आबाधा: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 2: | Line 2: | ||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा निर्देश </LI> </OL> | <OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा निर्देश </LI> </OL> | ||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा कालका लक्षण </LI> </OL> | <OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा कालका लक्षण </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४८/४ ण बाधा अबाधा, अबाधा चैव आबाधा। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४८/४ ण बाधा अबाधा, अबाधा चैव आबाधा। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= बाधाके अभावको अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है।</p> | <p class="HindiSentence">= बाधाके अभावको अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है।</p> | ||
[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या १५५ कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण। रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाव ताव हवे।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या १५५ कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण। रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाव ताव हवे।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= कार्माण शरीर नामा नामकर्मके उदय तैं अर जीवके प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमितकरि कार्माण वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्माके प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बन्ध रूपकरि जे तिष्ठे हैं ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्तै तिसकालको आबाधा कहिए। </p> | <p class="HindiSentence">= कार्माण शरीर नामा नामकर्मके उदय तैं अर जीवके प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमितकरि कार्माण वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्माके प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बन्ध रूपकरि जे तिष्ठे हैं ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्तै तिसकालको आबाधा कहिए। </p> | ||
([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ९१४)<br> | ([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ९१४)<br> | ||
[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या २५३/५२३/४ तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबंधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपरममात्रस्य प्रथमसमयादारभ्य सप्तसहस्रवर्षकालपर्यन्तमाबाधेति।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या २५३/५२३/४ तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबंधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपरममात्रस्य प्रथमसमयादारभ्य सप्तसहस्रवर्षकालपर्यन्तमाबाधेति।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= तहाँ विवक्षित कोई एक समय विषै बन्ध्या कार्माणका समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोड़ाकोड़ि सागरकी बंधी तिस स्थितिके पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यन्त तौ आबाधा काल है तहाँ कोई निर्जरा न होई तातै कोई निषेक रचना नाहीं।</p> | <p class="HindiSentence">= तहाँ विवक्षित कोई एक समय विषै बन्ध्या कार्माणका समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोड़ाकोड़ि सागरकी बंधी तिस स्थितिके पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यन्त तौ आबाधा काल है तहाँ कोई निर्जरा न होई तातै कोई निषेक रचना नाहीं।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा स्थानका लक्षण </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा स्थानका लक्षण </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६.५०/१६२/९ जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादी सोहिय सद्धसेसेम्मि एगरूवे पक्खित्ते आबाहाट्ठाणं। एसत्थो सव्वत्थपरूवेदव्वो।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६.५०/१६२/९ जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादी सोहिय सद्धसेसेम्मि एगरूवे पक्खित्ते आबाहाट्ठाणं। एसत्थो सव्वत्थपरूवेदव्वो।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= उत्कृष्ट आबाधामें-से जघन्य आबाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देनेपर आबाधा स्थान होता है। इस अर्थकी प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।</p> | <p class="HindiSentence">= उत्कृष्ट आबाधामें-से जघन्य आबाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देनेपर आबाधा स्थान होता है। इस अर्थकी प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।</p> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा काण्डकका लक्षण </LI> </OL> | <OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा काण्डकका लक्षण </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४९/१ कधमाबाधाकंडयस्सुप्पत्ती। उक्कस्साबाधं विरलिय उक्कस्सट्ठिदिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कंडयपमाणं पावेदि।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४९/१ कधमाबाधाकंडयस्सुप्पत्ती। उक्कस्साबाधं विरलिय उक्कस्सट्ठिदिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कंडयपमाणं पावेदि।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आबाधा काण्डककी उत्पत्ति कैसे होती है? <br> <b>उत्तर</b> - उत्कृष्ट आबाधाको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खंड करके एक-एक रूपके प्रति देनेपर आबाधा काण्डकका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-मान लो उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; आबाधा ३ समय। तो १० १० १०\१ १ १ अर्थात ३०\३ = १० यह आबाधा काण्डकका प्रमाण हुआ। और उक्त स्थितिबन्धके भीतर ३ आबाधाके भेद हुए।</p> | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आबाधा काण्डककी उत्पत्ति कैसे होती है? <br> <b>उत्तर</b> - उत्कृष्ट आबाधाको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खंड करके एक-एक रूपके प्रति देनेपर आबाधा काण्डकका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-मान लो उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; आबाधा ३ समय। तो १० १० १०\१ १ १ अर्थात ३०\३ = १० यह आबाधा काण्डकका प्रमाण हुआ। और उक्त स्थितिबन्धके भीतर ३ आबाधाके भेद हुए।</p> | ||
विशेषार्थ - कर्म स्थितिके जितने भेदोंमें एक प्रमाण वाली आबाधा है. उतने स्थितिके भेदोंको आबाधा काण्डटक कहते है।<br> | विशेषार्थ - कर्म स्थितिके जितने भेदोंमें एक प्रमाण वाली आबाधा है. उतने स्थितिके भेदोंको आबाधा काण्डटक कहते है।<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१७/१४३/४ अप्पण्णो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पण्णो समऊणजहण्णट्टिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाधाकंदयमागच्छदि।...सगसगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सट्ठिदीए ओवटिट्दाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि।<br> | [[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१७/१४३/४ अप्पण्णो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पण्णो समऊणजहण्णट्टिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाधाकंदयमागच्छदि।...सगसगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सट्ठिदीए ओवटिट्दाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि।<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२२/२६८/२ आबाहचरिमसमयं णिरुंभिदूण उक्कस्सियं ट्ठिदिं बंधदि। तत्तो समऊणं पि बंधदि। एवं दुसणऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेगूणाट्ठिदि त्ति। एवमेदेण आवाहाचरिमसमएणबंधपाओग्गट्ठिदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरुं भणं कादूण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परूवेदव्वं। आबाहाए तिचरिमसमयणिरुं भणं कादूण पुव्वं व तदिओ आबाहाकंदओ परूवेदव्वो। एवं णेयव्वं जाव जहण्णिया ट्ठिदि त्ति। एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा।<br> | [[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२२/२६८/२ आबाहचरिमसमयं णिरुंभिदूण उक्कस्सियं ट्ठिदिं बंधदि। तत्तो समऊणं पि बंधदि। एवं दुसणऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेगूणाट्ठिदि त्ति। एवमेदेण आवाहाचरिमसमएणबंधपाओग्गट्ठिदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरुं भणं कादूण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परूवेदव्वं। आबाहाए तिचरिमसमयणिरुं भणं कादूण पुव्वं व तदिओ आबाहाकंदओ परूवेदव्वो। एवं णेयव्वं जाव जहण्णिया ट्ठिदि त्ति। एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा।<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२८/२७१/३ एगेगाबाहट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदिबंधट्ठाणाणमाबाहाकंदयसण्णिदाणं।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२८/२७१/३ एगेगाबाहट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदिबंधट्ठाणाणमाबाहाकंदयसण्णिदाणं।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= १. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधाका अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डकका प्रमाण आता है। २...अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधाका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डक आता है। ३. आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थिति विशेषोंकी एक आबाधा काण्डक संज्ञा है। यह अभिप्राय है। आबाधाके द्विचरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकारकी द्वितीय आबाधा काण्डककी प्ररूपणा करना चाहिए। आबाधाके त्रिचरम समयकी विवक्षा करके पहिलेके समान तृतीय आबाधाकाण्डककी प्रूपणा करना चाहिए। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिए। इस सूत्रके द्वारा एक आबाधा काण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणाकी गयी है। एक-एक आबाधा स्थान सम्बन्धी जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्ध स्थान हैं उनकी आबाधा काण्डकी संज्ञा है।</p> | <p class="HindiSentence">= १. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधाका अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डकका प्रमाण आता है। २...अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधाका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डक आता है। ३. आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थिति विशेषोंकी एक आबाधा काण्डक संज्ञा है। यह अभिप्राय है। आबाधाके द्विचरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकारकी द्वितीय आबाधा काण्डककी प्ररूपणा करना चाहिए। आबाधाके त्रिचरम समयकी विवक्षा करके पहिलेके समान तृतीय आबाधाकाण्डककी प्रूपणा करना चाहिए। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिए। इस सूत्रके द्वारा एक आबाधा काण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणाकी गयी है। एक-एक आबाधा स्थान सम्बन्धी जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्ध स्थान हैं उनकी आबाधा काण्डकी संज्ञा है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा सम्बन्धी कुछ नियम- </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आबाधा सम्बन्धी कुछ नियम- </LI> </OL> | ||
Line 44: | Line 44: | ||
नोट - उदीरणाकी अपेक्षा जघन्य आबाधा, सर्वत्र आवली मात्र जानना, क्योंकि बन्ध हुए पीछे इतने काल पर्यन्त उदीरणा नहीं हो सकती।<br> | नोट - उदीरणाकी अपेक्षा जघन्य आबाधा, सर्वत्र आवली मात्र जानना, क्योंकि बन्ध हुए पीछे इतने काल पर्यन्त उदीरणा नहीं हो सकती।<br> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> एक कोड़ाकोडी सागर १०० वर्ष होती है </LI> </OL> | <OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> एक कोड़ाकोडी सागर १०० वर्ष होती है </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,३१/१७२/८ सागरोवमकोडोकाडीए वाससदमाबाधा होदि।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,३१/१७२/८ सागरोवमकोडोकाडीए वाससदमाबाधा होदि।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी आबाधा सौ वर्ष होती है।</p> | <p class="HindiSentence">= एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी आबाधा सौ वर्ष होती है।</p> | ||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> इससे कम स्थितियोंकी आबाधा निकालनेकी विशेष प्रक्रिया </LI> </OL> | <OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> इससे कम स्थितियोंकी आबाधा निकालनेकी विशेष प्रक्रिया </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-७,४/१८३/६ सग-सगजादि पडिबद्धाबाधाकंडएहि सगसगट्ठिदीसु ओवट्टिदासु सग सग आबाधासमुप्पत्तीदो। ण च सव्वजादीसु आबाधाकंडयाणं सरिसत्तं, संखेज्जवस्सट्ठदिबंधेसु अंतोमुहुत्तमेत्तआबाधोवट्ठिदेसु संखेज्जसमयमेत्तआबाधाकंडयदंसणादो। तदो संखेज्जरूवेहि जहण्णट्ठिदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेगट्ठिदीदो संखेज्ज गुणहीणा जहण्णाबाधा होदि।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-७,४/१८३/६ सग-सगजादि पडिबद्धाबाधाकंडएहि सगसगट्ठिदीसु ओवट्टिदासु सग सग आबाधासमुप्पत्तीदो। ण च सव्वजादीसु आबाधाकंडयाणं सरिसत्तं, संखेज्जवस्सट्ठदिबंधेसु अंतोमुहुत्तमेत्तआबाधोवट्ठिदेसु संखेज्जसमयमेत्तआबाधाकंडयदंसणादो। तदो संखेज्जरूवेहि जहण्णट्ठिदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेगट्ठिदीदो संखेज्ज गुणहीणा जहण्णाबाधा होदि।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= अपनी-अपनी जातियोंमें प्रतिबद्ध आबाधा काण्डकोंके द्वारा अपनी-अपनी स्थितियोंके अपवर्तित करनेपर अपनी-अपनी अर्थात् विवक्षित प्रकृतियोंकी, आबाधा उत्पन्न होती है। तथा, सर्व जातिवाली प्रकृतियोंमें आबाधाकाण्डकों के सदृशता नहीं है, क्योंकि संख्यात् वर्षवाले स्थिति बन्धोमें अन्तर्मूहूर्तमात्र आबाधासे अपवर्तन करनेपर संख्यात समयमात्र आबाधाकाण्डक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इसलिए संख्यात रूपोंसे जघन्य स्थितिमें भाग देनेपर निषेक स्थितिसे संख्यातगुणित हीन संख्यात आवलिमात्र जघन्य आबाधा होती है।</p> | <p class="HindiSentence">= अपनी-अपनी जातियोंमें प्रतिबद्ध आबाधा काण्डकोंके द्वारा अपनी-अपनी स्थितियोंके अपवर्तित करनेपर अपनी-अपनी अर्थात् विवक्षित प्रकृतियोंकी, आबाधा उत्पन्न होती है। तथा, सर्व जातिवाली प्रकृतियोंमें आबाधाकाण्डकों के सदृशता नहीं है, क्योंकि संख्यात् वर्षवाले स्थिति बन्धोमें अन्तर्मूहूर्तमात्र आबाधासे अपवर्तन करनेपर संख्यात समयमात्र आबाधाकाण्डक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इसलिए संख्यात रूपोंसे जघन्य स्थितिमें भाग देनेपर निषेक स्थितिसे संख्यातगुणित हीन संख्यात आवलिमात्र जघन्य आबाधा होती है।</p> | ||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> एक आबाधाकाण्डक घटनेपर एक समय स्थिति घटती है </LI> </OL> | <OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> एक आबाधाकाण्डक घटनेपर एक समय स्थिति घटती है </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९,५/१४९/४ एगाबाधाकंडएणूणउक्कस्सट्ठिदिंबंधमाणस्ससमऊणतिण्णिवाससहस्साणि आबाधा होदि। एदेण सरूवेण सव्वट्ठिदीणं पि आबाधापरूवणं जाणिय कादव्वं। णवरि दोहिं आबाधाकंडएहि अणियमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सरिया दुसमऊणा होदि। तीहि आबाधाकंडएहि ऊणियमुक्कस्सट्ठिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कसिया तिसमऊणा। चउहि..चदुसमऊणा। एवं णेदव्वं जाव जहण्णट्ठिदि त्ति। सव्वाबाधाकंडएसु वीचारट्ठाणत्तं पत्तेसु समऊणाबाधाकंडयमेत्तट्ठिदोणमवट्ठिदा आबाधा होदि त्ति घेत्तव्वं।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९,५/१४९/४ एगाबाधाकंडएणूणउक्कस्सट्ठिदिंबंधमाणस्ससमऊणतिण्णिवाससहस्साणि आबाधा होदि। एदेण सरूवेण सव्वट्ठिदीणं पि आबाधापरूवणं जाणिय कादव्वं। णवरि दोहिं आबाधाकंडएहि अणियमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सरिया दुसमऊणा होदि। तीहि आबाधाकंडएहि ऊणियमुक्कस्सट्ठिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कसिया तिसमऊणा। चउहि..चदुसमऊणा। एवं णेदव्वं जाव जहण्णट्ठिदि त्ति। सव्वाबाधाकंडएसु वीचारट्ठाणत्तं पत्तेसु समऊणाबाधाकंडयमेत्तट्ठिदोणमवट्ठिदा आबाधा होदि त्ति घेत्तव्वं।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= एक आबाधा काण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले समयप्रबद्धके एक समय कम तीन हजार वर्षकी आबाधा होती है। इसी प्रकार सर्व कर्म स्थितियोंकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि दो आबाधा काण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके समय प्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है। तीन आबाधाकाण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिकों बाँधनेवाले जीवके समयप्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा तीन समय तक होती है। चार आबाधा काण्डकोंसे हीनवालेके उत्कृष्ट आबाधा चार समय कम होती है। इस प्रकार यह क्रम विवक्षित कर्मकी जघन्य स्थिति तक ले जना चाहिए। इस प्रकार सर्वआबाधा काण्डकोंके विचारस्थानत्व अर्थात स्थिति भेदोंको, प्राप्त होनेपर एक समय कम आबाधा काण्डकमात्र स्थितियोंकी आबाधा अवस्थित अर्थात् एक सी होती है, यह अर्थ जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiSentence">= एक आबाधा काण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले समयप्रबद्धके एक समय कम तीन हजार वर्षकी आबाधा होती है। इसी प्रकार सर्व कर्म स्थितियोंकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि दो आबाधा काण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके समय प्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है। तीन आबाधाकाण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिकों बाँधनेवाले जीवके समयप्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा तीन समय तक होती है। चार आबाधा काण्डकोंसे हीनवालेके उत्कृष्ट आबाधा चार समय कम होती है। इस प्रकार यह क्रम विवक्षित कर्मकी जघन्य स्थिति तक ले जना चाहिए। इस प्रकार सर्वआबाधा काण्डकोंके विचारस्थानत्व अर्थात स्थिति भेदोंको, प्राप्त होनेपर एक समय कम आबाधा काण्डकमात्र स्थितियोंकी आबाधा अवस्थित अर्थात् एक सी होती है, यह अर्थ जानना चाहिए।</p> | ||
उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति ६४ समय और उत्कृष्ट आबाधा १६ समय है। अतएव आबाधाकाण्डका प्रमाम ६४\१६ = ४ होगा।<br> | उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति ६४ समय और उत्कृष्ट आबाधा १६ समय है। अतएव आबाधाकाण्डका प्रमाम ६४\१६ = ४ होगा।<br> | ||
Line 63: | Line 63: | ||
इन्हीं विचार स्थानोंसे उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थितिकी क्रम हानि भी इतने ही स्थानोंमें होती है।<br> | इन्हीं विचार स्थानोंसे उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थितिकी क्रम हानि भी इतने ही स्थानोंमें होती है।<br> | ||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> क्षपक श्रेणीमें आबाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त होती है </LI> </OL> | <OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> क्षपक श्रेणीमें आबाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त होती है </LI> </OL> | ||
[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/३,२२/$३८०/२१०/३ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं जदि सत्तावाससहस्समेत्ताबाहा लम्भदि तो अट्ठण्हं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि तेण अट्ठण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुहूत्तमेत्ता त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/३,२२/$३८०/२१०/३ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं जदि सत्तावाससहस्समेत्ताबाहा लम्भदि तो अट्ठण्हं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि तेण अट्ठण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुहूत्तमेत्ता त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - सत्तरि कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिकी यदि सात हजार प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थितिकी कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर चूँकि एक समयका संख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्षकी आबाधा अन्तर्मूहूर्त प्रमाण होती है, यह कथन नहीं बनता है? <br> <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थाको छोड़ कर क्षपक श्रेणीमें इस प्रकारका नियम नहीं पाया जाता है।</p> | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - सत्तरि कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिकी यदि सात हजार प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थितिकी कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर चूँकि एक समयका संख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्षकी आबाधा अन्तर्मूहूर्त प्रमाण होती है, यह कथन नहीं बनता है? <br> <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थाको छोड़ कर क्षपक श्रेणीमें इस प्रकारका नियम नहीं पाया जाता है।</p> | ||
<OL start=7 class="HindiNumberList"> <LI> उदीरणाकी आबाधा आवली मात्र ही होती है </LI> </OL> | <OL start=7 class="HindiNumberList"> <LI> उदीरणाकी आबाधा आवली मात्र ही होती है </LI> </OL> | ||
[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ९१८/११०३ आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माणं ।।९१८।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ९१८/११०३ आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माणं ।।९१८।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= उदीरणाका आश्रय करि आयु बिना सात कर्मकी आबाधा आवली मात्र है बंधे पीछैं उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हौ जाई।</p> | <p class="HindiSentence">= उदीरणाका आश्रय करि आयु बिना सात कर्मकी आबाधा आवली मात्र है बंधे पीछैं उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हौ जाई।</p> | ||
<OL start=8 class="HindiNumberList"> <LI> भुज्यमान आयुका शेष भाग ही बद्ध्यमान आयुकी आबाधा है </LI> </OL> | <OL start=8 class="HindiNumberList"> <LI> भुज्यमान आयुका शेष भाग ही बद्ध्यमान आयुकी आबाधा है </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२२/१६६/९ एवमाउस्स आबाधा णिसेयट्ठिदी अण्णोण्णायत्तादो ण होंति त्ति जाणावणट्ठं णियेसट्ठिदी चेव परूविदा। पुव्वकोडितिभागमादिं कादूण जाव असंखेपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि त्ति उत्तं होदि।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२२/१६६/९ एवमाउस्स आबाधा णिसेयट्ठिदी अण्णोण्णायत्तादो ण होंति त्ति जाणावणट्ठं णियेसट्ठिदी चेव परूविदा। पुव्वकोडितिभागमादिं कादूण जाव असंखेपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि त्ति उत्तं होदि।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= उस प्रकार आयुकर्मकी आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरेके अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मोंकी होती है)। ...इसका यह अर्थ होता है कि पूर्वकोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात् तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात् जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्रकाल तक जितने आबाधा कालके विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है। (अर्थात् देव और नरकायुकी आबाधा मनुष्य व तिर्यञ्चोंके बद्ध्यमान भवमें ही पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कर्मोंकी आबाधाके सम्बन्धमें भी यथायोग्य जानना।</p> | <p class="HindiSentence">= उस प्रकार आयुकर्मकी आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरेके अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मोंकी होती है)। ...इसका यह अर्थ होता है कि पूर्वकोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात् तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात् जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्रकाल तक जितने आबाधा कालके विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है। (अर्थात् देव और नरकायुकी आबाधा मनुष्य व तिर्यञ्चोंके बद्ध्यमान भवमें ही पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कर्मोंकी आबाधाके सम्बन्धमें भी यथायोग्य जानना।</p> | ||
गो.क.भाषा १६०/१९५/१२ आयु कर्मकी आबाधा तो पहला भवमें होय गई पीछे जो पर्याय धस्या तहाँ आयु कर्मकी स्थितिके जेते निषैक हैं तिन सर्व समयनि विषैं प्रथम समयस्यों लगाय अन्त समय पर्यन्त समय-समय प्रति परमाणू क्रमतैं खिरै हैँ।<br> | गो.क.भाषा १६०/१९५/१२ आयु कर्मकी आबाधा तो पहला भवमें होय गई पीछे जो पर्याय धस्या तहाँ आयु कर्मकी स्थितिके जेते निषैक हैं तिन सर्व समयनि विषैं प्रथम समयस्यों लगाय अन्त समय पर्यन्त समय-समय प्रति परमाणू क्रमतैं खिरै हैँ।<br> | ||
<OL start=9 class="HindiNumberList"> <LI> आयुकर्मकी आबाधा सम्बन्धी शंका समाधान </LI> </OL> | <OL start=9 class="HindiNumberList"> <LI> आयुकर्मकी आबाधा सम्बन्धी शंका समाधान </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२६/६/१६९/१० पुव्वकोडितिभागादो आबाधा अहिया किण्ण होदि। उच्चदे-ण तावदेव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउट्ठिदिएसु पुव्वकोडितिभागादो अधिया आबाधा अत्थि, तेसिं छम्मासावसेसे भुञ्जमाणाउए असंखेपाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअबंधमाणाणं तदसंभवा। णं तिरिक्ख-मणुसेसु वि तदो अहिया आबाधा अत्थि, तत्थ पुव्वकोडीदो अहियामवट्ठिदीए अभावा। असंखेज्जवसाऊ तिरिक्ख मणुसा अत्थि त्ति चे ण, तेसिं देव-णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभवियआउअस्स बंधाभावा।<br> | [[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२६/६/१६९/१० पुव्वकोडितिभागादो आबाधा अहिया किण्ण होदि। उच्चदे-ण तावदेव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउट्ठिदिएसु पुव्वकोडितिभागादो अधिया आबाधा अत्थि, तेसिं छम्मासावसेसे भुञ्जमाणाउए असंखेपाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअबंधमाणाणं तदसंभवा। णं तिरिक्ख-मणुसेसु वि तदो अहिया आबाधा अत्थि, तत्थ पुव्वकोडीदो अहियामवट्ठिदीए अभावा। असंखेज्जवसाऊ तिरिक्ख मणुसा अत्थि त्ति चे ण, तेसिं देव-णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभवियआउअस्स बंधाभावा।<br> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-७,३१/१९३/५ पुव्वकोडितिभागे वि भुज्जमाणाउए संते देवणेरइयदसवाससहस्सआउट्ठिदिबंधसंभवादो पुव्वकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एवं संते जहण्णट्ठिदिए अभावप्पसंगादो।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-७,३१/१९३/५ पुव्वकोडितिभागे वि भुज्जमाणाउए संते देवणेरइयदसवाससहस्सआउट्ठिदिबंधसंभवादो पुव्वकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एवं संते जहण्णट्ठिदिए अभावप्पसंगादो।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आयुकर्मकी आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागमें अधिक क्यों नहीं होती? <br> <b>उत्तर</b> - (मनुष्यों और तिर्यंचोंमें बन्ध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शंका उठती ही नहीं) और न ही अनेक सागरोपमकी आयु में स्थितिवाले देव और नारकियोंमें पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योंकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम) असंक्षेपाद्धा कालके अवशेष रहनेपर आगामीभव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले उन देव और नारकियोंके पूर्व कोटिको त्रिभागसे अधिक आबाधा का होना असम्भव है। न तिर्यञ्ज और मनुष्योंमें भी इससे अधिक आबाधा सम्भव हैं, क्योंकि उनमें पूर्व कोटिसे अधिक भवस्थितिका अभाव है। <br> <b>प्रश्न</b> - (भोग भूमियोंमें) असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच और मनुष्य होते हैं। (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधाका होना सम्भव क्यों नहीं है?) <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, उनके देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर भवसम्बन्धी आयुके बन्धका अभाव है, (अतएव पूर्व कोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना सम्भव नहीं है) (क्रमशः) <br> <b>प्रश्न</b> - भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहनेपर भी देव और नारक सम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयु स्थिति का बन्ध सम्भव है, फिर `पूर्वकोटिका त्रिभाग आबाधा' है ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्यस्थितिके अभावका प्रसंग आता है अर्थात् पूर्वकोटिका त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थितिबन्ध के साथ सम्भव तो है, पर जघन्य कर्म स्थितिका प्रमाणलाने के लिए तो जघन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिए, उत्कृष्ट नहीं।</p> | <p class="HindiSentence">= <br> <b>प्रश्न</b> - आयुकर्मकी आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागमें अधिक क्यों नहीं होती? <br> <b>उत्तर</b> - (मनुष्यों और तिर्यंचोंमें बन्ध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शंका उठती ही नहीं) और न ही अनेक सागरोपमकी आयु में स्थितिवाले देव और नारकियोंमें पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योंकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम) असंक्षेपाद्धा कालके अवशेष रहनेपर आगामीभव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले उन देव और नारकियोंके पूर्व कोटिको त्रिभागसे अधिक आबाधा का होना असम्भव है। न तिर्यञ्ज और मनुष्योंमें भी इससे अधिक आबाधा सम्भव हैं, क्योंकि उनमें पूर्व कोटिसे अधिक भवस्थितिका अभाव है। <br> <b>प्रश्न</b> - (भोग भूमियोंमें) असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच और मनुष्य होते हैं। (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधाका होना सम्भव क्यों नहीं है?) <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, उनके देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर भवसम्बन्धी आयुके बन्धका अभाव है, (अतएव पूर्व कोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना सम्भव नहीं है) (क्रमशः) <br> <b>प्रश्न</b> - भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहनेपर भी देव और नारक सम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयु स्थिति का बन्ध सम्भव है, फिर `पूर्वकोटिका त्रिभाग आबाधा' है ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया? <br> <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्यस्थितिके अभावका प्रसंग आता है अर्थात् पूर्वकोटिका त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थितिबन्ध के साथ सम्भव तो है, पर जघन्य कर्म स्थितिका प्रमाणलाने के लिए तो जघन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिए, उत्कृष्ट नहीं।</p> | ||
<OL start=10 class="HindiNumberList"> <LI> नोकर्मोंकी आबाधा सम्बन्धी </LI> </OL> | <OL start=10 class="HindiNumberList"> <LI> नोकर्मोंकी आबाधा सम्बन्धी </LI> </OL> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,२४६/३३२/११ णोकम्मस्स आबाधाभावेण..किमट्ठमेत्थ णथ्थि आबाधा। सामावियादो।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,२४६/३३२/११ णोकम्मस्स आबाधाभावेण..किमट्ठमेत्थ णथ्थि आबाधा। सामावियादो।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= नोकर्मकी आबाधा नहीं होनेके कारण....। <br> <b>प्रश्न</b> - यहाँ आबाधा किस कारणसे नहीं है? <br> <b>उत्तर</b> - क्योंकि ऐसा स्वभाव है।</p> | <p class="HindiSentence">= नोकर्मकी आबाधा नहीं होनेके कारण....। <br> <b>प्रश्न</b> - यहाँ आबाधा किस कारणसे नहीं है? <br> <b>उत्तर</b> - क्योंकि ऐसा स्वभाव है।</p> | ||
<UL start=0 class="BulletedList"> <LI> मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व - <b>देखे </b>[[स्थिति]] ६। </LI> </UL> | <UL start=0 class="BulletedList"> <LI> मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व - <b>देखे </b>[[स्थिति]] ६। </LI> </UL> |
Revision as of 11:24, 25 May 2009
कर्मका बन्ध हो जानेके पश्चात वह तुरत ही उदय नहीं आता, बल्कि कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशाको प्राप्त होकर ही उदय आता है। इस कालको आबाधाकाल कहते हैं। इसी विषयकी अनेकों विशेषताओंका परिचय यहाँ दिया गया है।
- आबाधा निर्देश
- आबाधा कालका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४८/४ ण बाधा अबाधा, अबाधा चैव आबाधा।
= बाधाके अभावको अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या १५५ कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण। रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाव ताव हवे।
= कार्माण शरीर नामा नामकर्मके उदय तैं अर जीवके प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमितकरि कार्माण वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्माके प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बन्ध रूपकरि जे तिष्ठे हैं ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्तै तिसकालको आबाधा कहिए।
(गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ९१४)
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या २५३/५२३/४ तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबंधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपरममात्रस्य प्रथमसमयादारभ्य सप्तसहस्रवर्षकालपर्यन्तमाबाधेति।
= तहाँ विवक्षित कोई एक समय विषै बन्ध्या कार्माणका समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोड़ाकोड़ि सागरकी बंधी तिस स्थितिके पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यन्त तौ आबाधा काल है तहाँ कोई निर्जरा न होई तातै कोई निषेक रचना नाहीं।
- आबाधा स्थानका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ११/४,२,६.५०/१६२/९ जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादी सोहिय सद्धसेसेम्मि एगरूवे पक्खित्ते आबाहाट्ठाणं। एसत्थो सव्वत्थपरूवेदव्वो।
= उत्कृष्ट आबाधामें-से जघन्य आबाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देनेपर आबाधा स्थान होता है। इस अर्थकी प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।
- आबाधा काण्डकका लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-६,५/१४९/१ कधमाबाधाकंडयस्सुप्पत्ती। उक्कस्साबाधं विरलिय उक्कस्सट्ठिदिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कंडयपमाणं पावेदि।
=
प्रश्न - आबाधा काण्डककी उत्पत्ति कैसे होती है?
उत्तर - उत्कृष्ट आबाधाको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खंड करके एक-एक रूपके प्रति देनेपर आबाधा काण्डकका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-मान लो उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; आबाधा ३ समय। तो १० १० १०\१ १ १ अर्थात ३०\३ = १० यह आबाधा काण्डकका प्रमाण हुआ। और उक्त स्थितिबन्धके भीतर ३ आबाधाके भेद हुए।
विशेषार्थ - कर्म स्थितिके जितने भेदोंमें एक प्रमाण वाली आबाधा है. उतने स्थितिके भेदोंको आबाधा काण्डटक कहते है।
धवला पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१७/१४३/४ अप्पण्णो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पण्णो समऊणजहण्णट्टिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाधाकंदयमागच्छदि।...सगसगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सट्ठिदीए ओवटिट्दाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि।
धवला पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२२/२६८/२ आबाहचरिमसमयं णिरुंभिदूण उक्कस्सियं ट्ठिदिं बंधदि। तत्तो समऊणं पि बंधदि। एवं दुसणऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेगूणाट्ठिदि त्ति। एवमेदेण आवाहाचरिमसमएणबंधपाओग्गट्ठिदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरुं भणं कादूण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परूवेदव्वं। आबाहाए तिचरिमसमयणिरुं भणं कादूण पुव्वं व तदिओ आबाहाकंदओ परूवेदव्वो। एवं णेयव्वं जाव जहण्णिया ट्ठिदि त्ति। एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा।
धवला पुस्तक संख्या ११/४,२,६,१२८/२७१/३ एगेगाबाहट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमेत्तट्ठिदिबंधट्ठाणाणमाबाहाकंदयसण्णिदाणं।
= १. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधाका अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डकका प्रमाण आता है। २...अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधाका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डक आता है। ३. आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थिति विशेषोंकी एक आबाधा काण्डक संज्ञा है। यह अभिप्राय है। आबाधाके द्विचरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकारकी द्वितीय आबाधा काण्डककी प्ररूपणा करना चाहिए। आबाधाके त्रिचरम समयकी विवक्षा करके पहिलेके समान तृतीय आबाधाकाण्डककी प्रूपणा करना चाहिए। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिए। इस सूत्रके द्वारा एक आबाधा काण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणाकी गयी है। एक-एक आबाधा स्थान सम्बन्धी जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्ध स्थान हैं उनकी आबाधा काण्डकी संज्ञा है।
- आबाधा सम्बन्धी कुछ नियम-
- आबाधा सम्बन्धी सारणी
अबाधाकाल
प्रमाण विषय जघन्य उत्कृष्ट
- उदय अपेक्षा
गो.क/भा.१५०/१८५ संज्ञी पंचे. का मिथ्यात्व कर्म समयोनमुहूर्त ७०००वर्ष
मू.१५६/१८९ आयुके बिना ७कर्मोंकी सामान्य आबाधा प्रतिसागरस्थिति पर साधिक प्रतिको.को. सागर पर १०० वर्ष मू.९१५/११०० - सं.उच्छ्वास (धवला पुस्तक संख्या ६/१७२)
धवला पुस्तक संख्या ६/१६६/१३ आयुकर्म (बद्ध्यमान) असंक्षेपाद्धा अंतर्मुहूर्त आ/असं. कोडि पूर्व वर्ष/३
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ९१७ आयुकर्मका सामान्य नियम आयु बन्ध भये पीछे शेष भुज्य- मानायु
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ९१६ ९२५९२५९२ १६\२७ कोड सा.वाला कर्म अन्तर्मुहूर्त सं. अन्तर्मुहूर्त
- उदीरणा अपेक्षा
गो.मू.१५९ आयु बिना ७ कर्मोंकी आवली X
गो.मू.९१८ बध्यमानायु X X
भुज्यमानायु (केवल कर्मभूमिया) कदली घात द्वारा उदीरणा होवे, इसलिए उसकी आबाधा भी नहीं है। देव, नारकी व भोग भूमियोंमें आयुकी उदीरणा सम्भव नहीं।
- कर्मोकी जघन्य उत्कृष्ट स्थिति व तत्सम्बन्धित आबाधा काल - देखे स्थिति ६।
- आबाधा निकालनेका सामान्य उपाय
प्रत्येक एक कोड़ाकोड़ी स्थितिकी उत्कृष्ट आबाधा = १००वर्ष
७० या ३० कोड़ाकोड़ी स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा = १००X७० या १००X३० या १००X१० = ७००० या ३००० या १००० वर्ष
१ लाख कोड़ सागर स्थितिकी उत्कृष्ट आबाधा = १००\(१०X१०) = १ वर्ष
१०० कोड़ सागरकी उत्कृष्ट आबाधा = १ वर्ष \(१०X१०X१०) = १\१००० वर्ष
१० कोड़ सागरकी उत्कृष्ट आबाधा = ३६५X२४X६०\१०,००० = ५२.१४\२५ मिनिट
- १६\२७ कोड़ सागरकी उत्कृष्ट आबाधा = उत्कृष्ट अन्तर्मूहूर्त
नोट - उदीरणाकी अपेक्षा जघन्य आबाधा, सर्वत्र आवली मात्र जानना, क्योंकि बन्ध हुए पीछे इतने काल पर्यन्त उदीरणा नहीं हो सकती।
- एक कोड़ाकोडी सागर १०० वर्ष होती है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-६,३१/१७२/८ सागरोवमकोडोकाडीए वाससदमाबाधा होदि।
= एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी आबाधा सौ वर्ष होती है।
- इससे कम स्थितियोंकी आबाधा निकालनेकी विशेष प्रक्रिया
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-७,४/१८३/६ सग-सगजादि पडिबद्धाबाधाकंडएहि सगसगट्ठिदीसु ओवट्टिदासु सग सग आबाधासमुप्पत्तीदो। ण च सव्वजादीसु आबाधाकंडयाणं सरिसत्तं, संखेज्जवस्सट्ठदिबंधेसु अंतोमुहुत्तमेत्तआबाधोवट्ठिदेसु संखेज्जसमयमेत्तआबाधाकंडयदंसणादो। तदो संखेज्जरूवेहि जहण्णट्ठिदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेगट्ठिदीदो संखेज्ज गुणहीणा जहण्णाबाधा होदि।
= अपनी-अपनी जातियोंमें प्रतिबद्ध आबाधा काण्डकोंके द्वारा अपनी-अपनी स्थितियोंके अपवर्तित करनेपर अपनी-अपनी अर्थात् विवक्षित प्रकृतियोंकी, आबाधा उत्पन्न होती है। तथा, सर्व जातिवाली प्रकृतियोंमें आबाधाकाण्डकों के सदृशता नहीं है, क्योंकि संख्यात् वर्षवाले स्थिति बन्धोमें अन्तर्मूहूर्तमात्र आबाधासे अपवर्तन करनेपर संख्यात समयमात्र आबाधाकाण्डक उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इसलिए संख्यात रूपोंसे जघन्य स्थितिमें भाग देनेपर निषेक स्थितिसे संख्यातगुणित हीन संख्यात आवलिमात्र जघन्य आबाधा होती है।
- एक आबाधाकाण्डक घटनेपर एक समय स्थिति घटती है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,५/१४९/४ एगाबाधाकंडएणूणउक्कस्सट्ठिदिंबंधमाणस्ससमऊणतिण्णिवाससहस्साणि आबाधा होदि। एदेण सरूवेण सव्वट्ठिदीणं पि आबाधापरूवणं जाणिय कादव्वं। णवरि दोहिं आबाधाकंडएहि अणियमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सरिया दुसमऊणा होदि। तीहि आबाधाकंडएहि ऊणियमुक्कस्सट्ठिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कसिया तिसमऊणा। चउहि..चदुसमऊणा। एवं णेदव्वं जाव जहण्णट्ठिदि त्ति। सव्वाबाधाकंडएसु वीचारट्ठाणत्तं पत्तेसु समऊणाबाधाकंडयमेत्तट्ठिदोणमवट्ठिदा आबाधा होदि त्ति घेत्तव्वं।
= एक आबाधा काण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले समयप्रबद्धके एक समय कम तीन हजार वर्षकी आबाधा होती है। इसी प्रकार सर्व कर्म स्थितियोंकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि दो आबाधा काण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके समय प्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है। तीन आबाधाकाण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिकों बाँधनेवाले जीवके समयप्रबद्धकी उत्कृष्ट आबाधा तीन समय तक होती है। चार आबाधा काण्डकोंसे हीनवालेके उत्कृष्ट आबाधा चार समय कम होती है। इस प्रकार यह क्रम विवक्षित कर्मकी जघन्य स्थिति तक ले जना चाहिए। इस प्रकार सर्वआबाधा काण्डकोंके विचारस्थानत्व अर्थात स्थिति भेदोंको, प्राप्त होनेपर एक समय कम आबाधा काण्डकमात्र स्थितियोंकी आबाधा अवस्थित अर्थात् एक सी होती है, यह अर्थ जानना चाहिए।
उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति ६४ समय और उत्कृष्ट आबाधा १६ समय है। अतएव आबाधाकाण्डका प्रमाम ६४\१६ = ४ होगा।
मान लो जघन्य स्थिति ४५ समय है। अतएव स्थितियोंके भेद ६४ से ४५ तक होंगे जिनकी रचना आबाधाकाण्डकोंके अनुसार इस प्रकार होगी -
- प्रथमकाण्डक - ६४,६३,६२,६१ समय स्थितिकी उ. आबाधा = १६ समय
- द्वितीयकाण्डक - ६०,५९,५८,५७ समय स्थितिकी उ. आबाधा = १५ समय
- तृतीयकाण्डक - ५६,५५,५४,५३ समय स्थितिकी उ. आबाधा = १४ समय
- चतुर्थकाण्डक - ५२,५१,५०,४९ समय स्थितिकी उ. आबाधा = १३ समय
- पंचमकाण्डक - ४८,४७,४६,४५ समय स्थितिकी उ. आबाधा = १२ समय
यह उपरोक्त पाँच तो आबाधाके भेद हुए।
स्थिति भेद - आबाधा काण्डक ५ X हानि ४ समय = २० विचार स्थान अतः स्थिति भेद २०-१ = १९
इन्हीं विचार स्थानोंसे उत्कृष्ट स्थितिमें-से घटानेपर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थितिकी क्रम हानि भी इतने ही स्थानोंमें होती है।
- क्षपक श्रेणीमें आबाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त होती है
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ३/३,२२/$३८०/२१०/३ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं जदि सत्तावाससहस्समेत्ताबाहा लम्भदि तो अट्ठण्हं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि तेण अट्ठण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुहूत्तमेत्ता त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो।
=
प्रश्न - सत्तरि कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिकी यदि सात हजार प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थितिकी कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर चूँकि एक समयका संख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्षकी आबाधा अन्तर्मूहूर्त प्रमाण होती है, यह कथन नहीं बनता है?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थाको छोड़ कर क्षपक श्रेणीमें इस प्रकारका नियम नहीं पाया जाता है।
- उदीरणाकी आबाधा आवली मात्र ही होती है
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ९१८/११०३ आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माणं ।।९१८।।
= उदीरणाका आश्रय करि आयु बिना सात कर्मकी आबाधा आवली मात्र है बंधे पीछैं उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हौ जाई।
- भुज्यमान आयुका शेष भाग ही बद्ध्यमान आयुकी आबाधा है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२२/१६६/९ एवमाउस्स आबाधा णिसेयट्ठिदी अण्णोण्णायत्तादो ण होंति त्ति जाणावणट्ठं णियेसट्ठिदी चेव परूविदा। पुव्वकोडितिभागमादिं कादूण जाव असंखेपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाणं आउअस्स उक्कस्स णिसेयट्ठिदी संभवदि त्ति उत्तं होदि।
= उस प्रकार आयुकर्मकी आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरेके अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मोंकी होती है)। ...इसका यह अर्थ होता है कि पूर्वकोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात् तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात् जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्रकाल तक जितने आबाधा कालके विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है। (अर्थात् देव और नरकायुकी आबाधा मनुष्य व तिर्यञ्चोंके बद्ध्यमान भवमें ही पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कर्मोंकी आबाधाके सम्बन्धमें भी यथायोग्य जानना।
गो.क.भाषा १६०/१९५/१२ आयु कर्मकी आबाधा तो पहला भवमें होय गई पीछे जो पर्याय धस्या तहाँ आयु कर्मकी स्थितिके जेते निषैक हैं तिन सर्व समयनि विषैं प्रथम समयस्यों लगाय अन्त समय पर्यन्त समय-समय प्रति परमाणू क्रमतैं खिरै हैँ।
- आयुकर्मकी आबाधा सम्बन्धी शंका समाधान
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-६,२६/६/१६९/१० पुव्वकोडितिभागादो आबाधा अहिया किण्ण होदि। उच्चदे-ण तावदेव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउट्ठिदिएसु पुव्वकोडितिभागादो अधिया आबाधा अत्थि, तेसिं छम्मासावसेसे भुञ्जमाणाउए असंखेपाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअबंधमाणाणं तदसंभवा। णं तिरिक्ख-मणुसेसु वि तदो अहिया आबाधा अत्थि, तत्थ पुव्वकोडीदो अहियामवट्ठिदीए अभावा। असंखेज्जवसाऊ तिरिक्ख मणुसा अत्थि त्ति चे ण, तेसिं देव-णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभवियआउअस्स बंधाभावा।
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-७,३१/१९३/५ पुव्वकोडितिभागे वि भुज्जमाणाउए संते देवणेरइयदसवाससहस्सआउट्ठिदिबंधसंभवादो पुव्वकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एवं संते जहण्णट्ठिदिए अभावप्पसंगादो।
=
प्रश्न - आयुकर्मकी आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागमें अधिक क्यों नहीं होती?
उत्तर - (मनुष्यों और तिर्यंचोंमें बन्ध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शंका उठती ही नहीं) और न ही अनेक सागरोपमकी आयु में स्थितिवाले देव और नारकियोंमें पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योंकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम) असंक्षेपाद्धा कालके अवशेष रहनेपर आगामीभव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले उन देव और नारकियोंके पूर्व कोटिको त्रिभागसे अधिक आबाधा का होना असम्भव है। न तिर्यञ्ज और मनुष्योंमें भी इससे अधिक आबाधा सम्भव हैं, क्योंकि उनमें पूर्व कोटिसे अधिक भवस्थितिका अभाव है।
प्रश्न - (भोग भूमियोंमें) असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच और मनुष्य होते हैं। (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधाका होना सम्भव क्यों नहीं है?)
उत्तर - नहीं, क्योंकि, उनके देव और नारकियों के समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर भवसम्बन्धी आयुके बन्धका अभाव है, (अतएव पूर्व कोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना सम्भव नहीं है) (क्रमशः)
प्रश्न - भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहनेपर भी देव और नारक सम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयु स्थिति का बन्ध सम्भव है, फिर `पूर्वकोटिका त्रिभाग आबाधा' है ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं प्ररूपण किया?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्यस्थितिके अभावका प्रसंग आता है अर्थात् पूर्वकोटिका त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थितिबन्ध के साथ सम्भव तो है, पर जघन्य कर्म स्थितिका प्रमाणलाने के लिए तो जघन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिए, उत्कृष्ट नहीं।
- नोकर्मोंकी आबाधा सम्बन्धी
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,२४६/३३२/११ णोकम्मस्स आबाधाभावेण..किमट्ठमेत्थ णथ्थि आबाधा। सामावियादो।
= नोकर्मकी आबाधा नहीं होनेके कारण....।
प्रश्न - यहाँ आबाधा किस कारणसे नहीं है?
उत्तर - क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
- मूलोत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व - देखे स्थिति ६।