काल: Difference between revisions
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<li name="6" id="6"> चक्रवर्ती की नवनिधियों में से एक–देखें [[ शलाका पुरुष#2 | शलाका पुरुष - 2]]। </li> | <li name="6" id="6"> चक्रवर्ती की नवनिधियों में से एक–देखें [[ शलाका पुरुष#2 | शलाका पुरुष - 2]]। </li> | ||
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<p class="HindiText">यद्यपि लोक में घण्टा, दिन, वर्ष आदि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है। परमाणु अथवा सूर्य आदि की गति के कारण या किसी भी द्रव्य की भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओं में आरोपित किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित काल का व्यवहार भी न हो। यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सैकेण्ड से वर्ष अथवा शताब्दी तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है। परन्तु आगम में उसकी जघन्य सीमा ‘समय’ है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समय से छोटा काल सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समय से जल्दी नहीं बदलती। एक युग में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, और एक कल्प में दुःख से सुख की वृद्धि अथवा सुख से दुःख की ओर हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छ: छ: काल कल्पित किये गये हैं। इन कालों या कल्पों का प्रमाण कोड़ाकोड़ी सागरों में मापा जाता है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> [[ काल सामान्य निर्देश ]]</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल सामान्य का लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> दीक्षा-शिक्षादि काल की अपेक्षा भेद।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद<br /> | |||
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<li class="HindiText"> स्वपर काल के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> स्वपर काल की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8 ]]<br /> | |||
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<li class="HindiText"> दीक्षा-शिक्षादि कालों के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> स्थितिबन्धापसरण काल–देखें [[ अपकर्षण#4.4 | अपकर्षण - 4.4]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> स्थितिकाण्डकोत्करण काल–देखें [[ अपकर्षण#4.4 | अपकर्षण - 4.4]]।<br /> | |||
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</ul> | |||
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<li class="HindiText"> अवहार काल का लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> निक्षेप रूप कालों के लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सम्यग्ज्ञान का काल नाम अंग।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे सम्भव है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> दीक्षा-शिक्षादि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद–देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8 ]]<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> आबाधाकाल–देखें [[ आबाधा ]]<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय काल का लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य गति में भी सहकारी है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य के 15 सामान्य-विशेष स्वभाव।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालद्रव्य व अनस्तिकायपना–देखें [[ अस्तिकाय ]]<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक् पृथक् अवस्थित है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> समयादि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> परमाणु आदि की गति में भी धर्मादि द्रव्य निमित्त हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य न मानें तो क्या दोष है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या ? <br /> | |||
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<li class="HindiText"> स्वयंकाल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या ? <br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल द्रव्य क्रियावान् नहीं है।–देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालद्रव्य क्रियावान् क्यों नहीं? <br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालाणु को अनन्त कैसे कहते हैं? <br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालद्रव्य का उदासीन कारणपना।–देखें [[ कारण#III.2 | कारण - III.2]]।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्सम्बन्धी शंका समाधान—</strong> | |||
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<li class="HindiText"> समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> समय निमिषादि काल प्रमाणों की सारणी–देखें [[ गणित#I.1 | गणित - I.1]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> समयादि की उत्पत्ति के निमित्त।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> परमाणु की तीव्र गति से समय का विभाग नहीं हो जाता।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> जब सब द्रव्यों का परिणमन काल है तो मनुष्य क्षेत्र में ही इसका व्यवहार क्यों ? <br /> | |||
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<li class="HindiText"> भूत वर्तमान व भविष्यत् काल का प्रमाण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अर्ध पुद्गल परावर्तन काल की अनन्तता।–देखें [[ अनन्त#2 | अनन्त - 2]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> वर्तमान काल का प्रमाण–देखें [[ वर्तमान ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल प्रमाण मानने से अनादित्व के लोप की आशंका<br /> | |||
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<li class="HindiText"> निश्चय व व्यवहार काल में अन्तर।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> भवस्थिति व कायस्थिति में अन्तर–देखें [[ स्थिति#2 | स्थिति - 2]]।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश</strong> | |||
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<li class="HindiText"> कल्प काल निर्देश।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> काल के उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> दोनों के सुषमादि छह-छह भेद।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> सुषमा दुषमा सामान्य का लक्षण।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> अवसर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> उत्सर्पिणी काल का लक्षण व काल प्रमाण।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> उत्सर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> छह कालों का पृथक् पृथक् प्रमाण।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> अवसर्पिणी के छह भेदों में क्रम से जीवों की वृद्धि होती है।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> उत्सर्पिणी के छह कालों में जीवों की क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> युग का प्रारम्भ व उसका क्रम।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कृतयुग या कर्मभूमि का प्रारम्भ–देखें [[ भूमि#4 | भूमि - 4]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> हुण्डावसर्पिणी काल की विशेषताएँ।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> ये उत्सर्पिणी आदि षट्काल भरत व ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> मध्यलोक में सुषमादुषमा आदि काल विभाग।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> छहों कालों में सुख-दुःख आदि का सामान्य कथन।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> चतुर्थ काल की कुछ विशेषताएँ।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पंचम काल की कुछ विशेषताएँ।<br /> | |||
</li> | |||
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<li class="HindiText"> पंचम काल में भी ध्यान व मोक्षमार्ग–देखें [[ धर्मध्यान#5 | धर्मध्यान - 5]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> षट्कालों में आयु आहारादि की वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> कालानुयोगद्वार का लक्षण।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> कालप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> ओघ प्ररूपणा में एक जीव की जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> गुणस्थानों विशेष सम्बन्धी नियम।–देखें [[ सम्यक्त्व व संयम मार्गणा ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> देवगति में मिथ्यात्व के उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> इन्द्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> कायमार्गणा में त्रसों का उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> योगमार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> वेदमार्गणा में पुरुषवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
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<li class="HindiText"> मति, श्रुत, ज्ञान का उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।–देखें [[ वेदक सम्यक्त्ववत् ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा एक समय जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा अन्तर्मुहूर्त जघन्य काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> वेदक सम्यक्त्व का 66 सागर उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सासादन के काल सम्बन्धी–देखें [[ सासादन ]]।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ</strong> | |||
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<li class="HindiText"> सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय।</li> | |||
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<li class="HindiText"> जीवों की काल विषयक ओघ प्ररूपणा।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सम्यक्त्व प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पाँच शरीरबद्ध निषेकों का सत्ताकाल।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पाँच शरीरों की संघातन परिशातन कृति।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> योग स्थानों का अवस्थान काल।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> अष्टकर्म के चतुर्बन्ध सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा।<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> " " उदीरणा सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा<br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> " " उदय " " " <br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> " " अप्रशस्तोपशमना " " <br /> | |||
</li> | |||
<li class="HindiText"> " " संक्रमण " " " <br /> | |||
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<li class="HindiText"> " " स्वामित्व (सत्त्व) " " <br /> | |||
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<li class="HindiText"> मोहनीय के चतु:बन्धवि<span class="HindiText">षयक ओघ आदेश प्ररूपणा। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">काल-सामान्य निर्देश</strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)</strong></span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/322/6 <span class="PrakritText">अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा परिणामाणं च आणंतिओवलंभा।</span>=<span class="HindiText">परिणामों से पृथक् भूतकाल का अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं।</span><br /> | |||
धवला 9/4,1,2/27/11 <span class="PrakritText"> तीदाणागयपज्जायाणं...कालत्तब्भुवगमादो।</span>=<span class="HindiText">अतीत व अनागत पर्यायों को काल स्वीकार किया गया है। </span><br /> | |||
धवला/ पू./277<span class="PrakritGatha"> तदुदाहरणं सम्प्रति परिणमनं सत्तयावधार्यन्त। अस्ति विवक्षितत्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।</span>=<span class="HindiText">सत् सामान्य रूप परिणमन की विवक्षा से काल, सामान्य काल कहलाता है। तथा सत् के विवक्षित द्रव्य गुण वा पर्याय रूप अंशों के परिणमन की अपेक्षा से जब काल की विवक्षा होती है वह विशेष काल है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद</strong></span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 <span class="SanskritText">कालो हि द्विविध: परमार्थकालो व्यवहारकालश्च।</span>=<span class="HindiText">काल दो प्रकार का है–परमार्थकाल और व्यवहारकाल। ( सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ); ( सर्वार्थसिद्धि/4/14/246/4 ); ( राजवार्तिक/4/14/2/222/1 ); ( राजवार्तिक/5/22/24/482/1 )</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/4/279 <span class="PrakritText"> कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पयट्टेदि।</span>=<span class="HindiText">काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">दीक्षा-शिक्षा आदि काल की अपेक्षा भेद</strong></span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/583 <span class="PrakritGatha">विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते। आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला।583।</span>=<span class="HindiText">ते नामकर्म के उदय स्थान जिस-तिस काल विषैं उदय योग्य हैं तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। ते काल विग्रहगति, वा कार्मण शरीरविषैं, मिश्रशरीरविषैं, शरीर पर्याप्ति विषैं, आनपान पर्याप्ति विषैं, भाषा-पर्याप्ति विषैं अनुक्रमतैं पाँच जानने।<br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/615 (इस गाथा) वेदककाल व उपशमकाल ऐसे दो कालों का निर्देश है।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/11 <span class="SanskritText">दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थभेदेन षट्काला भवन्ति।</span>=<span class="HindiText">दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कारकाल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से काल के छह भेद हैं।</span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 <span class="SanskritText">तत्स्थिते: सोपक्रमकाल: अनुपक्रमकालश्चेति द्वौ भङ्गौ भवत:।</span>=<span class="HindiText">उनकी स्थिति (काल) के दोय भाग हैं—एक सोपक्रमकाल, एक अनुपक्रमकाल।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद</strong></span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/ पृ./पं <span class="PrakritText">णामकालो ठवणकालो दव्वकालो भावकालो चेदिकालो चउव्विहो (313/11) सा दुविहा, सब्भावासब्भावभेदेण।...दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य।...णो आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेदेण तिविहो। तत्थ जाणुगसरीरणोआगमदव्वकालो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेदेण तिविहो। (314/1)। भावकालो दुविहो, आगम-णोआगमभेदा।</span>=<span class="HindiText">नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल और भावकाल इस प्रकार से काल चार प्रकार का है (313/11)। स्थापना, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार की है।...आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यकाल दो प्रकार का है।...ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्वयतिरिक्त के भेद से नोआगम द्रव्यकाल तीन प्रकार का है, उनमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्त के भेद से तीन प्रकार का है (314/1)। आगम और नोआगम के भेद से भावकाल दो प्रकार का है।</span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/322/4 <span class="PrakritText">सामण्णेण एयविहो। तीदो अणागदो वट्टमाणो त्ति तिविहो। अथवा गुणट्ठिदिकालो भवट्ठिदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भवटि्ठदिकालो त्ति छव्विहो। अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूतकालाभावा, परिणामाणां च आणंतिओवलंभा।</span>=<span class="HindiText">सामान्य से एक प्रकार का काल होता है। अतीतानागत वर्तमान की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और भावस्थितिकाल, इस प्रकार काल के छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकार का है, क्योंकि परिणामों से पृथग्भूत काल का अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाये। <br /> | |||
धवला 11/4,2,6,1/75-77/4 <br /> | |||
चार्ट </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">स्वपर काल के लक्षण</strong> </span><BR> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 <span class="SanskritText"> वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमय: कालो भण्यते।=वर्तमान शुद्ध पर्याय से परिणत आत्मद्रव्य की वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है।<BR> | |||
पंचाध्यायी x`/5/274,471 कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुन: स्वभावेन।...।274। काल: समयो यदि वा तद्देशे वर्तमानकृतिश्चार्थात् ।...।471।</span>=<span class="HindiText">वर्तना को अथवा वस्तु के प्रतिसमय होने वाले स्वाभाविक परिणमन को काल कहते हैं।...।274। काल नाम समय का है अथवा परमार्थ से द्रव्य के देश में वर्तना के आकार का नाम भी काल है।...।471। राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त (पर्याय) याका काल है।</span><BR> | |||
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 <span class="HindiText">निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रियारूप तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणाम (पर्याय) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल (परकाल) निमित्त संसार है।</span></li> | |||
<li> <span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">दीक्षा शिक्षादि कालों के लक्षण</strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6.1" id="1.6.1"> दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण</strong></span><BR> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11 <span class="SanskritText">यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानन्तरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानन्तरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानन्तरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवान्तरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=</span><span class="HindiText">जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेदरत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्मआराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनन्तर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषणकाल है। गणपोषण के अनन्तर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कारकाल है। तदनन्तर उसी के लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्यसल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरमदेही, अथवा उससे विपरीत जो भवान्तर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थकाल कहलाता है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6.2" id="1.6.2"> दीक्षादि कालों के आगम की अपेक्षा लक्षण</strong></span><BR> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/8 <span class="SanskritText">यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुख: सन् पञ्चाचारोपेतमाचार्यं प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकाल:, दीक्षानन्तरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रन्थशिक्षां गृह्णाति तदा शिक्षाकाल:, शिक्षानन्तरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पञ्चभावनासहित: सन् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल:।...गणपोषणानन्तरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानन्तरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखनां करोति तदा सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनान्तरं चतुर्विधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति।</span>=<span class="HindiText">जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधना के अभिमुख हुआ, पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके उभय परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा <strong>दीक्षाकाल</strong> है। दीक्षा के अनन्तर चतुर्विध आराधना के ज्ञान के परिज्ञान के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग के ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब <strong>शिक्षाकाल</strong> है। शिक्षा के पश्चात् चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगण को पोषण करता है तब <strong>गणपोषण काल</strong> है।...गणपोषण के पश्चात् अपने गण अर्थात् संघ को छोड़कर आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ को जाता है तब <strong>आत्मसंस्कार काल</strong> है। आत्मसंस्कार के अनन्तर आचाराराधना में कथित क्रम से द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह <strong>सल्लेखनाकाल</strong> है। सल्लेखना के उपरान्त चार प्रकार की आराधना की भावनारूप समाधि को धारण करता है, वह <strong>उत्तमार्थकाल</strong> है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6.3" id="1.6.3"> सोपक्रमादि कालों के लक्षण</strong> </span><BR> | |||
धवला 14/4,2,7,42/32/1 <span class="PrakritText">पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेण कालो जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा।</span>=<span class="HindiText">प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु <strong>उत्कीरणकाल </strong>के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। <strong>विशेषार्थ</strong>—काण्डक पोर को कहते हैं। कुल अनुभाग के हिस्से करके एक एक हिस्से का फालिक्रम से अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डकघात कहलाता है। (उपरोक्त कथन पर से उत्कीरणकाल का यह लक्षण फलितार्थ होता है कि कुल अनुभाग के पोर काण्डक करके उन्हें घातार्थ जिस अन्तर्मुहूर्तकाल में स्थापित किया जाता है, उसे उत्कीरण काल कहते हैं। </span><BR> | |||
धवला 14/5,6,631/485/12 <span class="SanskritText">प्रबध्नन्ति एकत्वं गच्छन्ति अस्मिन्निति प्रबन्धन:। प्रबन्धनश्चासौ कालश्च प्रबन्धकाल:।</span> <span class="HindiText">बँधते अर्थात् एकत्व को प्राप्त होते हैं, जिसमें उसे प्रबन्धन कहते हैं। तथा प्रबन्धन रूप जो काल वह प्रबन्धनकाल कहलाता है।</span> गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/615/820/5 <span class="SanskritText">सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्या: स्थितिसत्त्वं यावत्त्रसे उदधिपृथक्त्व एकाक्षे च पल्यासंख्यातैकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते। तत उपर्युपशमकाल इति।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्वमोहिनी अर मिश्रमोहनी इनकी जो पूर्वे स्थितिबंधी थी सो वह सत्तारूप स्थिति त्रसकैं तौ पृथक्त्व सागर प्रमाण अवशेष रहैं अर एकेन्द्रीकैं पल्य का असंख्यातवाँ भाग करि हीन एक सागर प्रमाण अवशेष रहै तावत्काल तौ वेदक योग्य काल कहिए। बहुरि ताकै उपरि जो तिसतैं भी सत्तारूप स्थिति घाटि होइ तहाँ उपशम योग्य काल कहिए।<BR> | |||
गो.क./भाषा/583/789 ते नामकर्म के उदय स्थान जिस जिस काल विषैं उदय योग्य है तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। (इसको उदयकाल कहते हैं)...कार्मण शरीर जहाँ पाइए सो कार्मण काल यावत् शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीर <strong>मिश्रकाल</strong>, शरीर पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् <strong>शरीरपर्याप्ति काल</strong>, सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् भाषा पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् <strong>आनपान पर्याप्तिकाल</strong>, भाषा पर्याप्ति पूर्ण भएँ पीछैं सर्व अवशेष आयु प्रमाण <strong>भाषापर्याप्ति</strong> कहिए। </span> गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 <span class="SanskritText">उपक्रम: तत्सहित: काल: सोपक्रमकाल: निरन्तरोत्पत्तिकाल इत्यर्थ:।...अनुपक्रमकाल: उत्पत्तिरहित: काल:।</span>=<span class="HindiText">उपक्रम कहिए उत्पत्ति तोंहि सहित जो काल सो <strong>सोपक्रम काल</strong> कहिए सो आवली के असंख्यातवें भाग मात्र है।...बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ सो <strong>अनुपक्रम काल</strong> कहिए।<BR> | |||
लब्धिसार/ भाषा/53/85 अपूर्वकरण के प्रथम समय तैं लगाय यावत् सम्यक्त्व मोहनी, मिश्रमोहनी का <strong>पूरणकाल</strong> जो जिस कालविषैं गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमावै है।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण</strong></span><strong><BR></strong> गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/46/47/10 <span class="SanskritText">उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल:।</span>=<span class="HindiText">उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनि का संस्कार जितने काल तक रहे ताका नाम <strong>वासनाकाल</strong> है। </span> भगवती आराधना/ भाषा/211/426<span class="HindiText"> दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक <strong>ग्रहण काल</strong> माना जाता है, तथा व्रतादिकों में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता है उसको <strong>प्रतिसेवना काल</strong> कहते हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> अवहार काल का लक्षण</strong> <BR> धवला 3/1,2,56/269/11 का सारार्थ भागाहार रूप काल का प्रमाण।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> निक्षेपरूप कालों के लक्षण</strong></span><BR> | |||
धवला 4/1,5,1/313-316/10 <span class="PrakritText"> तत्थ णामकालो णाम कालसद्दो।...सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम।...पल्लवियं...वणसंडुज्जोइयचित्तालिहियवसंतो। अब्भवट्ठवणकालो णाम मणिभेद-गेरुअ-मट्टी-ठिक्करादिसु वसंतो ति बुद्धिबलेण ठविदो।...आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो।...भवियणोआगमदव्वकालोभवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो। ववगददोगंध-पंचरसट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो...अत्थो तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो णाम।...जीवाजीवादिअट्ठभंगदव्वं वा णोआगमदव्वकालो। ...कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो जीवो आगमभावकालो। दव्वकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णदि।...तस्स समय-आवलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख–मांस-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व–पलिदोवम-सागरोवमादि-रुवत्तादो। </span>=<span class="HindiText">’काल’ इस प्रकार का शब्द नामकाल कहलाता है।...’वह यही है’ इस प्रकार से अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है।...उनमें से पल्लवित...आदि वनखण्ड से उद्योतित, चित्रलिखित वसन्तकाल को सद्भावस्थापनाकाल निक्षेप कहते हैं। मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादि में यह वसन्त है’ इस प्रकार बुद्धि के बल से स्थापना करने को असद्भावस्थापना काल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्य काल है।...भविष्यकाल में जो जीव कालप्राभृत का ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। जो दो प्रकार के गन्ध, पाँच प्रकार के रस, आठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है...वर्तना ही जिसका लक्षण है...ऐसे पदार्थ को तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...अथवा जीव और अजीवादिक के योग से बने हुए आठ भंग रूप द्रव्य को नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक और वर्तमान में उपयुक्त जीव आगम भाव काल है। द्रव्यकाल से जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है।...वह काल समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।</span><br /> | |||
धवला 11/4,2,6,1/76/7 <span class="PrakritText"> तत्थ सच्चितो-जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहा णादो। अचित्तकालोजहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि। मिस्सकालो-तहा सदंस-सीदकालो इच्चेवमादि।...तत्थ लोउत्तरीओ समाचारकालो-जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि। लोगिय-समाचारकालो-जहा कसणकालो लुणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि।</span> =<span class="HindiText">उनमें दंशकाल, मशककाल इत्यादिक सचित्तकाल है, क्योंकि इनमें दंश और मशक के ही उपचार से काल का विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल है। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है।...वंदनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल आदि लोकोत्तरीय समाचारकाल हैं। कर्षणकाल, लुननकाल व वपनकाल इत्यादि लौकिक समाचारकाल हैं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> सम्यग्ज्ञान का कालनामा अंग</strong></span><BR> | |||
मू.आ./270-275<span class="PrakritGatha"> पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता। उभये कालम्हि पुणो सज्झाओ होदि कायव्वो।270। सज्झाये पट्ठवणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं। पव्वण्हे अवरण्हे तावदियं चेव णिट्ठवणे।271। आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा। वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला।272। णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए। पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए।273। दिसहाह उक्कपडणं विज्जु चडुक्कासणिंदधणुगं च। दुग्गंधसज्झदुद्दिणचंदग्गहसूरराहुजुज्झं च।274। कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्चं च। इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा।275।</span>=<span class="HindiText">प्रादोषिककाल, वैरात्रिक, गोसर्गकाल—इन चारों कालों में से दिनरात के पूर्वकाल अपरकाल इन दो कालों में स्वाध्याय करनी चाहिए।270। स्वाध्याय के आरम्भ करने में सूर्य के उदय होने पर दोनों जाँघों की छाया सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए।271। आषाढ महीने के अन्त दिवस में पूर्वाह्ण के समय दो पहर पहले जंघा छाया दो विलस्त अर्थात् बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमास में अन्त के दिन में चौबीस अंगुल प्रमाण जंघाछाया होती है। और फिर महीने-महीने में दो-दो अंगुल बढ़ती घटती है। सब संध्याओं में आदि अन्त की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है।272। दिशाओं के पूर्व आदि भेदों की शुद्धि के लिए प्रात:काल में नौ गाथाओं का, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकाल के समय पाँच गाथाओं का स्वाध्याय (पाठ व जाप) करे।273। उत्पात से दिशा का चमकना, मेघों के संघट्ट से उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुष के आकार पंचवर्ण पुद्गलों का दिखना, दुर्गन्ध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझ का समय, बादलों से आच्छादित दिन, चन्द्रमा, ग्रह, सूर्य, राहु के विमानों का आपस में टकराना।274। लड़ाई के वचन, लकड़ी आदि से झगड़ना, आकाश में धुआँ रेखा का दीखना, धरतीकंप, बादलों का गर्जना, महापवन का चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषों के होने पर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए।275। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/260 ) </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.11" id="1.11"> पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे सम्भव है</strong></span><BR> | |||
धवला/4/1,5,1/317/9 <span class="PrakritText"> पोग्गलादिपरिणामस्स कधं कालववएसो। ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणाम के ‘काल’ यह संज्ञा कैसे सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण के उपचार के निबन्धन से पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम के भी ‘काल’ संज्ञा का व्यवहार हो सकता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.12" id="1.12"> दीक्षा शिक्षा आदि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं</strong></span><BR> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/22 <span class="SanskritText"> अत्र कालषट्कमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयकाले केचन तृतीयकालादौ केवलज्ञानमुत्पादयन्तीति कालषट्कनियमो नास्ति।</span><span class="HindiText">=यहाँ दीक्षादि छ: कालों में से कोई तो प्रथम काल में, कोई द्वितीय काल में, कोई तृतीय आदि काल में केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छ: कालों का नियम नहीं है। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">निश्चय काल का लक्षण</strong></span><br /> | |||
पंचास्तिकाय/24 <span class="PrakritText"> ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।24।</span>=<span class="HindiText">काल (निश्चय काल) पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, दो गन्ध और आठ स्पर्श रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/278 )</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/5 <span class="SanskritText">स्वात्मनै व वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वृत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षित: काल:।</span> =<span class="HindiText">(यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है।</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/39/312/11 <span class="SanskritText"> कालस्य पुनर्द्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम् ।...तस्मात्पृथगिह कालोद्देश: क्रियते। अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावन्त: प्रदेशास्तावन्त: कालाणवो निष्क्रिया एकैकाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थित्ता:।...रूपादिगुणविरहादमूर्ता:।</span>=<span class="HindiText">(निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकार के काल में प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है।...काल द्रव्य का पृथक् से कथन किया गया है। <strong>शंका</strong>—काल अनेक द्रव्य हैं इसका क्या प्रमाण है? <strong>उत्तर</strong>—लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है। और वह काल रूपादि गुणों से रहित तथा अमूर्तीक है। ( राजवार्तिक/5/22/24/482/2 )</span><br /> | |||
राजवार्तिक/4/14/222/12 <span class="SanskritText"> कल्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रियावद्द्रव्यं स काल:।</span>=<span class="HindiText">जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य ‘कल्यते, क्षिप्यते, प्रेर्यते’ अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है।</span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/3/315 <span class="PrakritText"> ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो।3।</span>=<span class="HindiText">वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्य को अन्यरूप से परिणमाता है। किन्तु स्वत: नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले पदार्थों का काल स्वयं सुहेतु होता है।3। ( धवला 11/4,2,6,1/2/76 )</span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/7/317 <span class="PrakritGatha">सब्भावसहावाणं जीवाणं तह ये पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो।7।</span>=<span class="HindiText">सत्ता स्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और ‘च’ शब्द से धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियम से कालद्रव्य कहा गया है।</span><br /> | |||
महापुराण/3/4 <span class="PrakritText">यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधश्शिला। तथा काल: पदार्थानां वर्त्तनोपग्रहे मत:।4।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुर्इ कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है।</span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/137 <span class="PrakritText"> परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवेइ परिणामो।</span>=<span class="HindiText">जो निश्चय काल है वही परिणमन करने में कारण होता है।</span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड/568 <span class="PrakritGatha">वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेषु। कालाधारेणेव य वट्टंति हु सव्वदव्वाणि।568।</span>=<span class="HindiText">णिच् प्रत्यय संयुक्त धातु का कर्मविषैं वा भावविषैं वर्तना शब्द निपजै है सो याका यहु जो वर्तेवा वर्तना मात्र होइ ताकों वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि को निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाहीं, तातैं तिनकैं तिस प्रवृत्ति करावने कूं कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना काल का उपकार है।</span><br /> | |||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9/24/4 <span class="SanskritText"> पञ्चानां वर्तमानहेतु: काल:।</span>=<span class="HindiText">पाँच द्रव्यों का वर्तना का निमित्त वह काल है।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह वृ./मू./21 <span class="PrakritText">परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।</span>=<span class="HindiText">वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/61 <span class="SanskritText">वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल:।</span>=<span class="HindiText">वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप ‘निश्चयकाल’ है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> कालद्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है</strong></span><br /> | |||
तत्त्वार्थसूत्र/5/22,40 <span class="SanskritText">वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य।22। सोऽनन्तसमय:।40।</span>=<span class="HindiText">वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।22। वह अनन्त समयवाला है। </span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/4/279-282 <span class="PrakritText">कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेण अमुक्खकालो पयट्टेदि।279। जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं। एदाणं पज्जाया वट्टंते मुक्खकाल आधारे।280। सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। वाहिरहेदुं कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वदरिसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।</span>=<span class="HindiText">काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।279। जीव और पुद्गल के विविध प्रकार के परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य काल के आश्रय से वर्तती हैं।280। सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त निश्चय काल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/5/39/2/501/31 <span class="SanskritText">गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा: सन्ति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलघुत्वादय: पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्या:।</span>=<span class="HindiText">काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारणगुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं।</span><br /> | |||
आलापपद्धति/2/99 <span class="SanskritText">कालद्रव्ये वर्त्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा:।</span>=<span class="HindiText">कालद्रव्य में वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं। ( धवला 5/33/7 )</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/133-134 <span class="SanskritText">अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य।</span>=<span class="HindiText">(काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रतिपर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> काल द्रव्यगति में भी सहकारी है</strong></span><br /> | |||
तत्त्वार्थसूत्र/5/22 ...<span class="SanskritText">क्रिया...च कालस्य।22।</span>=<span class="HindiText">क्रिया में कारण होना, यह काल द्रव्य का उपकार है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">काल द्रव्य के 15 सामान्य विशेष स्वभाव</strong></span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/70 <span class="HindiText">पंचदसा पुण काले दव्वसहावा य णायव्वा।70।</span>=<span class="HindiText">काल द्रव्य के 15 सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। ( आलापपद्धति/4 ) (वे स्वभाव निम्न हैं—सद्, असद्, नित्य, अनित्य, अनेक, भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त स्वभाव)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है</strong></span><br /> | |||
नियमसार/36 <span class="PrakritText"> कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा।36।</span>=<span class="HindiText">काल द्रव्य को कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/4 ) ( द्रव्यसंग्रह वृ./मू./25)</span><br /> | |||
प्रवचनसार/ त.प्र/.135<span class="SanskritText"> कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। तत: कालद्रव्यमप्रदेशं।</span>=<span class="HindiText">कालाणु तो द्रव्यत: प्रदेश मात्र होने से और पर्यायत: परस्पर सम्पर्क न होने से अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/138 )</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 <span class="SanskritText">कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति।136।</span>=<span class="HindiText">काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं, और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के अनुसार समस्त लोक में ही है। (अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से कालद्रव्य असंख्यात हैं।) </span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड/585 <span class="PrakritText"> एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि।585।</span>=<span class="HindiText">बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुव रूप है, भिन्न–भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> कालद्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् अवस्थित है</strong> </span><br /> | |||
धवला/4/1,51/4/315 <span class="PrakritGatha">लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा।4।</span>=<span class="HindiText">लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक एक रूप से स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ सू./589) ( द्रव्यसंग्रह वृ./मू./22)</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/4/283 <span class="PrakritGatha">कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठंते संचएण विणा।283।</span>=<span class="HindiText">अन्योन्य प्रवेश से रहित काल के भिन्न-भिन्न अणु संचय के बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाश में स्थित है। ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/21) ( राजवार्तिक/5/22/24/482/3 ) ( नयचक्र बृहद्/136 )<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये</strong> </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/1 <span class="SanskritText">स कथं काल इत्यवसीयते। समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिर्निर्वर्त्यमानानां च पाकादीनां समय: पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय: काल: ओदनपाक: काल इति अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेश: तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:। गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—कालद्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है? <strong>उत्तर—</strong>समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढिक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है। ( राजवार्तिक/5/22/6/477/16 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/14 )</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/134 <span class="SanskritText">अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते: स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 <span class="SanskritText">कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात् ।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/142 <span class="SanskritText">तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव किं यौगपद्येन किं क्रमेण, यौगपद्येन चेत् नास्ति यौगपद्यं सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रम:, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्य:, स च समयपदार्थ एव।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/143 <span class="SanskritText"> विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्ते:। अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव:।</span>=<span class="HindiText">1. (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणान्तर से साध्य होने से (अर्थात् उनके समय से विशिष्ट-परिणति अन्य कारण से होते हैं, इसलिए) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुत्व। संभवित नहीं है। (134) ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका ता.वृ./33)। 2. जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (136/ ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 )। 3. यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के (काल रूप पर्याय) ही मानें जायें तो, (प्रश्न होता है कि:–) (1) वे युगपद् हैं या (2) क्रमश: ? (1) यदि ‘युगपत्’ कहा जाय तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते।) (2) यदि ‘क्रमश:’ कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है। इसलिए (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान अवश्य ढूँढना चाहिए। और वह (वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है। (142)। 4. सामान्य अस्तित्व के बिना विशेष अस्तित्व की उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भाव की सिद्धि करता है।<br /> | |||
तत्त्वसार/ परि./1/पृ. 172 पर शोलापुर वाले पं. वंशीधरजी ने काफी विस्तार से युक्तियों द्वारा छहों द्रव्यों की सिद्धि की है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं—</strong> </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/144 <span class="SanskritText">न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेर्हि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्ते:। </span>=<span class="HindiText">मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/8 <span class="SanskritText">समयरूप एव परमार्थकालो न चान्य: कालाणुद्रव्यरूप इति। परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप: प्रसिद्ध: स एव पर्याय: न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वात्पर्यायस्य ‘‘समओ उप्पण्णपद्धंसी’’ ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि। तदपि कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य...।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–समय रूप ही निश्चय काल है, उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है? <strong>उत्तर</strong>—समय तो कालद्रव्य की सूक्ष्म पर्याय है स्वयंद्रव्य नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>—समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है? <strong>उत्तर</strong>—पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है ‘‘समय उत्पन्न प्रध्वंसी है’’ इस वचन से समय को पर्यायपना प्राप्त होता है। और वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चय से अविनश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्याय का उपादान कारणभूत कालाणुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/23/49/8 ) (पं.प्र./ही./2/21/136/10) ( द्रव्यसंग्रह वृ.टी./21/61/9)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्य से क्या प्रयोजन—</strong> </span><br /> | |||
राजवार्तिक/5/22/7/477/20 <span class="SanskritText">आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्न; किं, कारणम् । तद्गतावपि तत्सद्भावात् । सवितुरपि व्रज्यायां भूतादिव्यवहारविषयभूतायां क्रियेत्येवं रूढायां वर्तनादर्शनात् तद्धेतुना अन्येन कालेन भवितव्यम् ।=</span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–आदित्य—सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना हो जावे? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गति में भी ‘भूत वर्तमान भविष्यत’ आदि अनेक कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए। वही काल है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/16 )।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/62/2 <span class="SanskritText">अथ मतं-समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोतपत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति। ‘‘नैवम् । यथा तन्दुलोपादानकारणोत्पन्नस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगन्ध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यन्ते। तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिम्बरूपै: पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतै: समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणा: प्राप्नुवन्ति, न च तथा। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—समय, घड़ी आदि कालपर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है। <strong>उत्तर—</strong>ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो काल पर्याय हैं उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं। ( राजवार्तिक/5/22/26-27/482-484 में सविस्तार तर्कादि)।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/54/16 <span class="SanskritText">यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते।=</span><span class="HindiText">यद्यपि निश्चय से (समय) द्रव्य काल की पर्याय है, तथापि व्यवहार से परमाणु, जलादि पुद्गलद्रव्य के आश्रय से अर्थात् पुद्गल द्रव्य को निमित्त करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./35/134)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> परमाणु आदि की गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित्त है, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
राजवार्तिक/5/22/8/477/24 <span class="SanskritText">आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतु: कालोऽस्तीति; तन्न; किं कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवत् । यथा भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु तदेव पचति, तेजसो हि स व्यापार:, तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति। कालस्य हि स व्यापार:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–आकाश प्रदेश के निमित्त से (द्रव्यों में) वर्तना होती है। अन्य कोई ‘काल’ नामक उसका हेतु नहीं है? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए तो अग्नि का व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, पर वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/3 <span class="SanskritText">आदित्यगत्यादिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं। गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत् कारणात् घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत्...इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं। कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् ‘‘पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणेहिं’’ क्रियावन्तो भवन्तीति कथयत्यग्रे। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—सूर्य की गति आदि परिणति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्य की क्या आवश्यकता है? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणत के धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्हार चक्र चीवरादि के समान, मत्स्यों की गति में जलादि के समान, मनुष्यों की गति में गाड़ी पर बैठना आदि के समान,...इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गति में कारण है।=<strong>प्रश्न</strong>—ऐसा कहाँ है? <strong>उत्तर</strong>—धर्म द्रव्य के विद्यमान होने पर भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदों वाले पुद्गलों के गमन में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। ( पंचास्तिकाय/98 ) ऐसा आगे कहेंगे। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन</strong></span><br /> | |||
राजवार्तिक/5/22/9/477/27 <span class="SanskritText">सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धेतुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहात् । कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अत: वर्तना सत्ताहेतुक है? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अत: काल पृथक् ही होना चाहिए।</span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/65/4<span class="SanskritText"> अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते: सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि, कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति। नैवम्; यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै: प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्यं प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते; ततसतेषामपि कालद्रव्यस्येवाभाव: प्राप्नोति। ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोध:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(काल की भाँति) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपने-अपने परिणमन सहकारी कारण रहें। उन द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है? <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण, गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष—काल का कार्य तो घड़ी, दिन, आदि प्रत्यक्ष से दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम के कथन से ही जाना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्य का अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/51 )।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है</strong></span><br /> | |||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/32 में मार्ग प्रकाश से उद्धृत-<span class="SanskritText">कालाभावे न भावानां परिणामस्तदन्तरात् । न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते। </span>=<span class="HindiText">काल के अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी; इस प्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा।</span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/12 <span class="SanskritText"> धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्तिं प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तद्वृत्त्यसंभवात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनि की निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान हैं, तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सम्भवै नाहीं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.13" id="2.13"> अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या है</strong> </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/13 <span class="SanskritText">लोकाकाशाद्बहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह—यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लम्बायमानमहावरत्रायां महावेणुदण्डे वा–सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेन्द्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेन्द्रियविषये च सर्वाङ्गेन सुखानुभवो भवति...तथा लोकमध्ये स्थितेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखण्डैकद्रव्यत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव में अलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है? <strong>उत्तर</strong>—जिस प्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का, या रसना इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/64)। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.14" id="2.14"> स्वयं काल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या है</strong> </span><br /> | |||
धवला 4/1,5,1/321/5 <span class="PrakritText">कालस्स कालो किं तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा।...अणब्भुवगमा।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण ववहारो जुज्जदे।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–काल का परिणमन कराने वाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य? <strong>उत्तर</strong>—हम काल के काल को काल से भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँ पर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूप से व्यवहार बन जाता है।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/19 <span class="SanskritText">कालस्य किं परिणतिसहकारिकारणमिति। आकाशस्याकाशाधारवत् ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते: काल एव सहकारिकारणं भवति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—काल द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है? <strong>उत्तर</strong>—जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार कालद्रव्य की परिणति में सहकारी कारण स्वयं काल ही है। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/65) <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.15" id="2.15">काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए</strong> </span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार 1/4/44-45/148/17<span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>—काल द्रव्य को असंख्यात मानने का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्पर में विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओं की उत्पत्ति में निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थात् कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.16" id="2.16"> काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं</strong> </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/7 <span class="SanskritText">वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता काल:। यद्येव कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैष दोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। <strong>प्रश्न</strong>—यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे—कण्डे की अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.17" id="2.17"> कालाणु को अनन्त कैसे कहते हैं</strong> </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/6 <span class="SanskritText"> अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त इत्युपचर्यते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–[एक कालाणु को भी अनन्त संज्ञा कैसे देते हैं?] <strong>उत्तर</strong>—अनन्त पर्याय वर्तना गुण के निमित्त से होती हैं, इसलिए एक कालाणु को भी उपचार से अनन्त कहा है।</span><br /> | |||
हरिवंशपुराण/7/10 ...। <span class="SanskritText">अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिन:।10।</span> =<span class="HindiText">ये कालाणु अनन्त समयों के उत्पादक होने से अनन्त भी कहे जाते हैं।10। <br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.18" id="2.18"> कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | |||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/139/197/7 <span class="SanskritText">एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत: कारणात्तदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं...ज्ञातव्यम् ...ध्येयमिति तात्पर्य्यम् ।</span>=<span class="HindiText">उपरोक्त लक्षणवाले काल के जानने पर भी इस जीव ने परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनन्त काल तक भ्रमण किया है इसलिए निज परमात्मतत्त्व सर्व प्रकार उपादेय रूप से श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है। यह तात्पर्य है। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/20 <span class="SanskritText">अत्र व्याख्यानेऽतीतानन्तकाले दुर्लभो योऽसौ शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानन्दैककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं रागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं...विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिरचित्तं च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ:। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/100/160/12 <span class="SanskritText">अत्र यद्यपि काललब्धिवशेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणं मोक्षमार्गं प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानन्दैकस्वभावमुपादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न च काल इत्यभिप्राय:।</span>=<span class="HindiText">1. इस व्याख्यान में तात्पर्यार्थ यह है कि अतीत अनन्त काल में दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी चिदानन्दैककालस्वभाव में सम्यक्श्रद्धान, तथा रागादि से भिन्न रूप से भेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसी में स्थिरचित्त करना चाहिए। 2. यद्यपि जीव काललब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करके रागादि से रहित नित्यानन्द एक स्वभाव तथा उपादेयभूत पारमार्थिक सुख को साधता है, परन्तु जीव ही उसका उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है।</span><BR> द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/63 <span class="SanskritText">यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान...तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तथापि...निज परमात्म तत्त्व का सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए काल हेय है।</span></li> | |||
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<p id="8">(8) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.638 </span></p> | <p id="8">(8) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.638 </span></p> | ||
<p id="9">(9) दिति देवी द्वारा नीम और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22. 59-60 </span></p> | <p id="9">(9) दिति देवी द्वारा नीम और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22. 59-60 </span></p> | ||
<p id="10">(10) छ: द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है । वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यन्त सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है । <span class="GRef"> महापुराण 3. 2-4, 24.139-140, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.1, 58.56 </span>इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पांचों द्रव्य― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय हैं । यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं― मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है समय, आवलि, उच्छ्वास, | <p id="10">(10) छ: द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है । वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यन्त सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है । <span class="GRef"> महापुराण 3. 2-4, 24.139-140, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.1, 58.56 </span>इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पांचों द्रव्य― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय हैं । यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं― मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि इसके अनेक भेद है । <span class="GRef"> महापुराण 3.7-12, 24.139-144 </span>परमाणु जितने समय में अपने प्रदेश का उल्लंघन करता है, उतने समय का एक समय होता है । यह अविभागी होता है । इसके आधार से होने वाला व्यवहार निम्न प्रकार है― </p> | ||
<p>असंख्यात समय = एक आवलि</p> | <p>असंख्यात समय = एक आवलि</p> | ||
<p>संख्यात आवीरू = एक उच्छ्वास-नि:श्वास</p> | <p>संख्यात आवीरू = एक उच्छ्वास-नि:श्वास</p> | ||
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<p>84 लाख शिर: प्रकम्पित = एक हस्त प्रहेलिका </p> | <p>84 लाख शिर: प्रकम्पित = एक हस्त प्रहेलिका </p> | ||
<p>84 लाख हस्त प्रहेलिका = चर्चिका</p> | <p>84 लाख हस्त प्रहेलिका = चर्चिका</p> | ||
<p>यह चर्चिका आदि रूप में परिभाषित काल संख्यात है तथा संख्यात वर्ष से अतिक्रान्त काल असंख्येय काल होता है । इससे पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक काल-परिणाम बनते हैं । 7.17-31 इस व्यवहार काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद भी है । दोनों मे प्रत्येक का काल-प्रमाण दस | <p>यह चर्चिका आदि रूप में परिभाषित काल संख्यात है तथा संख्यात वर्ष से अतिक्रान्त काल असंख्येय काल होता है । इससे पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक काल-परिणाम बनते हैं । 7.17-31 इस व्यवहार काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद भी है । दोनों मे प्रत्येक का काल-प्रमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर होता है । दोनों का काल बीस कोड़ाकोड़ी होता है जिसे एक कल्प कहते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 3. 14-15 </span></p> | ||
Revision as of 00:55, 17 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- असुरकुमार नाम व्यन्तरजातीय देवों का एक भेद–देखें असुर ।
- पिशाच जातीय व्यन्तर देवों का एक भेद–देखें पिशाच ।
- उत्तर कालोद समुद्र का रक्षक व्यन्तर देव–देखें व्यंतर - 4।
- एक ग्रह–देखें ग्रह ।
- पंचम नारद विशेष परिचय–देखें शलाकापुरुष - 6।
- चक्रवर्ती की नवनिधियों में से एक–देखें शलाका पुरुष - 2।
यद्यपि लोक में घण्टा, दिन, वर्ष आदि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है। परमाणु अथवा सूर्य आदि की गति के कारण या किसी भी द्रव्य की भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओं में आरोपित किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित काल का व्यवहार भी न हो। यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सैकेण्ड से वर्ष अथवा शताब्दी तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है। परन्तु आगम में उसकी जघन्य सीमा ‘समय’ है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समय से छोटा काल सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समय से जल्दी नहीं बदलती। एक युग में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, और एक कल्प में दुःख से सुख की वृद्धि अथवा सुख से दुःख की ओर हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छ: छ: काल कल्पित किये गये हैं। इन कालों या कल्पों का प्रमाण कोड़ाकोड़ी सागरों में मापा जाता है।
- काल सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद।
- दीक्षा-शिक्षादि काल की अपेक्षा भेद।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद
- स्वपर काल के लक्षण।
- स्वपर काल की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें सप्तभंगी - 5.8
- दीक्षा-शिक्षादि कालों के लक्षण।
- ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण।
- स्थितिबन्धापसरण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- स्थितिकाण्डकोत्करण काल–देखें अपकर्षण - 4.4।
- अवहार काल का लक्षण।
- निक्षेप रूप कालों के लक्षण।
- सम्यग्ज्ञान का काल नाम अंग।
- पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे सम्भव है।
- दीक्षा-शिक्षादि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं।
- काल की अपेक्षा द्रव्य में भेदाभेद–देखें सप्तभंगी - 5.8
- आबाधाकाल–देखें आबाधा
- काल सामान्य का लक्षण।
- निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण।
- काल द्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है।
- काल द्रव्य गति में भी सहकारी है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य-विशेष स्वभाव।
- काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं।
- कालद्रव्य व अनस्तिकायपना–देखें अस्तिकाय
- काल द्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक् पृथक् अवस्थित है।
- काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं।
- समयादि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्मादि द्रव्य निमित्त हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं काल द्रव्य से क्या प्रयोजन।
- काल द्रव्य न मानें तो क्या दोष है।
- अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या ?
- स्वयंकाल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या ?
- काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए।
- काल द्रव्य क्रियावान् नहीं है।–देखें द्रव्य - 3।
- कालद्रव्य क्रियावान् क्यों नहीं?
- कालाणु को अनन्त कैसे कहते हैं?
- कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन।
- निश्चय काल का लक्षण।
- कालद्रव्य का उदासीन कारणपना।–देखें कारण - III.2।
- समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्सम्बन्धी शंका समाधान—
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश।
- समय निमिषादि काल प्रमाणों की सारणी–देखें गणित - I.1।
- समयादि की अपेक्षा व्यवहार काल का निर्देश।
- समयादि की उत्पत्ति के निमित्त।
- परमाणु की तीव्र गति से समय का विभाग नहीं हो जाता।
- व्यवहार काल का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है।
- देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा किया जाता है।
- जब सब द्रव्यों का परिणमन काल है तो मनुष्य क्षेत्र में ही इसका व्यवहार क्यों ?
- भूत वर्तमान व भविष्यत् काल का प्रमाण।
- काल प्रमाण मानने से अनादित्व के लोप की आशंका
- निश्चय व व्यवहार काल में अन्तर।
- भवस्थिति व कायस्थिति में अन्तर–देखें स्थिति - 2।
- उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
- कल्प काल निर्देश।
- कल्प काल निर्देश।
- काल के उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद।
- दोनों के सुषमादि छह-छह भेद।
- सुषमा दुषमा सामान्य का लक्षण।
- अवसर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- उत्सर्पिणी काल का लक्षण व काल प्रमाण।
- उत्सर्पिणी काल के षट् भेदों का स्वरूप।
- छह कालों का पृथक् पृथक् प्रमाण।
- अवसर्पिणी के छह भेदों में क्रम से जीवों की वृद्धि होती है।
- उत्सर्पिणी के छह कालों में जीवों की क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि।
- युग का प्रारम्भ व उसका क्रम।
- कृतयुग या कर्मभूमि का प्रारम्भ–देखें भूमि - 4।
- हुण्डावसर्पिणी काल की विशेषताएँ।
- ये उत्सर्पिणी आदि षट्काल भरत व ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं।
- मध्यलोक में सुषमादुषमा आदि काल विभाग।
- छहों कालों में सुख-दुःख आदि का सामान्य कथन।
- चतुर्थ काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल की कुछ विशेषताएँ।
- पंचम काल में भी ध्यान व मोक्षमार्ग–देखें धर्मध्यान - 5।
- षट्कालों में आयु आहारादि की वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी।
- कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम
- कालानुयोगद्वार का लक्षण।
- काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर।
- कालप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम।
- ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम।
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- ओघ प्ररूपणा में नाना जीवों की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- ओघ प्ररूपणा में एक जीव की जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- गुणस्थानों विशेष सम्बन्धी नियम।–देखें सम्यक्त्व व संयम मार्गणा ।
- देवगति में मिथ्यात्व के उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम।
- इन्द्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।
- कायमार्गणा में त्रसों का उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि।
- योगमार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।
- वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।
- वेदमार्गणा में पुरुषवेदियों का उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि।
- कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- मति, श्रुत, ज्ञान का उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।–देखें वेदक सम्यक्त्ववत् ।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा एक समय जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा अन्तर्मुहूर्त जघन्य काल प्राप्ति विधि।
- लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम।
- वेदक सम्यक्त्व का 66 सागर उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि।
- कालानुयोगद्वार का लक्षण।
- सासादन के काल सम्बन्धी–देखें सासादन ।
- कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ
- सारणी में प्रयुक्त संकेतों का परिचय।
- जीवों की काल विषयक ओघ प्ररूपणा।
- जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा।
- सम्यक्त्व प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा
- पाँच शरीरबद्ध निषेकों का सत्ताकाल।
- पाँच शरीरों की संघातन परिशातन कृति।
- योग स्थानों का अवस्थान काल।
- अष्टकर्म के चतुर्बन्ध सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा।
- " " उदीरणा सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा
- " " उदय " " "
- " " अप्रशस्तोपशमना " "
- " " संक्रमण " " "
- " " स्वामित्व (सत्त्व) " "
- मोहनीय के चतु:बन्धविषयक ओघ आदेश प्ररूपणा।
- काल-सामान्य निर्देश
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)
धवला 4/1,5,1/322/6 अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूदकालाभावा परिणामाणं च आणंतिओवलंभा।=परिणामों से पृथक् भूतकाल का अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं।
धवला 9/4,1,2/27/11 तीदाणागयपज्जायाणं...कालत्तब्भुवगमादो।=अतीत व अनागत पर्यायों को काल स्वीकार किया गया है।
धवला/ पू./277 तदुदाहरणं सम्प्रति परिणमनं सत्तयावधार्यन्त। अस्ति विवक्षितत्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह।277।=सत् सामान्य रूप परिणमन की विवक्षा से काल, सामान्य काल कहलाता है। तथा सत् के विवक्षित द्रव्य गुण वा पर्याय रूप अंशों के परिणमन की अपेक्षा से जब काल की विवक्षा होती है वह विशेष काल है।
- निश्चय व्यवहार काल की अपेक्षा भेद
सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 कालो हि द्विविध: परमार्थकालो व्यवहारकालश्च।=काल दो प्रकार का है–परमार्थकाल और व्यवहारकाल। ( सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/7 ); ( सर्वार्थसिद्धि/4/14/246/4 ); ( राजवार्तिक/4/14/2/222/1 ); ( राजवार्तिक/5/22/24/482/1 )
तिलोयपण्णत्ति/4/279 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेणं अमुक्खकालो पयट्टेदि।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।
- दीक्षा-शिक्षा आदि काल की अपेक्षा भेद
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/583 विग्गहकम्मसरीरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते। आणावचिपज्जत्ते कमेण पंचोदये काला।583।=ते नामकर्म के उदय स्थान जिस-तिस काल विषैं उदय योग्य हैं तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। ते काल विग्रहगति, वा कार्मण शरीरविषैं, मिश्रशरीरविषैं, शरीर पर्याप्ति विषैं, आनपान पर्याप्ति विषैं, भाषा-पर्याप्ति विषैं अनुक्रमतैं पाँच जानने।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड/615 (इस गाथा) वेदककाल व उपशमकाल ऐसे दो कालों का निर्देश है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/11 दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थभेदेन षट्काला भवन्ति।=दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कारकाल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से काल के छह भेद हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 तत्स्थिते: सोपक्रमकाल: अनुपक्रमकालश्चेति द्वौ भङ्गौ भवत:।=उनकी स्थिति (काल) के दोय भाग हैं—एक सोपक्रमकाल, एक अनुपक्रमकाल।
- निक्षेपों की अपेक्षा काल के भेद
धवला 4/1,5,1/ पृ./पं णामकालो ठवणकालो दव्वकालो भावकालो चेदिकालो चउव्विहो (313/11) सा दुविहा, सब्भावासब्भावभेदेण।...दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य।...णो आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेदेण तिविहो। तत्थ जाणुगसरीरणोआगमदव्वकालो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेदेण तिविहो। (314/1)। भावकालो दुविहो, आगम-णोआगमभेदा।=नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल और भावकाल इस प्रकार से काल चार प्रकार का है (313/11)। स्थापना, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार की है।...आगम और नोआगम के भेद से द्रव्यकाल दो प्रकार का है।...ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्वयतिरिक्त के भेद से नोआगम द्रव्यकाल तीन प्रकार का है, उनमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्त के भेद से तीन प्रकार का है (314/1)। आगम और नोआगम के भेद से भावकाल दो प्रकार का है।
धवला 4/1,5,1/322/4 सामण्णेण एयविहो। तीदो अणागदो वट्टमाणो त्ति तिविहो। अथवा गुणट्ठिदिकालो भवट्ठिदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भवटि्ठदिकालो त्ति छव्विहो। अहवा अणेयविहो परिणामेहिंतो पुधभूतकालाभावा, परिणामाणां च आणंतिओवलंभा।=सामान्य से एक प्रकार का काल होता है। अतीतानागत वर्तमान की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और भावस्थितिकाल, इस प्रकार काल के छह भेद हैं। अथवा काल अनेक प्रकार का है, क्योंकि परिणामों से पृथग्भूत काल का अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाये।
धवला 11/4,2,6,1/75-77/4
चार्ट - स्वपर काल के लक्षण
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/13 वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमय: कालो भण्यते।=वर्तमान शुद्ध पर्याय से परिणत आत्मद्रव्य की वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है।
पंचाध्यायी x`/5/274,471 कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुन: स्वभावेन।...।274। काल: समयो यदि वा तद्देशे वर्तमानकृतिश्चार्थात् ।...।471।=वर्तना को अथवा वस्तु के प्रतिसमय होने वाले स्वाभाविक परिणमन को काल कहते हैं।...।274। काल नाम समय का है अथवा परमार्थ से द्रव्य के देश में वर्तना के आकार का नाम भी काल है।...।471। राजवार्तिक/ हिं./1/6/49 गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त (पर्याय) याका काल है।
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रियारूप तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणाम (पर्याय) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल (परकाल) निमित्त संसार है। - दीक्षा शिक्षादि कालों के लक्षण
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11 यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानन्तरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानन्तरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानन्तरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवान्तरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेदरत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्मआराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनन्तर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषणकाल है। गणपोषण के अनन्तर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कारकाल है। तदनन्तर उसी के लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्यसल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरमदेही, अथवा उससे विपरीत जो भवान्तर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थकाल कहलाता है। - दीक्षादि कालों के आगम की अपेक्षा लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/8 यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुख: सन् पञ्चाचारोपेतमाचार्यं प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकाल:, दीक्षानन्तरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रन्थशिक्षां गृह्णाति तदा शिक्षाकाल:, शिक्षानन्तरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पञ्चभावनासहित: सन् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल:।...गणपोषणानन्तरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानन्तरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखनां करोति तदा सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनान्तरं चतुर्विधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति।=जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधना के अभिमुख हुआ, पंचाचार से युक्त आचार्य को प्राप्त करके उभय परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनन्तर चतुर्विध आराधना के ज्ञान के परिज्ञान के लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोग के ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात् चरणानुयोग में कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यान के द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगण को पोषण करता है तब गणपोषण काल है।...गणपोषण के पश्चात् अपने गण अर्थात् संघ को छोड़कर आत्मभावना के संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ को जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कार के अनन्तर आचाराराधना में कथित क्रम से द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखना के उपरान्त चार प्रकार की आराधना की भावनारूप समाधि को धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है। - सोपक्रमादि कालों के लक्षण
धवला 14/4,2,7,42/32/1 पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेण कालो जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा।=प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु उत्कीरणकाल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। विशेषार्थ—काण्डक पोर को कहते हैं। कुल अनुभाग के हिस्से करके एक एक हिस्से का फालिक्रम से अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डकघात कहलाता है। (उपरोक्त कथन पर से उत्कीरणकाल का यह लक्षण फलितार्थ होता है कि कुल अनुभाग के पोर काण्डक करके उन्हें घातार्थ जिस अन्तर्मुहूर्तकाल में स्थापित किया जाता है, उसे उत्कीरण काल कहते हैं।
धवला 14/5,6,631/485/12 प्रबध्नन्ति एकत्वं गच्छन्ति अस्मिन्निति प्रबन्धन:। प्रबन्धनश्चासौ कालश्च प्रबन्धकाल:। बँधते अर्थात् एकत्व को प्राप्त होते हैं, जिसमें उसे प्रबन्धन कहते हैं। तथा प्रबन्धन रूप जो काल वह प्रबन्धनकाल कहलाता है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/615/820/5 सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्या: स्थितिसत्त्वं यावत्त्रसे उदधिपृथक्त्व एकाक्षे च पल्यासंख्यातैकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते। तत उपर्युपशमकाल इति।=सम्यक्त्वमोहिनी अर मिश्रमोहनी इनकी जो पूर्वे स्थितिबंधी थी सो वह सत्तारूप स्थिति त्रसकैं तौ पृथक्त्व सागर प्रमाण अवशेष रहैं अर एकेन्द्रीकैं पल्य का असंख्यातवाँ भाग करि हीन एक सागर प्रमाण अवशेष रहै तावत्काल तौ वेदक योग्य काल कहिए। बहुरि ताकै उपरि जो तिसतैं भी सत्तारूप स्थिति घाटि होइ तहाँ उपशम योग्य काल कहिए।
गो.क./भाषा/583/789 ते नामकर्म के उदय स्थान जिस जिस काल विषैं उदय योग्य है तहाँ ही होंइ तातैं नियतकाल है। (इसको उदयकाल कहते हैं)...कार्मण शरीर जहाँ पाइए सो कार्मण काल यावत् शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीर मिश्रकाल, शरीर पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीरपर्याप्ति काल, सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् भाषा पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् आनपान पर्याप्तिकाल, भाषा पर्याप्ति पूर्ण भएँ पीछैं सर्व अवशेष आयु प्रमाण भाषापर्याप्ति कहिए। गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/266/582/2 उपक्रम: तत्सहित: काल: सोपक्रमकाल: निरन्तरोत्पत्तिकाल इत्यर्थ:।...अनुपक्रमकाल: उत्पत्तिरहित: काल:।=उपक्रम कहिए उत्पत्ति तोंहि सहित जो काल सो सोपक्रम काल कहिए सो आवली के असंख्यातवें भाग मात्र है।...बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ सो अनुपक्रम काल कहिए।
लब्धिसार/ भाषा/53/85 अपूर्वकरण के प्रथम समय तैं लगाय यावत् सम्यक्त्व मोहनी, मिश्रमोहनी का पूरणकाल जो जिस कालविषैं गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमावै है।
- दीक्षादि कालों के अध्यात्म अपेक्षा लक्षण
- ग्रहण व वासनादि कालों के लक्षण
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/46/47/10 उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकाल:।=उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनि का संस्कार जितने काल तक रहे ताका नाम वासनाकाल है। भगवती आराधना/ भाषा/211/426 दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है, तथा व्रतादिकों में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता है उसको प्रतिसेवना काल कहते हैं। - अवहार काल का लक्षण
धवला 3/1,2,56/269/11 का सारार्थ भागाहार रूप काल का प्रमाण। - निक्षेपरूप कालों के लक्षण
धवला 4/1,5,1/313-316/10 तत्थ णामकालो णाम कालसद्दो।...सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम।...पल्लवियं...वणसंडुज्जोइयचित्तालिहियवसंतो। अब्भवट्ठवणकालो णाम मणिभेद-गेरुअ-मट्टी-ठिक्करादिसु वसंतो ति बुद्धिबलेण ठविदो।...आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो।...भवियणोआगमदव्वकालोभवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो। ववगददोगंध-पंचरसट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो...अत्थो तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो णाम।...जीवाजीवादिअट्ठभंगदव्वं वा णोआगमदव्वकालो। ...कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो जीवो आगमभावकालो। दव्वकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णदि।...तस्स समय-आवलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख–मांस-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व–पलिदोवम-सागरोवमादि-रुवत्तादो। =’काल’ इस प्रकार का शब्द नामकाल कहलाता है।...’वह यही है’ इस प्रकार से अन्य वस्तु में बुद्धि के द्वारा अन्य का आरोपण करना स्थापना है।...उनमें से पल्लवित...आदि वनखण्ड से उद्योतित, चित्रलिखित वसन्तकाल को सद्भावस्थापनाकाल निक्षेप कहते हैं। मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादि में यह वसन्त है’ इस प्रकार बुद्धि के बल से स्थापना करने को असद्भावस्थापना काल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्य काल है।...भविष्यकाल में जो जीव कालप्राभृत का ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। जो दो प्रकार के गन्ध, पाँच प्रकार के रस, आठ प्रकार के स्पर्श और पाँच प्रकार के वर्ण से रहित है...वर्तना ही जिसका लक्षण है...ऐसे पदार्थ को तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...अथवा जीव और अजीवादिक के योग से बने हुए आठ भंग रूप द्रव्य को नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं।...काल विषयक प्राभृत का ज्ञायक और वर्तमान में उपयुक्त जीव आगम भाव काल है। द्रव्यकाल से जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है।...वह काल समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।
धवला 11/4,2,6,1/76/7 तत्थ सच्चितो-जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहा णादो। अचित्तकालोजहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि। मिस्सकालो-तहा सदंस-सीदकालो इच्चेवमादि।...तत्थ लोउत्तरीओ समाचारकालो-जहा वंदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि। लोगिय-समाचारकालो-जहा कसणकालो लुणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि। =उनमें दंशकाल, मशककाल इत्यादिक सचित्तकाल है, क्योंकि इनमें दंश और मशक के ही उपचार से काल का विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल है। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है।...वंदनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल आदि लोकोत्तरीय समाचारकाल हैं। कर्षणकाल, लुननकाल व वपनकाल इत्यादि लौकिक समाचारकाल हैं। - सम्यग्ज्ञान का कालनामा अंग
मू.आ./270-275 पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता। उभये कालम्हि पुणो सज्झाओ होदि कायव्वो।270। सज्झाये पट्ठवणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं। पव्वण्हे अवरण्हे तावदियं चेव णिट्ठवणे।271। आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा। वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला।272। णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए। पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए।273। दिसहाह उक्कपडणं विज्जु चडुक्कासणिंदधणुगं च। दुग्गंधसज्झदुद्दिणचंदग्गहसूरराहुजुज्झं च।274। कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्चं च। इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा।275।=प्रादोषिककाल, वैरात्रिक, गोसर्गकाल—इन चारों कालों में से दिनरात के पूर्वकाल अपरकाल इन दो कालों में स्वाध्याय करनी चाहिए।270। स्वाध्याय के आरम्भ करने में सूर्य के उदय होने पर दोनों जाँघों की छाया सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए।271। आषाढ महीने के अन्त दिवस में पूर्वाह्ण के समय दो पहर पहले जंघा छाया दो विलस्त अर्थात् बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमास में अन्त के दिन में चौबीस अंगुल प्रमाण जंघाछाया होती है। और फिर महीने-महीने में दो-दो अंगुल बढ़ती घटती है। सब संध्याओं में आदि अन्त की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है।272। दिशाओं के पूर्व आदि भेदों की शुद्धि के लिए प्रात:काल में नौ गाथाओं का, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकाल के समय पाँच गाथाओं का स्वाध्याय (पाठ व जाप) करे।273। उत्पात से दिशा का चमकना, मेघों के संघट्ट से उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुष के आकार पंचवर्ण पुद्गलों का दिखना, दुर्गन्ध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझ का समय, बादलों से आच्छादित दिन, चन्द्रमा, ग्रह, सूर्य, राहु के विमानों का आपस में टकराना।274। लड़ाई के वचन, लकड़ी आदि से झगड़ना, आकाश में धुआँ रेखा का दीखना, धरतीकंप, बादलों का गर्जना, महापवन का चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषों के होने पर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए।275। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/113/260 ) - पुद्गल आदिकों के परिणाम की काल संज्ञा कैसे सम्भव है
धवला/4/1,5,1/317/9 पोग्गलादिपरिणामस्स कधं कालववएसो। ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो।=प्रश्न—पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणाम के ‘काल’ यह संज्ञा कैसे सम्भव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण के उपचार के निबन्धन से पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम के भी ‘काल’ संज्ञा का व्यवहार हो सकता है। - दीक्षा शिक्षा आदि कालों में से सर्व ही एक जीव को हों ऐसा नियम नहीं
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/253/22 अत्र कालषट्कमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयकाले केचन तृतीयकालादौ केवलज्ञानमुत्पादयन्तीति कालषट्कनियमो नास्ति।=यहाँ दीक्षादि छ: कालों में से कोई तो प्रथम काल में, कोई द्वितीय काल में, कोई तृतीय आदि काल में केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छ: कालों का नियम नहीं है।
- काल सामान्य का लक्षण (पर्याय)
- निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण
पंचास्तिकाय/24 ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।24।=काल (निश्चय काल) पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, दो गन्ध और आठ स्पर्श रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/22/293/2 ) ( तिलोयपण्णत्ति/4/278 )
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/5 स्वात्मनै व वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वृत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षित: काल:। =(यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है।
सर्वार्थसिद्धि/5/39/312/11 कालस्य पुनर्द्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम् ।...तस्मात्पृथगिह कालोद्देश: क्रियते। अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावन्त: प्रदेशास्तावन्त: कालाणवो निष्क्रिया एकैकाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थित्ता:।...रूपादिगुणविरहादमूर्ता:।=(निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकार के काल में प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है।...काल द्रव्य का पृथक् से कथन किया गया है। शंका—काल अनेक द्रव्य हैं इसका क्या प्रमाण है? उत्तर—लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है। और वह काल रूपादि गुणों से रहित तथा अमूर्तीक है। ( राजवार्तिक/5/22/24/482/2 )
राजवार्तिक/4/14/222/12 कल्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रियावद्द्रव्यं स काल:।=जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य ‘कल्यते, क्षिप्यते, प्रेर्यते’ अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है।
धवला 4/1,5,1/3/315 ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो।3।=वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्य को अन्यरूप से परिणमाता है। किन्तु स्वत: नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले पदार्थों का काल स्वयं सुहेतु होता है।3। ( धवला 11/4,2,6,1/2/76 )
धवला 4/1,5,1/7/317 सब्भावसहावाणं जीवाणं तह ये पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो।7।=सत्ता स्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और ‘च’ शब्द से धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियम से कालद्रव्य कहा गया है।
महापुराण/3/4 यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधश्शिला। तथा काल: पदार्थानां वर्त्तनोपग्रहे मत:।4।=जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुर्इ कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है।
नयचक्र बृहद्/137 परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवेइ परिणामो।=जो निश्चय काल है वही परिणमन करने में कारण होता है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/568 वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेषु। कालाधारेणेव य वट्टंति हु सव्वदव्वाणि।568।=णिच् प्रत्यय संयुक्त धातु का कर्मविषैं वा भावविषैं वर्तना शब्द निपजै है सो याका यहु जो वर्तेवा वर्तना मात्र होइ ताकों वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि को निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाहीं, तातैं तिनकैं तिस प्रवृत्ति करावने कूं कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना काल का उपकार है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9/24/4 पञ्चानां वर्तमानहेतु: काल:।=पाँच द्रव्यों का वर्तना का निमित्त वह काल है।
द्रव्यसंग्रह वृ./मू./21 परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।=वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है।
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/61 वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल:।=वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप ‘निश्चयकाल’ है।
- कालद्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है
तत्त्वार्थसूत्र/5/22,40 वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य।22। सोऽनन्तसमय:।40।=वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।22। वह अनन्त समयवाला है।
तिलोयपण्णत्ति/4/279-282 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेण अमुक्खकालो पयट्टेदि।279। जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं। एदाणं पज्जाया वट्टंते मुक्खकाल आधारे।280। सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। वाहिरहेदुं कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वदरिसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।279। जीव और पुद्गल के विविध प्रकार के परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य काल के आश्रय से वर्तती हैं।280। सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त निश्चय काल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।
राजवार्तिक/5/39/2/501/31 गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा: सन्ति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलघुत्वादय: पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्या:।=काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारणगुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं।
आलापपद्धति/2/99 कालद्रव्ये वर्त्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा:।=कालद्रव्य में वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं। ( धवला 5/33/7 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/133-134 अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य।=(काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रतिपर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है।
- काल द्रव्यगति में भी सहकारी है
तत्त्वार्थसूत्र/5/22 ...क्रिया...च कालस्य।22।=क्रिया में कारण होना, यह काल द्रव्य का उपकार है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य विशेष स्वभाव
नयचक्र बृहद्/70 पंचदसा पुण काले दव्वसहावा य णायव्वा।70।=काल द्रव्य के 15 सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। ( आलापपद्धति/4 ) (वे स्वभाव निम्न हैं—सद्, असद्, नित्य, अनित्य, अनेक, भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त स्वभाव)
- काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है
नियमसार/36 कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा।36।=काल द्रव्य को कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/4 ) ( द्रव्यसंग्रह वृ./मू./25)
प्रवचनसार/ त.प्र/.135 कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। तत: कालद्रव्यमप्रदेशं।=कालाणु तो द्रव्यत: प्रदेश मात्र होने से और पर्यायत: परस्पर सम्पर्क न होने से अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/138 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति।136।=काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं, और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के अनुसार समस्त लोक में ही है। (अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से कालद्रव्य असंख्यात हैं।)
गोम्मटसार जीवकाण्ड/585 एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि।585।=बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुव रूप है, भिन्न–भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है।
- कालद्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् अवस्थित है
धवला/4/1,51/4/315 लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा।4।=लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक एक रूप से स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ सू./589) ( द्रव्यसंग्रह वृ./मू./22)
तिलोयपण्णत्ति/4/283 कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठंते संचएण विणा।283।=अन्योन्य प्रवेश से रहित काल के भिन्न-भिन्न अणु संचय के बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाश में स्थित है। ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/21) ( राजवार्तिक/5/22/24/482/3 ) ( नयचक्र बृहद्/136 )
- काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये
सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/1 स कथं काल इत्यवसीयते। समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिर्निर्वर्त्यमानानां च पाकादीनां समय: पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय: काल: ओदनपाक: काल इति अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेश: तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:। गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।=प्रश्न—कालद्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है? उत्तर—समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढिक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है। ( राजवार्तिक/5/22/6/477/16 ) ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/14 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/134 अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते: स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात् ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/142 तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव किं यौगपद्येन किं क्रमेण, यौगपद्येन चेत् नास्ति यौगपद्यं सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रम:, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्य:, स च समयपदार्थ एव।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/143 विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्ते:। अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव:।=1. (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणान्तर से साध्य होने से (अर्थात् उनके समय से विशिष्ट-परिणति अन्य कारण से होते हैं, इसलिए) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुत्व। संभवित नहीं है। (134) ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका ता.वृ./33)। 2. जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (136/ ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/139 )। 3. यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के (काल रूप पर्याय) ही मानें जायें तो, (प्रश्न होता है कि:–) (1) वे युगपद् हैं या (2) क्रमश: ? (1) यदि ‘युगपत्’ कहा जाय तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते।) (2) यदि ‘क्रमश:’ कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है। इसलिए (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान अवश्य ढूँढना चाहिए। और वह (वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है। (142)। 4. सामान्य अस्तित्व के बिना विशेष अस्तित्व की उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भाव की सिद्धि करता है।
तत्त्वसार/ परि./1/पृ. 172 पर शोलापुर वाले पं. वंशीधरजी ने काफी विस्तार से युक्तियों द्वारा छहों द्रव्यों की सिद्धि की है।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं—
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/144 न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेर्हि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्ते:। =मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/8 समयरूप एव परमार्थकालो न चान्य: कालाणुद्रव्यरूप इति। परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप: प्रसिद्ध: स एव पर्याय: न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वात्पर्यायस्य ‘‘समओ उप्पण्णपद्धंसी’’ ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि। तदपि कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य...। =प्रश्न–समय रूप ही निश्चय काल है, उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है? उत्तर—समय तो कालद्रव्य की सूक्ष्म पर्याय है स्वयंद्रव्य नहीं है। प्रश्न—समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है? उत्तर—पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है ‘‘समय उत्पन्न प्रध्वंसी है’’ इस वचन से समय को पर्यायपना प्राप्त होता है। और वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चय से अविनश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्याय का उपादान कारणभूत कालाणुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/23/49/8 ) (पं.प्र./ही./2/21/136/10) ( द्रव्यसंग्रह वृ.टी./21/61/9)।
- समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्य से क्या प्रयोजन—
राजवार्तिक/5/22/7/477/20 आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्न; किं, कारणम् । तद्गतावपि तत्सद्भावात् । सवितुरपि व्रज्यायां भूतादिव्यवहारविषयभूतायां क्रियेत्येवं रूढायां वर्तनादर्शनात् तद्धेतुना अन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न–आदित्य—सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना हो जावे? उत्तर—ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गति में भी ‘भूत वर्तमान भविष्यत’ आदि अनेक कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए। वही काल है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/16 )।
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/62/2 अथ मतं-समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोतपत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति। ‘‘नैवम् । यथा तन्दुलोपादानकारणोत्पन्नस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगन्ध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यन्ते। तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिम्बरूपै: पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतै: समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणा: प्राप्नुवन्ति, न च तथा। =प्रश्न—समय, घड़ी आदि कालपर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है। उत्तर—ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो काल पर्याय हैं उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं। ( राजवार्तिक/5/22/26-27/482-484 में सविस्तार तर्कादि)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/54/16 यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते।=यद्यपि निश्चय से (समय) द्रव्य काल की पर्याय है, तथापि व्यवहार से परमाणु, जलादि पुद्गलद्रव्य के आश्रय से अर्थात् पुद्गल द्रव्य को निमित्त करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./35/134)।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित्त है, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
राजवार्तिक/5/22/8/477/24 आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतु: कालोऽस्तीति; तन्न; किं कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवत् । यथा भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु तदेव पचति, तेजसो हि स व्यापार:, तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति। कालस्य हि स व्यापार:।=प्रश्न–आकाश प्रदेश के निमित्त से (द्रव्यों में) वर्तना होती है। अन्य कोई ‘काल’ नामक उसका हेतु नहीं है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए तो अग्नि का व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, पर वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/53/3 आदित्यगत्यादिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं। गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत् कारणात् घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत्...इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं। कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् ‘‘पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणेहिं’’ क्रियावन्तो भवन्तीति कथयत्यग्रे। =प्रश्न—सूर्य की गति आदि परिणति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्य की क्या आवश्यकता है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणत के धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्हार चक्र चीवरादि के समान, मत्स्यों की गति में जलादि के समान, मनुष्यों की गति में गाड़ी पर बैठना आदि के समान,...इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गति में कारण है।=प्रश्न—ऐसा कहाँ है? उत्तर—धर्म द्रव्य के विद्यमान होने पर भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदों वाले पुद्गलों के गमन में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। ( पंचास्तिकाय/98 ) ऐसा आगे कहेंगे।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
राजवार्तिक/5/22/9/477/27 सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धेतुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहात् । कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न—सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अत: वर्तना सत्ताहेतुक है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अत: काल पृथक् ही होना चाहिए।
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/65/4 अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते: सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि, कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति। नैवम्; यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै: प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्यं प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते; ततसतेषामपि कालद्रव्यस्येवाभाव: प्राप्नोति। ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोध:।=प्रश्न—(काल की भाँति) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपने-अपने परिणमन सहकारी कारण रहें। उन द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है? उत्तर—ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण, गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष—काल का कार्य तो घड़ी, दिन, आदि प्रत्यक्ष से दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम के कथन से ही जाना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्य का अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/51 )।
- काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/32 में मार्ग प्रकाश से उद्धृत-कालाभावे न भावानां परिणामस्तदन्तरात् । न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते। =काल के अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी; इस प्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/568/1013/12 धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्तिं प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तद्वृत्त्यसंभवात् ।=धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनि की निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान हैं, तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सम्भवै नाहीं। - अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/13 लोकाकाशाद्बहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह—यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लम्बायमानमहावरत्रायां महावेणुदण्डे वा–सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेन्द्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेन्द्रियविषये च सर्वाङ्गेन सुखानुभवो भवति...तथा लोकमध्ये स्थितेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखण्डैकद्रव्यत्वात् ।=प्रश्न–लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव में अलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है? उत्तर—जिस प्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का, या रसना इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/64)।
- स्वयं काल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या है
धवला 4/1,5,1/321/5 कालस्स कालो किं तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा।...अणब्भुवगमा।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण ववहारो जुज्जदे।=प्रश्न–काल का परिणमन कराने वाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य? उत्तर—हम काल के काल को काल से भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँ पर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूप से व्यवहार बन जाता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/19 कालस्य किं परिणतिसहकारिकारणमिति। आकाशस्याकाशाधारवत् ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते: काल एव सहकारिकारणं भवति। =प्रश्न—काल द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है? उत्तर—जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार कालद्रव्य की परिणति में सहकारी कारण स्वयं काल ही है। ( द्रव्यसंग्रह वृ./टी./22/65)
- काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए
श्लोकवार्तिक 2/ भाषाकार 1/4/44-45/148/17=प्रश्न—काल द्रव्य को असंख्यात मानने का क्या कारण है? उत्तर—काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्पर में विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओं की उत्पत्ति में निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थात् कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है।
- काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं
सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/7 वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता काल:। यद्येव कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैष दोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता।=द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे—कण्डे की अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
- कालाणु को अनन्त कैसे कहते हैं
सर्वार्थसिद्धि/5/40/315/6 अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त इत्युपचर्यते।=प्रश्न–[एक कालाणु को भी अनन्त संज्ञा कैसे देते हैं?] उत्तर—अनन्त पर्याय वर्तना गुण के निमित्त से होती हैं, इसलिए एक कालाणु को भी उपचार से अनन्त कहा है।
हरिवंशपुराण/7/10 ...। अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिन:।10। =ये कालाणु अनन्त समयों के उत्पादक होने से अनन्त भी कहे जाते हैं।10।
- कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/139/197/7 एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत: कारणात्तदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं...ज्ञातव्यम् ...ध्येयमिति तात्पर्य्यम् ।=उपरोक्त लक्षणवाले काल के जानने पर भी इस जीव ने परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनन्त काल तक भ्रमण किया है इसलिए निज परमात्मतत्त्व सर्व प्रकार उपादेय रूप से श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है। यह तात्पर्य है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/26/55/20 अत्र व्याख्यानेऽतीतानन्तकाले दुर्लभो योऽसौ शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानन्दैककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं रागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं...विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिरचित्तं च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ:।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/100/160/12 अत्र यद्यपि काललब्धिवशेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणं मोक्षमार्गं प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानन्दैकस्वभावमुपादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न च काल इत्यभिप्राय:।=1. इस व्याख्यान में तात्पर्यार्थ यह है कि अतीत अनन्त काल में दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी चिदानन्दैककालस्वभाव में सम्यक्श्रद्धान, तथा रागादि से भिन्न रूप से भेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसी में स्थिरचित्त करना चाहिए। 2. यद्यपि जीव काललब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करके रागादि से रहित नित्यानन्द एक स्वभाव तथा उपादेयभूत पारमार्थिक सुख को साधता है, परन्तु जीव ही उसका उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है।
द्रव्यसंग्रह वृ./टी./21/63 यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान...तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति।=यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तथापि...निज परमात्म तत्त्व का सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए काल हेय है।
- निश्चय काल का लक्षण
पुराणकोष से
(1) भरत चक्रवर्ती की निधिपाल देवों द्वारा सुरक्षित और अविनाशी नौ निधियों में प्रथम निधि । इससे लौकिक शब्दों-व्याकरण आदि शास्त्रों की तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों वीणा, बांसुरी आदि संगीत की यथासमय उपलब्धि होती रहती थी । महापुराण 37.73-76, हरिवंशपुराण 11. 110-114
(2) गन्धमादन पर्वत से उद्भूत महागन्धवती नदी के समीप भल्लंकी नाम की पल्ली का एक भील । इसने वरधर्म मुनिराज के पास मद्य, मांस और मधु का त्याग किया था । इसके फलस्वरूप यह मरकर विजया पर्वत पर अलका नगरी के राजा पुरबल और उनकी रानी ज्योतिर्माला का हरिबल नाम का पुत्र हुआ था । महापुराण 71. 309-311
(3) भरत खण्ड के दक्षिण का एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पद्मपुराण 101.84-86
(4) विभीषण के साथ राम के आश्रय में आगत विभीषण का शूर सामन्त । यह राम का योद्धा हुआ और इसने रावण के योद्धा चन्द्रनख के साथ युद्ध किया था । पद्मपुराण 55.40-41, 58.12-17 62.26
(5) व्यन्तर देवों के सोलह इन्द्रों में पन्द्रहवाँ इन्द्र । वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-61
(6) पंचम नारद । यह पुरुष सिंह नारायण के समय में हुआ था । इसकी आयु दस लाख वर्ष की थी । अन्य नारदों के समान यह भी कलह का प्रेमी, धर्म-स्नेही, महाभव्य और जिनेन्द्र का भक्त था । हरिवंशपुराण 60.548-550
(7) सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक की पूर्व दिशा में स्थित महानरक । हरिवंशपुराण 4.158
(8) कालोदधि के दक्षिण भाग का रक्षक देव । हरिवंशपुराण 5.638
(9) दिति देवी द्वारा नीम और विनमि को प्रदत्त विद्याओं का एक निकाय । हरिवंशपुराण 22. 59-60
(10) छ: द्रव्यों में एक द्रव्य । यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तथा गुरुत्व और लघुत्व से रहित होता है । वर्तना इसका लक्षण है । अनादिनिधन, अत्यन्त सूक्ष्म और असंख्येय यह काल सभी द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के घूमने में सहायक कील के समान सहकारी कारण होता है । महापुराण 3. 2-4, 24.139-140, हरिवंशपुराण 7.1, 58.56 इसके अणु परस्पर एक दूसरे से नहीं मिलते इसलिए यह अकाय है तथा शेष पांचों द्रव्य― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं इसलिए वे अस्तिकाय हैं । यह धर्म, अधर्म और आकाश की भाँति अमूर्तिक है । इसके दो भेद हैं― मुख्य (निश्चय) और व्यवहार । इनमें व्यवहारकाल-मुख्यकाल के आश्रय से उत्पन्न उसी की पर्याय है । यह भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप होकर यह संसार का व्यवहार चलाता है समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि इसके अनेक भेद है । महापुराण 3.7-12, 24.139-144 परमाणु जितने समय में अपने प्रदेश का उल्लंघन करता है, उतने समय का एक समय होता है । यह अविभागी होता है । इसके आधार से होने वाला व्यवहार निम्न प्रकार है―
असंख्यात समय = एक आवलि
संख्यात आवीरू = एक उच्छ्वास-नि:श्वास
दो उच्छ्वास-निःश्वास = एक प्राण
सात प्राण = एक स्तोक
सात स्तोक = एक लव
सतहत्तर लव = एक मुहूर्त
तीस मुहूर्त = एक अहोरात्र
पन्द्रह अहोरात्र = एक पक्ष
दा पक्ष = एक मास
दो मास = एक ऋतु
तीन ऋतु = एक अयन
दो अयन = एक वर्ष
पांच वर्ष = एक युग
दो युग = दस वर्ष
दस वर्ष × 10 = सौ वर्ष
100 वर्ष × 10 = हजार वर्ष
1000 वर्ष × 10 = दस हजार वर्ष
दस हजार वर्ष × 10 = एक लाख वर्ष
एक लाख वर्ष × 84 = एक पूर्वांग
84 लाख पूर्वांग = एक पूर्व
84 लाख पूर्व = एक नियुतांग
84 लाख नियुतांग = एक नियुत
84 लाख नियुत = एक कुमुदांग
84 लाख कुमुदांग = एक कुमुद
84 लाख कुमुद = एक पद्मांग
84 लाख पद्मांग = एक पद्म
84 लाख पद्म = एक नलिनांग
84 नलिनांग = एक नलिन
84 लाख नलिन = एक कमलांग
84 लाख कमलांग = एक कमल
84 लाख कमल = एक तुट्यांग
84 लाख तुट्यांग = एक तुट्य
84 लाख तुट्य = एक अंट्टांग
84 लाख अटटांग = एक अटट
84 लाख अटट = एक अममांग
84 लाख अममांग = एक अमम
84 लाख = एक ऊहांग
84 लाख ऊहांग = एक ऊह
84 लाख ऊह = एक लतांग
84 लाख लतांग = एक लता
84 लाख लता = एक महालतांग
84 लाख महालतांग = एक महालता
84 लाख महालता = एक शिर: प्रकम्पित
84 लाख शिर: प्रकम्पित = एक हस्त प्रहेलिका
84 लाख हस्त प्रहेलिका = चर्चिका
यह चर्चिका आदि रूप में परिभाषित काल संख्यात है तथा संख्यात वर्ष से अतिक्रान्त काल असंख्येय काल होता है । इससे पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक काल-परिणाम बनते हैं । 7.17-31 इस व्यवहार काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो भेद भी है । दोनों मे प्रत्येक का काल-प्रमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर होता है । दोनों का काल बीस कोड़ाकोड़ी होता है जिसे एक कल्प कहते हैं । महापुराण 3. 14-15