वर्गणा: Difference between revisions
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<p class="HindiText">समान गुण वाले परमणुपिण्ड को वर्गणा कहते हैं, जो | <p class="HindiText">समान गुण वाले परमणुपिण्ड को वर्गणा कहते हैं, जो 5 प्रधान जाति वाले सूक्ष्म स्कन्धों के रूप में लोक के सर्व प्रदेशों पर अवस्थित रहते हुए, जीव के सर्व प्रकार के शरीरों व लोक के सर्व स्थूल भौतिक पदार्थों के उपादान कारण होती है । यद्यपि वर्गणा की व्यवहार्य जाति 5 ही हैं, परन्तु सवंमूर्तीक व अमूर्तीक भौतिक पदार्थों में प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि दर्शाने के लिए उसके 23 भेद करके बताये गये हैं । उस-उस जाति की वर्गणा से उस-उस जाति के ही पदार्थ का निर्माण होता है, अन्य जाति का नहीं । परन्तु परमाणुओं की हानि या वृद्धि हो जाने से वह वर्गणा स्वयं अपनी जाति बदल दूसरी जाति की वर्गणा में परिणत हो सकती है । <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.3 | द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा का निर्देश व लक्षण ।]] <br /> | <li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.3 | द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा का निर्देश व लक्षण ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.4 | वर्गणा के | <li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.4 | वर्गणा के 23 भेद ।]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.5 | आहार आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण । ]]<br /> | <li class="HindiText">[[भेद व लक्षण#1.5 | आहार आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">महास्कन्ध - देखें | <li class="HindiText">महास्कन्ध - देखें [[ स्कन्ध ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.1 | वर्गणाओं में जातिभेद निर्देश ।]] <br /> | <li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.1 | वर्गणाओं में जातिभेद निर्देश ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.2 | तीनों शरीरों की वर्गणाओं में | <li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.2 | तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.3 | आठों कर्मों की वर्गणाओं में | <li class="HindiText"> [[वर्गणा निर्देश#2.7.3 | आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कार्मण वर्गणा एक ही बार आठ कर्म क्यों नहीं हो जाती? - | <li class="HindiText"> कार्मण वर्गणा एक ही बार आठ कर्म क्यों नहीं हो जाती? - देखें [[ बन्ध#5.2 | बन्ध - 5.2 ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> योग वर्गणा - | <li class="HindiText"> योग वर्गणा - देखें [[ योग#6 | योग - 6 ]]। </li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> वर्गणा सामान्य का लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> वर्गणा सामान्य का लक्षण </strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/5/4/107/8<span class="SanskritText"> तथैव समगुणाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">इन सम गुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को (देखें [[ वर्ग ]]) वर्गणा कहते हैं । </span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.5/4-22/473/344/8<span class="PrakritText"> एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तखरिसधणियपरमाणू समत्त त्ति । एदेसिं सव्वेसिं पि वग्गणा त्ति सण्णा । </span>= <span class="HindiText">इस प्रकार (देखें [[ वर्ग ]]) समान धन वाले एक-एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा छेद करके (छेद करने पर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं, उन सबको) दक्षिण पार्श्व में बाण के समान ॠजु पंक्ति में रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशि से अनन्त गुणे सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण (वे सबके सब) समान धन वाले परमाणु समाप्त हों । उन सब वर्गों की वर्गणा संज्ञा है । (ध.12/4, 2, 7, 199/93/8) । </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./52 <span class="PrakritText">वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा ।</span> = <span class="HindiText">वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं (गो.जी./मं.प्र./59/153/14) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> प्रथम द्वि. आदि वर्गणा के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> प्रथम द्वि. आदि वर्गणा के लक्षण </strong></span><br /> | ||
ध. | ध.12/4, 2, 7, 204/145/9 <span class="PrakritText">वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्ते पहुडि णिरंतरं अविपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । </span>= <span class="HindiText">वर्गणान्तर से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद से अधिक अनुभाग का नाम प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा है । उससे लेकर निरन्तर एक-एक अविभाग प्रतिच्छिेद की अधिकता के क्रम से वर्गणाएँ जाकर प्रथम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा होती है (विशेष देखें [[ स्पर्धक ]]) । <br /> | ||
ल.सा./भाषा/ | ल.सा./भाषा/223/277/9 ऐसी (जघन्य वर्गरूप) जेती परमाणू होंइ तिनि के समूह का नाम प्रथम वर्वणा है । बहुरि यातैं द्वितीयादि वर्गणानिधिपे एक-एक चय घटता क्रमकरि परमाणूनिका प्रमाण है (विशेष देखें [[ स्पर्शक ]]) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा निर्देश व लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा निर्देश व लक्षण </strong></span><br /> | ||
ष.खं./ | ष.खं./14/5, 6/सूत्र 71/51 <span class="PrakritText">वग्गणणिक्खेवे त्ति छव्वि हे णिक्खवे-णामवग्गणाट्ठवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि ।71। </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 71/52/4 <span class="PrakritText">तव्वीदंरित्त दव्ववग्गणा दुविहा - कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओणेकम्मवग्गणओ । एगागासोगाहणप्पहुडिपदेमुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ । कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्हुडि जाव कम्मट्ठिदि त्ति णोकम्मदव्वं पहुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा त्ति ताव एदाओ कालवग्गणओ ।.... ओदइयादि पञ्चण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगम भाववग्गणा । </span>= <span class="HindiText">वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है । वर्गणानिक्षेप चार प्रकार का है - नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा और भावर्गणा [इनमें से अन्य सब वर्गणाओं के लक्षण निक्षेपोंवत् जानने - (देखें [[ निक्षेप ]])] तद्व्यतिरिक्त नीआगम द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है - कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा । उनमें से आठ प्रकार के कर्म स्कन्धों के भेद कर्मवर्गणा हैं, तथा शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ (देखें [[ अगला शीर्षक ]]) नोकर्मवर्गणाएँ हैं । एक आकाश प्रदेशप्रमाण अवगाहना से लेकर प्रदेशोत्तर आदि के क्रम से कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ हैं । कर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक एक आवली से लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ हैं ।...... औदयिकादि पाँच भावों के जो भेद हैं वे सब नोआगमभाव वर्गणा हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वर्गणा के | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वर्गणा के 23 भेद </strong></span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 97/गा.7-8/117<span class="PrakritText"> अणुसंखासंखेज्जा तधणता वग्गणा अगेज्झाओ । आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइयध्रुयक्खंधा ।7 । सांतरणिरंतरेदरसुण्णा पत्तेयदेह ध्रुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो ।8।</span> = <span class="HindiText">अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा । ये तेईस वर्गणाएँ हैं ..... (ष.ख./14/5, 6 । सूत्र 76-97/54/117 तथा सूत्र 708-718/542-543) । (ध.13/5, 5, 82/351/11); (गो.जी./मू./594-595/1032) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> आहारक आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> आहारक आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.14/5, 6/सूत्र पृष्ठ <span class="PrakritText">ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं जाणि दव्वाणि घेत्तूण ओरालियवेउव्विय-आहारसरीरत्तए परिणामेदूणं परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम (730/546) जाणि दव्वाणि घेत्तूण तेयासरीरत्तए पारणामेदूण परिणमति जीवा ताणि दव्वाणि तेजादव्ववग्गणा णाम । (737/549) । सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असच्चमोसभासाए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्तए मोसभासत्तए सच्चमोसभासत्तए असच्चमोसभासत्तए परिणामेदूण णिस्सारंति जीवा ताणि भासादव्ववग्गणा णाम । (744/550) । सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए असच्चमोसमणत्तए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दत्तवाणि मणदव्ववग्गणा णाम । (751/552) । णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अन्तराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्तए दंसणावरणीयत्तए वेयणीयत्तए मोहणीयत्तए आउअत्तए णामत्तए गोदत्तए अंतराइयत्तए परिणामेदूण परिणामंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (758/553) । </span>= <span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों के (योग्य) जिन द्रव्यों को ग्रहण कर औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (730/546) । जिन द्रव्यों को ग्रहणकर तैजस् शरीररूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की तैजस्द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (737/549) । सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा रूप से परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं उन द्रव्यों की भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (744/550) । सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्यों की मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (751/552) । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरण रूप से, दर्शनावरण रूप से, वेदनीय रूप से, मोहनीय रूप से, आयु रूप से, नाम रूप से, गोत्र रूप से और अन्तराय रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्यों की कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (758/553) । </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 79-87/पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">ओरालियवेउव्वियआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा त्ति सण्णा । (59/10) । एसा सत्तमी वग्गणा । एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा । (60/10) । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा । पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (61/10) । एसा एक्कारसमी वग्गणा । एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं करिदे । (62/14) । एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलक्खंधा अट्ठकम्मपाओग्गा । (63/14) । </span>= <span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (59/10) । यह सातवीं वर्गणा है । इसके पुद्गलस्कन्ध तैजसशरीर के योग्य होते हैं । (60/10) । भाषावर्गणा के परमाणुपुद्गलस्कन्ध चार भाषाओं के योग्य होते हैं । तथा ढोल, भेरो, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती हैं । (61/10) । यह ग्यारहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा से द्रव्यमन की रचना होती है । (62/14) । यह तेरहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आठ कर्मों के योग्य होते हैं । (63/14) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ <span class="PrakritText">अग्गहणदव्ववग्गणा आहारदव्वमधिच्छिदा तेया दव्ववग्गणं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहण दव्ववग्गणा णाम । (733/548) । अगहणदव्ववग्गणा तेजादव्वमविच्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (740/549) । अग्गहणदव्ववग्गणा भासा दव्वमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अग्गहणदव्ववग्गणा णाम । (747/551) । अगहण दव्ववग्गणा (मण) दव्वमविच्छिदा कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (754/552) ।</span> =<span class="HindiText"> अग्रहणवर्गणा आहार द्रव्य से प्रारम्भ होकर तैजसद्रव्यवर्गणा को नहीं प्राप्त होती है, अथवा तैजसद्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर भाषा द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा भाषा द्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर मनोद्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर कार्मण द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है । अतः उन दोनों द्रव्यों के मध्य में जो होती है उसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> ध्रुव, ध्रुवशून्य व सान्तर निरन्तर वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> ध्रुव, ध्रुवशून्य व सान्तर निरन्तर वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 719/543/10 <span class="PrakritText">पञ्चण्णं सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा) अगहण पाओग्गा णाम । </span>= <span class="HindiText">पाँच शरीरों के जो ग्रहण योग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परन्तु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । (ध. 14/5, 6, 82/61/3) । </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ<span class="PrakritText"> कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्व-वग्गणाणमुवरि सांतरणिरं तरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा णाम । (90/65) ।</span> = <span class="HindiText">कार्मण द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणा है । (88/63) । ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा है । (89/64) । सान्तर निरन्तर द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवशून्यवर्गणा है । (90/65) । </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 89-90/पृष्ठ/पंक्ति<span class="PrakritText"> धुवक्खंधणिद्देसो अंतदीवओ । तेण हेट्ठिम सव्ववग्गणओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तेप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो । (64/1) । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया । (64/12) । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तदो । (65/2) । अदीदाणागद वट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्ग-लसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्ससांतरणिरंतरदव्ववग्गणाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि ।... एसा सोलसमी वग्गणा । सव्वकालं सुण्णभावेण अवट्ठिदा । </span>= <span class="HindiText">यह ध्रुवस्कन्ध पद का निर्देश अन्तर्दीपक है । इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्रुव ही हैं अर्थात् अन्तर से रहित हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ से लेकर आगे कही जाने वाली सब वर्गणाओं में अग्रहणपने की निरन्तर अनुवृत्ति करनी चाहिए । (64/1) । जो वर्गणा अन्तर के साथ निरन्तर जाती है, उसकी सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है । (64/12) । यह भी अग्रहण वर्गणा ही है; क्योंकि यह आहार, तैजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । (65/2) । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणुपुद्गलस्कन्ध तीनों ही कालों में नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदि के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोलहवीं वर्गणा है जो सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है । </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5, 5, 82/351/16 <span class="PrakritText">एत्थ तेबीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीसदिविधा पोग्गला होंति । पादेक्कमणंतभेदा । </span>=<span class="HindiText"> तेईस वर्गणाओं में से चार ध्रुवशून्यवर्गणाओं के निकाल देने पर उन्नीस प्रकार के पुद्गल होते हैं । और वे प्रत्येक अनन्त भेदों को लिये हुए हैं । विशेषार्थ (शीर्षक सं. 1 के अनुसार जब तक वर्गणाओं में एक प्रदेश या परमाणु की वृद्धि का अटूट क्रम पाया जाता है, तब तक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष संज्ञाएँ कही जाती हैं । ध्रुवस्कन्धवर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है । तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भंग हो जाता है । एक प्रदेश वृद्धि के कुछ स्थान जाने के पश्चात् एकदम संख्यात या असंख्यात प्रदेश अधिक वाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कम की नहीं । पुनः एक प्रदेश अधिक वाली और पुनः संख्यात आदि प्रदेश अधिक वाली वर्गणाएँ जबतक प्राप्त होती रहती हैं, तबतक उनकी सान्तरनिरन्तर वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वे कुछ-कुछ अन्तराल छोड़कर प्राप्त होती हैं । तत्पश्चात् एक साथ अनन्त प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती हैं । उससे कम प्रदेशों वाली वर्गणा तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए यह स्थान वर्गणाओं से सर्वथा शून्य रहता है । जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिकाल में ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ ही ध्रुव शन्य वर्गणा का निर्देश किया गया है । यही कारण है कि इन 4 ध्रुवशून्य वर्गणाओं को पुद्गलरूप नहीं गिना है । ये सत् रूप नहीं हैं । शेष 19 वर्गणाएँ सत् रूप होने से पुद्गल संज्ञा को प्राप्त हैं ) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण </strong></span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि देहे उवचिदकम्म णोकम्मक्खंधो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । (91/65/12) । बादरसुहुमणिगोदेहि असंबद्धजीवा पत्तेयसरीरवग्गणा त्ति घेत्तव्वा । (116/144/9) । पञ्चण्हं सरीरराणं बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । (117/224/4) ।</span> =<span class="HindiText"> एक-एक जीव के एक-एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्म स्कन्धों की प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद से असम्बद्ध जीव प्रत्येक शरीर वर्गणा होते हैं । पाँच शरीरों की बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है । (देखें [[ वर्ग ]]णा/2/6) । <br /> | ||
देखें [[ वनस्पति#1.7 | वनस्पति - 1.7 ]](प्रत्येक शरीरवर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण है) । <br /> | |||
देखें [[ वनस्पति#2.10 | वनस्पति - 2.10 ]](बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलि के असंख्यात भाग प्रमाण है) । </span><br /> | |||
ध. | ध.14/5, 6, 78/58/9<span class="PrakritText"> परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तुद्दिट्ठाओ अणंतपदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति । अणंत अणंताणंतेहिंतो वदिरित्तपरित्तअपरित्तणमभावादो । </span>= <span class="HindiText">परीत और अपरीत वर्गणाएँ अनन्तप्रदेशी वर्गणाओं में ही सम्मिलित हैं, क्योंकि अनन्त व अनन्तानन्त से अतिरिक्त वे उपलब्ध नहीं होतीं । </span></li> | ||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
समान गुण वाले परमणुपिण्ड को वर्गणा कहते हैं, जो 5 प्रधान जाति वाले सूक्ष्म स्कन्धों के रूप में लोक के सर्व प्रदेशों पर अवस्थित रहते हुए, जीव के सर्व प्रकार के शरीरों व लोक के सर्व स्थूल भौतिक पदार्थों के उपादान कारण होती है । यद्यपि वर्गणा की व्यवहार्य जाति 5 ही हैं, परन्तु सवंमूर्तीक व अमूर्तीक भौतिक पदार्थों में प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि दर्शाने के लिए उसके 23 भेद करके बताये गये हैं । उस-उस जाति की वर्गणा से उस-उस जाति के ही पदार्थ का निर्माण होता है, अन्य जाति का नहीं । परन्तु परमाणुओं की हानि या वृद्धि हो जाने से वह वर्गणा स्वयं अपनी जाति बदल दूसरी जाति की वर्गणा में परिणत हो सकती है ।
- भेद व लक्षण
- महास्कन्ध - देखें स्कन्ध ।
- वर्गणा निर्देश
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश ।
- प्रदेशों की क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओं की उत्पत्ति ।
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं के भेद व संघात से वर्गणाओं की उत्पत्ति ।
- पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं ।
- अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओं का कथन क्यों ।
- शरीरों व उनकी वर्गणाओं में अन्तर ।
- वर्गणाओं में जातिभेद सम्बन्धी विचार ।
- वर्गणाओं में जातिभेद निर्देश ।
- तीनों शरीरों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।
- आठों कर्मों की वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।
- कार्मण वर्गणा एक ही बार आठ कर्म क्यों नहीं हो जाती? - देखें बन्ध - 5.2 ।
- वर्गणाओं में जातिभेद निर्देश ।
- ऊपर व नीचे की वर्गणाओं में परस्पर संक्रमण की सम्भावना व समन्वय ।
- भेदसंघात व्यपदेश का स्पष्टीकरण ।
- योग वर्गणा - देखें योग - 6 ।
- वर्गणाओं में प्रदेश व रसादि का निर्देश ।
- भेद व लक्षण
- वर्गणा सामान्य का लक्षण
रा.वा./2/5/4/107/8 तथैव समगुणाः पंक्तीकृताः वर्गा वर्गणा । = इन सम गुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को (देखें वर्ग ) वर्गणा कहते हैं ।
क.पा.5/4-22/473/344/8 एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तखरिसधणियपरमाणू समत्त त्ति । एदेसिं सव्वेसिं पि वग्गणा त्ति सण्णा । = इस प्रकार (देखें वर्ग ) समान धन वाले एक-एक परमाणु को लेकर बुद्धि के द्वारा छेद करके (छेद करने पर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं, उन सबको) दक्षिण पार्श्व में बाण के समान ॠजु पंक्ति में रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशि से अनन्त गुणे सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण (वे सबके सब) समान धन वाले परमाणु समाप्त हों । उन सब वर्गों की वर्गणा संज्ञा है । (ध.12/4, 2, 7, 199/93/8) ।
स.सा./आ./52 वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा । = वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं (गो.जी./मं.प्र./59/153/14) ।
- प्रथम द्वि. आदि वर्गणा के लक्षण
ध.12/4, 2, 7, 204/145/9 वग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावो पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । तत्ते पहुडि णिरंतरं अविपडिच्छेदुत्तरकमेण वग्गणओ गंतूण पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणा होदि । = वर्गणान्तर से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद से अधिक अनुभाग का नाम प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा है । उससे लेकर निरन्तर एक-एक अविभाग प्रतिच्छिेद की अधिकता के क्रम से वर्गणाएँ जाकर प्रथम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा होती है (विशेष देखें स्पर्धक ) ।
ल.सा./भाषा/223/277/9 ऐसी (जघन्य वर्गरूप) जेती परमाणू होंइ तिनि के समूह का नाम प्रथम वर्वणा है । बहुरि यातैं द्वितीयादि वर्गणानिधिपे एक-एक चय घटता क्रमकरि परमाणूनिका प्रमाण है (विशेष देखें स्पर्शक ) ।
- द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणा निर्देश व लक्षण
ष.खं./14/5, 6/सूत्र 71/51 वग्गणणिक्खेवे त्ति छव्वि हे णिक्खवे-णामवग्गणाट्ठवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि ।71।
ध.14/5, 6, 71/52/4 तव्वीदंरित्त दव्ववग्गणा दुविहा - कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओणेकम्मवग्गणओ । एगागासोगाहणप्पहुडिपदेमुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ । कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्हुडि जाव कम्मट्ठिदि त्ति णोकम्मदव्वं पहुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा त्ति ताव एदाओ कालवग्गणओ ।.... ओदइयादि पञ्चण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगम भाववग्गणा । = वर्गणा निक्षेप का प्रकरण है । वर्गणानिक्षेप चार प्रकार का है - नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा और भावर्गणा [इनमें से अन्य सब वर्गणाओं के लक्षण निक्षेपोंवत् जानने - (देखें निक्षेप )] तद्व्यतिरिक्त नीआगम द्रव्यवर्गणा दो प्रकार की है - कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा । उनमें से आठ प्रकार के कर्म स्कन्धों के भेद कर्मवर्गणा हैं, तथा शेष उन्नीस प्रकार की वर्गणाएँ (देखें अगला शीर्षक ) नोकर्मवर्गणाएँ हैं । एक आकाश प्रदेशप्रमाण अवगाहना से लेकर प्रदेशोत्तर आदि के क्रम से कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ हैं । कर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक एक आवली से लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्म द्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ हैं ।...... औदयिकादि पाँच भावों के जो भेद हैं वे सब नोआगमभाव वर्गणा हैं ।
- वर्गणा के 23 भेद
ध.14/5, 6, 97/गा.7-8/117 अणुसंखासंखेज्जा तधणता वग्गणा अगेज्झाओ । आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइयध्रुयक्खंधा ।7 । सांतरणिरंतरेदरसुण्णा पत्तेयदेह ध्रुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो ।8। = अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा । ये तेईस वर्गणाएँ हैं ..... (ष.ख./14/5, 6 । सूत्र 76-97/54/117 तथा सूत्र 708-718/542-543) । (ध.13/5, 5, 82/351/11); (गो.जी./मू./594-595/1032) ।
- आहारक आदि पाँच वर्गणाओं के लक्षण
ष.ख.14/5, 6/सूत्र पृष्ठ ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं जाणि दव्वाणि घेत्तूण ओरालियवेउव्विय-आहारसरीरत्तए परिणामेदूणं परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम (730/546) जाणि दव्वाणि घेत्तूण तेयासरीरत्तए पारणामेदूण परिणमति जीवा ताणि दव्वाणि तेजादव्ववग्गणा णाम । (737/549) । सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असच्चमोसभासाए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्तए मोसभासत्तए सच्चमोसभासत्तए असच्चमोसभासत्तए परिणामेदूण णिस्सारंति जीवा ताणि भासादव्ववग्गणा णाम । (744/550) । सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्तए मोसमणत्तए सच्चमोसमणत्तए असच्चमोसमणत्तए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दत्तवाणि मणदव्ववग्गणा णाम । (751/552) । णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अन्तराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्तए दंसणावरणीयत्तए वेयणीयत्तए मोहणीयत्तए आउअत्तए णामत्तए गोदत्तए अंतराइयत्तए परिणामेदूण परिणामंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम । (758/553) । = औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरों के (योग्य) जिन द्रव्यों को ग्रहण कर औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (730/546) । जिन द्रव्यों को ग्रहणकर तैजस् शरीररूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, उन द्रव्यों की तैजस्द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (737/549) । सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषा रूप से परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं उन द्रव्यों की भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (744/550) । सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन के जिन द्रव्यों को ग्रहणकर सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्यों की मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (751/552) । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय के जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरण रूप से, दर्शनावरण रूप से, वेदनीय रूप से, मोहनीय रूप से, आयु रूप से, नाम रूप से, गोत्र रूप से और अन्तराय रूप से परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्यों की कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (758/553) ।
ध.14/5, 6, 79-87/पृष्ठ/पंक्ति ओरालियवेउव्वियआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा त्ति सण्णा । (59/10) । एसा सत्तमी वग्गणा । एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा । (60/10) । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा । पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (61/10) । एसा एक्कारसमी वग्गणा । एदीए वग्गणाए दव्वमणणिव्वत्तणं करिदे । (62/14) । एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलक्खंधा अट्ठकम्मपाओग्गा । (63/14) । = औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों की आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । (59/10) । यह सातवीं वर्गणा है । इसके पुद्गलस्कन्ध तैजसशरीर के योग्य होते हैं । (60/10) । भाषावर्गणा के परमाणुपुद्गलस्कन्ध चार भाषाओं के योग्य होते हैं । तथा ढोल, भेरो, नगारा और मेघ का गर्जन आदि शब्दों के भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती हैं । (61/10) । यह ग्यारहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा से द्रव्यमन की रचना होती है । (62/14) । यह तेरहवीं वर्गणा है, इस वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आठ कर्मों के योग्य होते हैं । (63/14) ।
- ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओं के लक्षण
ष.ख.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ अग्गहणदव्ववग्गणा आहारदव्वमधिच्छिदा तेया दव्ववग्गणं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहण दव्ववग्गणा णाम । (733/548) । अगहणदव्ववग्गणा तेजादव्वमविच्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (740/549) । अग्गहणदव्ववग्गणा भासा दव्वमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेदि ताणं दव्वाणमंतरे अग्गहणदव्ववग्गणा णाम । (747/551) । अगहण दव्ववग्गणा (मण) दव्वमविच्छिदा कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (754/552) । = अग्रहणवर्गणा आहार द्रव्य से प्रारम्भ होकर तैजसद्रव्यवर्गणा को नहीं प्राप्त होती है, अथवा तैजसद्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर भाषा द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा भाषा द्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर मनोद्रव्य को नहीं प्राप्त होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणा से प्रारम्भ होकर कार्मण द्रव्य को नहीं प्राप्त होती है । अतः उन दोनों द्रव्यों के मध्य में जो होती है उसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।
- ध्रुव, ध्रुवशून्य व सान्तर निरन्तर वर्गणाओं के लक्षण
ध.14/5, 6, 719/543/10 पञ्चण्णं सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा) अगहण पाओग्गा णाम । = पाँच शरीरों के जो ग्रहण योग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परन्तु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । (ध. 14/5, 6, 82/61/3) ।
ष.ख.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम । (88/63) । धुवक्खंधदव्व-वग्गणाणमुवरि सांतरणिरं तरदव्ववग्गणा णाम । (89/64) । सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा णाम । (90/65) । = कार्मण द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणा है । (88/63) । ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा है । (89/64) । सान्तर निरन्तर द्रव्यवर्गणाओं के ऊपर ध्रुवशून्यवर्गणा है । (90/65) ।
ध.14/5, 6, 89-90/पृष्ठ/पंक्ति धुवक्खंधणिद्देसो अंतदीवओ । तेण हेट्ठिम सव्ववग्गणओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तेप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो । (64/1) । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया । (64/12) । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तदो । (65/2) । अदीदाणागद वट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्ग-लसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्ससांतरणिरंतरदव्ववग्गणाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि ।... एसा सोलसमी वग्गणा । सव्वकालं सुण्णभावेण अवट्ठिदा । = यह ध्रुवस्कन्ध पद का निर्देश अन्तर्दीपक है । इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्रुव ही हैं अर्थात् अन्तर से रहित हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ से लेकर आगे कही जाने वाली सब वर्गणाओं में अग्रहणपने की निरन्तर अनुवृत्ति करनी चाहिए । (64/1) । जो वर्गणा अन्तर के साथ निरन्तर जाती है, उसकी सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है । (64/12) । यह भी अग्रहण वर्गणा ही है; क्योंकि यह आहार, तैजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है । (65/2) । अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूप से परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिए इसकी ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणुपुद्गलस्कन्ध तीनों ही कालों में नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदि के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोलहवीं वर्गणा है जो सर्वदा शून्य रूप से अवस्थित है ।
ध.13/5, 5, 82/351/16 एत्थ तेबीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीसदिविधा पोग्गला होंति । पादेक्कमणंतभेदा । = तेईस वर्गणाओं में से चार ध्रुवशून्यवर्गणाओं के निकाल देने पर उन्नीस प्रकार के पुद्गल होते हैं । और वे प्रत्येक अनन्त भेदों को लिये हुए हैं । विशेषार्थ (शीर्षक सं. 1 के अनुसार जब तक वर्गणाओं में एक प्रदेश या परमाणु की वृद्धि का अटूट क्रम पाया जाता है, तब तक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष संज्ञाएँ कही जाती हैं । ध्रुवस्कन्धवर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है । तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भंग हो जाता है । एक प्रदेश वृद्धि के कुछ स्थान जाने के पश्चात् एकदम संख्यात या असंख्यात प्रदेश अधिक वाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कम की नहीं । पुनः एक प्रदेश अधिक वाली और पुनः संख्यात आदि प्रदेश अधिक वाली वर्गणाएँ जबतक प्राप्त होती रहती हैं, तबतक उनकी सान्तरनिरन्तर वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वे कुछ-कुछ अन्तराल छोड़कर प्राप्त होती हैं । तत्पश्चात् एक साथ अनन्त प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती हैं । उससे कम प्रदेशों वाली वर्गणा तीन काल में भी उपलब्ध नहीं होती । इसलिए यह स्थान वर्गणाओं से सर्वथा शून्य रहता है । जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिकाल में ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ ही ध्रुव शन्य वर्गणा का निर्देश किया गया है । यही कारण है कि इन 4 ध्रुवशून्य वर्गणाओं को पुद्गलरूप नहीं गिना है । ये सत् रूप नहीं हैं । शेष 19 वर्गणाएँ सत् रूप होने से पुद्गल संज्ञा को प्राप्त हैं ) ।
- प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओं के लक्षण
ध.14/5, 6/सूत्र/पृष्ठ/पंक्ति एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि देहे उवचिदकम्म णोकम्मक्खंधो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । (91/65/12) । बादरसुहुमणिगोदेहि असंबद्धजीवा पत्तेयसरीरवग्गणा त्ति घेत्तव्वा । (116/144/9) । पञ्चण्हं सरीरराणं बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । (117/224/4) । = एक-एक जीव के एक-एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्म स्कन्धों की प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद से असम्बद्ध जीव प्रत्येक शरीर वर्गणा होते हैं । पाँच शरीरों की बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है । (देखें वर्ग णा/2/6) ।
देखें वनस्पति - 1.7 (प्रत्येक शरीरवर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण है) ।
देखें वनस्पति - 2.10 (बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलि के असंख्यात भाग प्रमाण है) ।
ध.14/5, 6, 78/58/9 परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तुद्दिट्ठाओ अणंतपदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति । अणंत अणंताणंतेहिंतो वदिरित्तपरित्तअपरित्तणमभावादो । = परीत और अपरीत वर्गणाएँ अनन्तप्रदेशी वर्गणाओं में ही सम्मिलित हैं, क्योंकि अनन्त व अनन्तानन्त से अतिरिक्त वे उपलब्ध नहीं होतीं ।
- वर्गणा सामान्य का लक्षण