निरखत जिनचन्द्र-वदन: Difference between revisions
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Latest revision as of 03:02, 16 February 2008
निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्वपदसुरुचि आई ।।टेक. ।।
प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी ।
कला उदोत होत काम, जामिनी पलाई ।।१ ।।
शाश्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद ।
आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई ।।२ ।।
साधी निज साधकी, समाधि मोह व्याधिकी ।
उपाधिको विराधिकैं, आराधना सुहाई ।।३ ।।
धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबै ।
सुधरे सब काज `दौल', अचल ऋद्धि पाई ।।४ ।।