गंध: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 2: | Line 2: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> गंध का लक्षण</strong></span> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> गंध का लक्षण</strong></span> <br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/20/178/9 </span><span class="SanskritText"> गंध्यत इति गंध...गंधनं गंध:।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 </span><span class="SanskritText">गंध्यते गंधनमात्रं वा गंध:।</span>=<span class="HindiText">1. जो सूंघा जाता है वह गंध है।...गंधन गंध है। 2. अथवा जो सूँघा जाता है अथवा सूँघने मात्र को गंध कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/20/1/132/31 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/244/1 </span>); (विशेष–देखें [[ वर्ण#1 | वर्ण - 1]])।<br /> | |||
देखें [[ निक्षेप#5.9 | निक्षेप - 5.9 ]](बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित द्रव्य गंध है)।<br /> | देखें [[ निक्षेप#5.9 | निक्षेप - 5.9 ]](बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित द्रव्य गंध है)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गंध के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गंध के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 </span><span class="SanskritText"> स द्वेधा; सुरभिरसुरभिरिति।...त एते मूलभेदा: प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानंतभेदाश्च भवंति।</span>=<span class="HindiText">सुगंध और दुर्गंध के भेद से वह दो प्रकार का है...ये तो मूल भेद हैं। वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनंत भेद होते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/23/9/485 </span>); (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/1/21/26/1 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/7/19/12 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/479/885/15 </span>)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गंध नामकर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गंध नामकर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/10 </span><span class="SanskritText">यदुदयप्रभवो गंधस्तद् गंधनाम।</span>=<span class="HindiText">जिसके उदय से गंध की उत्पत्ति होती है वह गंध नामकर्म है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/10/577/16 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/13 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,28/55/4 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादिपडिणियदो गंधो उप्पज्जदि तस्स कम्मक्खंधस्स गंधसण्णा, कारणे कज्जुवयारादो।</span>=<span class="HindiText">जिस कर्म स्कंध के उदय से जीव के शरीर में जाति के प्रति नियत गंध उत्पन्न होता है उस कर्मस्कंध की गंध यह संज्ञा कारण में कार्य के उपचार से की गयी है। (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,101/364/7 </span>)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> गंध नामकर्म के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> गंध नामकर्म के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-1/ </span>सू.38/74 <span class="PrakritText">जं तं गंधणामकम्मं तं दुविहं सुरहिगंधं दुरहिगंधं चेव।38।</span>=<span class="HindiText">जो गंध नामकर्म है वह दो प्रकार का है–सुरभि गंध और दुरभि गंध। (<span class="GRef"> षट्खंडागम 13/5,5/ </span>सू.111/370); (पं.सं.प्रा./2/4/47/31); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/11 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/10/577/17 </span>) (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/32/26/1;33/29/14 </span>)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 24: | Line 24: | ||
</ul> | </ul> | ||
तिल्लोयपण्णति के अनुसार नंदीश्वर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव; | तिल्लोयपण्णति के अनुसार नंदीश्वर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव; <span class="GRef"> त्रिलोकसार </span>व <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>के अनुसार इक्षुवर समुद्र का रक्षक व्यंतर देव–देखें [[ व्यंतर#4 | व्यंतर - 4]]। | ||
Revision as of 12:59, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- गंध का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/20/178/9 गंध्यत इति गंध...गंधनं गंध:।
सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 गंध्यते गंधनमात्रं वा गंध:।=1. जो सूंघा जाता है वह गंध है।...गंधन गंध है। 2. अथवा जो सूँघा जाता है अथवा सूँघने मात्र को गंध कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/20/1/132/31 ); ( धवला 1/1,1,33/244/1 ); (विशेष–देखें वर्ण - 1)।
देखें निक्षेप - 5.9 (बहुत द्रव्यों के संयोग से उत्पादित द्रव्य गंध है)।
- गंध के भेद
सर्वार्थसिद्धि/5/23/294/1 स द्वेधा; सुरभिरसुरभिरिति।...त एते मूलभेदा: प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानंतभेदाश्च भवंति।=सुगंध और दुर्गंध के भेद से वह दो प्रकार का है...ये तो मूल भेद हैं। वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनंत भेद होते हैं। ( राजवार्तिक/5/23/9/485 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/21/26/1 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/7/19/12 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/479/885/15 )।
- गंध नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/10 यदुदयप्रभवो गंधस्तद् गंधनाम।=जिसके उदय से गंध की उत्पत्ति होती है वह गंध नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/10/577/16 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/29/13 )।
धवला 6/1,9-1,28/55/4 जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादिपडिणियदो गंधो उप्पज्जदि तस्स कम्मक्खंधस्स गंधसण्णा, कारणे कज्जुवयारादो।=जिस कर्म स्कंध के उदय से जीव के शरीर में जाति के प्रति नियत गंध उत्पन्न होता है उस कर्मस्कंध की गंध यह संज्ञा कारण में कार्य के उपचार से की गयी है। ( धवला 13/5,5,101/364/7 )।
- गंध नामकर्म के भेद
षट्खंडागम 6/1,9-1/ सू.38/74 जं तं गंधणामकम्मं तं दुविहं सुरहिगंधं दुरहिगंधं चेव।38।=जो गंध नामकर्म है वह दो प्रकार का है–सुरभि गंध और दुरभि गंध। ( षट्खंडागम 13/5,5/ सू.111/370); (पं.सं.प्रा./2/4/47/31); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/390/11 ); ( राजवार्तिक/8/11/10/577/17 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/32/26/1;33/29/14 )।
- नामकर्मों के गंध आदि सकारण है या निष्कारण–देखें वर्ण - 4।
- जल आदि में भी गंध की सिद्धि–देखें पुद् गल/10
- गंध नामकर्म के बंध, उदय, सत्त्व–देखें वह वह नाम ।
तिल्लोयपण्णति के अनुसार नंदीश्वर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव; त्रिलोकसार व हरिवंशपुराण के अनुसार इक्षुवर समुद्र का रक्षक व्यंतर देव–देखें व्यंतर - 4।
पुराणकोष से
(1) पूजा के अष्ट द्रव्यों में एक द्रव्य । महापुराण 17.251
(2) सुगंध और दुर्गंध रूप घ्राणेंद्रिय का विषय । यह चेतन-अचेतन वस्तुओं से प्राप्त होता है तथा कृत्रिम और प्राकृतिक के भेद से द्विविध होता है । महापुराण 75.620-622
(3) इक्षुवर समुद्र के दो रक्षक व्यंतरों में एक अंतर । हरिवंशपुराण 5.644