राग: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[भेद व लक्षण#1.1 | राग सामान्य का लक्षण । ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश ]]</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश#2.1 | अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश#2.2 | राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश#2.3 | मोह, राग व द्वेष में शुभाशुभ विभाग । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश#2.5 | वास्तव में पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग द्वेष सामान्य निर्देश#2.7 | तृष्णा की अनन्तता ।]] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश</strong>]]<br /> | <li><span class="HindiText"><strong> [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश</strong>]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश#3.1 | व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश#3.2 | अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश#3.3 | ऊपर के गुणस्थानों में राग अव्यक्त है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[राग में इष्टानिष्टता#4.4 | तृष्णा के निषेध का कारण । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[राग में इष्टानिष्टता#4.5 | ख्याति लाभ आदि की भावना से सुकृत नष्ट हो जाते हैं । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[राग में इष्टानिष्टता#4.6 | लोकैषणारहित ही तप आदिक सार्थक हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[ | <li>[[ राग टालने का उपाय]] </strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[राग टालने का उपाय#5.3 | राग टालने का व्यवहार उपाय । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> [[ | <li class="HindiText"> [[राग टालने का उपाय#5.4 | तृष्णा तोड़ने का उपाय । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[राग टालने का उपाय#5.5 | तृष्णा को वश करने की महत्ता । ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान</strong>]]<br /> | <li><span class="HindiText"><strong> [[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान</strong>]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.1 | सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव तथा उसका कारण ।]] <br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.2 | निचली भूमिका में राग का अभाव कैसे सम्भव है ? ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.3 | सम्यग्दृष्टि को ही यथार्थ वैराग्य सम्भव है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.4 | सरागी सम्यग्दृष्टि विरागी है । ]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.5 | घर में वैराग्य व वन में राग सम्भव है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.6 | सम्यग्दृष्टि को राग नहीं तो भोग क्यों भोगता है ? ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.7 | विषय सेवता भी असेवक है । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText">[[ | <li class="HindiText">[[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान#6.8 | भोगों की आकांक्षा के अभाव में भी वह व्रतादि क्यों करता है ?]] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> राग - द्वेष सामान्य निर्देश </strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> राग - द्वेष सामान्य निर्देश </strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है </strong></span><br /> | ||
पं. घ./पु./906 <span class="SanskritGatha">क्षायोपशमिकंज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ।906। </span>= <span class="HindiText">जो क्षायोपशमिक ज्ञान प्रति समय अर्थ से अर्थान्तर को विषय करने के कारण सविकल्प माना जाता है, वह वास्तव में ज्ञान का स्वरूप नहीं है, किन्तु निश्चय करके उस ज्ञान के साथ में रहने वाली राग की क्रिया है । (और भी देखें [[ विकल्प#1 | विकल्प - 1]]) । <br /> | पं. घ./पु./906 <span class="SanskritGatha">क्षायोपशमिकंज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ।906। </span>= <span class="HindiText">जो क्षायोपशमिक ज्ञान प्रति समय अर्थ से अर्थान्तर को विषय करने के कारण सविकल्प माना जाता है, वह वास्तव में ज्ञान का स्वरूप नहीं है, किन्तु निश्चय करके उस ज्ञान के साथ में रहने वाली राग की क्रिया है । (और भी देखें [[ विकल्प#1 | विकल्प - 1]]) । <br /> | ||
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धवला 6/1, 9-2, 68/109/4 <span class="PrakritText"> भिण्णरुचीदो केसिं पि जीवाणममहुरो वि सरो महुरोव्वरुच्चइ त्ति तस्स सरस्स महुरत्तं किण्ण इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थुपरिणामाणुवलंभा । ण च णिंवो केसिं पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो ।</span> =<strong> <span class="HindiText">प्रश्न–</span></strong><span class="HindiText">भिन्न रुचि होने से कितने ही जीवों के अमधुर स्वर भी मधुर के समान रुचते हैं । इसलिए उसके अर्थात् भ्रमर के स्वर के मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती है ?<strong> उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पुरुषों की इच्छा से वस्तु का परिणमन नहीं पाया जाता है । नीम कितने ही जीवों को रुचता है, इसलिए वह मधुरता को नहीं प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वैसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है । <br /> | धवला 6/1, 9-2, 68/109/4 <span class="PrakritText"> भिण्णरुचीदो केसिं पि जीवाणममहुरो वि सरो महुरोव्वरुच्चइ त्ति तस्स सरस्स महुरत्तं किण्ण इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थुपरिणामाणुवलंभा । ण च णिंवो केसिं पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो ।</span> =<strong> <span class="HindiText">प्रश्न–</span></strong><span class="HindiText">भिन्न रुचि होने से कितने ही जीवों के अमधुर स्वर भी मधुर के समान रुचते हैं । इसलिए उसके अर्थात् भ्रमर के स्वर के मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती है ?<strong> उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पुरुषों की इच्छा से वस्तु का परिणमन नहीं पाया जाता है । नीम कितने ही जीवों को रुचता है, इसलिए वह मधुरता को नहीं प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वैसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">वास्तव में पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं </strong></span><br /> | ||
यो. सा./अ./5/36 <span class="SanskritGatha">इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ।36। </span>=<span class="HindiText"> मोह से जिसे इष्ट समझ लिया जाता है वही अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है, क्योंकि निश्चय नय से संसार में न कोई पदार्थ इष्ट है और न अनिष्ट है ।36। (विशेष देखें [[ सुख#1 | सुख - 1]]) । <br /> | यो. सा./अ./5/36 <span class="SanskritGatha">इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ।36। </span>=<span class="HindiText"> मोह से जिसे इष्ट समझ लिया जाता है वही अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है, क्योंकि निश्चय नय से संसार में न कोई पदार्थ इष्ट है और न अनिष्ट है ।36। (विशेष देखें [[ सुख#1 | सुख - 1]]) । <br /> | ||
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भगवती आराधना आ./1181/1167/16 <span class="SanskritText">चिरमेते ईदृशा विषया ममोदितोदिता भूयासुरित्याशंसा । तृष्णां इमे मनागपि मत्तो मा विच्छिद्यान्तां इति तीव्रं प्रबंधप्रवृत्त्यभिलाषम् ।</span> =<span class="HindiText"> चिरकाल तक मेरे को सुख देने वाले विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाण से मिलें ऐसी इच्छा करना उसको आशा कहते हैं । ये सुखदायक पदार्थ कभी भी मेरे से अलग न होवें ऐसी तीव्र अभिलाषा को तृष्णा कहते हैं । <br /> | भगवती आराधना आ./1181/1167/16 <span class="SanskritText">चिरमेते ईदृशा विषया ममोदितोदिता भूयासुरित्याशंसा । तृष्णां इमे मनागपि मत्तो मा विच्छिद्यान्तां इति तीव्रं प्रबंधप्रवृत्त्यभिलाषम् ।</span> =<span class="HindiText"> चिरकाल तक मेरे को सुख देने वाले विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाण से मिलें ऐसी इच्छा करना उसको आशा कहते हैं । ये सुखदायक पदार्थ कभी भी मेरे से अलग न होवें ऐसी तीव्र अभिलाषा को तृष्णा कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">तृष्णा की अनन्तता </strong></span><br /> | ||
आत्मानुशासन/36 <span class="SanskritGatha">आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ।36।</span> = <span class="HindiText">आशा रूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणु के बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिए क्या और कितना आ सकता है । अर्थात् नहीं के समान ही कुछ नहीं आ सकता । अतः हे भव्यो, तुम्हारी उन विषयों की अभिलाषा व्यर्थ है ।36। </span><br /> | आत्मानुशासन/36 <span class="SanskritGatha">आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ।36।</span> = <span class="HindiText">आशा रूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणु के बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिए क्या और कितना आ सकता है । अर्थात् नहीं के समान ही कुछ नहीं आ सकता । अतः हे भव्यो, तुम्हारी उन विषयों की अभिलाषा व्यर्थ है ।36। </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/20/28 <span class="SanskritText">उदधिरुदकपूरैरिन्धनैश्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तृप्तिमासादयेताम् । न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यैश्चिरतमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।28।</span> = <span class="HindiText">इस जगत् में समुद्र तो जल के प्रवाहों से तृप्त नहीं होता और अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती, सो कदाचित् दैवयोग से किसी प्रकार ये दोनों तृप्त हो भी जायें परन्तु यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादि के भोगने पर भी कभी तृप्त नहीं होता ।</span></li> | ज्ञानार्णव/20/28 <span class="SanskritText">उदधिरुदकपूरैरिन्धनैश्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तृप्तिमासादयेताम् । न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यैश्चिरतमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।28।</span> = <span class="HindiText">इस जगत् में समुद्र तो जल के प्रवाहों से तृप्त नहीं होता और अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती, सो कदाचित् दैवयोग से किसी प्रकार ये दोनों तृप्त हो भी जायें परन्तु यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादि के भोगने पर भी कभी तृप्त नहीं होता ।</span></li> |
Revision as of 14:28, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
इष्ट पदार्थों के प्रति रति भाव को राग कहते हैं, अतः यह द्वेष का अविनाभावी है । शुभ व अशुभ के भेद से राग दो प्रकार का है, परद्वेष अशुभ ही होता है । यह राग ही पदार्थों में इष्टानिष्ट बुद्धि का कारण होने से अत्यन्त हेय है । सम्यग्दृष्टि की निचली भूमिकाओं में यह व्यक्त होता है और ऊपर की भूमिकाओं में अव्यक्त । इतनी विशेषता है कि व्यक्त राग में भी राग के राग का अभाव होने के कारण सम्यग्दृष्टि वास्तव में वैरागी रहता है ।
- भेद व लक्षण
- प्रशस्त अप्रशस्त राग ।–देखें उपयोग - II. 4 ।
- प्रशस्त अप्रशस्त राग ।–देखें उपयोग - II. 4 ।
- राग द्वेष सामान्य निर्देश
- अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है ।
- राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष हैं ।
- मोह, राग व द्वेष में शुभाशुभ विभाग ।
- माया लोभादि कषायों का लोभ में अन्तर्भाव ।−देखें कषाय - 4 ।
- परिग्रह में राग व इच्छा की प्रधानता ।−देखें परिग्रह - 3 ।
- अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है ।
- [[व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश]]
- व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप ।
- अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है ।
- ऊपर के गुणस्थानों में राग अव्यक्त है ।
- शुक्ल ध्यान में राग का कथंचित् सद्भाव ।−देखें विकल्प - 7 ।
- केवली में इच्छा का अभाव ।−देखें केवली - 6 ।
- व्यक्ताव्यक्त राग का स्वरूप ।
- [[ राग में इष्टानिष्टता]]
- राग ही बन्धका प्रधान कारण है ।−देखें बन्ध - 3 ।
- पुण्य के प्रति का राग भी हेय है ।−देखें पुण्य - 3 ।
- राग ही बन्धका प्रधान कारण है ।−देखें बन्ध - 3 ।
- राग टालने का उपाय
- इच्छा निरोध ।−देखें तप - 1 ।
- इच्छा निरोध ।−देखें तप - 1 ।
- [[सम्यग्दृष्टि की विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान]]
- सम्यग्दृष्टि न राग टालने की उतावली करता है और न ही उद्यम छोड़ता है ।−देखें नियति - 5.4 ।
- सम्यग्दृष्टि न राग टालने की उतावली करता है और न ही उद्यम छोड़ता है ।−देखें नियति - 5.4 ।
- भेद व लक्षण
- राग सामान्य का लक्षण
धवला 12/4, 2, 8, 8/283/8 माया - लोभ-वेदत्रय-हास्यरतयो रागः । = माया, लोभ, तीन वेद, हास्य और रति इनका नाम राग है ।
समयसार / आत्मख्याति/ 51 यः प्रतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य.... । = यह प्रीति रूप राग भी जीव का नहीं है ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/85 अभीष्टविषयप्रसङ्गेन रागम् । = इष्ट विषयों की आसक्ति से राग को.... ।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/131 विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । = चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जो इसके रस विपाक का कारण पाय इष्ट - अनिष्ट पदार्थों में जो प्रीति-अप्रीति रूप परिणाम होय उसका नाम राग द्वेष है ।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/281/361/16 रागद्वेषशब्देन तु क्रोधादिकषायोत्पादकश्चारित्रमोहो ज्ञातव्यः । = राग द्वेष शब्द से क्रोधादि कषाय के उत्पादक चारित्र मोह को जानना चाहिए । ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/33/72/8 ) ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/83/106/10 निर्विकार शुद्धात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरूपं चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेषं । = निर्विकार शुद्धात्मा से विपरीत इष्ट-अनिष्ट विषयों में हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह नाम का रागद्वेष..... ।
- राग के भेद
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/66 रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । = प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे दो भेदों के कारण राग दो प्रकार का है ।
- अनुराग का लक्षण
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/435 अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थतः । प्राप्तिः स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ।435। = जिस समय अनुराग शब्द का अर्थ की अपेक्षा से विधि रूप अर्थ वक्तव्य होता है उस समय अनुराग शब्द का अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है, क्योंकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनों शब्द एकार्थ वाचक हैं ।435।
- अनुराग के भेद व उनके लक्षण
भगवती आराधना/737/908 भावाणुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो वा । धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्च । = भावानुराग, प्रेमानु-राग, मज्जानुराग व धर्मानुराग, इस प्रकार चार प्रकार से जिनशासन में जो अनुरक्त है ।
भगवती आराधना/ भाषा./737/908 तत्त्व का स्वरूप मालूम नहीं हो तो भी जिनेश्वर का कहा हुआ तत्त्व स्वरूप कभी झूठा होता ही नहीं, ऐसी श्रद्धा करता है उसको भावानुराग कहते हैं । जिसके ऊपर प्रेम है उसको बारम्बार समझाकर सन्मार्ग पर लगाना यह प्रेमानुराग कहलाता है । मज्जानुराग पाण्डवों में था अर्थात् वे जन्म से लेकर आपस में अतिशय स्नेहयुक्त थे । वैसे धर्मानुराग से जैनधर्म में स्थिर रहकर उसको कदापि मत छोड़ ।
- तृष्णा का लक्षण
न्या. द./टी./4/1/3/230/13 पुनर्भवप्रतिसंधानहेतुभूता तृष्णा । = ‘यह पदार्थ मुझको पुनः प्राप्त हो’ ऐसी भावना से किया गया जो प्रतिसन्धान या इलाज अथवा प्रयत्न विशेष, उसकी हेतुभूत तृष्णा होती है ।
- राग सामान्य का लक्षण
- राग - द्वेष सामान्य निर्देश
- अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है
पं. घ./पु./906 क्षायोपशमिकंज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ।906। = जो क्षायोपशमिक ज्ञान प्रति समय अर्थ से अर्थान्तर को विषय करने के कारण सविकल्प माना जाता है, वह वास्तव में ज्ञान का स्वरूप नहीं है, किन्तु निश्चय करके उस ज्ञान के साथ में रहने वाली राग की क्रिया है । (और भी देखें विकल्प - 1) ।
- राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष है
ज्ञानार्णव/23/25 यत्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तत्रैति निश्चयः । उभावेतौ समालम्ब्य विक्राम्यत्यधिकं मनः ।25। = जहाँ पर राग पद धारै तहाँ द्वेष भी प्रवर्तता है, यह निश्चय है । और इन दोनों को अवलम्बन करके मन भी अधिकतर विकार रूप होता है ।25।
प. धवला/ उ./549 तद्यथा न रतिः पक्षे विपक्षेऽप्यरतिं विना । ना रतिर्वा स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रतिं विना ।549। = स्व पक्ष में अनुराग भी विपक्ष में अरति के बिना नहीं होता है वैसे ही स्वपक्ष में अरति भी उसके विपक्ष में रति के बिना नहीं होती है ।549।
- मोह, राग व द्वेष में शुभाशुभ विभाग
प्रवचनसार/180 परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ।180। = परिणाम से बंध है, परिणाम राग, द्वेष, मोह युक्त है । उनमें से मोह और द्वेष अशुभ हैं, राग शुभ अथवा अशुभ होता है ।180।
- पदार्थ में अच्छा बुरापना व्यक्ति के राग के कारण होता है
धवला 6/1, 9-2, 68/109/4 भिण्णरुचीदो केसिं पि जीवाणममहुरो वि सरो महुरोव्वरुच्चइ त्ति तस्स सरस्स महुरत्तं किण्ण इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थुपरिणामाणुवलंभा । ण च णिंवो केसिं पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्ववत्थावत्तीदो । = प्रश्न–भिन्न रुचि होने से कितने ही जीवों के अमधुर स्वर भी मधुर के समान रुचते हैं । इसलिए उसके अर्थात् भ्रमर के स्वर के मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पुरुषों की इच्छा से वस्तु का परिणमन नहीं पाया जाता है । नीम कितने ही जीवों को रुचता है, इसलिए वह मधुरता को नहीं प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वैसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है ।
- वास्तव में पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं
यो. सा./अ./5/36 इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ।36। = मोह से जिसे इष्ट समझ लिया जाता है वही अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है, क्योंकि निश्चय नय से संसार में न कोई पदार्थ इष्ट है और न अनिष्ट है ।36। (विशेष देखें सुख - 1) ।
- आशा व तृष्णा में अन्तर
भगवती आराधना आ./1181/1167/16 चिरमेते ईदृशा विषया ममोदितोदिता भूयासुरित्याशंसा । तृष्णां इमे मनागपि मत्तो मा विच्छिद्यान्तां इति तीव्रं प्रबंधप्रवृत्त्यभिलाषम् । = चिरकाल तक मेरे को सुख देने वाले विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाण से मिलें ऐसी इच्छा करना उसको आशा कहते हैं । ये सुखदायक पदार्थ कभी भी मेरे से अलग न होवें ऐसी तीव्र अभिलाषा को तृष्णा कहते हैं ।
- तृष्णा की अनन्तता
आत्मानुशासन/36 आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ।36। = आशा रूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणु के बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिए क्या और कितना आ सकता है । अर्थात् नहीं के समान ही कुछ नहीं आ सकता । अतः हे भव्यो, तुम्हारी उन विषयों की अभिलाषा व्यर्थ है ।36।
ज्ञानार्णव/20/28 उदधिरुदकपूरैरिन्धनैश्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तृप्तिमासादयेताम् । न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यैश्चिरतमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।28। = इस जगत् में समुद्र तो जल के प्रवाहों से तृप्त नहीं होता और अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती, सो कदाचित् दैवयोग से किसी प्रकार ये दोनों तृप्त हो भी जायें परन्तु यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादि के भोगने पर भी कभी तृप्त नहीं होता ।
- अर्थ प्रति परिणमन ज्ञान का नहीं राग का कार्य है
पुराणकोष से
(1) इष्ट पदार्थों के प्रति स्नेह-भाव । यह संसार के दुःखों का कारण होता है । पद्मपुराण 2.182, 123.74-75
(2) रावण का सामन्त । इसने राम की सेना से युद्ध किया था । पद्मपुराण 57.53