दान: Difference between revisions
From जैनकोष
Anita jain (talk | contribs) mNo edit summary |
Anita jain (talk | contribs) mNo edit summary |
||
Line 122: | Line 122: | ||
<li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> दया दत्ति आदि के लक्षण</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> दया दत्ति आदि के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/36-41 </span><span class="SanskritText">सानुकंपमनुग्राह्ये प्राणिवृंदेऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधै:।36। महातपोधनाचार्याप्रतिग्रहपुर:सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते।37। समानायात्मनान्यस्मै क्रियामंत्रव्रतादिभि:। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।38। समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतायिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता।39। आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थं सूनवे यदशेषत:। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।40। सैषा सकलदत्ति:...।41।</span> =<span class="HindiText">अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पंडित लोग दयादत्ति मानते हैं।36। महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाहन कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते हैं।37। क्रिया, मंत्र और व्रत आदि से जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए (कन्या, हस्ति, घोड़ा, रथ, रत्न <span class="GRef">( चारित्रसार )</span> पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समान दत्ति कहलाता है।38-39। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुंब समर्पण करने को सकल दत्ति (वा अन्वयदत्ति) कहते हैं।40। <span class="GRef">( चारित्रसार/43/6 )</span>; <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/7/27-28 )</span></span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/38/36-41 </span><span class="SanskritText">सानुकंपमनुग्राह्ये प्राणिवृंदेऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधै:।36। महातपोधनाचार्याप्रतिग्रहपुर:सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते।37। समानायात्मनान्यस्मै क्रियामंत्रव्रतादिभि:। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।38। समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतायिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता।39। आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थं सूनवे यदशेषत:। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।40। सैषा सकलदत्ति:...।41।</span> =<span class="HindiText">अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पंडित लोग दयादत्ति मानते हैं।36। महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाहन कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते हैं।37। क्रिया, मंत्र और व्रत आदि से जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए (कन्या, हस्ति, घोड़ा, रथ, रत्न <span class="GRef">( चारित्रसार )</span> पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समान दत्ति कहलाता है।38-39। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुंब समर्पण करने को सकल दत्ति (वा अन्वयदत्ति) कहते हैं।40। <span class="GRef">( चारित्रसार/43/6 )</span>; <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/7/27-28 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/234-238 </span><span class="PrakritGatha">असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।234। अइबुड्ढ-बाल-मुयंध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जह जोग्गं दायव्वं करुणादाणं त्ति भणिऊण।235। उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण। पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं।236। आगम-सत्थाइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं। तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा।237। जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणिं सव्वदाणाणं।238। </span>=<span class="HindiText">अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्र को देना चाहिए।234। | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/234-238 </span><span class="PrakritGatha">असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।234। अइबुड्ढ-बाल-मुयंध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जह जोग्गं दायव्वं करुणादाणं त्ति भणिऊण।235। उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण। पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं।236। आगम-सत्थाइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं। तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा।237। जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणिं सव्वदाणाणं।238। </span>=<span class="HindiText">अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्र को देना चाहिए।234। अतिवृद्ध,बालक, मूक (गूँगा), अंध, बधिर (बहिरा), देशांतरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवों को ‘करुणादान दे रहा हूँ’ ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।235। उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीड़ित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए।236। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवचनों का अध्यापन कराना पढ़ाना भी शास्त्रदान है।237। मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानों का शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए।238।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/43/6 </span><span class="SanskritText">दयादत्तिरनुकंपयाऽनुग्राह्येभ्य: प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानं।</span> =<span class="HindiText">जिस पर अनुग्रह करना आवश्यक है ऐसे दुखी प्राणियों को दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान देना दयादत्ति है।</span><br /> | <span class="GRef"> चारित्रसार/43/6 </span><span class="SanskritText">दयादत्तिरनुकंपयाऽनुग्राह्येभ्य: प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानं।</span> =<span class="HindiText">जिस पर अनुग्रह करना आवश्यक है ऐसे दुखी प्राणियों को दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान देना दयादत्ति है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/2/127/243/10 </span><span class="SanskritText">निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन परिणाम रूप जो निज भावों का अभयदान निज जीव की रक्षा और व्यवहार नयकर परप्राणियों के प्राणों की रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है।<br /> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/2/127/243/10 </span><span class="SanskritText">निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन परिणाम रूप जो निज भावों का अभयदान निज जीव की रक्षा और व्यवहार नयकर परप्राणियों के प्राणों की रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है।<br /> | ||
Line 198: | Line 198: | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> सत्पात्र को दान देना सम्यग्दृष्टि को मोक्ष का कारण है</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> सत्पात्र को दान देना सम्यग्दृष्टि को मोक्ष का कारण है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">अमितगति श्रावकाचार/11/102,123</span> <span class="SanskritText">पात्राय विधिना दत्वा दानं मूत्वा समाधिना। अच्युतांतेषु कल्पेषु जायंते शुद्धदृष्टय:।102। निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणीं प्रथीयसीं द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिलं श्रयंति सिद्धि विधुतापदं सदा।123। </span>=<span class="HindiText">पात्र के अर्थि दान देकरि समाधि सहित मरकैं सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते अच्युतपर्यंत स्वर्गनिविषैं उपजैं हैं।102। (अमि.श्रा./102) या प्रकार सुख की करने वाली महान् लक्ष्मी कौं भोग के दोय तीन भवनिविषैं समस्त कर्मनिकौं ध्यान अग्निकरि जराय के ते जीव आपदारहित मोक्ष अवस्थाकौं सदा सेवै हैं।123। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/2/111-4/231/15 )</span>।</span><br /> | <span class="GRef">अमितगति श्रावकाचार/11/102,123</span> <span class="SanskritText">पात्राय विधिना दत्वा दानं मूत्वा समाधिना। अच्युतांतेषु कल्पेषु जायंते शुद्धदृष्टय:।102। निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणीं प्रथीयसीं द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिलं श्रयंति सिद्धि विधुतापदं सदा।123। </span>=<span class="HindiText">पात्र के अर्थि दान देकरि समाधि सहित मरकैं सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते अच्युतपर्यंत स्वर्गनिविषैं उपजैं हैं।102। (अमि.श्रा./102) या प्रकार सुख की करने वाली महान् लक्ष्मी कौं भोग के दोय तीन भवनिविषैं समस्त कर्मनिकौं ध्यान अग्निकरि जराय के ते जीव आपदारहित मोक्ष अवस्थाकौं सदा सेवै हैं।123। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/2/111-4/231/15 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">वसुनन्दि श्रावकाचार/249-269 </span><span class="PrakritGatha">बद्धाउगा सुदिट्ठी अणुमोयणेण तिरिया वि। णियमेणुववज्जंति य ते उत्तमभागभूमीसु।249। जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्स। जायंति दाणफलओ कप्पेसु महडि्ढया देवा।265। पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरिं संजमं च घित्तूण। उप्पाइऊण णाणं केई गच्छंति णिव्वाणं।268। अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण। सत्तट्ठमवेहि तओ तरंति कम्मक्खयं णियमा।269।</span> =<span class="HindiText">बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्था में पहिले मनुष्यायु को बाँध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देने से और उक्त प्रकार के ही तिर्यंच | <span class="GRef">वसुनन्दि श्रावकाचार/249-269 </span><span class="PrakritGatha">बद्धाउगा सुदिट्ठी अणुमोयणेण तिरिया वि। णियमेणुववज्जंति य ते उत्तमभागभूमीसु।249। जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्स। जायंति दाणफलओ कप्पेसु महडि्ढया देवा।265। पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरिं संजमं च घित्तूण। उप्पाइऊण णाणं केई गच्छंति णिव्वाणं।268। अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण। सत्तट्ठमवेहि तओ तरंति कम्मक्खयं णियमा।269।</span> =<span class="HindiText">बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्था में पहिले मनुष्यायु को बाँध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देने से और उक्त प्रकार के ही तिर्यंच पात्रदान की अनुमोदना करने से नियम से वे उत्तम भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं।249। =जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनों प्रकार के पात्रों का दान देने के फल से स्वर्गों में महर्द्धिक देव होते हैं।265। (उक्त प्रकार के सभी जीव मनुष्यों में आकर चक्रवर्ती आदि होते हैं।) तब कोई वैराग्य का कारण देखकर प्रतिबुद्ध हो, राज्यलक्ष्मी को छोड़कर और संयम को ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त कर सात आठ भव में नियम से कर्मक्षय को करते हैं (268-269)। <strong> </strong></span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टि को सुभोगभूमि का कारण है</strong></span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टि को सुभोगभूमि का कारण है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/9/85 </span><span class="SanskritGatha">दानाद् दानानुमोदाद्वा यत्र पात्रसमाश्रितात् । प्राणिन: सुखमेधंते यावज्जीवमनामया:।85। </span>=<span class="HindiText">उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दान की अनुमोदना से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं उसमें जीवन पर्यंत निरोग रहकर सुख से बढ़ते रहते हैं।85।</span><br /> <span class="GRef">अमितगति श्रावकाचार/62 </span><span class="SanskritGatha">पात्रेभ्यो य: प्रकृष्टेभ्यो मिथ्यादृष्टि: प्रयच्छति। स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदय:।62। </span>=<span class="HindiText">जो मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट पात्रनि के अर्थि दान देय है सो महान् है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भोग भूमि कौ जाय है। <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/245 )</span></span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/9/85 </span><span class="SanskritGatha">दानाद् दानानुमोदाद्वा यत्र पात्रसमाश्रितात् । प्राणिन: सुखमेधंते यावज्जीवमनामया:।85। </span>=<span class="HindiText">उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दान की अनुमोदना से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं उसमें जीवन पर्यंत निरोग रहकर सुख से बढ़ते रहते हैं।85।</span><br /> <span class="GRef">अमितगति श्रावकाचार/62 </span><span class="SanskritGatha">पात्रेभ्यो य: प्रकृष्टेभ्यो मिथ्यादृष्टि: प्रयच्छति। स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदय:।62। </span>=<span class="HindiText">जो मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट पात्रनि के अर्थि दान देय है सो महान् है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भोग भूमि कौ जाय है। <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/245 )</span></span><br /> |
Revision as of 22:48, 26 December 2023
सिद्धांतकोष से
शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से गृहस्थ धर्म में दान की प्रधानता है। वह दान दो भागों में विभाजित किया जा सकता है–अलौकिक व लौकिक। अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है जो चार प्रकार का है–आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है जैसे समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, सदाव्रत, प्याऊ आदि खुलवाना इत्यादि। निरपेक्ष बुद्धि से सम्यक्त्व पूर्वक सद्पात्र को दिया गया अलौकिक दान दातार को परंपरा मोक्ष प्रदान करता है। पात्र, कुपात्र व अपात्र को दिये गये दान में भावों की विचित्रता के कारण फल में बड़ी विचित्रता पड़ती है।
- दान सामान्य निर्देश
- दान सामान्य का लक्षण।
- दान के भेद।
- औषधालय सदाव्रतादि खुलवाने का विधान।
- दया दत्ति आदि के लक्षण।
- सात्त्विक राजसादि दानों के लक्षण।
- सात्त्विकादि दानों में परस्पर तरतमता।
- तिर्यंचों के लिए भी दान देना संभव है।
- दान कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है।–देखें क्षायोपशमिक ।
- दान भी कथंचित् सावद्य योग है।–देखें सावद्य - 7।
- विधि दान क्रिया।–देखें संस्कार - 2।
- क्षायिक दान निर्देश
- गृहस्थों के लिए दान धर्म की प्रधानता
- दान दिये बिना धर्म को खाना महापाप है।–देखें पूजा - 2.1।
- दान का महत्त्व व फल
- पात्रदान सामान्य का महत्त्व।
- आहार दान का महत्त्व।
- औषध व ज्ञान दान का महत्त्व।
- अभयदान का महत्त्व।
- सत् पात्र को दान देना सम्यग्दृष्टि को मोक्ष का कारण है।
- सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टि को सुभोग भूमिका कारण है।
- कुपात्र दान कुभोग भूमिका कारण है।
- अपात्र दान का फल अत्यंत अनिष्ट है।
- विधि, द्रव्य, दाता व पात्र के कारण दान के फल में विशेषता आ जाती है।
- मंदिर में घंटी, चमर आदि के दान का महत्त्व व फल।–देखें पूजा - 4.2।
- विधि, द्रव्य, दातृ, पात्रादि निर्देश
- भक्ति पूर्वक ही पात्र को दान देना चाहिए।–देखें आहार - II.1।
- दान की विधि अर्थात् नवधा भक्ति।–देखें भक्ति -2.6।
- साधु को दान देने योग्य दातार।–देखें आहार - II.5।
- दान योग्य पात्र कुपात्र आदि निर्देश।–देखें पात्र ।
- दान के लिए पात्र की परीक्षा का विधि निषेध।–देखें विनय - 5।
- दानार्थ धन संग्रह का विधि निषेध
- दान सामान्य निर्देश
- दान सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/38 अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ।38। स्वपरोपकारोऽनुग्रह: ( सर्वार्थसिद्धि/7/38 )। =स्वयं अपना और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/330/14 परानुग्रहबुद्धया स्वस्यातिसर्जनं दानम् । =दूसरे का उपकार हो इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है। ( राजवार्तिक/6/12/4/522 )
धवला 13/5,5,137/389/12 रत्नत्रयवद्भ्य: स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनादित्सा वा। =रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है।
- दान के भेद
रत्नकरंड श्रावकाचार/ मूल/117 आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा:।117। =चार ज्ञान के धारक गणधर आहार, औषध के तथा ज्ञान के साधन शास्त्रादिक उपकरण और स्थान के (वस्तिका के) दान से चार प्रकार का वैयावृत्य कहते हैं।117। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/148 ) ( वसुनंदी श्रावकाचार/233 ) (पद्मनन्दि पंचविंशति/2/50)
सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/11 त्यागो दानम् । तत्त्रिविधम् – आहारदानमभयदानं ज्ञानदानं चेति। =त्याग दान है। वह तीन प्रकार का है–आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान।
महापुराण/38/35 ...। चतुर्धा वर्णिता दत्ति: दयापात्रसमान्वये।35। =दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वय दत्ति ये चार प्रकार की दत्ति कही गयी है। ( चारित्रसार/43/6 )
सागार धर्मामृत/5/47 में उद्धृत–तीन प्रकार का दान कहा गया है–सात्त्विक, राजस और तामस दान।
- औषधालय सदाव्रत आदि खुलवाने का विधान
सागार धर्मामृत/2/40 सत्रमप्यनुकंप्यानां, सृजेदनुजिघृक्षया। चिकित्साशालवद्दुष्येन्नेज्जायै वाटिकाद्यपि।40। =पाक्षिक श्रावक, औषधालय की तरह दुखी प्राणियों के उपकार की चाह से अन्न और जल वितरण के स्थान को भी बनवाये और जिनपूजा के लिए पुष्पवाटिकाएँ बावड़ी व सरोवर आदि बनवाने में भी हर्ज नहीं है।
- दया दत्ति आदि के लक्षण
महापुराण/38/36-41 सानुकंपमनुग्राह्ये प्राणिवृंदेऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधै:।36। महातपोधनाचार्याप्रतिग्रहपुर:सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते।37। समानायात्मनान्यस्मै क्रियामंत्रव्रतादिभि:। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।38। समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतायिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता।39। आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थं सूनवे यदशेषत:। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।40। सैषा सकलदत्ति:...।41। =अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ उनके भय दूर करने को पंडित लोग दयादत्ति मानते हैं।36। महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाहन कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते हैं।37। क्रिया, मंत्र और व्रत आदि से जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए (कन्या, हस्ति, घोड़ा, रथ, रत्न ( चारित्रसार ) पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समान दत्ति कहलाता है।38-39। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुंब समर्पण करने को सकल दत्ति (वा अन्वयदत्ति) कहते हैं।40। ( चारित्रसार/43/6 ); ( सागार धर्मामृत/7/27-28 )
वसुनंदी श्रावकाचार/234-238 असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।234। अइबुड्ढ-बाल-मुयंध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जह जोग्गं दायव्वं करुणादाणं त्ति भणिऊण।235। उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण। पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं।236। आगम-सत्थाइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं। तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा।237। जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणिं सव्वदाणाणं।238। =अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्र को देना चाहिए।234। अतिवृद्ध,बालक, मूक (गूँगा), अंध, बधिर (बहिरा), देशांतरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवों को ‘करुणादान दे रहा हूँ’ ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।235। उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीड़ित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए।236। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवचनों का अध्यापन कराना पढ़ाना भी शास्त्रदान है।237। मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानों का शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए।238।
चारित्रसार/43/6 दयादत्तिरनुकंपयाऽनुग्राह्येभ्य: प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानं। =जिस पर अनुग्रह करना आवश्यक है ऐसे दुखी प्राणियों को दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान देना दयादत्ति है।
परमात्मप्रकाश/2/127/243/10 निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां। =निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन परिणाम रूप जो निज भावों का अभयदान निज जीव की रक्षा और व्यवहार नयकर परप्राणियों के प्राणों की रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है।
- सात्त्विक राजसादि दानों के लक्षण
सागार धर्मामृत/5/47 में उद्धृत–आतिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणं। गुणा: श्रद्धादयो यत्र तद्दानं सात्त्विकं विदु:। यदात्मवर्णनप्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रमं। परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजसं मतं। पात्रापात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतं। दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे। =जिस दान में अतिथि का कल्याण हो, जिसमें पात्र की परीक्षा वा निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों उसे सात्त्विक दान कहते हैं। जो दान केवल अपने यश के लिए किया गया हो, जो थोड़े समय के लिए ही सुंदर और चकित करने वाला हो और दूसरे से दिलाया गया हो उसको राजस दान कहते हैं। जिसमें पात्र अपात्र का कुछ ख्याल न किया गया हो, अतिथि का सत्कार न किया गया हो, जो निंद्य हो और जिसके सब उद्योग दास और सेवकों से कराये गये हों, ऐसे दान को तामसदान कहते हैं।
- सात्त्विकादि दानों में परस्पर तरतमता
सागार धर्मामृत/5/47 में उद्धृत–उत्तमं सात्त्विकं दानं मध्यमं राजसं भवेत् । दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुन:। =सात्त्विक दान उत्तम है राजस मध्यम है, और सब दानों में तामस दान जघन्य है।
- तिर्यंचों के लिए भी दान देना संभव है
धवला 7/2,2,16/123/4 कधं तिरिक्खेसु दाणस्स संभवो। ण, तिरिक्खसंजदासंजदाणं सचित्तभंजणे गहिदपच्चक्खाणं सल्लइपल्लवादिं देंततिरिक्खाणं तदविरोधादो। =प्रश्न–तिर्यंचों में दान देना कैसे संभव हो सकता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जो तिर्यंच संयतासंयत जीव सचित्त भोजन के प्रत्याख्यान अर्थात् व्रत को ग्रहण कर लेते हैं उनके लिए सल्लकी के पत्तों आदि का दान करने वाले तिर्यंचों के दान देना मान लेने में कोई विरोध नहीं आता।
- दान सामान्य का लक्षण
- क्षायिक दान निर्देश
- क्षायिक दान का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/4/154/4 दानांतरायस्यात्यंतक्षयादनंतप्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम् । =दानांतरायकर्म के अत्यंत क्षय से अनंत प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। ( राजवार्तिक/2/4/2/105/28 )
- क्षायिक दान संबंधी शंका समाधान
धवला 14/5,6,18/17/1 अरहंता खीणदाणंताराइया सव्वेसिं जीवाणमिच्छिदत्थे किण्ण देंति। ण, तेसिं जीवाणं लाहंतराइयभावादो। =प्रश्न–अरिहंतों के दानांतराय का तो क्षय हो गया है, फिर वे सब जीवों को इच्छित अर्थ क्यों नहीं देते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उन जीवों के लाभांतराय कर्म का सद्भाव पाया जाता है।
- सिद्धों में क्षायिक दान क्या है
सर्वार्थसिद्धि/2/4/155/1 यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसंग: नैष दोष:, शरीरनामतीर्थंकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् । तेषां तदभावे तदप्रसंग:। कथ तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्ति:। परमानंदाव्याबाधरूपेणैव तेषां तत्र वृत्ति:। केवलज्ञानरूपेणानंतवीर्यवृत्तिवत् । =प्रश्न–यदि क्षायिक दानादि भावों के निमित्त से अभय दानादि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि इन अभयदानादि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है। परंतु सिद्धों के शरीरनामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म नहीं होते अत: उनके अभयदानादि नहीं प्राप्त होते। प्रश्न–तो सिद्धों में क्षायिक दानादि भावों का सद्भाव कैसे माना जाय ? उत्तर–जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनंत वीर्य का सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानंद के अव्याबाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है।
- क्षायिक दान का लक्षण
- गृहस्थों के लिए दान-धर्म की प्रधानता
- सद्पात्र को दान देना ही गृहस्थ का धर्म है
रयणसार/ मूल/11 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेणविणा।...।11। =सुपात्र में चार प्रकार का दान देना और श्री देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है। नित्य इन दोनों को जो अपना मुख्य कर्तव्य मानकर पालन करता है वही श्रावक है, धर्मात्मा व सम्यग्दृष्टि है। ( रयणसार/ मूल/13) (पद्मनन्दि पंचविंशति /7/7)
परमात्मप्रकाश टीका/2/111/4/231/14 गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमोधर्म:। =गृहस्थों के तो आहार दानादिक ही बड़े धर्म हैं।
- दान देकर खाना ही योग्य है
रयणसार/ मूल/22 जो मूणिभुत्तावसेसं भुंजइसी भुंजए जिणवद्दिट्ठं। संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं। =जो भव्य जीव मुनीश्वरों को आहारदान देने के पश्चात् अवशेष अन्न को प्रसाद समझकर सेवन करता है वह संसार के सारभूत उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम से मोक्ष सुख को प्राप्त होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/12-13 ...लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण। जा जल-तरंग-चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्ठेइ।12। जो पुण लच्छिं संचदि ण य...देदि पत्तेसु। सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स।13। =यह लक्ष्मी पानी में उठने वाली लहरों के समान चंचल है, दो, तीन दिन ठहरने वाली है तब इसे...दयालु होकर दान दो।12। जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल संचय करता है...न उसे जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम पात्रों में दान देता है, वह अपनी आत्मा को ठगता है, और उसका मनुष्य पर्याय में जन्म लेना वृथा है।
- दान दिये बिना खाना योग्य नहीं
कुरल/9/2 यदि देवाद् गृहे वासो देवस्यातिथिरूपिण:। पीयूषस्यापि पानं हि तं विना नैव शोभते।2। =जब घर में अतिथि हो तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नहीं पीना चाहिए।
क्रिया कोष/1986
जानौ गृद्ध समान ताके सुतदारादिका। जो नहीं करे सुदान ताके धन आमिष समा।1986। =जो दान नहीं करता है उसका धन मांस के समान है, और उसे खाने वाले पुत्र, स्त्री आदिक गिद्ध मंडली के समान हैं।
- दान देने से ही जीवन व धन सफल है
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/14/19-20 जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाण-सामाणियं कुणदि।14। जो वड्ढमाण-लच्छिं अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु। सो पंडिएहि थुव्वदि तस्स वि सयला हवे लच्छी।19। एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्मजुत्ताणं। णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं।20। =जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके पृथिवी के गहरे तल में उसे गाड़ देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है।14। जो मनुष्य अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मी को सर्वदा धर्म के कामों में देता है, उसकी लक्ष्मी सदा सफल है और पंडित जन भी उसकी प्रशंसा करते हैं।19। इस प्रकार लक्ष्मी को अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है और बदले में प्रत्युपकार की वांछा नहीं करता, उसी का जीवन सफल है।20। - दान को परम धर्म कहने का कारण
पद्मनन्दि पंचविंशति/2/13 नानागृहव्यतिकरार्जितपापपुंजै: खंजीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि। उच्चै: फलं विदधतीह यथैकदापि प्रीत्याति शुद्धमनसा कृतपात्रदानम् ।13। =लोक में अत्यंत विशुद्ध मन वाले गृहस्थ के द्वारा प्रीति पूर्वक पात्र के लिए एक बार भी किया गया दान जैसे उन्नत फल को करता है वैसे फल को गृह की अनेक झंझटों से उत्पन्न हुए पाप समूहों के द्वारा कुबड़े अर्थात् शक्तिहीन किये गये गृहस्थ के व्रत नहीं करते हैं।13।
परमात्मप्रकाश टीका/2/111,4/231/15 कस्मात् स एव परमो धर्म इति चेत्, निरंतरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति। =प्रश्न–श्रावकों का दानादिक ही परम धर्म कैसे है ? उत्तर–वह ऐसे है, कि ये गृहस्थ लोग हमेशा विषय कषाय के अधीन हैं, इससे इनके आर्त, रौद्र ध्यान उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधर्म का तो इनके ठिकाना ही नहीं है। अर्थात् अवकाश ही नहीं है।
- सद्पात्र को दान देना ही गृहस्थ का धर्म है
- दान का महत्त्व व फल
- पात्र दान सामान्य का महत्त्व
रयणसार/16-21 दिण्णइ सुपत्तदाणं विससतो होइ भोगसग्ग मही। णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं।16। खेत्तविसमे काले वविय सुवीयं फलं जहा विउलं। होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु दाणफलं।17। इस णियसुवित्तवीयं जो ववइ जिणुत्त सत्तखेत्तेसु। सो तिहुवणरज्जफलं भुंजदि कल्लाणपंचफलं।18। मादुपिदुपुत्तमित्तं कलत्त-धणधण्णवत्थु वाहणविसयं। संसारसारसोक्खं जाणउ सुपत्तदाणफलं।19। सत्तंगरज्ज णवणिहिभंडार सडंगवलचउद्दहरणयं। छण्णवदिसहसिच्छिविहउ जाणउ सुपत्तदाणफलं।20। सुकलसुरूवसुलक्खण सुमइ सुसिक्खा सुसील सुगुण चारित्तं। सुहलेसं सुहणामं सुहसादं सुपत्तदाणफलं।21। =सुपात्र को दान प्रदान करने से भोगभूमि तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है। और अनुक्रम से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।16। जो मनुष्य उत्तम खेत में अच्छे बीज को बोता है तो उसका फल मनवांछित पूर्ण रूप से प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्तम पात्र में विधिपूर्वक दान देने से सर्वोत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होती है।17। जो भव्यात्मा अपने द्रव्य को सात क्षेत्रों में विभाजित करता है वह पंचकल्याण से सुशोभित त्रिभुवन के राज्यसुख को प्राप्त होता है।18। माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि कुटुंब परिवार का सुख और धन-धान्य, वस्त्र-अलंकार, हाथी, रथ, महल तथा महाविभूति आदि का सुख एक सुपात्र दान का फल है।19। सात प्रकार राज्य के अंग, नवविधि, चौदह रत्न, माल खजाना, गाय, हाथी, घोड़े, सात प्रकार की सेना, षट्खंड का राज्य और छयानवे हजार रानी से सर्व सुपात्र दान का ही फल है।20। उत्तम कुल, सुंदर स्वरूप, शुभ लक्षण, श्रेष्ठ बुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा, उत्तमशील, उत्तम उत्कृष्ट गुण, अच्छा सम्यक्चारित्र, उत्तम शुभ लेश्या, शुभ नाम और समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री आदि सर्व सुख के साधन सुपात्र दान के फल से प्राप्त होते हैं।21।
रत्नकरंड श्रावकाचार/ मूल/115 -116 उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादुपासनात्पूजा। भक्ते: सुंदररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु।115। क्षितिगतमिववटवीजं पात्रगतं दानमल्पमति काले। फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृतां।116। =तपस्वी मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र, दान देने से भोग, उपासना करने से प्रतिष्ठा, भक्ति करने से सुंदर रूप और स्तवन करने से कीर्ति होती है।115। जीवों को पात्र में गया हुआ थोड़ा-सा भी दान समय पर पृथ्वी में प्राप्त हुए वट बीज के छाया विभव वाले वृक्ष की तरह मनोवांछित बहुत फल को फलता है।116। (पद्मनन्दि पंचविंशति/2/8-11)
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/174 कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्याग:। अरतिविषादविमुक्त: शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव।174। =इस अतिथि संविभाग व्रत में द्रव्य अहिंसा तो परजीवों का दु:ख दूर करने के निमित्त प्रत्यक्ष ही है, रहीं भावित अहिंसा वह भी लोभ कषाय के त्याग की अपेक्षा समझनी चाहिए।
पद्मनन्दि पंचविंशति/2/15-44 प्राय: कुतो गृहगते परमात्मबोध: शुद्धात्मनो भुवि यत: पुरुषार्थसिद्धि:। दानात्पुनर्ननु चतुर्विधत: करस्था सा लीलयैव कृतपात्रजनानुषंगात् ।15। किं ते गुणा: किमिह तत्सुखमस्ति लोके सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति। दानव्रतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मो जगत्त्रयवशीकरणैकमंत्रा:।19। सौभाग्यशौर्यसुखरूपविवेकिताद्या विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म। संपद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात् तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यत्न:।44। =जगत् में जिस आत्मस्वरूप के ज्ञान से शुद्ध आत्मा के पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, वह आत्मज्ञान गृह में स्थित मनुष्यों के प्राय: कहाँ से होती है ? अर्थात् नहीं हो सकती ? किंतु वह पुरुषार्थ की सिद्धि पात्रजनों में किये गये चार प्रकार के दान से अनायास ही हस्तगत हो जाती है।15। यदि मनुष्य के पास तीनों लोकों को वशीभूत करने के लिए अद्वितीय वशीकरण मंत्र के समान दान एवं व्रतादि से उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन से गुण है जो उसके वश में न हो सकें, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन न हो अर्थात् धर्मात्मा मनुष्य के लिए सब प्रकार के गुण, उत्तम सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।19। सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुंदरता, विवेक, बुद्धि आदि विद्या, शरीर, धन और महल तथा उत्तम कुल में जन्म होना यह सब निश्चय से पात्रदान के द्वारा ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्य जन ! तुम इस पात्रदान के विषय में क्यों नहीं यत्न करते हो।44। - आहार दान का महत्त्व
रत्नकरंड श्रावकाचार/ मूल/114 गृहकर्माणि निचितं कर्म विमार्ष्टि खलु गृहविमुक्तानां। अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि।114। =जैसे जल निश्चय करके रुधिर को धो देता है, तैसे ही गृहरहित अतिथियों का प्रतिपूजन करना अर्थात् नवधाभक्ति-पूर्वक आहारदान करना भी निश्चय करके गृहकार्यों से संचित हुए पाप को नष्ट करता है।114। (पद्मनन्दि पंचविंशति/7/13)
कुरल काव्य/5/4 परनिंदाभयं यस्य विना दानं न भोजनम् । कृतिनस्तस्य निर्बीजो वंशो नैव कदाचन् ।4। कुरल काव्य/33/2 इदं हि धर्मसर्वस्वं शास्तृणां वचने द्वयम् । क्षुधार्तेन समं भुक्ति: प्राणिनां चैव रक्षणम् ।2। =जो बुराई से डरता है और भोजन करने से पहले दूसरों को दान देता है, उसका वंश कभी निर्बीज नहीं होता।4। क्षुधाबाधितों के साथ अपनी रोटी बाँटकर खाना और हिंसा से दूर रहना, यह सब धर्म उपदेष्टाओं के समस्त उपदेशों में श्रेष्ठम उपदेश है।2। ( पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/31)
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/7/8 सर्वो वांछति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फुटम् । दृष्टयादित्रय एव सिद्धयति स तंनिर्ग्रंथ एव स्थितम् । तद्वृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात्तद्दीयते श्रावकै: काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते।8। =सब प्राणी सुख की इच्छा करते हैं, वह सुख स्पष्टतया मोक्ष में ही है, वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि स्वरूप रत्नत्रय के होने पर ही सिद्ध होता है, वह रत्नत्रय साधु के होता है, उक्त साधु की स्थिति शरीर के निमित्त से होती है, उस शरीर की स्थिति भोजन के निमित्त से होती है, और वह भोजन श्रावकों के द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त काल में भी मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति प्राय: उन श्रावकों के निमित्त से ही हो रही है।8।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/363-364 भोयण दाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होंति दिण्णाणि। भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं।363। भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्तिदिवसं पि। भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति।364। =भोजन दान देने पर तीनों दान दिये होते हैं। क्योंकि प्राणियों को भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजन के बल से ही साधु रात दिन शास्त्र का अभ्यास करता है और भोजन दान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है।363-364। भावार्थ–आहार दान देने से विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियम से दिया हुआ समझना चाहिए।
अमितगति श्रावकाचार/11/25,30 केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखत: सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् ।25। बहुनात्र किमुक्तेन बिना सकलवेदिना। फलं नाहारदानस्य पर: शक्नोति भाषितुम् ।31। =केवलज्ञानतैं दूजा उत्तम ज्ञान नहीं, और मोक्ष सु:खतै और दूजा सुख नहीं और आहारदानतै और दूजा उत्तम दान नाहीं।25। जो किछु वस्तु तीन लोकविषै सुंदर देखिये है सो सर्व वस्तु अन्नदान करता जो पुरुष ताकरि लीलामात्र करि शीघ्र पाइये है। (अमितगति श्रावकाचार/11/14-41)।
सागार धर्मामृत/ पृष्ठ 161 पर फुट नोट–आहाराद्भोगवान् भवेत् । =आहार दान से भोगोपभोग मिलता है। - औषध व ज्ञान दान का महत्त्व
अमितगति श्रावकाचार/11/37-50 आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापक:। किं सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मन:।37। निधानमेष कांतीनां कीर्त्तीनां कुलमंदिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भैषज्यं येन दीयते।38। लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलाभेषु कीदृशी तस्य वर्णना।47। शास्त्रदायी सतां पूज्य: सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कविर्मान्य: ख्यातशिक्ष: प्रजायते।50। =जाकै जन्म तै लगाय शरीर को ताप उपजावनै वाला रोग न होय है तिस सिद्धसमान महात्मा का सुख कहिये। भावार्थ–इहाँ सिद्ध समान कह्या सो जैसे सिद्धनिकौं रोग नाहीं तैसे याकै भी रोग नाहीं, ऐसी समानता देखी उपमा दीनि है।37। जा पुरुषकरि औषध दीजिये है सो यहु पुरुष कांति कहिये दीप्तिनिका तौ भंडार होय है, और कीर्त्तिनिका कुल मंदिर होय है जामै यशकीर्त्ति सदा वसै है, बहुरि सुंदरतानिका समुद्र होय है ऐसा जानना।38। जिस शास्त्रदान करि पवित्र मुक्ति दीजिये है ताकै संसार की लक्ष्मी देते कहा श्रम है।46। शास्त्रकौ देने वाला पुरुष संतनिके पूजनीक होय है अर पंडितनि के सेवनीक होय है, वादीनिके जीतने वाला होय है, सभा को रंजायमान करने वाला वक्ता होय है, नवीन ग्रंथ रचने वाला कवि होय है अर मानने योग्य होय है अर विख्यात है शिक्षा जाकी ऐसा होय है।50।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/7/9-10 स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते। साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते। कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिदं चारित्रभारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात् ।9। व्याख्याता पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां। भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधा:। सिद्धेऽस्मिन् जननांतरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सवश्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जना:।10। = शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन और संभाषण से नीरोग रहता है। परंतु इस प्रकार की इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओं के संभव नहीं है। इसलिए उनका शरीर प्राय: अस्वस्थ हो जाता है। ऐसी अवस्था में चूँकि श्रावक उस शरीर को औषध पथ्य भोजन और जल के द्वारा व्रतपरिपालन के योग्य करता है अतएव यहाँ उन मुनियों का धर्म उत्तम श्रावक के निमित्त से ही चलता है।9। उन्नत बुद्धि के धारक भव्य जीवों को जो भक्ति से पुस्तक का दान किया जाता है अथवा उनके लिए तत्त्व का व्याख्यान किया जाता है, इसे विद्वद्जन श्रुतदान (ज्ञानदान) कहते हैं। इस ज्ञानदान के सिद्ध हो जाने पर कुछ थोड़े से ही भवों में मनुष्य उस केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा संपूर्ण विश्व साक्षात् देखा जाता है। तथा जिसके प्रगट होने पर तीनों लोकों के प्राणी उत्सव की शोभा करते हैं।10।
सागार धर्मामृत/ पृष्ठ 161 पर फुट नोट...। आरोग्यमौषधाज् ज्ञेयं श्रुतात्स्यात् श्रुतकेवली। =औषध दान से आरोग्य मिलता है तथा शास्त्रदान अर्थात् (विद्यादान) देने से श्रुतकेवली होता है। - अभयदान का महत्त्व
मूलाचार/939 मरण भयभीरु आणं अभयं जो देदि सव्वजीवाणं। तं दाणाणवि तं दाणं पुण जोगेसु मूलजोगंपि।939। =मरणभय से भयमुक्त सब जीवों को जो अभय दान है वही दान सब दानों में उत्तम है और वह दान सब आचरणों में प्रधान आचरण है।939।
ज्ञानार्णव/8/54 किं न तप्तं तपस्तेन किं न दत्तं महात्मना। वितीर्णमभयं येन प्रीतिमालंब्य देहिनाम् ।54। =जिस महापुरुष ने जीवों को प्रीति का आश्रय देकर अभयदान दिया उस महात्मा ने कौन सा तप नहीं किया और कौन सा दान नहीं दिया। अर्थात् उस महापुरुष ने समस्त तप, दान किया। क्योंकि अभयदान में सब तप, दान आ जाते हैं।
अमितगति श्रावकाचार/13 शरीरं ध्रियते येन शममेव महाव्रतम् । कस्तस्याभयदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ।13। =जिस अभयदान करि जीवनिका शरीर पोषिए है जैसे समभावकरि महाव्रत पोषिए तैसें सो, तिस अभयदान के फल कहने को कौन समर्थ है।13।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/7/11 सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां, दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् । आहरौषधशास्त्रदानविधिभि: क्षुद्रोगजाडयाद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम् ।11। =दयालुपुरुषों के द्वारा जो सब प्राणियों को अभयदान दिया जाता है, वह अभयदान कहलाता है उससे रहित तीन प्रकार दान व्यर्थ होता है। चूँकि आहार, औषध और शास्त्र के दान की विधि से क्रम से क्षुधा, रोग और अज्ञानता का भय ही नष्ट होता है अतएव वह एक अभयदान ही श्रेष्ठ है।11। भावार्थ–अभयदान का अर्थ प्राणियों के सर्व प्रकार के भय दूर करना है, अत: आहारादि दान अभयदान के ही अंतर्गत आ जाते हैं। - सत्पात्र को दान देना सम्यग्दृष्टि को मोक्ष का कारण है
अमितगति श्रावकाचार/11/102,123 पात्राय विधिना दत्वा दानं मूत्वा समाधिना। अच्युतांतेषु कल्पेषु जायंते शुद्धदृष्टय:।102। निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणीं प्रथीयसीं द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिलं श्रयंति सिद्धि विधुतापदं सदा।123। =पात्र के अर्थि दान देकरि समाधि सहित मरकैं सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते अच्युतपर्यंत स्वर्गनिविषैं उपजैं हैं।102। (अमि.श्रा./102) या प्रकार सुख की करने वाली महान् लक्ष्मी कौं भोग के दोय तीन भवनिविषैं समस्त कर्मनिकौं ध्यान अग्निकरि जराय के ते जीव आपदारहित मोक्ष अवस्थाकौं सदा सेवै हैं।123। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/111-4/231/15 )।
वसुनन्दि श्रावकाचार/249-269 बद्धाउगा सुदिट्ठी अणुमोयणेण तिरिया वि। णियमेणुववज्जंति य ते उत्तमभागभूमीसु।249। जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्स। जायंति दाणफलओ कप्पेसु महडि्ढया देवा।265। पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरिं संजमं च घित्तूण। उप्पाइऊण णाणं केई गच्छंति णिव्वाणं।268। अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण। सत्तट्ठमवेहि तओ तरंति कम्मक्खयं णियमा।269। =बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्था में पहिले मनुष्यायु को बाँध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देने से और उक्त प्रकार के ही तिर्यंच पात्रदान की अनुमोदना करने से नियम से वे उत्तम भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं।249। =जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनों प्रकार के पात्रों का दान देने के फल से स्वर्गों में महर्द्धिक देव होते हैं।265। (उक्त प्रकार के सभी जीव मनुष्यों में आकर चक्रवर्ती आदि होते हैं।) तब कोई वैराग्य का कारण देखकर प्रतिबुद्ध हो, राज्यलक्ष्मी को छोड़कर और संयम को ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त कर सात आठ भव में नियम से कर्मक्षय को करते हैं (268-269)। - सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टि को सुभोगभूमि का कारण है
महापुराण/9/85 दानाद् दानानुमोदाद्वा यत्र पात्रसमाश्रितात् । प्राणिन: सुखमेधंते यावज्जीवमनामया:।85। =उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दान की अनुमोदना से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं उसमें जीवन पर्यंत निरोग रहकर सुख से बढ़ते रहते हैं।85।
अमितगति श्रावकाचार/62 पात्रेभ्यो य: प्रकृष्टेभ्यो मिथ्यादृष्टि: प्रयच्छति। स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदय:।62। =जो मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट पात्रनि के अर्थि दान देय है सो महान् है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भोग भूमि कौ जाय है। ( वसुनंदी श्रावकाचार/245 )
वसुनंदी श्रावकाचार/246-247 जा मज्झिमम्मि पत्तम्मि देइ दाणं खु वामदिट्ठी वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु।246। जो पुण जहण्णपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो विणरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो।247। =अर जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुष मध्यम पात्र में दान देता है वह जीव मध्यम भोगभूमि में उत्पन्न होता है।246। और जो जीव तथाविध अर्थात् उक्त प्रकार का मिथ्यादृष्टि भी मनुष्य जघन्य पात्र में दान को देता है, वह जीव उस दान के फल से जघन्य भोगभूमियों में उत्पन्न होता है।247। - कुपात्र दान कुभोग भूमि का कारण है
प्रवचनसार/256 छद्मत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि। =जो जीव छद्मस्थ विहित वस्तुओं (देव, गुरु धर्मादिक में) व्रत-नियम-अध्ययन-ध्यान-दान में रत होता है वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, (किंतु) सातात्मक भाव को प्राप्त होता है।256।
हरिवंशपुराण/7/115 कुपात्रदानतो भूत्वा तिर्यंचो भोगभूमिषु। संभुंजतेऽंतरं द्वीपं कुमानुषकुलेषु वा।115। =कुपात्र दान के प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियों में तिर्यंच होते हैं अथवा कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अंतर द्वीपों का उपभोग करते हैं।115।
अमितगति श्रावकाचार/84-88 कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते क: कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते।84। येऽंतरद्वीपजा: संति ये नरा म्लेच्छखंडजा:। कुपात्रदानत: सर्वे ते भवंति यथायथम् ।85। वर्यमध्यजघन्यासु तिर्यंच: संति भूमिषु। कुपात्रदानवृक्षोत्थं भुंजते तेऽखिला: फलम् ।86। दासीदासद्विपम्लेच्छसारमेयाददोऽत्र ये। कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ।87। दृश्यंते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह। सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयंते महोदया:।88। =कुपात्र के दानतै जीव कुभोगभूमिकौं प्राप्त होय है, इहां दृष्टांत कहै है–खोटा क्षेत्रविषै बीज बोये संते सुक्षेत्र के फलकौं कौन प्राप्त होय, अपितु कोई न होय है।84। ( वसुनंदी श्रावकाचार/248 )। जे अंतरद्वीप लवण समुद्रविषैं वा कालोद समुद्र विषैं छयानवैं कुभोग भूमि के टापू परे हैं, तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खंड विषैं उपजै मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्र दानतैं यथायोग होय हैं।85। उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमिन विषैं जे तिर्यंच हैं ते सर्व कुपात्र दान रूप वृक्षतैं उपज्या जो फल ताहि खाय हैं।86। इहां आर्य खंड में जो दासी, दास, हाथी, म्लेच्छ, कुत्ता आदि भोगवंत जीव हैं तिनको जो भोगै सो प्रगटपने कुपात्र दानतै हैं, ऐसा जानना।87। इहां आर्य खंड विषै नीच जाति के भोगी जीवनिके जे भोग महाउदय रूप देखिये है ते सर्व कुपात्र दान करि दीजिये हैं।88। - अपात्र दान का फल अत्यंत अनिष्ट है
प्रवचनसार/257 अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु। जुट्ठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु।257। =जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है, और जो विषय कषाय में अधिक है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या दान कुदेवरूप में और कुमानुष रूप में फलता है।257।
हरिवंशपुराण/7/118 अंबु निंबद्रुमे रौद्रं कोद्रवे मदकृद् यथा। विषं व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा।118। =जिस प्रकार नीम के वृक्ष में पड़ा हुआ पानी कडुवा हो जाता है, कोदों में दिया पानी मदकारक हो जाता है, और सर्प के मुख में पड़ा दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिये दिया हुआ दान विपरीत फल को करने वाला हो जाता है।118। (अमितगति श्रावकाचार/89-99) ( वसुनंदी श्रावकाचार/243 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/242 जह उसरम्मि खित्ते पइण्णबीयं ण किं पि रुहेइ। फला वज्जियं वियाणइ अपत्तदिण्णं तहा दाणं।242। =जिस प्रकार ऊसर खेत में बोया गया बीज कुछ भी नहीं उगता है, उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी फल रहित जानना चाहिए।242। - विधि, द्रव्य, दाता व पात्र के कारण दान के फल में विशेषता आ जाती है
तत्त्वार्थसूत्र/7/39 विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष:।39। =विधि, देयवस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से दान की विशेषता है।39।
कुरल काव्य/9/7 आतिथ्यपूर्णमाहात्म्यवर्णने न क्षमा वयम् । दातृपात्रविधिद्रव्यैस्तस्मिन्नस्ति विशेषता।7। =हम किसी अतिथि सेवा के माहात्म्य का वर्णन नहीं कर सकते कि उसमें कितना पुण्य है। अतिथि यज्ञ का महत्त्व तो अतिथि की योग्यता पर निर्भर है।
प्रवचनसार/255 रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि। =जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज धान्य काल में विपरीततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेद से (पात्र भेद से) विपरीततया फलता है।255।
सर्वार्थसिद्धि/7/39/373/5 प्रतिग्रहादिक्रमो विधि:। प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो भेद:। तप:स्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिर्द्रव्यविशेष:। अनसूयाविषादादिर्दातृविशेष:। मोक्षकारणगुणसंयोग: पात्रविशेष:। ततश्च पुण्यफलविशेष: क्षित्यादिविशेषाद् बीजफलविशेषवत् । =प्रतिग्रह आदि करने का जो क्रम है वह विधि है। ...प्रतिग्रह आदि में आदर और अनादर होने से जो भेद होता है वह विधि विशेष है। जिससे तप और स्वाध्याय आदिकी वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है। अनसूया और विषाद आदि का न होना दाता की विशेषता है। तथा मोक्ष के कारणभूत गुणों से युक्त रहना पात्र की विशेषता है। जैसे पृथिवी आदि में विशेषता होने से उससे उत्पन्न हुए बीज में विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिक की विशेषता से दान से प्राप्त होने वाले पुण्य फल में विशेषता आ जाती है। ( राजवार्तिक/7/39/1-6/559 ) (अमितगति श्रावकाचार/10/50) ( वसुनंदी श्रावकाचार/240-241 )। - दान के प्रकृष्ट फल का कारण
रत्नकरंड श्रावकाचार/116 नन्वेवंविधं विशिष्टं फलं स्वल्पं दानं कथं संपादयतीत्याशंकाऽपनोदार्थमाह–क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृतां।116। =प्रश्न–स्वल्प मात्र दानतै इतना विशिष्ट फल कैसे हो सकता है ? उत्तर–जीवों को पात्र में गया हुआ अर्थात् मुनि अर्जिका आदि के लिए दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान समय पर पृथ्वी में प्राप्त हुए वट बीज के छाया विभव वाले वृक्ष की तरह मनोवांछित फल को फलता है।116। ( वसुनंदी श्रावकाचार/240 ) ( चारित्रसार/29/1 )।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/38 पुण्यक्षयात्क्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरत: कुरुत संततपात्रदानम् । कूपे न पश्यत जलं गृहिण: समंतादाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ।38। =संपत्ति पुण्य के क्षय से क्षय को प्राप्त होती है, न कि दान करने से। अतएव हे श्रावको ! आप निरंतर पात्र दान करें। क्या आप यह नहीं देखते कि कुएँ से सब ओर से निकाला जाने वाला भी जल नित्य बढ़ता ही रहता है।
- पात्र दान सामान्य का महत्त्व
- विधि द्रव्य दातृ पात्र आदि निर्देश
- दान योग्य द्रव्य
रयणसार/23-24 सीदुण्ह वाउविउलं सिलेसियं तह परीसमव्वाहिं। कायकिलेसुव्वासं जाणिज्जे दिण्णए दाणं।23। हियमियमण्णपाणं णिरवज्जोसहिणिराउलं ठाणं। सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्खरवो।24। =मुनिराज की प्रकृति, शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म या पित्त रूप में से कौन सी है। कायोत्सर्ग वा गमनागमन से कितना परिश्रम हुआ है, शरीर में ज्वरादि पीड़ा तो नहीं है। उपवास से कंठ शुष्क तो नहीं है इत्यादि बातों का विचार करके उसके उपचार स्वरूप दान देना चाहिए।23। हित-मित प्रासुक शुद्ध अन्न, पान, निर्दोष हितकारी ओषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण, आसनोपकरण, शास्त्रोपकरण आदि दान योग्य वस्तुओं को आवश्यकता के अनुसार सुपात्र में देता है वह मोक्षमार्ग में अग्रगामी होता है।24।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/170 रागद्वेषासंयममददु:खभयादिकं न यत्कुरुते। द्रव्यं तदेव देयं सुतप:स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।170। =दान देने योग्य पदार्थ जिन वस्तुओं के देने से रागद्वेष, मान, दु:ख, भय आदिक पापों की उत्पत्ति होती है, वह देने योग्य नहीं। जिन वस्तुओं के देने से तपश्चरण, पठन, पाठन स्वाध्यायादि कार्यों में वृद्धि होती है, वही देने योग्य हैं।170। (अमितगति श्रावकाचार/9/44) ( सागार धर्मामृत/2/45 )।
चारित्रसार/28/3 दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतुस्तप:स्वाध्यायपरिवृद्धिकरणत्वाद्द्रव्यविशेष:। =भिक्षा में जो अन्न दिया जाता है वह यदि आहार लेने वाले साधु के तपश्चरण स्वाध्याय आदि को बढ़ाने वाला हो तो वही द्रव्य की विशेषता कहलाती है। - दान प्रति उपकार की भावना से निरपेक्ष देना चाहिए
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/20 एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्मजुत्ताणं। णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं।20। =इस प्रकार लक्ष्मी को अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है और उसके बदले में उससे प्रत्युपकार की वांछा नहीं करता, उसी का जीवन सफल है।20। - गाय आदि का दान योग्य नहीं
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/50 नान्यानि गोकनकभूमिरथांगनादिदानादि निश्चितमवद्यकराणि यस्मात् ।50। =आहारादि चतुर्विध दान से अतिरिक्त गाय, सुवर्ण, पृथिवी, रथ और स्त्री आदि के दान, महान् फल को देने वाले नहीं हैं।50।
सागार धर्मामृत/5/53 हिंसार्थत्वान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्ठिक:। न दद्याद् ग्रहसंक्रांति-श्राद्धदौ वा सुदृग्द्रुहि।53। =नैष्ठिक श्रावक प्राणियों की हिंसा के निमित्त होने से भूमि, शस्त्र, गौ, बैल, घोड़ा वगैरह हैं आदि में जिनके ऐसे कन्या, सुवर्ण और अन्न आदि पदार्थों को दान नहीं देवे। ( सागार धर्मामृत/9/46-59 )। - मिथ्यादृष्टि को दान देने का निषेध
दर्शनपाहुड़/ टीका/2/3/1 दर्शनहीन: ...तस्यान्नदानाक्षिकमपि न देयं। उक्तं च–मिथ्यादृग्भ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्धक:। =मिथ्यादृष्टि को अन्नादिक दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है–मिथ्यादृष्टि को दिया गया दान दाता को मिथ्यात्व का बढ़ाने वाला है।
अमितगति श्रावकाचार/50 तद्येनाष्टपदं यस्य दीयते हितकाभ्यया। स तस्याष्टापदं मन्ये दत्ते जीवितशांतये।50। =जैसे कोऊ जीवने के अर्थ काहूकौ अष्टापद हिंसक जीवकौं देय तो ताका मरन ही होय है तैसैं धर्म के अर्थ मिथ्यादृष्टीनकौ दिया जो सुवर्ण तातैं हिंसादिक होने तैं परके वा आपके पाप ही होय है ऐसा जानना।50।
सागार धर्मामृत/2/64/149 फुट नोट–मिथ्यात्वग्रस्तचित्तेसु चारित्राभासभागिषु। दोषायैव भवेद्दानं पय:पानमिवाहिषु। =चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्यादृष्टियों को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल अशुभ के लिए ही होता है। - कुपात्र व अपात्र को करुणा बुद्धि से दान दिया जाता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/730 कुपात्रायाप्यपात्राय दानं देयं यथोचितम् । पात्रबुद्धया निषिद्धं स्यान्निषिद्धं न कृपाधिया।730। कुपात्र के लिए और अपात्र के लिए भी यथायोग्य दान देना चाहिए क्योंकि कुपात्र तथा अपात्र के लिए केवल पात्र बुद्धि से दान देना निषिद्ध है, करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है।730। ( लाटी संहिता/3/161 ) ( लाटी संहिता/6/225 )। - दुखित भुखित को भी करुणाबुद्धि से दान दिया जाता है
पंचाध्यायी x` 30/731 शेषेभ्य: क्षुत्पिपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्योऽभयदानादि दातव्यं करुणार्णवै:।731। =दयालु श्रावकों को अशुभ कर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, आदि से दुखी शेष दीन प्राणियों के लिए भी अभय दानादिक देना चाहिए।731। ( लाटी संहिता/3/162 )। - ग्रहण व संक्रांति आदि के कारण दान देना योग्य नहीं
अमितगति श्रावकाचार/60-61 य: संक्रांतौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमति:। सम्यक्त्ववनं छित्त्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येष:।60। ये ददते मृततृप्त्यै बहुधादानानि नूनमस्तधिय:। पल्लवयितं तरुं ते भस्मीभूतं निषिंचंति।61। =जो मूढबुद्धि पुरुष संक्रांतिविषैं आदित्यवारादि (ग्रहण) वार विषैं धन को देय है सो सम्यक्त्व वन को छेदिकै मिथ्यात्व वन को बोवै है।60। जे निर्बुद्धि पुरुष मरे जीव की तृप्तिके अर्थ बहुत प्रकार दान देय है ते निश्चयकरि अग्निकरि भस्मरूप वृक्षकौं पत्र सहित करनेकौं सींचै है।61।
सागार धर्मामृत/5/53 हिंसार्थत्वान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्ठिक:। न दद्याद् ग्रहसंक्रांति-श्राद्धादौ वा सुदृग्द्रुहि।53।= नैष्ठिक श्रावक प्राणियों की हिंसा में निमित्त होने से भूमि आदि...को दान नहीं देवे। और जिनको पर्व मानने से सम्यक्त्व का घात होता है ऐसे ग्रहण, संक्रांति, तथा श्राद्ध वगैरह में अपने द्रव्य का दान नहीं देवे।53।
- दान योग्य द्रव्य
- दानार्थ धन संग्रह का विधि निषेध
- दान के लिए धन की इच्छा अज्ञान है
इष्टोपदेश/ मूल /16 त्यागाय श्रेय से वित्तमवित्त: संचिनोति य:। स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलिंपति।16। =जो निर्धन मनुष्य पात्रदान, देवपूजा आदि प्रशस्त कार्यों के लिए अपूर्व पुण्य प्राप्ति और पाप विनाश की आशा से सेवा, कृषि और वाणिज्य आदि कार्यों के द्वारा धन उपार्जन करता है वह मनुष्य अपने निर्मल शरीर में ‘नहा लूँगा’ इस आशा से कीचड़ लपेटता है।16। - दान देने की अपेक्षा धन का ग्रहण ही न करे
आत्मानुशासन/102 अर्थिम्यस्तृणवद्विचिंत्य विषयान् कश्चिच्छ्रियं दत्तवान् पापं तामवितर्पिणी, विगणयन्नादात् परस्त्यक्तवान् । प्रागेव कुशलां विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत् एते ते विदितोत्तरोत्तरवरा: सर्वोत्तमास्त्यागिन:।102। =कोई विद्वान् मनुष्य विषयों को तृण के समान तुच्छ समझकर लक्ष्मी को याचकों के लिऐ दे देता है, कोई पाप रूप समझकर किसी को बिना दिये ही त्याग देता है। सर्वोत्तम वह है जो पहिले से ही अकल्याणकारी जानकर ग्रहण नहीं करता।102। - दानार्थ धन संग्रह की कथंचित् इष्टता
कुरल काव्य/23/6 आर्तक्षुधाविनाशाय नियमोऽयं शुभावह:। कर्तव्यो धनिभिर्नित्यमालये वित्तसंग्रह:।6। =गरीबों के पेट की ज्वाला को शांत करने का यही एक मार्ग है कि जिससे श्रीमानों को अपने पास विशेष करके धन संग्रह कर रखना चाहिए।6। - आय का वर्गीकरण
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/2/32 ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेक तस्यापि संततमणुव्रतिना यथर्द्धि। इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतु:।32। =अणुव्रती श्रावक को निरंतर अपनी संपत्ति के अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास उसके भी आधे भाग अर्थात् चतुर्थांश को भी देना चाहिए। कारण यह है कि यहाँ लोक में इच्छानुसार द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम दान को दे सके, यह कुछ नहीं कहा जा सकता।32।
सागार धर्मामृत/1/11/22 पर फुट नोट–पादमायानिधिं कुर्यात्पादं वित्ताय खट्वयेत् । धर्मोपभोगयो: पादं पादं भर्त्तव्यपोषणे। अथवा–आयार्द्धं च नियुंजीत धर्मे समाधिकं तत:। शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छमैहिकं। =गृहस्थ अपने कमाये हुए धन के चार भाग करे, उसमें से एक भाग तो जमा रखे, दूसरे भाग से बर्तन वस्त्रादि घर की चीजें खरीदे, तीसरे भाग से धर्मकार्य और अपने भोग उपभोग में खर्च करे और चौथे भाग से अपने कुटुंब का पालन करे। अथवा अपने कमाये हुए धन का आधा अथवा कुछ अधिक धर्मकार्य में खर्च करे और बचे हुए द्रव्य से यत्नपूर्वक कुटुंब आदि का पालन पोषण करै।
- दान के लिए धन की इच्छा अज्ञान है
पुराणकोष से
(1) चतुर्विध राजनीति का एक अंग । हरिवंशपुराण - 50.18
(2) सातावेदनीय का आस्रव । यह गृहस्थ के चतुर्विध धर्म में प्रथम धर्म है । इसमें स्व और पर के उपकार हेतु अपने स्व अर्थात् धन या अपनी वस्तु का त्याग किया जाता है । महापुराण 8.177-178, 41.104, 56.88-89, 63.270, हरिवंशपुराण - 58.94, पांडवपुराण 1.123, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.12 महापुराण में इसके तीन भेद बताये हैं― शास्त्रदान (ज्ञानदान), अभयदान और आहारदान । सत्पुरुषों का उपकार करने की इच्छा से सर्वज्ञ भाषित शास्त्र का दान शास्त्रदान, कर्मबंध के कारणों को छोड़ने के हेतु प्राणिपीड़ा का त्याग करना अभयदान और निर्ग्रंथ साधुओं को उनके शरीर आदि की रक्षार्थ शुद्ध आहार देना आहारदान कहा है । ज्ञानदान सबमें श्रेष्ठ है क्योंकि वह पाप कार्यों से रहित तथा देने और लेने वाले दोनों के लिए निजानंद रूप मोक्षप्राप्ति का कारण है । आरंभ जन्य पाप का कारण होने से आहारदान की अपेक्षा अभयदान श्रेष्ठ है । महापुराण 56.67-77 औषधिदान को मिलाकर इसके चार भेद भी किये गये हैं । ये त्रिविध पात्रों को नवधा भक्तिपूर्वक दिये जाते हैं । पद्मपुराण - 14.56-59,76, पांडवपुराण 1.126 पात्र के लिए दान देने अथवा अनुमोदना करने से जीव भोगभूमि में उत्पन्न होकर जीवन पर्यंत निरोग एव सुखी रहते हैं । महापुराण 9. 85-86, हरिवंशपुराण - 7.107-118 दाता की विशुद्धता-देय वस्तु और लेने वाले पात्र को, देय वस्तु की पवित्रता-देने और लेने वाले दोनों को एवं पात्र की विशुद्धि-दाता और देय वस्तु इन दोनों को पवित्र करती है । महापुराण 20.136-137 यह भोग संपदा का प्रदाता तथा स्वर्ग और मोक्ष का हेतु है । पद्मपुराण - 123.107-108 आहारदान नवधा भक्तिपूर्वक दिया जाता है । दाता के लिए सर्वप्रथम पात्र को पड़गाहकर उसे उच्च स्थान देना, उसके पाद-प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहारशुद्धि प्रकट करनी पड़ती हे । हरिवंशपुराण - 9.199-200 श्रावक की एक क्रिया दत्ति है । इसके चार भेद कहे है― दयादत्ति, पात्रदति, समददत्ति और अन्वयदत्ति । महापुराण 38.35-40