्षण है । और अनेकान्तामक द्रव्य का सत्-मात्र ही स्वरूप नहीं है की जिससे लक्ष्य-लक्षण के विभाग का अभाव हो । (सत्ता से द्रव्य अभिन्न है इसलिए द्रव्य का जो सत्ता-रूप स्वरूप वही द्रव्य का लक्षण है ।
प्रश्न - यदि सत्ता और द्रव्य अभिन्न है -- सत्ता द्रव्य का स्वरूप ही है, तो 'सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है' -- ऐसा विभाग किस-प्रकार घटित होता है ?
उत्तर - अनेकान्तात्मक द्रव्य के अनन्त स्वरूप हैं, उनमें से सत्ता भी उसका एक स्वरूप है; इसलिए अनन्त-स्वरूप वाला द्रव्य लक्ष्य है और उसका सत्ता नाम का स्वरूप लक्षण है -- ऐसा लक्ष्य-लक्षण-विभाग अवश्य घटित होता है । इस प्रकार अबाधित रूप से सत् द्रव्य का लक्षण है ।)
अथवा, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य का लक्षण है । एक जाति का अविरोधक ऐसा जो क्रमभावी भावों का प्रवाह उसमें पूर्व भाव का विनाश सो व्यय है, उत्तर भाव का प्रादुर्भाव (बाद के भाव की अर्थात वर्तमान भाव की उत्पत्ति) सो उत्पाद है और पूर्व--उत्तर भावों के व्यय-उत्पाद होने पर भी स्व-जाति का अत्याग सो ध्रौव्य है । वे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, जो की सामान्य आदेश से अभिन्न हैं (अर्थात सामान्य कथन से द्रव्य से अभिन्न हैं), विशेष आदेश से (द्रव्य से ) भिन्न हैं, युगपद वर्तते हैं और स्वभाव-भूत हैं वे -- द्रव्य का लक्षण हैं ।
अथवा, गुण-पर्यायें द्रव्य का लक्षण हैं । अनेकान्तात्मक वस्तु के अन्वयी विशेष वे गुण हैं और व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें हैं । वे गुण-पर्यायें, जो की द्रव्य में एक ही साथ तथा क्रमश: प्रवर्तते हैं, (द्रव्य से) कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न हैं तथा स्वभाव-भूत हैं वे -- द्रव्य का लक्षण हैं ।
द्रव्य के इस तीन लक्षणों में से (सत्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और गुण-पर्यायें इन तीन लक्षणों में से) एक का कथन करने पर शेष दोनों (बिना कथन किये) अर्थ से ही आ जाते हैं । यदि द्रव्य सत् हो, तो वह (१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त वाला और (२) गुण-पर्याय वाला होगा; यदि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला हो, तो वह (१) सत् और (२) गुण-पर्याय वाला होगा; गुण-पर्याय वाला हो, तो वह (१) सत् और (२) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला होगा । वह इसप्रकार --
सत् नित्यानित्यात्मक स्वभाव-वाला होने से (१) ध्रौव्य को और उत्पाद-व्ययात्मक्ता को प्रकट करता है तथा (२) ध्रौव्यात्मक गुणों और उत्पाद-व्ययात्मक पर्यायों के साथ एकत्व को दर्शाता है । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य (१) नित्यानित्य-स्वरूप पारमार्थिक सत् को बतलाते हैं तथा (२) अपने स्वरूप की प्राप्ति के कारण-भूत गुण-पर्यायों को प्रकट करते हैं, गुण-पर्यायें अन्वय और व्यतिरेक-वाली होने से (१) ध्रौव्य को और उत्पाद-व्यय को सूचित करते हैं तथा (२) नित्यानित्य स्वभाव-वाले पारमार्थिक सत् को बतलाते हैं ॥१०॥