कषाय: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> कषाय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">कषाय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/109 <span class="PrakritText">सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसारगदी मेरं तेण कसाओ त्ति णं विंति।109।=</span><span class="HindiText">जो क्रोधादिक जीव के सुख-दुःखरूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत को कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं, और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। ( धवला 1/1,1,4/141/5 ) ( धवला 6/1,9-1,23/41/3 ) ( धवला 7/2,1,3/7/1 ) ( चारित्रसार/89/1 )।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/109 <span class="PrakritText">सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसारगदी मेरं तेण कसाओ त्ति णं विंति।109।=</span><span class="HindiText">जो क्रोधादिक जीव के सुख-दुःखरूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत को कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं, और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। ( धवला 1/1,1,4/141/5 ) ( धवला 6/1,9-1,23/41/3 ) ( धवला 7/2,1,3/7/1 ) ( चारित्रसार/89/1 )।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/4/320/9 <span class="SanskritText"> कषाय इव कषाया:। क: उपमार्थ:। यथा कषायो नैयग्रोधादि: श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मन: कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्ते।</span>=<span class="HindiText">कषाय अर्थात् ‘क्रोधादि’ कषाय के समान होने से कषाय कहलाते हैं। उपमारूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेष का कारण है उसी प्रकार आत्मा का क्रोधादिकरूप कषाय भी कर्मों के श्लेष का कारण है। इसलिए कषाय के समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं।</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/6/4/320/9 <span class="SanskritText"> कषाय इव कषाया:। क: उपमार्थ:। यथा कषायो नैयग्रोधादि: श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मन: कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्ते।</span>=<span class="HindiText">कषाय अर्थात् ‘क्रोधादि’ कषाय के समान होने से कषाय कहलाते हैं। उपमारूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेष का कारण है उसी प्रकार आत्मा का क्रोधादिकरूप कषाय भी कर्मों के श्लेष का कारण है। इसलिए कषाय के समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं।</span><br /> | ||
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पं.सं./प्रा./1/116 <span class="PrakritText">अप्पपरोभयबाहणबंधासंजमणिमित्तकोहाई। जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइ णो जीवा।116।</span>=<span class="HindiText">जिनके अपने आपको, पर को और उभय को बाधा देने, बन्ध करने और असंयम के आचरण में निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,111/178/351 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/289/617 )।<br /> | पं.सं./प्रा./1/116 <span class="PrakritText">अप्पपरोभयबाहणबंधासंजमणिमित्तकोहाई। जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइ णो जीवा।116।</span>=<span class="HindiText">जिनके अपने आपको, पर को और उभय को बाधा देने, बन्ध करने और असंयम के आचरण में निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,111/178/351 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/289/617 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">तीव्र व मन्द कषाय के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
पा.अ./मू./91-92<span class="PrakritText"> सव्वत्थ वि पिय वयणं दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं। सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठंता।91। अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं। वेरधरणं च सुइरं तिव्व कसायाण लिंगाणि।92।=</span><span class="HindiText">सभी से प्रिय वचन बोलना, खोटे वचन बोलने पर दुर्जन को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना, ये मन्दकषायी जीवों के उदाहरण हैं।91। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरूषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना और बहुत काल तक वैर का धारण करना, ये तीव्र कषायी जीवों के चिन्ह हैं।92।<br /> | पा.अ./मू./91-92<span class="PrakritText"> सव्वत्थ वि पिय वयणं दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं। सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठंता।91। अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं। वेरधरणं च सुइरं तिव्व कसायाण लिंगाणि।92।=</span><span class="HindiText">सभी से प्रिय वचन बोलना, खोटे वचन बोलने पर दुर्जन को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना, ये मन्दकषायी जीवों के उदाहरण हैं।91। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरूषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना और बहुत काल तक वैर का धारण करना, ये तीव्र कषायी जीवों के चिन्ह हैं।92।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">कषायों का परस्पर सम्बन्ध</strong></span><br /> | ||
धवला 12/4,2,7,86/52/6 <span class="PrakritText"> मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो।</span><br /> | धवला 12/4,2,7,86/52/6 <span class="PrakritText"> मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,7,88/52/11 <span class="PrakritText">कोधपुरं गमत्तदंसणादो।</span><br /> | धवला 12/4,2,7,88/52/11 <span class="PrakritText">कोधपुरं गमत्तदंसणादो।</span><br /> | ||
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कषायपाहुड़ 1/1,13-14/262/300/11 <span class="PrakritText">‘‘कधं णोजीवे माणस्स समुप्पत्ती। ण; अप्पणो रूवजोव्वणगव्वेण वत्थालंकारादिसु समुव्वहमाणमाणत्थी पुरिसाणमुवलंभादो।’’</span><span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>—अजीव के निमित्त से मान की उत्पत्ति कैसे होती है ?<strong> उत्तर</strong>—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवन के गर्व से वस्त्र और अलंकार आदि में मान को धारण करने वाले स्त्री और पुरूष पाये जाते हैं। इसलिए समुत्पत्तिक कषाय की अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं।<br /> | कषायपाहुड़ 1/1,13-14/262/300/11 <span class="PrakritText">‘‘कधं णोजीवे माणस्स समुप्पत्ती। ण; अप्पणो रूवजोव्वणगव्वेण वत्थालंकारादिसु समुव्वहमाणमाणत्थी पुरिसाणमुवलंभादो।’’</span><span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>—अजीव के निमित्त से मान की उत्पत्ति कैसे होती है ?<strong> उत्तर</strong>—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवन के गर्व से वस्त्र और अलंकार आदि में मान को धारण करने वाले स्त्री और पुरूष पाये जाते हैं। इसलिए समुत्पत्तिक कषाय की अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">कषायले अजीव द्रव्यों को कषाय कैसे कहा जा सकता है</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/270/306/2 <span class="PrakritText">दव्वस्स कथं कसायववएसो; ण; कसायवदिरित्तदव्वाणुलंभादो। अकसायं पि दव्वमत्थि त्ति चे; होदु णाम; किंतु ‘अप्पियदव्वं ण कसायादो पुधभूदमत्थिं त्ति भणामो। तेण ‘कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा सिया कसाओ’ त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—द्रव्य को (सिरीष आदि को) कषाय कैसे कहा जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>—क्योंकि कषाय रस से भिन्न द्रव्य नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्य को कषाय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है।<strong> प्रश्न</strong>—कषाय रस से रहित भी द्रव्य पाया जाता है ऐसी अवस्था में द्रव्य को कषाय कैसे कहा जा सकता है?<strong> उत्तर</strong>—कषायरस से रहित द्रव्य पाया जाओ, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु यहाँ जिस द्रव्य के विचार की मुख्यता है वह कषायरस से भिन्न नहीं है, ऐसा हमारा कहना है। इसलिए जिसका या जिनका रस कसैला है उस द्रव्य को या उन द्रव्यों को कथंचित् कषाय कहते हैं यह सिद्ध हुआ।</span></li> | कषायपाहुड़ 1/1,13-14/270/306/2 <span class="PrakritText">दव्वस्स कथं कसायववएसो; ण; कसायवदिरित्तदव्वाणुलंभादो। अकसायं पि दव्वमत्थि त्ति चे; होदु णाम; किंतु ‘अप्पियदव्वं ण कसायादो पुधभूदमत्थिं त्ति भणामो। तेण ‘कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा सिया कसाओ’ त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—द्रव्य को (सिरीष आदि को) कषाय कैसे कहा जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>—क्योंकि कषाय रस से भिन्न द्रव्य नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्य को कषाय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है।<strong> प्रश्न</strong>—कषाय रस से रहित भी द्रव्य पाया जाता है ऐसी अवस्था में द्रव्य को कषाय कैसे कहा जा सकता है?<strong> उत्तर</strong>—कषायरस से रहित द्रव्य पाया जाओ, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु यहाँ जिस द्रव्य के विचार की मुख्यता है वह कषायरस से भिन्न नहीं है, ऐसा हमारा कहना है। इसलिए जिसका या जिनका रस कसैला है उस द्रव्य को या उन द्रव्यों को कथंचित् कषाय कहते हैं यह सिद्ध हुआ।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषाय में अन्तर</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषाय में अन्तर</strong></span><br /> | ||
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कषायपाहुड़ 1/1,13-14/264/301/6 <span class="PrakritText">आदेसकसाय-ट्ठवणकसायाणं को भेओ। अत्थि भेओ, सब्भावट्ठवणा कषायरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसब्भावासब्भावट्ठवणा ट्ठवणकसाओ, तम्हा ण पुणरूत्तदोसो त्ति।=</span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(यदि चित्र में लिखित या काष्ठादि में उकेरित क्रोधादि आदेश कषाय है) तो आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में क्या भेद है ?<strong> उत्तर</strong>—आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में भेद है, क्योंकि सद्भावस्थापना कषाय का प्ररूपण करना और ‘यह कषाय है’ इस प्रकार की बुद्धि होना, यह आदेशकषाय है। तथा कषाय की सद्भाव और असद्भाव स्थापना करना स्थापनाकषाय है। तथा इसलिए आदेशकषाय और स्थापनाकषाय अलग-अलग कथन करने से पुनरूक्त दोष नहीं आता है।<br /> | कषायपाहुड़ 1/1,13-14/264/301/6 <span class="PrakritText">आदेसकसाय-ट्ठवणकसायाणं को भेओ। अत्थि भेओ, सब्भावट्ठवणा कषायरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसब्भावासब्भावट्ठवणा ट्ठवणकसाओ, तम्हा ण पुणरूत्तदोसो त्ति।=</span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(यदि चित्र में लिखित या काष्ठादि में उकेरित क्रोधादि आदेश कषाय है) तो आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में क्या भेद है ?<strong> उत्तर</strong>—आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में भेद है, क्योंकि सद्भावस्थापना कषाय का प्ररूपण करना और ‘यह कषाय है’ इस प्रकार की बुद्धि होना, यह आदेशकषाय है। तथा कषाय की सद्भाव और असद्भाव स्थापना करना स्थापनाकषाय है। तथा इसलिए आदेशकषाय और स्थापनाकषाय अलग-अलग कथन करने से पुनरूक्त दोष नहीं आता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">चारों गतियों में कषाय विशेषों की प्रधानता का नियम</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकाण्ड/288/616 <span class="PrakritText">णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि।</span><br /> | गोम्मटसार जीवकाण्ड/288/616 <span class="PrakritText">णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि।</span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/28/616/5 <span class="SanskritText"> नारकतिर्यग्नरसुरगत्युत्पन्नजीवस्य तद्भवप्रथमकाले-प्रथमसमये यथासंख्यं क्रोधमायामानलोभकषायाणामुदय: स्यादिति नियमवचनं कषायप्राभृतद्वितीयसिद्धान्तव्याख्यातुर्यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं। वा-अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतप्रथमसिद्धान्तकर्तु: भूतवल्याचार्यस्य अभिप्रायेणानियमो ज्ञातव्य:। प्रागुक्तनियमं बिना यथासंभवं कषायोदयोऽस्तीत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवविषै उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समयविषै क्रम से क्रोध, माया, मान व लोभ का उदय ही है। सो ऐसा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धान्त के कर्ता यतिवृषभाचार्य के अभिप्राय से जानना। बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथमसिद्धान्त के कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नहीं है। जिस तिस किसी एक कषाय का भी उदय हो सकता है।</span><br /> | गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/28/616/5 <span class="SanskritText"> नारकतिर्यग्नरसुरगत्युत्पन्नजीवस्य तद्भवप्रथमकाले-प्रथमसमये यथासंख्यं क्रोधमायामानलोभकषायाणामुदय: स्यादिति नियमवचनं कषायप्राभृतद्वितीयसिद्धान्तव्याख्यातुर्यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं। वा-अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतप्रथमसिद्धान्तकर्तु: भूतवल्याचार्यस्य अभिप्रायेणानियमो ज्ञातव्य:। प्रागुक्तनियमं बिना यथासंभवं कषायोदयोऽस्तीत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवविषै उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समयविषै क्रम से क्रोध, माया, मान व लोभ का उदय ही है। सो ऐसा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धान्त के कर्ता यतिवृषभाचार्य के अभिप्राय से जानना। बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथमसिद्धान्त के कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नहीं है। जिस तिस किसी एक कषाय का भी उदय हो सकता है।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">उपरोक्त दृष्टांत स्थिति की अपेक्षा है; अनुभाग की अपेक्षा नहीं</strong> </span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/284-287/610-615 <span class="SanskritText">यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीघ्रशीघ्रतरकालैर्विना संधानं न घटते तथोत्कृष्टादिशक्तियुक्तक्रोधपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना क्षमालक्षणसंधानार्हो न स्यात् इत्युपमानोपमेययो: सादृश्यं संभवतीति तात्पर्यार्थ:।284। यथा हि चिरतरादिकालैर्विना शैलास्थिकाष्ठवेत्रा: नामयितुं न शक्यन्ते तथोत्कृष्टादिशक्तिमानपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना मानं परिह्रत्य विनयरूपनमनं कर्तुं न शक्नोतीति सादृश्यसंभवोऽत्र ज्ञातव्य:।285। यथा वेणूपमूलादय: चिरतरादिकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणत: तथाविधकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम्।286।</span>=<span class="HindiText">जैसे शिलादि पर उकेरी या खेंची गयी रेखाएँ अधिक देर से, देर से, जल्दी व बहुत जल्दी काल बीते बिना मिलती नहीं है, उसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्तियुक्त क्रोध से परिणत जीव भी उतने-उतने काल बीते बिना अनुसंधान या क्षमा को प्राप्त नहीं होता है। इसलिए यहाँ उपमान और उपमेय की सदृशता सम्भव है।284। जैसे चिरतर आदि काल बीते बिना शैल, अस्थि, काष्ठ और बेत नमाये जाने शक्य नहीं हैं वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मान से परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना मान को छोड़कर विनय रूप नमना या प्रवर्तना शक्य नहीं है, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है।285। जैसे वेणुमूल आदि चिरतर आदि काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजुत्व नहीं प्राप्त करते हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त माया से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजु या सरल परिणाम को प्राप्त नहीं होते, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। (जैसे क्रमिराग आदि के रंग चिरतर आदि काल बीते बिना छूटते नहीं हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त लोभ से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना लोभ परिणाम को छोड़कर सन्तोष को प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। बहुरि इहाँ शिलाभेदादि उपमान और उत्कृष्ट शक्तियुक्त आदि क्रोधादिक उपमेय ताका समानपना अतिघना कालादि गये बिना मिलना न होने की अपेक्षा जानना (पृ.611)। <br /> | गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/284-287/610-615 <span class="SanskritText">यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीघ्रशीघ्रतरकालैर्विना संधानं न घटते तथोत्कृष्टादिशक्तियुक्तक्रोधपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना क्षमालक्षणसंधानार्हो न स्यात् इत्युपमानोपमेययो: सादृश्यं संभवतीति तात्पर्यार्थ:।284। यथा हि चिरतरादिकालैर्विना शैलास्थिकाष्ठवेत्रा: नामयितुं न शक्यन्ते तथोत्कृष्टादिशक्तिमानपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना मानं परिह्रत्य विनयरूपनमनं कर्तुं न शक्नोतीति सादृश्यसंभवोऽत्र ज्ञातव्य:।285। यथा वेणूपमूलादय: चिरतरादिकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणत: तथाविधकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम्।286।</span>=<span class="HindiText">जैसे शिलादि पर उकेरी या खेंची गयी रेखाएँ अधिक देर से, देर से, जल्दी व बहुत जल्दी काल बीते बिना मिलती नहीं है, उसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्तियुक्त क्रोध से परिणत जीव भी उतने-उतने काल बीते बिना अनुसंधान या क्षमा को प्राप्त नहीं होता है। इसलिए यहाँ उपमान और उपमेय की सदृशता सम्भव है।284। जैसे चिरतर आदि काल बीते बिना शैल, अस्थि, काष्ठ और बेत नमाये जाने शक्य नहीं हैं वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मान से परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना मान को छोड़कर विनय रूप नमना या प्रवर्तना शक्य नहीं है, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है।285। जैसे वेणुमूल आदि चिरतर आदि काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजुत्व नहीं प्राप्त करते हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त माया से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजु या सरल परिणाम को प्राप्त नहीं होते, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। (जैसे क्रमिराग आदि के रंग चिरतर आदि काल बीते बिना छूटते नहीं हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त लोभ से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना लोभ परिणाम को छोड़कर सन्तोष को प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। बहुरि इहाँ शिलाभेदादि उपमान और उत्कृष्ट शक्तियुक्त आदि क्रोधादिक उपमेय ताका समानपना अतिघना कालादि गये बिना मिलना न होने की अपेक्षा जानना (पृ.611)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><span class="SanskritGatha"><strong | <li><span class="HindiText"><span class="SanskritGatha"><strong name="4.1" id="4.1">नयों की अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश</strong> <br /> | ||
कषायपाहुड़/1/1,21/ चूर्ण सूत्र व टीका/335-341।365-369—</span> | कषायपाहुड़/1/1,21/ चूर्ण सूत्र व टीका/335-341।365-369—</span> | ||
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कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/335-336/365<span class="SanskritText"> णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्जं, लोहो पेज्जं। (चूर्णसूत्र)।....कोहो दोसो; अङ्गसन्तापकम्प.... पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात्, सकलानर्थनिबन्धनत्वात्। माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात्, क्रोधोक्ताशेषदोषनिबन्धनत्वात्। माया पेज्जं प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वात्, स्वनिष्पत्त्युत्तरकाले मनस: सन्तोषोत्पादकत्वात्। लोहो पेज्जं आह्लादनहेतुत्वात् (335)। क्रोध-मान-माया-लोभा: दोष: आस्रवत्वादिति चेत्; सत्यमेतत्; किन्त्वत्र आह्लादनानाह्लादनहेतुमात्रं विवक्षितं तेन नायं दोष:। प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा माया-लोभौ प्रेयान्सौ। अरइ-सोय-भय-दुगुंछाओ दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो। हस्स-रइ-इत्थि-पुरिस-णवुंसयसेया पेज्जं लोहो व्व रायकारणत्तादो (336)।</span>= <span class="HindiText">नैगम और संग्रह नय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया पेज्ज है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र) क्रोध दोष है; क्योंकि क्रोध करने से शरीर में सन्ताप होता है, शरीर काँपने लगता है....आदि....माता-पिता तक को मार डालता है और क्रोध सकल अनर्थों का कारण है। मान दोष है; क्योंकि वह क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के विषय में कहे गये समस्त दोषों का कारण है। माया पेज्ज है; क्योंकि, उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, तथा अपनी निष्पत्ति के अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है। लोभ पेज्ज है; क्योंकि वह प्रसन्नता का कारण है। प्रश्न—क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रव रूप हैं या आस्रव के कारण हैं ? उत्तर—यह कहना ठीक है, किंतु यहाँ पर, कौन कषाय आनन्द की कारण है और कौन आनन्द की कारण नहीं है इतने मात्र की विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेम में दोषपना पाया ही जाता है, अत: माया और लोभ प्रेम अर्थात् पेज्ज है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष रूप हैं; क्योंकि ये सब क्रोध के समान अशुभ के कारण हैं। हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरूषवेद और नपुंसकवेद पेज्जरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभ के समान राग के कारण हैं।<br /> | कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/335-336/365<span class="SanskritText"> णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्जं, लोहो पेज्जं। (चूर्णसूत्र)।....कोहो दोसो; अङ्गसन्तापकम्प.... पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात्, सकलानर्थनिबन्धनत्वात्। माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात्, क्रोधोक्ताशेषदोषनिबन्धनत्वात्। माया पेज्जं प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वात्, स्वनिष्पत्त्युत्तरकाले मनस: सन्तोषोत्पादकत्वात्। लोहो पेज्जं आह्लादनहेतुत्वात् (335)। क्रोध-मान-माया-लोभा: दोष: आस्रवत्वादिति चेत्; सत्यमेतत्; किन्त्वत्र आह्लादनानाह्लादनहेतुमात्रं विवक्षितं तेन नायं दोष:। प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा माया-लोभौ प्रेयान्सौ। अरइ-सोय-भय-दुगुंछाओ दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो। हस्स-रइ-इत्थि-पुरिस-णवुंसयसेया पेज्जं लोहो व्व रायकारणत्तादो (336)।</span>= <span class="HindiText">नैगम और संग्रह नय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया पेज्ज है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र) क्रोध दोष है; क्योंकि क्रोध करने से शरीर में सन्ताप होता है, शरीर काँपने लगता है....आदि....माता-पिता तक को मार डालता है और क्रोध सकल अनर्थों का कारण है। मान दोष है; क्योंकि वह क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के विषय में कहे गये समस्त दोषों का कारण है। माया पेज्ज है; क्योंकि, उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, तथा अपनी निष्पत्ति के अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है। लोभ पेज्ज है; क्योंकि वह प्रसन्नता का कारण है। प्रश्न—क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रव रूप हैं या आस्रव के कारण हैं ? उत्तर—यह कहना ठीक है, किंतु यहाँ पर, कौन कषाय आनन्द की कारण है और कौन आनन्द की कारण नहीं है इतने मात्र की विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेम में दोषपना पाया ही जाता है, अत: माया और लोभ प्रेम अर्थात् पेज्ज है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष रूप हैं; क्योंकि ये सब क्रोध के समान अशुभ के कारण हैं। हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरूषवेद और नपुंसकवेद पेज्जरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभ के समान राग के कारण हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">व्यवहारनय की अपेक्षा में युक्ति</strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/337-338/367<span class="PrakritText"> ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्जं (सू.) क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्यं तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनात्, न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोक-गर्हितत्वयोरूपलम्भात्। न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुःखोत्पत्ते: (338)। लोहो पेज्जं लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात्। इत्थिपुरिसवेया पेज्जं सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदंसणादो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध और मान द्वेष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोक में क्रोध और मान में दोष का व्यवहार देखा जाता है। परन्तु माया को दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि माया में दोष का व्यवहार नहीं देखा जाता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, माया में भी अविश्वास का कारणपना और लोकनिन्दतपना देखा जाता है और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है; क्योंकि, निन्दा से हमेशा दुःख उत्पन्न होता है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि लोभ के द्वारा बचाये हुए द्रव्य से जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरूषवेद पेज्ज हैं और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोक में इनके बारे में इसी प्रकार का व्यवहार देखा जाता है। <br /> | कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/337-338/367<span class="PrakritText"> ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्जं (सू.) क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्यं तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनात्, न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोक-गर्हितत्वयोरूपलम्भात्। न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुःखोत्पत्ते: (338)। लोहो पेज्जं लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात्। इत्थिपुरिसवेया पेज्जं सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदंसणादो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध और मान द्वेष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोक में क्रोध और मान में दोष का व्यवहार देखा जाता है। परन्तु माया को दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि माया में दोष का व्यवहार नहीं देखा जाता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, माया में भी अविश्वास का कारणपना और लोकनिन्दतपना देखा जाता है और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है; क्योंकि, निन्दा से हमेशा दुःख उत्पन्न होता है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि लोभ के द्वारा बचाये हुए द्रव्य से जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरूषवेद पेज्ज हैं और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोक में इनके बारे में इसी प्रकार का व्यवहार देखा जाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4">ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा में युक्ति </strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1-21/ चूर्णसूत्र व टी./339-340/368 <span class="PrakritText">उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेज्जं, माया णोदोसो णोपेज्जं, लोहो पेज्जं (चूर्णसूत्र)। कोहो दोसो त्ति णव्वदे; सयलाणत्थहेउत्तादो। लोहो पेज्जं त्ति एदं पि सुगमं, तत्तो....किंतु माण-मायाओ णोदोसो णोपेज्जं त्ति एदं ण णव्वदे पेज्ज-दोसवज्जियस्स कसायस्स अणुवलंभादो त्ति (339) एत्थ परिहारो उच्चदे, माणमाया णोदोसो; अंगसंतावाईणसकारणत्तदो। तत्तो समुप्पज्जमाणअंगसंतावादओ दीसंति त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं; माणणिबंधणकोहादो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पज्जमाणाणं तेसिमुवलंभादो।....ण च बे वि पेज्जं; तत्तो समुप्पज्जमाणआह्लादाणुवलंभादो। तम्हा माण-माया बे वि णोदोसो णोपेज्जं ति जुज्जदे (340)।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा क्रोध दोष है; मान न दोष है और न पेज्ज है; माया न दोष है और न पेज्ज है; तथा लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध दोष है यह तो समझ में आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थों का कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है।....किंतु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोष से भिन्न कषाय नहीं पायी जाती है? उत्तर—ऋजुसूत्र की अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंग संतापादिक के कारण नहीं हैं (अर्थात् इनकी अभेद प्रवृत्ति नहीं है)। यदि कहा जाय कि मान और माया से अंग संताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं; सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ जो अंग संताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और माया से न होकर मान से होने वाले क्रोध से और माया से होने वाले लोभ से ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं।....उसी प्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं हैं, क्योंकि उनसे आनन्द की उत्पत्ति होती हुई नहीं पायी जाती है। इसलिए मान और माया से दोनों न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कथन बन जाता है।<br /> | कषायपाहुड़ 1/1-21/ चूर्णसूत्र व टी./339-340/368 <span class="PrakritText">उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेज्जं, माया णोदोसो णोपेज्जं, लोहो पेज्जं (चूर्णसूत्र)। कोहो दोसो त्ति णव्वदे; सयलाणत्थहेउत्तादो। लोहो पेज्जं त्ति एदं पि सुगमं, तत्तो....किंतु माण-मायाओ णोदोसो णोपेज्जं त्ति एदं ण णव्वदे पेज्ज-दोसवज्जियस्स कसायस्स अणुवलंभादो त्ति (339) एत्थ परिहारो उच्चदे, माणमाया णोदोसो; अंगसंतावाईणसकारणत्तदो। तत्तो समुप्पज्जमाणअंगसंतावादओ दीसंति त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं; माणणिबंधणकोहादो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पज्जमाणाणं तेसिमुवलंभादो।....ण च बे वि पेज्जं; तत्तो समुप्पज्जमाणआह्लादाणुवलंभादो। तम्हा माण-माया बे वि णोदोसो णोपेज्जं ति जुज्जदे (340)।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा क्रोध दोष है; मान न दोष है और न पेज्ज है; माया न दोष है और न पेज्ज है; तथा लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध दोष है यह तो समझ में आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थों का कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है।....किंतु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोष से भिन्न कषाय नहीं पायी जाती है? उत्तर—ऋजुसूत्र की अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंग संतापादिक के कारण नहीं हैं (अर्थात् इनकी अभेद प्रवृत्ति नहीं है)। यदि कहा जाय कि मान और माया से अंग संताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं; सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ जो अंग संताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और माया से न होकर मान से होने वाले क्रोध से और माया से होने वाले लोभ से ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं।....उसी प्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं हैं, क्योंकि उनसे आनन्द की उत्पत्ति होती हुई नहीं पायी जाती है। इसलिए मान और माया से दोनों न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कथन बन जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">कषाय समुद्घात </strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1">कषाय समुद्घात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/20/12/77/14 <span class="SanskritText">द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृत: कषायसमुद्घात:।</span><span class="HindiText">=बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निमित्तों के प्रकर्ष से उत्पादित जो क्रोधादि कषायें, उनके द्वारा किया गया कषाय समुद्घात है।</span><br /> | राजवार्तिक/1/20/12/77/14 <span class="SanskritText">द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृत: कषायसमुद्घात:।</span><span class="HindiText">=बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निमित्तों के प्रकर्ष से उत्पादित जो क्रोधादि कषायें, उनके द्वारा किया गया कषाय समुद्घात है।</span><br /> | ||
धवला 4/1,3,2/26/8 <span class="PrakritText">‘‘कसायसमुग्घादो णाम कोधभयादीहि सरीरतिगुणविप्फुज्जणं।’’</span><span class="HindiText">=क्रोध, भय आदि के द्वारा जीवों के प्रदेशों का उत्कृष्टत: शरीर से तिगुणे प्रमाण विसर्पण का नाम कषाय समुद्घात है।</span><br /> | धवला 4/1,3,2/26/8 <span class="PrakritText">‘‘कसायसमुग्घादो णाम कोधभयादीहि सरीरतिगुणविप्फुज्जणं।’’</span><span class="HindiText">=क्रोध, भय आदि के द्वारा जीवों के प्रदेशों का उत्कृष्टत: शरीर से तिगुणे प्रमाण विसर्पण का नाम कषाय समुद्घात है।</span><br /> |
Revision as of 14:18, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध मान माया लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की कषायों का निर्देश आगम में मिलता है। हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि व मैथुन भाव ये नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि कषायवत् व्यक्त नहीं होती। इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूप का घात करने के कारण कषाय ही हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है।
एक दूसरी दृष्टि से भी कषायों को निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार है—अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्जवलन-ये भेद विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा किये गये हैं और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारों के क्रोधादिक के भेद से चार-चार भेद करके कुल 16 भेद कर दिये हैं। तहाँ क्रोधादि की तीव्रता मन्दता से इनका सम्बंध नहीं है बल्कि आसक्ति की तीव्रता मन्दता से है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में क्रोधादि की तो मन्दता हो और आसक्ति की तीव्रता। या क्रोधादि की तीव्रता हो और आसक्ति की मन्दता। अत: क्रोधादि की तीव्रता मन्दता को लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्ति की तीव्रता मन्दता को अनन्तानुबंधी आदि द्वारा।
कषायों की शक्ति अचिन्त्य है। कभी-कभी तीव्र कषायवश आत्मा के प्रदेश शरीर से निकलकर अपने बैरी का घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
- कषाय के भेद व लक्षण
- कषाय सामान्य का लक्षण।
- कषाय के भेद प्रभेद।
- निक्षेप की अपेक्षा कषाय के भेद।
- कषाय मार्गणा के भेद।
- नोकषाय या अकषाय का लक्षण।
- अकषाय मार्गणा का लक्षण।
- तीव्र व मन्द कषाय के लक्षण व उदाहरण।
- आदेश व प्रत्यय आदि कषायों के लक्षण।
- कषाय सामान्य का लक्षण।
- क्रोधादि व अनन्तानुबंधी के लक्षण।–देखें वह वह नाम ।
- कषाय निर्देश व शंका समाधान
- कषायों में परस्पर सम्बंध।
- कषाय व नोकषाय में विशेषता।
- कषाय नोकषाय व अकषाय वेदनीय व उनके बन्ध योग्य परिणाम।–देखें मोहनीय - 3।
- कषाय अविरति व प्रमादादि प्रत्ययों में भेदाभेद।–देखें प्रत्यय - 1।
- इन्द्रिय कषाय व क्रियारूप आस्रव में अन्तर।–देखें क्रिया - 3।
- कषाय जीव का गुण नहीं; विकार है।
- कषाय का कथंचित् स्वभाव व विभावपना तथा सहेतुक अहेतुकपना।–देखें विभाव ।
- कषाय औदयिक भाव है।–देखें उदय - 9।
- कषाय वास्तव में हिंसा है।–देखें हिंसा - 2।
- मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है।–देखें मिथ्यादर्शन ।
- व्यक्ताव्यक्त कषाय।–देखें राग - 3।
- जीव या द्रव्य कर्म को क्रोधादि संज्ञाएँ कैसे प्राप्त हैं?
- निमित्तभूत भिन्न द्रव्यों को समुत्पत्तिक कषाय कैसे कहते हो?
- कषायले अजीव द्रव्यों को कषाय कैसे कहते हो?
- प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषाय में अन्तर।
- आदेश कषाय व स्थापना कषाय में अन्तर।
- कषाय निग्रह का उपाय।–देखें संयम - 2।
- चारों गतियों में कषाय विशेषों की प्रधानता का नियम।
- कषायों में परस्पर सम्बंध।
- कषायों की शक्तियाँ, उनका कार्य व स्थिति
- कषायों की शक्तियों के दृष्टांत व उनका फल।
- उपरोक्त दृष्टांत स्थिति की अपेक्षा है; अनुभाग की अपेक्षा नहीं।
- उपरोक्त दृष्टांतों का प्रयोजन।
- क्रोधादि कषायों का उदयकाल।
- अनन्तानुबंधी आदि का वासनाकाल।–देखें वह वह नाम ।
- कषायों की तीव्रता मन्दता का सम्बंध लेश्याओं से है; अनन्तानुबंध्यादि अवस्थाओं से नहीं।
- अनन्तानुबंधी आदि कषायें।–देखें वह वह नाम ।
- कषाय व लेश्या में सम्बंध।–देखें लेश्या - 2।
- कषायों की तीव्र मन्द शक्तियों में सम्भव लेश्याएँ।–देखें आयु - 3.19।
- कैसी कषाय से कैसे कर्म का बन्ध होता है?–देखें वह वह कर्म का नाम
- कौन-सी कषाय से मरकर कहाँ उत्पन्न हो?–देखें जन्म - 5।
- कषायों की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
- कषाय व स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान।–देखें अध्यवसाय
- कषायों की शक्तियों के दृष्टांत व उनका फल।
- कषायों का रागद्वेषादि में अन्तर्भाव
- राग-द्वेष सम्बंधी विषय।–देखें राग
- नयों की अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश।
- नैगम व संग्रहनय की अपेक्षा में युक्ति।
- व्यवहारनय की अपेक्षा में युक्ति।
- ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा में युक्ति।
- शब्दनय की अपेक्षा में युक्ति।
- राग-द्वेष सम्बंधी विषय।–देखें राग
- संज्ञा प्ररूपणा का कषाय मार्गणा में अन्तर्भाव।–देखें मार्गणा
- कषाय मार्गणा
- गतियों की अपेक्षा कषायों की प्रधानता।
- गुणस्थानों में कषायों की सम्भावना।
- साधु को कदाचित् कषाय आती है पर वह संयम से च्युत नहीं होता।–देखें संयम - 3।
- अप्रमत्त गुणस्थानों में कषायों का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो?
- उपशान्तकषाय गुणस्थान कषाय रहित कैसे है?
- कषाय मार्गणा में भाव मार्गणा की इष्टता और तहाँ आय के अनुसार ही व्यय का नियम।–देखें मार्गणा
- कषायों में पाँच भावों सम्बंधी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ।–देखें भाव
- कषाय विषय सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
- कषाय विषयक गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत्
- कषायमार्गणा में बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम
- गतियों की अपेक्षा कषायों की प्रधानता।
- कषाय समुद्घात
- कषाय समुद्घात का लक्षण।
- यह शरीर से तिगुने विस्तारवाला होता है।–देखें ऊपर लक्षण
- यह संख्यात समय स्थितिवाला है।–देखें समुद् घात
- इसका गमन व फैलाव सर्व दिशाओं में होता है।–देखें समुद् घात
- यह बद्धायुष्क व अबद्धायुष्क दोनों को होता है।–देखें मरण - 5.7
- कषाय व मारणान्तिक समुद्घात में अन्तर।–देखें मरण - 5
- कषाय समुद्घात का स्वामित्व।–देखें क्षेत्र - 3
- कषाय समुद्घात का लक्षण।
- कषाय के भेद व लक्षण
- कषाय सामान्य का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/109 सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसारगदी मेरं तेण कसाओ त्ति णं विंति।109।=जो क्रोधादिक जीव के सुख-दुःखरूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत को कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं, और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। ( धवला 1/1,1,4/141/5 ) ( धवला 6/1,9-1,23/41/3 ) ( धवला 7/2,1,3/7/1 ) ( चारित्रसार/89/1 )।
सर्वार्थसिद्धि/6/4/320/9 कषाय इव कषाया:। क: उपमार्थ:। यथा कषायो नैयग्रोधादि: श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मन: कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्ते।=कषाय अर्थात् ‘क्रोधादि’ कषाय के समान होने से कषाय कहलाते हैं। उपमारूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेष का कारण है उसी प्रकार आत्मा का क्रोधादिकरूप कषाय भी कर्मों के श्लेष का कारण है। इसलिए कषाय के समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं।
राजवार्तिक/2/6/2/108/28 कषायवेदनीयस्योदयादात्मन: कालुष्यं क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं ‘कषत्यात्मानं हिनस्ति’ इति कषाय इत्युच्यते।=कषायवेदनीय (कर्म) के उदय से होने वाली क्रोधादिरूप कलुषता कषाय कहलाती है; क्योंकि यह आत्मा के स्वाभाविक रूप को कष देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है। ( योगसार (अमितगति)/9/40 ) ( पंचाध्यायी x`/ उ/1135)।
राजवार्तिक/6/4/2/508/8 क्रोधादिपरिणाम: कषति हिनस्त्यात्मानं कुगतिप्रापणादिति कषाय:।=क्रोधादि परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाने के कारण कषते हैं; आत्मा के स्वरूप की हिंसा करते हैं, अत: ये कषाय हैं (ऊपर भी राजवार्तिक/2/6/2/108 ) ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/27/107/19 ) (गो.क/जी.प्रा./33/28/1)।
राजवार्तिक/9/7/11/604/6 चारित्रपरिणामकषणात् कषाय:।=चारित्र परिणाम को कषने के कारण या घातने के कारण कषाय है। ( चारित्रसार/88/6 )।
- कषाय के भेद प्रभेद
चार्ट
(क्रोधादि चारों में से प्रत्येक की ये अनन्तानुबंधी आदि चार-चार अवस्थाएँ हैं।
प्रमाण–
- कषाय व नोकषाय–( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/287/322/1 )
- कषाय के क्रोधादि 4 भेद–( षट्खण्डागम 1/1,1/ सू.111/348) (वा.अ./49) ( राजवार्तिक/9/7/11/604/7 ) ( धवला 6/1,9-2,23/41/3 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/7 )।
- नोकषाय के नौ भेद–( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ) ( सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/12 ) ( राजवार्तिक/8/9/4/574/16 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1077 )।
- क्रोधादि के अनन्तानुबंधी आदि 16 भेद–( सर्वार्थसिद्धि/8/9/386/4 ) ( सर्वार्थसिद्धि/8/1/374/8 ) ( राजवार्तिक 8/9/5/574/27 ) ( नयचक्र बृहद्/308 )
- कषाय के कुल 25 भेद–( सर्वार्थसिद्धि/8/1/375/11 ) ( राजवार्तिक/8/1/29/564/26 ) ( धवला 8/3, 6/21/4 ) ( कषायपाहुड़/1/1, 13-14/287/322/1 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/1 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/7 )।
- कषाय व नोकषाय–( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/287/322/1 )
- निक्षेप की अपेक्षा कषाय के भेद
( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/235-279/283-293 )
चार्ट
- कषाय मार्गणा के भेद
षट्खण्डागम 1/1,1/ सू. 111/348 ‘‘कसायाणुवादेण अत्थि क्रोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई चेदि।’’=कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और कषायरहित जीव होते हैं।
- नोकषाय या अकषाय का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/11 ईषदर्थे नञ: प्रयोगादीषत्कषायोऽकषाय इति।=यहाँ ईषत् अर्थात् किंचित् अर्थ में ‘नञ्’ का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को अकषाय (या नोकषाय) कहते हैं। ( राजवार्तिक/8/9/3/574/10 ) ( धवला 6/1,9-1,24/46/1 ) ( धवला 13/5,5,94/359/9 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/7 )।
- अकषाय मार्गणा का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/116 अप्पपरोभयबाहणबंधासंजमणिमित्तकोहाई। जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइ णो जीवा।116।=जिनके अपने आपको, पर को और उभय को बाधा देने, बन्ध करने और असंयम के आचरण में निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,111/178/351 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/289/617 )।
- तीव्र व मन्द कषाय के लक्षण व उदाहरण
पा.अ./मू./91-92 सव्वत्थ वि पिय वयणं दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं। सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठंता।91। अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं। वेरधरणं च सुइरं तिव्व कसायाण लिंगाणि।92।=सभी से प्रिय वचन बोलना, खोटे वचन बोलने पर दुर्जन को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना, ये मन्दकषायी जीवों के उदाहरण हैं।91। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरूषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना और बहुत काल तक वैर का धारण करना, ये तीव्र कषायी जीवों के चिन्ह हैं।92।
- आदेश व प्रत्यय आदि कषायों के लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/ प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति ‘‘सर्जो नाम वृक्षविशेष:, तस्य कषाय: सर्जकषाय:। शिरीषस्य कषाय: शिरीषकषाय:। 242/285/9....पच्चयकसायो णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो होदि तम्हा तं कम्मं पच्चयकसाएण कोहो। (चूर्ण सूत्र पृ. 287)/समुत्पत्तियकसायो णाम, कोहो सिया णोजीवो एवमट्ठभंगा/(चूर्ण सूत्र पृ.293)/मणुसस्सपडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कोहो। (चूर्ण सूत्र पृ.295)/कट्ठं वा लेडुं वा पडुच्च कोहो समुप्पण्णो तं कट्ठं वा लेडुं वा कोहो। (चूर्ण सूत्र पृ.298) एवं माणमायालोभाणं/(पृ.300)। आदेशकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिउडिं काऊण। (चूर्ण सूत्र/पृ.301)। एवमेदे कट्ठकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसायो णाम। (चूर्ण सूत्र/पृ.303)=सर्ज साल नाम के वृक्षविशेष को कहते हैं। उसके कसैले रस को सर्जकषाय कहते हैं। सिरीष नाम के वृक्ष के कसैले रस को सिरीकषाय कहते हैं। (242)। अब प्रत्ययकषाय का स्वरूप कहते हैं–क्रोध वेदनीय कर्म के उदय से जीव क्रोध रूप होता है, इसलिए प्रत्यय कर्म की अपेक्षा वह क्रोधकर्म क्रोध कहलाता है (243 का चूर्ण सूत्र पृ. 287)। (इसी प्रकार मान माया व लोभ का भी कथन करना चाहिए) (247 के चूर्ण सूत्र पृ. 289)। समुत्पत्ति की अपेक्षा कहीं पर जीव क्रोधरूप है कहीं पर अजीव क्रोधरूप है इस प्रकार आठ भंग करने चाहिए। जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पत्तिक कषाय की अपेक्षा क्रोध है। जिस लकड़ी अथवा ईंट आदि के टुकड़े के निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है समुत्पत्तिक कषाय की अपेक्षा वह लकड़ी या ईंट आदि का टुकड़ा क्रोध है। (इसी प्रकार मान, माया, लोभ का भी कथन करना चाहिए)। (252-262 के चूर्ण सूत्र पृ. 293-300)। भौंह चढ़ाने के कारण जिसके ललाट में तीन बलि पड़ गयी हैं चित्र में अंकित ऐसा रूष्ट हुआ जीव आदेशकषाय की अपेक्षा क्रोध है। (इसी प्रकार चित्रलिखित अकड़ा हुआ पुरूष मान, ठगता हुआ मनुष्य माया तथा लम्पटता के भाव युक्त पुरूष लोभ है)। इस प्रकार काष्ठ कर्म में या पोतकर्म में लिखे गये (या उकेरे गये) क्रोध, मान, माया और लोभ आदेश कषाय है। (263-268 के चूर्ण सूत्र पृ. 301-303)
- कषाय सामान्य का लक्षण
- कषाय निर्देश व शंका समाधान
- कषायों का परस्पर सम्बन्ध
धवला 12/4,2,7,86/52/6 मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो।
धवला 12/4,2,7,88/52/11 कोधपुरं गमत्तदंसणादो।
धवला 12/4,2,7,100/57/2 अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए।=माया, लोभपूर्वक उपलब्ध है। वह (मान) क्रोधपूर्वक देखा जाता है। अरति के बिना शोक नहीं उत्पन्न होता।
- कषाय व नोकषाय में विशेषता
धवला 6/1,9-1,24/45/5 एत्थ णोसद्दो देसपडिसेहो घेत्तव्वो, अण्णहा एदेसिमकसायत्तप्पसंगादो। होदु चे ण, अकासायाणं चारित्तावरणविरोहा। ईषत्कषायो नोकषाय इति सिद्धम्।....कसाएहिंतो णोकसायाणं कधं थोवत्तं। ट्ठिदीहिंतो अणुभागदो उदयदो य। उदयकालो णोकसायाणं कसाएहिंतो बहुओ उवलब्भदि त्ति णोकसाएहिंतो कसायाणं थोवत्तं किण्णेच्छदे। ण, उदयकालमहल्लत्तणेण चारित्तविणासिकसाएहिंतो तम्मलफलकम्माणं महल्लत्ताणुववत्तीदो।=नोकषाय शब्द में प्रयुक्त नो शब्द, एकदेश का प्रतिषेध करने वाला ग्रहण करना चाहिए अन्यथा इन स्त्रीवेदादि नवों कषायों के अकषायता का प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न–होने दो, क्या हानि है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, अकषायों के चारित्र को आवरण करने का विरोध है।
इस प्रकार ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं, यह सिद्ध हुआ। प्रश्न—कषायों से नोकषायों के अकल्पना कैसे है ? उत्तर—स्थितियों की, अनुभाग की और उदय की अपेक्षा कषायों से नोकषायों के अल्पता पायी जाती है। प्रश्न—नोकषायों का उदयकाल कषायों की अपेक्षा बहुत पाया जाता है, इसलिए नोकषायों की अपेक्षा कषायों के अल्पपना क्यों नहीं मान लेते हैं ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, उदयकाल की अधिकता होने से, चारित्र विनाशक कषायों की अपेक्षा चारित्र में मल को उत्पन्न करने रूप फलवाले कर्मों की महत्ता नहीं बन सकती। ( धवला 13/5,5,94/359/9 )
- कषाय जीव का गुण नहीं है, विकार है
धवला 5/1,7,44/223/5 कसाओ णाम जीवगुणो, ण तस्स विणासो अत्थि णाणदंसणाणमिव। विणासो वा जीवस्स विणासेण होदव्वं; णाणदंसणविणासेणेव। तदो ण अकसायत्तं घडदे। इदि। होदु णाणदंसणाणं विणासम्हि जीव विणासो, तेसिं तल्लक्खणत्तादो। ण कसाओ जीवस्स लक्खणं, कम्मजणिदस्स लक्खणत्तविरोहा। ण कसायाणं कम्मजणिदत्तमसिद्धं, कसायवड्ढीए जीवलक्खणणाणहाणिअण्णहाणुववत्तीदो तस्स कम्मजणिदत्तसिद्धीदो। ण च गुणो गुणंतरविरोहे अण्णत्थ तहाणुवलंभा।=प्रश्न—कषाय नाम जीव के गुण का है, इसलिए उसका विनाश नहीं हो सकता, जिस प्रकार कि ज्ञान और दर्शन, इन दोनों जीव के गुणों का विनाश नहीं होता। यदि जीव के गुणों का विनाश माना जाये, तो ज्ञान और दर्शन के विनाश के समान जीव का भी विनाश हो जाना चाहिए। इसलिए सूत्र में कही गयी अकषायता घटित नहीं होती ? उत्तर—ज्ञान और दर्शन के विनाश होने पर जीव का विनाश भले ही हो जावे; क्योंकि, वे जीव के लक्षण हैं। किन्तु कषाय तो जीव का लक्षण नहीं है, क्योंकि कर्म जनित कषाय को जीव का लक्षण मानने में विरोध आता है। और न कषायों का कर्म से उत्पन्न होना असिद्ध है, क्योंकि, कषायों की वृद्धि होने पर जीव के लक्षणभूत ज्ञान की हानि अन्यथा बन नहीं सकती है। इसलिए कषाय का कर्म से उत्पन्न होना सिद्ध है। तथा गुण गुणान्तर का विरोधी नहीं होता, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता।
- जीव को या द्रव्यकर्म दोनों को ही क्रोधादि संज्ञाएँ कैसे प्राप्त हो सकती हैं
कषायपाहुड़ 1/1,1,13-14/243-244/287-288/7 243 ‘जीवो कोहो होदि’ त्ति ण घडदे; दव्वस्स जीवस्स पज्जयसरूवकोहभावावत्तिविरोहादो; ण; पज्जएहिंतो पुधभूदजीवदव्वाणुवलंभादो। तेण ‘जीवो कोहो होदि’ त्ति घडदे।244. दव्वकम्मस्स कोहणिमित्तस्स कथं कोहभावो। ण; कारणे कज्जुवयारेण तस्स कोहभावसिद्धीदो।=प्रश्न–‘जीव क्रोधरूप होता है’ यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्य है और क्रोध पर्याय है। अत: जीवद्रव्य को क्रोध पर्यायरूप मानने में विरोध आता है ! उत्तर—नहीं, क्योंकि जीव द्रव्य अपनी क्रोधादि पर्यायों से सर्वथा भिन्न नहीं पाया जाता।–देखें द्रव्य - 4। अत: जीव क्रोधरूप होता है यह कथन भी बन जाता है। प्रश्न—द्रव्यकर्म क्रोध का निमित्त है अत: वह क्रोधरूप कैसे हो सकता है ? उत्तर—नहीं, क्योंकि कारणरूप द्रव्य में कार्यरूप क्रोध भाव का उपचार कर लेने से द्रव्यकर्म में भी क्रोधभाव की सिद्धि हो जाती है, अर्थात् द्रव्यकर्म को भी क्रोध कह सकते हैं।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/250/292/6 ण च एत्थ दव्वकम्मस्स उवयारेण कसायत्तं; उजुसुदे उवयाराभावादो। कथं पुण तस्स कसायत्तं। उच्चदे दव्वभावकम्माणि जेण जीवादो अपुधभूदाणि तेण दव्वकसायत्तं जुज्जदे।=यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्म का ही होता है अत: ऋजुसूत्रनय उपचार से द्रव्यकर्म को भी प्रत्ययकषाय मान लेगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऋजुसूत्रनय में उपचार नहीं होता। प्रश्न—यदि ऐसा है तो द्रव्यकर्म को कषायपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? उत्तर—चूँकि द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों जीव से अभिन्न हैं इसलिए द्रव्यकर्म में द्रव्यकषायपना बन जाता है।
- निमित्तभूत भिन्न द्रव्यों को समुत्पत्तिक कषाय कैसे कह सकते हो
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/257/297/1 जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कथं कोहो। होंत एसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणओ जयिवसहाइरिएण जेणावलंबिदो तेण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।=प्रश्न–जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है ? उत्तर—यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयों का अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, किन्तु यतिवृषभाचार्य ने यहाँ पर नैगमनय का अवलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न—नैगमनय का अवलम्बन लेने पर दोष कैसे नहीं है ? उत्तर—क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है (अर्थात् कारण में कार्य निलीन रहते हैं ऐसा माना गया है)।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/259/298/6 वावारविरहिओ णोजीवो कोहं ण उप्पादेदि त्ति णासंकणिज्जं विद्धपायकंटए वि समुप्पज्जमाणकोहुवलंभादो, संगगलग्गलेंडुअखंडं रोसेण दसंतमक्कडुवलंभादो च।=प्रश्न—तांड़न मारण आदि व्यापार से रहित अजीव (काष्ठ ढेला आदि) क्रोध को उत्पन्न नहीं करते हैं (फिर वे क्रोध कैसे कहला सकते हैं) ? उत्तर—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है; क्योंकि, जो काँटा पैर को बींध देता है उसके ऊपर भी क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है। तथा बन्दर के शरीर में जो पत्थर आदि लग जाता है, रोष के कारण वह उसे चबाता हुआ देखा जाता है। इससे प्रतीत होता है कि अजीव भी क्रोध को उत्पन्न करता है।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/262/300/11 ‘‘कधं णोजीवे माणस्स समुप्पत्ती। ण; अप्पणो रूवजोव्वणगव्वेण वत्थालंकारादिसु समुव्वहमाणमाणत्थी पुरिसाणमुवलंभादो।’’=प्रश्न—अजीव के निमित्त से मान की उत्पत्ति कैसे होती है ? उत्तर—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवन के गर्व से वस्त्र और अलंकार आदि में मान को धारण करने वाले स्त्री और पुरूष पाये जाते हैं। इसलिए समुत्पत्तिक कषाय की अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं।
- कषायले अजीव द्रव्यों को कषाय कैसे कहा जा सकता है
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/270/306/2 दव्वस्स कथं कसायववएसो; ण; कसायवदिरित्तदव्वाणुलंभादो। अकसायं पि दव्वमत्थि त्ति चे; होदु णाम; किंतु ‘अप्पियदव्वं ण कसायादो पुधभूदमत्थिं त्ति भणामो। तेण ‘कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा सिया कसाओ’ त्ति सिद्धं।=प्रश्न—द्रव्य को (सिरीष आदि को) कषाय कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर—क्योंकि कषाय रस से भिन्न द्रव्य नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्य को कषाय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न—कषाय रस से रहित भी द्रव्य पाया जाता है ऐसी अवस्था में द्रव्य को कषाय कैसे कहा जा सकता है? उत्तर—कषायरस से रहित द्रव्य पाया जाओ, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु यहाँ जिस द्रव्य के विचार की मुख्यता है वह कषायरस से भिन्न नहीं है, ऐसा हमारा कहना है। इसलिए जिसका या जिनका रस कसैला है उस द्रव्य को या उन द्रव्यों को कथंचित् कषाय कहते हैं यह सिद्ध हुआ। - प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषाय में अन्तर
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/246/289/6 एसो पच्चयकसायो समुप्पत्तियकसायादो अभिण्णो त्ति पुध ण वत्तव्वो। ण; जीवादो अभिण्णो होदूण जो कसाए समुप्पादेदि सो पच्चओ णाम भिण्णो होदूण जो समुप्पादेदि सो समुप्पत्तिओ त्ति दोण्हं भेदुवलंभादो।=प्रश्न–यह प्रत्ययकषाय समुत्पत्तिककषाय से अभिन्न है अर्थात् ये दोनों कषाय एक हैं (क्योंकि दोनों ही कषाय के निमित्तभूत अन्य पदार्थों को उपचार से कषाय कहते हैं) इसलिए इसका (प्रत्यय कषाय का) पृथक् कथन नहीं करना चाहिए ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, जो जीव से अभिन्न होकर कषाय को उत्पन्न करता है वह प्रत्यय कषाय है और जो जीव से भिन्न होकर कषाय को उत्पन्न करता है वह समुत्पत्तिक कषाय है। अर्थात् क्रोधादि कर्म प्रत्यय कषाय है और उनके (बाह्य) सहकारीकारण (मनुष्य ढेला आदि) समुत्पत्तिक कषाय हैं इस प्रकार इन दोनों में भेद पाया जाता है, इसलिए समुत्पत्तिक कषाय का प्रत्यय कषाय से भिन्न कथन किया है।
- आदेशकषाय व स्थापनाकषाय में अन्तर
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/264/301/6 आदेसकसाय-ट्ठवणकसायाणं को भेओ। अत्थि भेओ, सब्भावट्ठवणा कषायरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसब्भावासब्भावट्ठवणा ट्ठवणकसाओ, तम्हा ण पुणरूत्तदोसो त्ति।=प्रश्न—(यदि चित्र में लिखित या काष्ठादि में उकेरित क्रोधादि आदेश कषाय है) तो आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में क्या भेद है ? उत्तर—आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में भेद है, क्योंकि सद्भावस्थापना कषाय का प्ररूपण करना और ‘यह कषाय है’ इस प्रकार की बुद्धि होना, यह आदेशकषाय है। तथा कषाय की सद्भाव और असद्भाव स्थापना करना स्थापनाकषाय है। तथा इसलिए आदेशकषाय और स्थापनाकषाय अलग-अलग कथन करने से पुनरूक्त दोष नहीं आता है।
- चारों गतियों में कषाय विशेषों की प्रधानता का नियम
गोम्मटसार जीवकाण्ड/288/616 णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/28/616/5 नारकतिर्यग्नरसुरगत्युत्पन्नजीवस्य तद्भवप्रथमकाले-प्रथमसमये यथासंख्यं क्रोधमायामानलोभकषायाणामुदय: स्यादिति नियमवचनं कषायप्राभृतद्वितीयसिद्धान्तव्याख्यातुर्यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं। वा-अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतप्रथमसिद्धान्तकर्तु: भूतवल्याचार्यस्य अभिप्रायेणानियमो ज्ञातव्य:। प्रागुक्तनियमं बिना यथासंभवं कषायोदयोऽस्तीत्यर्थ:।=नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देवविषै उत्पन्न हुए जीव के प्रथम समयविषै क्रम से क्रोध, माया, मान व लोभ का उदय ही है। सो ऐसा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धान्त के कर्ता यतिवृषभाचार्य के अभिप्राय से जानना। बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथमसिद्धान्त के कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नहीं है। जिस तिस किसी एक कषाय का भी उदय हो सकता है।
धवला 4/1,5,250/445/5 णिरयगदीए....उप्पण्णजीवाणं पढमं कोधोदयस्सुवलंभा। ....मणुसगदीए....माणोदय। ...तिरिक्खगदीए...मायोदय। ....देवगदीए...लोहोदओ होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसा। =नरकगति में उत्पन्न जीवों के प्रथमसमय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, तिर्यंचगति में माया का और देवगति में लोभ के उदय का नियम है। ऐसा आचार्य परम्परागत उपदेश है।
- कषायों का परस्पर सम्बन्ध
- कषायों की शक्तियाँ, उनका कार्य व स्थिति
- कषायों की शक्तियों के दृष्टांत व उनका फल
पं.सं./प्रा./1/111-114 सिलभेयपुढविभेया धूलीराई य उदयराइसमा। णिर-तिरि-णर देवत्तं उविंति जीवा ह कोहवसा।111। सेलसमो अट्ठिसमो दारूसमो तह य जाण वेत्तसमो। णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविंति जीवा हु माणवसा।121। वंसीमूलं मेसस्स सिंगगोमुत्तियं च खोरूप्पं। णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविंति जीवा हु मायवसा।113। किमिरायचक्कमलकद्दमो य तह चेय जाण हारिद्दं। णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविंति जीवा हु लोहवसा।114।कषाय की अवस्था
शक्तियों के दृष्टांत
फल
क्रोध
मान
माया
लोभ
अनन्तानु0
शिला रेखा
शैल
वेणुमूल
किरमजीका रंग या दाग़
नरक
अप्रत्या0
पृथिवी रेखा
अस्थि
मेष शृंग
चक्रमल ’’
तिर्यंच
प्रत्याख्यान
धूलि रेखा
दारू या काष्ठ
गोमूत्र
कीचड़ ’’
मनुष्य
संज्वलन0
जल रेखा
वेत्र(वेंत)
खुरपा
हल्दी ’’
देव
- उपरोक्त दृष्टांत स्थिति की अपेक्षा है; अनुभाग की अपेक्षा नहीं
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/284-287/610-615 यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीघ्रशीघ्रतरकालैर्विना संधानं न घटते तथोत्कृष्टादिशक्तियुक्तक्रोधपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना क्षमालक्षणसंधानार्हो न स्यात् इत्युपमानोपमेययो: सादृश्यं संभवतीति तात्पर्यार्थ:।284। यथा हि चिरतरादिकालैर्विना शैलास्थिकाष्ठवेत्रा: नामयितुं न शक्यन्ते तथोत्कृष्टादिशक्तिमानपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैर्विना मानं परिह्रत्य विनयरूपनमनं कर्तुं न शक्नोतीति सादृश्यसंभवोऽत्र ज्ञातव्य:।285। यथा वेणूपमूलादय: चिरतरादिकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणत: तथाविधकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिह्रत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम्।286।=जैसे शिलादि पर उकेरी या खेंची गयी रेखाएँ अधिक देर से, देर से, जल्दी व बहुत जल्दी काल बीते बिना मिलती नहीं है, उसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्तियुक्त क्रोध से परिणत जीव भी उतने-उतने काल बीते बिना अनुसंधान या क्षमा को प्राप्त नहीं होता है। इसलिए यहाँ उपमान और उपमेय की सदृशता सम्भव है।284। जैसे चिरतर आदि काल बीते बिना शैल, अस्थि, काष्ठ और बेत नमाये जाने शक्य नहीं हैं वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मान से परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना मान को छोड़कर विनय रूप नमना या प्रवर्तना शक्य नहीं है, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है।285। जैसे वेणुमूल आदि चिरतर आदि काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजुत्व नहीं प्राप्त करते हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त माया से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता को छोड़कर ऋजु या सरल परिणाम को प्राप्त नहीं होते, अत: यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। (जैसे क्रमिराग आदि के रंग चिरतर आदि काल बीते बिना छूटते नहीं हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त लोभ से परिणत जीव भी उतना-उतना काल बीते बिना लोभ परिणाम को छोड़कर सन्तोष को प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है। बहुरि इहाँ शिलाभेदादि उपमान और उत्कृष्ट शक्तियुक्त आदि क्रोधादिक उपमेय ताका समानपना अतिघना कालादि गये बिना मिलना न होने की अपेक्षा जानना (पृ.611)।
- उपरोक्त दृष्टांतो का प्रयोजन
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/291/619/9 इति शिलाभेदादिदृष्टांता स्फुटं व्यवहारावधारणेन भवन्ति। परमागमव्यवहारिभिराचार्यै: अव्युत्पन्नमन्दप्रज्ञशिष्यप्रतिबोधनार्थं व्यवहर्तव्यानि भवन्ति। दृष्टांतप्रदर्शनबलेनैव हि अव्युत्पन्नमन्दप्रज्ञा: शिष्या: प्रतिबोधयितुं शक्यन्ते। अतो दृष्टांतनामान्येव शिलाभेदादिशक्तीनां नामानीति रूढानि।=ए शिलादि के भेदरूप दृष्टान्त प्रगट व्यवहार का अवधारण करि हैं, और परमागम का व्यवहारी आचार्यनि करि मन्दबुद्धि शिष्य को समझावने के अर्थि व्यवहार रूप कीएँ हैं, जातैं दृष्टांत के बलकरि ही मन्दबुद्धि समझै हैं, तातैं दृष्टान्त की मुख्यताकरि जेदार्ष्टान्त के नाम प्रसिद्ध कीए हैं।
- क्रोधादि कषायों का उदयकाल
धवला 4/1,5,254/447/3 कसायाणामुदयस्स अन्तोमुहुत्तादो उवरि णिच्चएण विणासो होदि त्ति गुरूवदेसा।=कषायों का उदय का, अन्तर्मुहूर्तकाल से ऊपर, निश्चय से विनाश होता है, इस प्रकार गुरु का उपदेश है। (और भी देखो काल/5)
- कषायों की तीव्रता मन्दता का सम्बंध लेश्याओं से है; अनन्तानुबंधी आदि अवस्थाओं से नहीं
धवला/1/1, 1,136/388/3 षड्विध: कषायोदय:। तद्यथा तीव्रतम:, तीव्रतर:, तीव्र:, मन्द:, मन्दतर:,
मन्दतम इति। एतेभ्य: षड्भ्य: कषायोदयेभ्य: परिपाट्या षट् लेश्या भवन्ति।=कषाय का उदय
छह प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है—तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम।
इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हुई परिपाटी क्रम से लेश्या भी छह हो जाती हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/2/57/20 अनादि संसार-अवस्थाविषै इनि च्यारयूं ही कषायनि का निरन्तर उदय पाइये है। परमकृष्णलेश्यारूप तीव्र कषाय होय तहाँ भी अर परम शुक्ललेश्यारूप मन्दकषाय होय तहाँ भी निरन्तर च्यारयौं ही का उदय रहै है। जातै तीव्र मन्द की अपेक्षा अनन्तानुबंधी आदि भेद नहीं हैं, सम्यक्त्वादि घातने की अपेक्षा ये भेद हैं। इनिही (क्रोधादिक) प्रकृतिनि का तीव्र अनुभाग उदय होतै तीव्र क्रोधादिक हो है और मन्द अनुभाग उदय होतै मन्द क्रोधादिक हो है।
- कषायों की शक्तियों के दृष्टांत व उनका फल
- कषायों का रागद्वेषादि में अन्तर्भाव
- नयों की अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश
कषायपाहुड़/1/1,21/ चूर्ण सूत्र व टीका/335-341।365-369—नय
कषाय
नैगम
संग्रह
व्यवहार
ऋजु सू.
शब्द
क्रोध
द्वेष
द्वेष
द्वेष
द्वेष
द्वेष
मान
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’’
’’
’’
माया
राग
राग
’’
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लोभ
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राग
राग
द्वेष व कथंचित् राग
हास्य-रति
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’’
द्वेष
अरति-शोक
द्वेष
द्वेष
’’
भय-जुगुप्सा
’’
’’
’’
स्त्री-पुं.वेद
राग
राग
राग
नपुंसक वेद
’’
’’
द्वेष
( धवला 12/4,2,8,8/283/8 ) ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति 281/361 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/148/214 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/205/9 )
- नैगम व संग्रह नयों की अपेक्षा में युक्ति
कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/335-336/365 णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्जं, लोहो पेज्जं। (चूर्णसूत्र)।....कोहो दोसो; अङ्गसन्तापकम्प.... पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात्, सकलानर्थनिबन्धनत्वात्। माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात्, क्रोधोक्ताशेषदोषनिबन्धनत्वात्। माया पेज्जं प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वात्, स्वनिष्पत्त्युत्तरकाले मनस: सन्तोषोत्पादकत्वात्। लोहो पेज्जं आह्लादनहेतुत्वात् (335)। क्रोध-मान-माया-लोभा: दोष: आस्रवत्वादिति चेत्; सत्यमेतत्; किन्त्वत्र आह्लादनानाह्लादनहेतुमात्रं विवक्षितं तेन नायं दोष:। प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा माया-लोभौ प्रेयान्सौ। अरइ-सोय-भय-दुगुंछाओ दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो। हस्स-रइ-इत्थि-पुरिस-णवुंसयसेया पेज्जं लोहो व्व रायकारणत्तादो (336)।= नैगम और संग्रह नय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया पेज्ज है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र) क्रोध दोष है; क्योंकि क्रोध करने से शरीर में सन्ताप होता है, शरीर काँपने लगता है....आदि....माता-पिता तक को मार डालता है और क्रोध सकल अनर्थों का कारण है। मान दोष है; क्योंकि वह क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के विषय में कहे गये समस्त दोषों का कारण है। माया पेज्ज है; क्योंकि, उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, तथा अपनी निष्पत्ति के अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है। लोभ पेज्ज है; क्योंकि वह प्रसन्नता का कारण है। प्रश्न—क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रव रूप हैं या आस्रव के कारण हैं ? उत्तर—यह कहना ठीक है, किंतु यहाँ पर, कौन कषाय आनन्द की कारण है और कौन आनन्द की कारण नहीं है इतने मात्र की विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेम में दोषपना पाया ही जाता है, अत: माया और लोभ प्रेम अर्थात् पेज्ज है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष रूप हैं; क्योंकि ये सब क्रोध के समान अशुभ के कारण हैं। हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरूषवेद और नपुंसकवेद पेज्जरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभ के समान राग के कारण हैं।
- व्यवहारनय की अपेक्षा में युक्ति
कषायपाहुड़/1/ चूर्णसूत्र व टी./1-21/337-338/367 ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्जं (सू.) क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्यं तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनात्, न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोक-गर्हितत्वयोरूपलम्भात्। न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुःखोत्पत्ते: (338)। लोहो पेज्जं लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात्। इत्थिपुरिसवेया पेज्जं सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदंसणादो।=व्यवहारनय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध और मान द्वेष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोक में क्रोध और मान में दोष का व्यवहार देखा जाता है। परन्तु माया को दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि माया में दोष का व्यवहार नहीं देखा जाता ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, माया में भी अविश्वास का कारणपना और लोकनिन्दतपना देखा जाता है और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है; क्योंकि, निन्दा से हमेशा दुःख उत्पन्न होता है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि लोभ के द्वारा बचाये हुए द्रव्य से जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरूषवेद पेज्ज हैं और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोक में इनके बारे में इसी प्रकार का व्यवहार देखा जाता है।
- ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा में युक्ति
कषायपाहुड़ 1/1-21/ चूर्णसूत्र व टी./339-340/368 उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेज्जं, माया णोदोसो णोपेज्जं, लोहो पेज्जं (चूर्णसूत्र)। कोहो दोसो त्ति णव्वदे; सयलाणत्थहेउत्तादो। लोहो पेज्जं त्ति एदं पि सुगमं, तत्तो....किंतु माण-मायाओ णोदोसो णोपेज्जं त्ति एदं ण णव्वदे पेज्ज-दोसवज्जियस्स कसायस्स अणुवलंभादो त्ति (339) एत्थ परिहारो उच्चदे, माणमाया णोदोसो; अंगसंतावाईणसकारणत्तदो। तत्तो समुप्पज्जमाणअंगसंतावादओ दीसंति त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं; माणणिबंधणकोहादो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पज्जमाणाणं तेसिमुवलंभादो।....ण च बे वि पेज्जं; तत्तो समुप्पज्जमाणआह्लादाणुवलंभादो। तम्हा माण-माया बे वि णोदोसो णोपेज्जं ति जुज्जदे (340)।=ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा क्रोध दोष है; मान न दोष है और न पेज्ज है; माया न दोष है और न पेज्ज है; तथा लोभ पेज्ज है। (सूत्र)। प्रश्न—क्रोध दोष है यह तो समझ में आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थों का कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है।....किंतु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोष से भिन्न कषाय नहीं पायी जाती है? उत्तर—ऋजुसूत्र की अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंग संतापादिक के कारण नहीं हैं (अर्थात् इनकी अभेद प्रवृत्ति नहीं है)। यदि कहा जाय कि मान और माया से अंग संताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं; सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ जो अंग संताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और माया से न होकर मान से होने वाले क्रोध से और माया से होने वाले लोभ से ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं।....उसी प्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं हैं, क्योंकि उनसे आनन्द की उत्पत्ति होती हुई नहीं पायी जाती है। इसलिए मान और माया से दोनों न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कथन बन जाता है।
- शब्दनय की अपेक्षा में युक्ति
कषायपाहुड़ 1/1-21/ चूर्णसूत्र व टी./341-342/369 सद्दस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णोपेज्जं, लोहो सिया पेज्जं (चूर्णसूत्र)। कोह-माण-माया-लोहा-चत्तारि वि दोसो; अट्ठकम्मसवत्तादो, इहपरलोयविसेसदोसकारणत्तादो (341)। कोहो-माणो-माया णोपेज्जं; एदेहिंतो जीवस्स संतोस-परमाणं दाणमभावादो। लोहो सिया पेज्जं, तिरयणसाहणविसयलोहादो सग्गापवग्गा-णमुप्पत्तिदंसणादो। ण च धम्मो ण पेज्जं, सयलसुह-दुक्खकारणाणं धम्माधम्माणं पेज्जदोसत्ताभावे तेसिं दोण्हं पि अभावप्पसंगादो।=शब्द नय की अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ दोष है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं क्योंकि, ये आठों कर्मों के आस्रव के कारण हैं, तथा इस लोक और पर लोक में विशेष दोष के कारण हैं। क्रोध, मान और माया ये तीनों पेज्ज नहीं है; क्योंकि, इनसे जीव को सन्तोष और परमानन्द की प्राप्ति नहीं होती है। लोभ कथंचित् पेज्ज है; क्योंकि रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है। तथा शेष पदार्थ विषयक लोभ पेज्ज नहीं हैं; क्योंकि, उससे पाप की उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कहा जाये कि धर्म भी पेज्ज नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और दुःख के कारणभूत धर्म और अधर्म को पेज्ज और दोषरूप नहीं मानने पर धर्म और अधर्म के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
- नयों की अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश
- कषाय मार्गणा1. गतियों की अपेक्षा कषायों की प्रधानता
- गोम्मटसार जीवकाण्ड/288/616 णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो लोहोदओ अणियमो वापि।।288।।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/288/616/6 नियमवचनं....यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं।....भूतबल्याचार्यस्य अभिप्रायेणाऽनियमो ज्ञातव्य:।=नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव विषै उत्पन्न भया जीवकै पहिला समय विषै क्रमतै क्रोध, माया, मान व लोभ का उदय हो है। नारकी उपजै तहाँ उपजतै ही पहिले समय क्रोध कषाय का उदय हो है। ऐसे तिर्यंच के माया का, मनुष्य के मान का और देव के लोभ का उदय जानना। सो ऐसा नियम कषाय प्राभृत द्वितीय सिद्धान्त का कर्ता यतिवृषभाचार्य ताके अभिप्राय करि जानना। बहुरि महाकर्मप्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धान्त का कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्राय करि पूर्वोक्त नियम नाहीं। जिस-तिस कोई एक कषाय का उदय हो है।
- गुणस्थानों में कषायों की सम्भावना
षट्खण्डागम/1/1,1/ सू. 112-114/351-352 कोधकसाई माणकसाई मायकसाई एइंदियप्पहुडि जाव अणियट्ठि त्ति।112। लोभकसाई एइंदियप्पहुडि जाव सुहुम-सांपराइय सुद्धि संजदा त्ति।113। अकसाई चदुसुट्ठाणेसु अत्थि उवसंतकसाय-वीयराय-छदुमत्था खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था, सजोगिकेवली अजोगिकेवली त्ति।114।=एकेन्द्रिय से लेकर (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक क्रोधकषायी, मानकषायी, और मायाकषायी जीव होते हैं।112। लोभ कषाय से युक्त जीव एकेन्द्रियों से लेकर सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयत गुणस्थान तक होते हैं।113। कषाय रहित जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्यस्थ, क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।114।
- अप्रमत्त गुणस्थानों में कषायों का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो
धवला 1/1,1,112/351/7 यतीनामपूर्वकरणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेत्, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात्।=प्रश्न—अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओं के कषाय का अस्तित्व कैसे पाया जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषाय की अपेक्षा वहाँ पर कषायों के अस्तित्व का उपदेश दिया है।
- उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती को अकषाय कैसे-कैसे कह सकते हो ?
धवला 1/1,1,114/352/9 उपशान्तकषायस्य कथमकषायत्वमिति चेत्, कथं च न भवति। द्रव्यकषायस्यानन्तस्य सत्त्वात्। न, कषायोदयाभावापेक्षया तस्याकषायत्वोपपत्ते:।=प्रश्न—उपशान्तकषाय गुणस्थान को कषायरहित कैसे कहा ? प्रश्न–वह कषायरहित क्यों नहीं हो सकता है? प्रतिप्रश्न—वहाँ अनन्त द्रव्य कषाय का सद्भाव होने से उसे कषायरहित नहीं कह सकते हैं? उत्तर—नहीं; क्योंकि, कषाय के उदय के अभाव की अपेक्षा उसमें कषायों से रहितपना बन जाता है।
- गोम्मटसार जीवकाण्ड/288/616 णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि। कोहो माया माणो लोहोदओ अणियमो वापि।।288।।
- कषाय समुद्घात
- कषाय समुद्घात का लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/77/14 द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृत: कषायसमुद्घात:।=बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निमित्तों के प्रकर्ष से उत्पादित जो क्रोधादि कषायें, उनके द्वारा किया गया कषाय समुद्घात है।
धवला 4/1,3,2/26/8 ‘‘कसायसमुग्घादो णाम कोधभयादीहि सरीरतिगुणविप्फुज्जणं।’’=क्रोध, भय आदि के द्वारा जीवों के प्रदेशों का उत्कृष्टत: शरीर से तिगुणे प्रमाण विसर्पण का नाम कषाय समुद्घात है।
धवला 7/2,6,1/299/8 कसायतिव्वदाए सरीरादो जीवपदेसाणं तिगुणविपुंजणं कसाय समुग्घादो णाम।=कषाय की तीव्रता से जीवप्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण फैलने को कषाय समुद्घात कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/176/115/19 तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्निगमनं संग्रामे सुभटानां रक्तलोचनादिभि: प्रत्यक्षदृश्यमानमिति कषायसमुद्घात:।=तीव्र कषाय के उदय से मूलशरीर को न छोड़कर परस्पर में एक दूसरे का घात करने के लिए आत्मप्रदेशों के बाहर निकलने को कषाय-समुद्घात कहते हैं। संग्राम में योद्धा लोग क्रोध में आकर लाल लाल आँखें करके अपने शत्रु को ताकते हैं, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। यही कषायसमुद्घात का रूप है।
- कषाय समुद्घात का लक्षण
पुराणकोष से
जीवों के सद्गुणों को क्षीण करने वाले दुर्भाव । ये मोक्षसुख की प्राप्ति में बाधक होने से त्याज्य है । ये मूल रूप से चार हैं― क्रोध, मान, माया, और लोभ । इन्हीं के कारण जीव संसार में भटक रहा है । क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को सरलता से और लोभ को संतोषवृत्ति से जीता जाता है । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारों के साथ क्रोध, मान, माया और लोभ को योजित करने से इसके सोलह भेद होते हैं । इन भेदों के साथ तथा नौ-नौ कषायों के मिश्रण से पच्चीस भेद भी किये गये हें । महापुराण 36.129, 139, 62.306-308, 316-317, पद्मपुराण 14. 110, पांडवपुराण 22.71, 23.30 वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 67
का