पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं</strong> </span><br /> | ||
पं.का./मू./ | पं.का./मू./131 <span class="PrakritGatha">मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य अस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो। 131।</span> = <span class="HindiText">जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है, उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं। (तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद से शुभ-परिणाम और अप्रशस्तराग, द्वेष और मिथ्यात्व से अशुभ परिणाम हाते हैं।) (इसी गाथा की त.प्र. टीका)। </span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/53 <span class="PrakritGatha">बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ। सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ। 53।</span> = <span class="HindiText">बन्ध और मोक्ष का कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नहीं जानता है, वही पुण्य और पाप इन दोनों को मोह से करता है। (न.च.वृ./299)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong>परमार्थ से दोनों एक हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong>परमार्थ से दोनों एक हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./145 <span class="SanskritText">शुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वा-देकस्तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म। शुभोऽशुभो वा पुद्गल-परिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म। शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सत्यनुभावभेदादेकं कर्म। शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं जीव-पुद्गलमयत्वादेकौ तदनेकत्वे केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म।</span> = <span class="HindiText">शुभ व अशुभ जीव परिणाम केवल अज्ञानमय होने से एक हैं, अतः उनके कारण में अभेद होने से कर्म एक ही है। शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम केवल पुद्लमय होने से एक हैं, अतः उनके स्वभाव में अभेद होने से कर्म एक है। शुभ व अशुभ फलरूप विपाक भी केवल पुद्गलमय होने से एक है, अतः उनके अनुभव या स्वाद में अभेद होने से दोनों एक हैं। यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्षमार्ग केवल जीवमय और अशुभरूप बन्धमार्ग केवल पुद्गलमय होने से दोनों में अनेकता है, फिर भी कर्म केवल पुद्लमयी बन्धमार्ग के ही आश्रित है अतः उनके आश्रय में अभेद होने से दोनों एक हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong>दोनों की एकता में दृष्टान्त</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong>दोनों की एकता में दृष्टान्त</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./146 <span class="PrakritGatha">सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं। 146। </span>= <span class="HindiText">जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, वैसे ही सेाने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं। (यो.सा./यो./72); (प्र.सा./त.प्र./77); (प.प्र./टी./1/166-167/279/16)। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./144/ क. 101<span class="SanskritText"> एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः, शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण। 101। </span>= <span class="HindiText">(शूद्रा के) पेट से एक ही साथ जन्म को प्राप्त दो पुत्रों में से एक ब्राह्माण के यहाँ और दूसरा शूद्र के यहाँ पला (उनमें से) एक तो ‘मैं ब्राह्माण हूँ’ इस प्रकार ब्राह्मणत्व के अभिमान से दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता, और दूसरा ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर नित्य मदिरा से ही स्नान करता है, अर्थात् उसे पवित्र मानता है। यद्यपि दोनों साक्षात् शूद्र हैं तथापि वे जातिभेद के भ्रमसहित प्रवृत्ति करते हैं। (इसी प्रकार पुण्य व पाप दोनों ही यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार समान हैं, फिर भी मोहदृष्टि के कारण भ्रमवश अज्ञानी जीव इनमें भेद देखकर पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा समझता है)। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./147 <span class="SanskritText">कुशीलशुभाशुभकर्मम्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनी-रागसंसर्गवत्। </span>= <span class="HindiText">जैसे कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनी के साथ (हाथी का) राग और संसर्ग उसके बन्धन का कारण है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग बन्ध के कारण होने से, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग करने का निषेध किया गया है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong>दोनों ही बन्ध व संसार के कारण हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong>दोनों ही बन्ध व संसार के कारण हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/4/15/3 <span class="SanskritText">इह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्यं ‘नव पदार्था’ इत्यन्यैरप्युक्तवात्। न कर्तव्यम्, आस्रवे बन्धे चान्तर्भावात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> सूत्र में (सात तत्त्वों के साथ) पुण्य पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थ नौ हैं’ ऐसा दूसरे आचायो ने भी कथन किया है? <strong>उत्तर -</strong> पुण्य और पाप का पृथक् ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बन्ध में अन्तर्भाव हो जाता है। (रा.वा./1/4/28/27/30); (द्र.सं./टी./अधि0 2/चूलिका/पृ. 81/10)</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,3/279/7 <span class="SanskritText">कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे।</span> = <span class="HindiText">कर्म का बन्ध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है। </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./299, 376 <span class="PrakritGatha">असुह सुह चिय कम्मं दुविहं तं पि दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स। 299। भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा। 376।</span> =<span class="HindiText"> कर्म दो प्रकार के हैं - शुभ व अशुभ। ये दोनों भी द्रव्य व भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। उन दोनों की प्रतीति से मोह और मोह से जीव को संसार होता है। 299। जब तक यह जीव भेद और उपचाररूप व्यवहार में वर्तता है तब तक वह शुभ और अशुभ के अधीन है। और तभी तक वह कर्ता कहलाता है, उससे ही आत्मा संसारी होता है। 376। </span><br /> | ||
त.सा./ | त.सा./4/104 <span class="SanskritGatha">संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः। न नाम निश्चये नास्ति विशेषः पुण्यपापयोः। 104। </span>= <span class="HindiText">निश्चय से दोनों ही संसार के कारण हैं, इसलिए पुण्य व पाप में कोई विशेषता नहीं है। (यो.सा./अ./4/40)। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./181<span class="SanskritText"> तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम्।</span> = <span class="HindiText">पुण्यरूप पुद्गलकर्म के बन्ध का काराण् होने से शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के बन्ध का कारण होने से अशुभपरिणाम पाप है। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./150/क. 103 <span class="SanskritGatha">कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्, बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्। तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं, ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः। 103। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि सर्वज्ञदेव समस्त (शुभाशुभ) कर्म को अविशेषतया बन्ध का साधन कहते हैं, इसलिए उन्होंने समस्त ही कर्मों का निषेध किया है। और ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। (पं.ध./उ./374)। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./763<span class="SanskritGatha"> नेह्यं प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरङ्गतः। अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात्। 763। </span>= <span class="HindiText">बुद्धि की मन्दता से यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एकदेश से निर्जरा का कारण हो सकता है। कारण कि निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से निर्जरादिक का हेतु नहीं हो सकता और न वह शुभ ही कहा जा सकता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong>दोनों ही दुःखरूप या दुःख के कारण हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong>दोनों ही दुःखरूप या दुःख के कारण हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./46 <span class="PrakritGatha">अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति। जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स। 45।</span> = <span class="HindiText">आठों प्रकार का कर्म सब पुद्गलमय है, तथा उदय में आने पर सबका फल दुःख है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। (पं.ध./उ./240)। </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./72-75 <span class="PrakritGatha">णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं। कि सो सुहो वा असुहो उवओगे हवदि जीवाणं। 72। कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं। देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा। 73। जदि संति हि पुव्वाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवतान्तानां। 74। ते पुण्ण उदिण्णतिण्हा दुविहा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि। इच्छन्ति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता। 75। </span>= <span class="HindiText">मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव सभी यदि देहोत्पन्न दुःख को अनुभव करते हैं तो जीवों का वह (अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का कैसे हो सकता है। 72। वज्रधर और चक्रधर (इन्द्र और चक्रवर्ती) शुभापयोगमूलक भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं और भागों में रत वर्तते हुए सुखों जैसे भासित होते हैं। 73। इस प्रकार यदि पुण्य नाम की कोई वस्तु विद्यमान भी है तो वह देवों तक के जीवों को विषय तृष्णा उत्पन्न करते हैं। 74। और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरण पर्यन्त विषयसुखों को चाहते हैं, और दुःखों से सन्तप्त होते हुए और दुःखदाह को सहन न करते हुए उन्हें भोगते हैं। 75। (देवादिकों के वे सुख पराश्रित, बाधासहित और बन्ध के कारण होने से वास्तव में दुःख ही हैं - देखें [[ सुख#1 | सुख - 1]])। </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./9/25<span class="SanskritGatha"> धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःखपरम्परा। चन्दनादपि संपन्नः पावकः प्लोषते न किम्। 25। </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार चन्दन से उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्म से उत्पन्न भी भोग अवश्य दुःख उत्पन्न करता है। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./250 <span class="SanskritGatha">न हि कर्मोदय कश्चित् जन्तार्यः स्यात्सुखावहः। सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्यात् स्वरूपतः। 250। </span>= <span class="HindiText">कोई भी कर्म का उदय ऐसा नहीं जो कि जीव को सुख प्राप्त करानेवाला हो, क्योंकि स्वभाव से सभी कर्म आत्मा के स्वभाव से विलक्षण हैं। </span><br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./4/121/11 <span class="HindiText">दोन्यौं ही आकुलता के कारण हैं, तातैं बुरे ही हैं। .....परमार्थ तैं जहाँ आकुलता है तहाँ दुःख ही है, तातैं पुण्य-पाप के उदय कौं भला-बुरा जानना भ्रम है। <br /> | ||
देखें [[ सुख#1 | सुख - 1]] (पुण्य से प्राप्त लौकिक सुख परमार्थ से दुःख है।)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong>दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong>दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./150 <span class="PrakritGatha">रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज। 150। </span>= <span class="HindiText">रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्म से छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है। इसलिए तू कर्मों में प्रीति मत कर। अर्थात् समस्त कर्मों का त्याग कर। (और भी देखें [[ पुण्य#2.3 | पुण्य - 2.3 ]]में स.सा./आ./147; तथा पुण्य/2/4 में स.सा./आ./150/क.103)। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./163/क. 109<span class="SanskritText"> संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्, नैकष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति। 109।</span> = <span class="HindiText">मोक्षार्थी को यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य हैं। जहाँ समस्त कर्मों का त्याग किया जाता है, तो फिर वहाँ पुण्य व पाप (को अच्छा या बुरा कहने) की क्या बात है? समस्त कर्मों का त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होने से, परिणमन करने से मोक्ष का कारणभूत होता हुआ, निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धतरस प्रतिबद्ध है, ऐसा ज्ञान अपने आप दौड़ा चला आता है। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./150 <span class="SanskritText">सामान्येन रक्तत्वनिमित्त्वाच्छुभमशुभमुभयकर्माविशेषण बन्धहेतुं साधयति, तुदभयमपि कर्म प्रतिषेधयति। </span>= <span class="HindiText">सामान्यपने रागीपन की निमित्तता के कारण शुभ व अशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बन्ध के कारणरूप सिद्ध करता है, और इसलिए (आगम) दोनों कर्मों का निषेध करता है। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./212<span class="SanskritText"> यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्यय-बन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात्। ....ततस्तैस्तैः सर्वप्रकारैः शुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूतः प्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात्।</span> =<span class="HindiText"> जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होनेवाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि तहाँ छह काय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होनेवाले बन्ध की प्रसिद्धि है। (देखें [[ हिंसा#1 | हिंसा - 1]])। इसलिए उन-उन सर्व प्रकारों से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गच्छेद निषिद्ध है, जिन-जिन प्रकारों से कि उसका आयतनमात्रभूत पर प्राणव्यपरोपरूप बहिरङ्गच्छेद भी अत्यन्त निषिद्ध हो। </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./38/159/7<span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम्। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव के पुण्य और पाप दोनों हेय हैं। (पं.का./ता.वृ./131/194/14)। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./374 <span class="SanskritText">उक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः। नादेयं कर्म सव च तद्वद् दृष्टोपलब्धितः। 374।</span> = <span class="HindiText">जैसे सम्यग्दृष्टि को उक्त इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान आदेय नहीं होते हैं, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होने के कारण सम्पूर्ण कर्म भी आदेय नहीं होते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong>दोनों में भेद समझना अज्ञान है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong>दोनों में भेद समझना अज्ञान है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./77 <span class="PrakritGatha">ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नो। 77।</span> = <span class="HindiText">‘पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है’ जो ऐसा नहीं मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है। (प.प्र./मू./2/55)। </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./4/39<span class="SanskritGatha"> सुखदुःखविधानेन विशेषः पुण्यपापयोः। नित्यं सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मन्दबुद्धिभिः। 39। </span>=<span class="HindiText"> अविनाशी निराकुल सुख को न देखनेवाले मन्दबुद्धिजन ही सुख व दुःख के करणरूप विशेषता से पुण्य व पाप में भेद देखते हैं। </span></li> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
- पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
- दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं
पं.का./मू./131 मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य अस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो। 131। = जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है, उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं। (तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद से शुभ-परिणाम और अप्रशस्तराग, द्वेष और मिथ्यात्व से अशुभ परिणाम हाते हैं।) (इसी गाथा की त.प्र. टीका)।
प.प्र./मू./2/53 बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ। सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ। 53। = बन्ध और मोक्ष का कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नहीं जानता है, वही पुण्य और पाप इन दोनों को मोह से करता है। (न.च.वृ./299)।
- परमार्थ से दोनों एक हैं
स.सा./आ./145 शुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वा-देकस्तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म। शुभोऽशुभो वा पुद्गल-परिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म। शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सत्यनुभावभेदादेकं कर्म। शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं जीव-पुद्गलमयत्वादेकौ तदनेकत्वे केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म। = शुभ व अशुभ जीव परिणाम केवल अज्ञानमय होने से एक हैं, अतः उनके कारण में अभेद होने से कर्म एक ही है। शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम केवल पुद्लमय होने से एक हैं, अतः उनके स्वभाव में अभेद होने से कर्म एक है। शुभ व अशुभ फलरूप विपाक भी केवल पुद्गलमय होने से एक है, अतः उनके अनुभव या स्वाद में अभेद होने से दोनों एक हैं। यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्षमार्ग केवल जीवमय और अशुभरूप बन्धमार्ग केवल पुद्गलमय होने से दोनों में अनेकता है, फिर भी कर्म केवल पुद्लमयी बन्धमार्ग के ही आश्रित है अतः उनके आश्रय में अभेद होने से दोनों एक हैं।
- दोनों की एकता में दृष्टान्त
स.सा./मू./146 सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं। 146। = जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, वैसे ही सेाने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं। (यो.सा./यो./72); (प्र.सा./त.प्र./77); (प.प्र./टी./1/166-167/279/16)।
स.सा./आ./144/ क. 101 एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः, शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण। 101। = (शूद्रा के) पेट से एक ही साथ जन्म को प्राप्त दो पुत्रों में से एक ब्राह्माण के यहाँ और दूसरा शूद्र के यहाँ पला (उनमें से) एक तो ‘मैं ब्राह्माण हूँ’ इस प्रकार ब्राह्मणत्व के अभिमान से दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता, और दूसरा ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर नित्य मदिरा से ही स्नान करता है, अर्थात् उसे पवित्र मानता है। यद्यपि दोनों साक्षात् शूद्र हैं तथापि वे जातिभेद के भ्रमसहित प्रवृत्ति करते हैं। (इसी प्रकार पुण्य व पाप दोनों ही यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार समान हैं, फिर भी मोहदृष्टि के कारण भ्रमवश अज्ञानी जीव इनमें भेद देखकर पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा समझता है)।
स.सा./आ./147 कुशीलशुभाशुभकर्मम्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनी-रागसंसर्गवत्। = जैसे कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनी के साथ (हाथी का) राग और संसर्ग उसके बन्धन का कारण है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग बन्ध के कारण होने से, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग करने का निषेध किया गया है।
- दोनों ही बन्ध व संसार के कारण हैं
स.सि./1/4/15/3 इह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्यं ‘नव पदार्था’ इत्यन्यैरप्युक्तवात्। न कर्तव्यम्, आस्रवे बन्धे चान्तर्भावात्। = प्रश्न - सूत्र में (सात तत्त्वों के साथ) पुण्य पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थ नौ हैं’ ऐसा दूसरे आचायो ने भी कथन किया है? उत्तर - पुण्य और पाप का पृथक् ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बन्ध में अन्तर्भाव हो जाता है। (रा.वा./1/4/28/27/30); (द्र.सं./टी./अधि0 2/चूलिका/पृ. 81/10)
ध.12/4,2,8,3/279/7 कम्मबंधो हि णाम सुहासुहपरिणामेहिंतो जायदे। = कर्म का बन्ध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है।
न.च.वृ./299, 376 असुह सुह चिय कम्मं दुविहं तं पि दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स। 299। भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा। 376। = कर्म दो प्रकार के हैं - शुभ व अशुभ। ये दोनों भी द्रव्य व भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। उन दोनों की प्रतीति से मोह और मोह से जीव को संसार होता है। 299। जब तक यह जीव भेद और उपचाररूप व्यवहार में वर्तता है तब तक वह शुभ और अशुभ के अधीन है। और तभी तक वह कर्ता कहलाता है, उससे ही आत्मा संसारी होता है। 376।
त.सा./4/104 संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः। न नाम निश्चये नास्ति विशेषः पुण्यपापयोः। 104। = निश्चय से दोनों ही संसार के कारण हैं, इसलिए पुण्य व पाप में कोई विशेषता नहीं है। (यो.सा./अ./4/40)।
प्र.सा./त.प्र./181 तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम्। = पुण्यरूप पुद्गलकर्म के बन्ध का काराण् होने से शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के बन्ध का कारण होने से अशुभपरिणाम पाप है।
स.सा./आ./150/क. 103 कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्, बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्। तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं, ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः। 103। = क्योंकि सर्वज्ञदेव समस्त (शुभाशुभ) कर्म को अविशेषतया बन्ध का साधन कहते हैं, इसलिए उन्होंने समस्त ही कर्मों का निषेध किया है। और ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। (पं.ध./उ./374)।
पं.ध./उ./763 नेह्यं प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरङ्गतः। अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात्। 763। = बुद्धि की मन्दता से यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एकदेश से निर्जरा का कारण हो सकता है। कारण कि निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से निर्जरादिक का हेतु नहीं हो सकता और न वह शुभ ही कहा जा सकता है।
- दोनों ही दुःखरूप या दुःख के कारण हैं
स.सा./मू./46 अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति। जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स। 45। = आठों प्रकार का कर्म सब पुद्गलमय है, तथा उदय में आने पर सबका फल दुःख है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। (पं.ध./उ./240)।
प्र.सा./मू./72-75 णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं। कि सो सुहो वा असुहो उवओगे हवदि जीवाणं। 72। कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं। देहादीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा। 73। जदि संति हि पुव्वाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि। जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवतान्तानां। 74। ते पुण्ण उदिण्णतिण्हा दुविहा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि। इच्छन्ति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता। 75। = मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव सभी यदि देहोत्पन्न दुःख को अनुभव करते हैं तो जीवों का वह (अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का कैसे हो सकता है। 72। वज्रधर और चक्रधर (इन्द्र और चक्रवर्ती) शुभापयोगमूलक भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं और भागों में रत वर्तते हुए सुखों जैसे भासित होते हैं। 73। इस प्रकार यदि पुण्य नाम की कोई वस्तु विद्यमान भी है तो वह देवों तक के जीवों को विषय तृष्णा उत्पन्न करते हैं। 74। और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरण पर्यन्त विषयसुखों को चाहते हैं, और दुःखों से सन्तप्त होते हुए और दुःखदाह को सहन न करते हुए उन्हें भोगते हैं। 75। (देवादिकों के वे सुख पराश्रित, बाधासहित और बन्ध के कारण होने से वास्तव में दुःख ही हैं - देखें सुख - 1)।
यो.सा./अ./9/25 धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःखपरम्परा। चन्दनादपि संपन्नः पावकः प्लोषते न किम्। 25। = जिस प्रकार चन्दन से उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्म से उत्पन्न भी भोग अवश्य दुःख उत्पन्न करता है।
पं.ध./उ./250 न हि कर्मोदय कश्चित् जन्तार्यः स्यात्सुखावहः। सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्यात् स्वरूपतः। 250। = कोई भी कर्म का उदय ऐसा नहीं जो कि जीव को सुख प्राप्त करानेवाला हो, क्योंकि स्वभाव से सभी कर्म आत्मा के स्वभाव से विलक्षण हैं।
मो.मा.प्र./4/121/11 दोन्यौं ही आकुलता के कारण हैं, तातैं बुरे ही हैं। .....परमार्थ तैं जहाँ आकुलता है तहाँ दुःख ही है, तातैं पुण्य-पाप के उदय कौं भला-बुरा जानना भ्रम है।
देखें सुख - 1 (पुण्य से प्राप्त लौकिक सुख परमार्थ से दुःख है।)
- दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु
स.सा./मू./150 रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज। 150। = रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्म से छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है। इसलिए तू कर्मों में प्रीति मत कर। अर्थात् समस्त कर्मों का त्याग कर। (और भी देखें पुण्य - 2.3 में स.सा./आ./147; तथा पुण्य/2/4 में स.सा./आ./150/क.103)।
स.सा./आ./163/क. 109 संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्, नैकष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति। 109। = मोक्षार्थी को यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य हैं। जहाँ समस्त कर्मों का त्याग किया जाता है, तो फिर वहाँ पुण्य व पाप (को अच्छा या बुरा कहने) की क्या बात है? समस्त कर्मों का त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होने से, परिणमन करने से मोक्ष का कारणभूत होता हुआ, निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धतरस प्रतिबद्ध है, ऐसा ज्ञान अपने आप दौड़ा चला आता है।
स.सा./आ./150 सामान्येन रक्तत्वनिमित्त्वाच्छुभमशुभमुभयकर्माविशेषण बन्धहेतुं साधयति, तुदभयमपि कर्म प्रतिषेधयति। = सामान्यपने रागीपन की निमित्तता के कारण शुभ व अशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बन्ध के कारणरूप सिद्ध करता है, और इसलिए (आगम) दोनों कर्मों का निषेध करता है।
प्र.सा./त.प्र./212 यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्यय-बन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात्। ....ततस्तैस्तैः सर्वप्रकारैः शुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूतः प्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात्। = जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होनेवाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि तहाँ छह काय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होनेवाले बन्ध की प्रसिद्धि है। (देखें हिंसा - 1)। इसलिए उन-उन सर्व प्रकारों से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गच्छेद निषिद्ध है, जिन-जिन प्रकारों से कि उसका आयतनमात्रभूत पर प्राणव्यपरोपरूप बहिरङ्गच्छेद भी अत्यन्त निषिद्ध हो।
द्र.सं./टी./38/159/7 सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम्। = सम्यग्दृष्टि जीव के पुण्य और पाप दोनों हेय हैं। (पं.का./ता.वृ./131/194/14)।
पं.ध./उ./374 उक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः। नादेयं कर्म सव च तद्वद् दृष्टोपलब्धितः। 374। = जैसे सम्यग्दृष्टि को उक्त इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान आदेय नहीं होते हैं, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होने के कारण सम्पूर्ण कर्म भी आदेय नहीं होते हैं।
- दोनों में भेद समझना अज्ञान है
प्र.सा./मू./77 ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नो। 77। = ‘पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है’ जो ऐसा नहीं मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है। (प.प्र./मू./2/55)।
यो.सा./अ./4/39 सुखदुःखविधानेन विशेषः पुण्यपापयोः। नित्यं सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मन्दबुद्धिभिः। 39। = अविनाशी निराकुल सुख को न देखनेवाले मन्दबुद्धिजन ही सुख व दुःख के करणरूप विशेषता से पुण्य व पाप में भेद देखते हैं।
- दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं