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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) शुद्ध चेतना रूप लक्षण से युक्त, संसार से मुक्त, अष्टकर्मों से रहित, अनंत सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अत्यंतसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणों से सहित, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्तिक, अंतिम शरीर से किंचित् न्यून आकार के धारक, जन्म-जरा-मरण और अनिष्ट सयोग तथा इष्टवियोग, क्षुधा, तृषा, बीमारी आदि से उत्पन्न दु:खों से रहित, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तनों से रहित, लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्त जीव । ये पंच परमेष्ठियों में दूसरे परमेष्ठी होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20.222-225, 21.112-119, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#98|पद्मपुराण - 14.98-99]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_- | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) शुद्ध चेतना रूप लक्षण से युक्त, संसार से मुक्त, अष्टकर्मों से रहित, अनंत सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अत्यंतसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणों से सहित, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्तिक, अंतिम शरीर से किंचित् न्यून आकार के धारक, जन्म-जरा-मरण और अनिष्ट सयोग तथा इष्टवियोग, क्षुधा, तृषा, बीमारी आदि से उत्पन्न दु:खों से रहित, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तनों से रहित, लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्त जीव । ये पंच परमेष्ठियों में दूसरे परमेष्ठी होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20.222-225, 21.112-119, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#98|पद्मपुराण - 14.98-99]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_48#200|48.200-209]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_89#27|89.27]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_89#105|105]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_89#173|173-174]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_89#181|181]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_89#191|191]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#28|हरिवंशपुराण - 1.28]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#66|3.66-67]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 1.1, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.38-39, 11.109-110, 13. 106-108, 16. 177-178 </span></p> | ||
<p id="2">(2) मानुषोत्तर पर्वत की पश्चिम दिशा में विद्यमान अंजनमूलकूट का निवासी एक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.604 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) मानुषोत्तर पर्वत की पश्चिम दिशा में विद्यमान अंजनमूलकूट का निवासी एक देव । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#604|हरिवंशपुराण - 5.604]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24.38, 25.108 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24.38, 25.108 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:30, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
नियमसार/72 णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा । लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ।72। = आठ कर्मों के बंधन को जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, आठ महागुणों सहित, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य; ऐसे वे सिद्ध होते हैं ।
विस्तार के लिये देखें मोक्ष - 3।
पुराणकोष से
(1) शुद्ध चेतना रूप लक्षण से युक्त, संसार से मुक्त, अष्टकर्मों से रहित, अनंत सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अत्यंतसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणों से सहित, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्तिक, अंतिम शरीर से किंचित् न्यून आकार के धारक, जन्म-जरा-मरण और अनिष्ट सयोग तथा इष्टवियोग, क्षुधा, तृषा, बीमारी आदि से उत्पन्न दु:खों से रहित, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पंच परावर्तनों से रहित, लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्त जीव । ये पंच परमेष्ठियों में दूसरे परमेष्ठी होते हैं । महापुराण 20.222-225, 21.112-119, पद्मपुराण - 14.98-99, 48.200-209, 89.27, 105, 173-174, 181, 191, हरिवंशपुराण - 1.28, 3.66-67, पांडवपुराण 1.1, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.38-39, 11.109-110, 13. 106-108, 16. 177-178
(2) मानुषोत्तर पर्वत की पश्चिम दिशा में विद्यमान अंजनमूलकूट का निवासी एक देव । हरिवंशपुराण - 5.604
(3) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.38, 25.108