वेद: Difference between revisions
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<p>व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं । यह दो प्रकार का है-भाव व द्रव्यवेद । जीव के उपरोक्त भाव तो भाववेद हैं और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद हैं । द्रव्यवेद जन्म | <p>व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं । यह दो प्रकार का है-भाव व द्रव्यवेद । जीव के उपरोक्त भाव तो भाववेद हैं और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद हैं । द्रव्यवेद जन्म पर्यंत नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है । द्रव्य वेद से पुरुष को ही मुक्ति संभव है पर भाववेद से तीनों को मोक्ष हो सकता है । <br /> | ||
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<li>[[वेद निर्देश#2.4 | तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है । ]]<br /> | <li>[[वेद निर्देश#2.4 | तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है । ]]<br /> | ||
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<li>वेद मार्गणा में कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें [[ वह ]]वह नाम । <br /> | <li>वेद मार्गणा में कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें [[ वह ]]वह नाम । <br /> | ||
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<li> पुरुषादि वेद कर्मों का | <li> पुरुषादि वेद कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें [[ वह ]]वह नाम । <br /> | ||
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<li> मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।–देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | <li> मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।–देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | ||
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<li>[[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.4 | मनुष्य मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य का प्रयोग । ]]<br /> | <li>[[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.4 | मनुष्य मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य का प्रयोग । ]]<br /> | ||
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<li>[[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.5 | उपरोक्त शब्दों के | <li>[[तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय #3.5 | उपरोक्त शब्दों के सैद्धांतिक अर्थ । ]]<br /> | ||
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<li><strong>[[ द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li><strong>[[ द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध ]]<br /> | ||
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<li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध#4.1 | दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध#4.2 | दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान । ]]<br /> | ||
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<li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध#4.3 | चारों गतियों की अपेक्षा दोनों में समानता और असमानता । ]]<br /> | ||
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<li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध#4.4 | भाववेद में परिवर्तन संभव है । ]]<br /> | ||
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<li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर | <li>[[द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध#4.5 | द्रव्यवेद में परिवर्तन संभव नहीं । ]]<br /> | ||
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<li> साधु के द्रव्य व भावलिंग | <li> साधु के द्रव्य व भावलिंग संबंधी चर्चा व समन्वय ।–देखें [[ लिंग ]]। <br /> | ||
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<li> वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | <li> वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | ||
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<li> वेद मार्गणा के स्वामी | <li> वेद मार्गणा के स्वामी संबंधी सत् संख्या क्षेत्रकाल भाव व अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ ।–देखें [[ वह ]]वह नाम । <br /> | ||
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<li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.4 | कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं । ]]<br /> | <li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.4 | कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.5 | | <li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.5 | एकेंद्रियों में वेदभाव की सिद्धि । ]]<br /> | ||
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<li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.6 | चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे ।]] <br /> | <li>[[गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व #5.6 | चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे ।]] <br /> | ||
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<li>[[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.1 | सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश । ]]<br /> | <li>[[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.1 | सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश । ]]<br /> | ||
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<li>[[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.2 | अप्रशस्त वेदों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि | <li>[[वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान#6.2 | अप्रशस्त वेदों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यंत अल्प होते हैं । ]]<br /> | ||
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<li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.1 | स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं । ]]<br /> | <li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.1 | स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं । ]]<br /> | ||
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<li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.2 | फिर भी | <li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.2 | फिर भी भवांतर में मुक्ति की अभिलाषा से जिनदीक्षा लेती है ।]] <br /> | ||
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<li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.3 | तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु उसका चंचल व प्रमादबहुल स्वभाव ।]] <br /> | <li>[[स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध#7.3 | तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु उसका चंचल व प्रमादबहुल स्वभाव ।]] <br /> |
Revision as of 16:36, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं । यह दो प्रकार का है-भाव व द्रव्यवेद । जीव के उपरोक्त भाव तो भाववेद हैं और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद हैं । द्रव्यवेद जन्म पर्यंत नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है । द्रव्य वेद से पुरुष को ही मुक्ति संभव है पर भाववेद से तीनों को मोक्ष हो सकता है ।
- भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान
- स्त्री आदि वेदों के लक्षण ।–देखें वह वह नाम ।
- साधु के द्रव्यभाव लिंग ।–देखें लिंग ।
- स्त्री आदि वेदों के लक्षण ।–देखें वह वह नाम ।
- वेद निर्देश
- वेद कषाय रागरूप है ।–देखें कषाय - 4 ।
- जीव को वेद ब्यपदेश ।–देखें जीव - 2.3 ।
- वेद व मैथुन संज्ञा में अंतर ।–देखें संज्ञा ।
- तीनों वेदों के बंध योग्य परिणाम ।–देखें मोहनीय - 3.6 ।
- वेद मार्गणा में कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें वह वह नाम ।
- पुरुषादि वेद कर्मों का बंध उदय सत्त्व–देखें वह वह नाम ।
- मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम ।–देखें मार्गणा ।
- वेद कषाय रागरूप है ।–देखें कषाय - 4 ।
- तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय
- द्रव्य व भाववेद में परस्पर संबंध
- साधु के द्रव्य व भावलिंग संबंधी चर्चा व समन्वय ।–देखें लिंग ।
- गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व
- वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ ।–देखें सत् ।
- वेद मार्गणा के स्वामी संबंधी सत् संख्या क्षेत्रकाल भाव व अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ ।–देखें वह वह नाम ।
- नरक में केवल नपुंसकवेद होता है ।
- भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं ।
- कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूच्छम तिर्यंचों में केवल नपुंसकवेद होता है ।
- कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं ।
- एकेंद्रियों में वेदभाव की सिद्धि ।
- चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे ।
- विग्रहगति में अव्यक्त वेद होता है ।
- वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ ।–देखें सत् ।
- वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान
- सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश ।
- अप्रशस्त वेदों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यंत अल्प होते हैं ।
- सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश ।
- स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध
- स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं ।
- फिर भी भवांतर में मुक्ति की अभिलाषा से जिनदीक्षा लेती है ।
- तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु उसका चंचल व प्रमादबहुल स्वभाव ।
- तद्भव मुक्तिनिषेध में हेतु सचेलता ।
- स्त्री को भी कदाचित् नग्न रहने की आज्ञा ।–देखें लिंग - 1.4 ।
- आर्यिका को महाव्रती कैसे कहते हो ।
- फिर मनुष्यणी को 14 गुणस्थान कैसे कहे गये ।
- स्त्री के सवस्त्रलिंग में हेतु ।
- मुक्तिनिषेध में हेतु उत्तम संहननादि का अभाव ।
- मुक्ति निषेध में हेतु शुक्लध्यान का अभाव ।–देखें शुक्लध्यान - 3 ।
- स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं ।
पुराणकोष से
(1) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । हरिवंशपुराण 1.83
(2) वेदनीय कर्म-परिणाम । ये तीन प्रकार के होते हैं― स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । महापुराण 20.245
(3) निर्दोष श्रुत । इसके दो भेद हैं― आर्षवेद और अनार्षवेद । इनमें भगवान ऋषभदेव द्वारा दर्शाया गया द्वादशांग-श्रुत आर्षवेद और हिंसा आदि की प्रेरणा देने वाले शास्त्राभास अनार्षवेद माने गये हैं । हरिवंशपुराण 23.33-34, 42-43, 140