आप्त: Difference between revisions
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<p> नियमसार / मूल या टीका गाथा .7 णिस्सेस दोसरहिओ केवलणाणाइ परमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥7॥</p> | <p> नियमसार / मूल या टीका गाथा .7 णिस्सेस दोसरहिओ केवलणाणाइ परमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥7॥</p> | ||
<p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 5/11 आप्तः शंकारहितः। शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः। </p> | <p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 5/11 आप्तः शंकारहितः। शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः। </p> | ||
<p class="HindiText">= निःशेष दोषोंसे जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम वैभवसे जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है; उससे विपरीत वह परमात्मा नहीं है, आप्त अर्थात् | <p class="HindiText">= निःशेष दोषोंसे जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम वैभवसे जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है; उससे विपरीत वह परमात्मा नहीं है, आप्त अर्थात् शंका रहित। शंका अर्थात् सकल मोह राग द्वेषादिक (दोष)।</p> | ||
<p class="SanskritText">रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 5-7 आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥ क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मातंकभयस्मया। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥6॥ परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यांतः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥7॥</p> | <p class="SanskritText">रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 5-7 आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥ क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मातंकभयस्मया। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥6॥ परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यांतः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥7॥</p> | ||
<p class="HindiText">= नियमसे वीतराग और सर्वज्ञ, तथा आगमका ईश हो (सच्चा देव) होता है, निश्चय करके अन्य किसी प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता ॥5॥ जिस देवके क्षुधा, तृषा, | <p class="HindiText">= नियमसे वीतराग और सर्वज्ञ, तथा आगमका ईश हो (सच्चा देव) होता है, निश्चय करके अन्य किसी प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता ॥5॥ जिस देवके क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिंता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निद्रा, आश्चर्य नहीं है, वही वीतराग देव कहा जाता है ॥6॥ जो परम पदमें रहनेवाला हो, उत्कृष्ट ज्योति वाला हो, राग-द्वेष रहित वीतराग हो, कर्मफल रहित हो, कृतकृत्य हो, सर्वज्ञ हो अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमानकी समस्त पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको जानने वाला हो, आदि मध्य अंत कर रहित हो और समस्त जीवोंका हित करनेवाला हो, वही हितोपदेशी कहा जाता है।</p> | ||
<p>( अनगार धर्मामृत अधिकार 2/14)</p> | <p>( अनगार धर्मामृत अधिकार 2/14)</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210 में उद्धृत “क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिंतनम्। जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः ॥1॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः। एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरंजनः ॥2॥</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210 में उद्धृत “क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिंतनम्। जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः ॥1॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः। एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरंजनः ॥2॥</p> | ||
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Revision as of 11:10, 15 August 2022
सिद्धांतकोष से
नियमसार / मूल या टीका गाथा .7 णिस्सेस दोसरहिओ केवलणाणाइ परमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥7॥
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 5/11 आप्तः शंकारहितः। शंका हि सकलमोहरागद्वेषादयः।
= निःशेष दोषोंसे जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम वैभवसे जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है; उससे विपरीत वह परमात्मा नहीं है, आप्त अर्थात् शंका रहित। शंका अर्थात् सकल मोह राग द्वेषादिक (दोष)।
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 5-7 आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥ क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मातंकभयस्मया। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥6॥ परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यांतः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥7॥
= नियमसे वीतराग और सर्वज्ञ, तथा आगमका ईश हो (सच्चा देव) होता है, निश्चय करके अन्य किसी प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता ॥5॥ जिस देवके क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिंता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निद्रा, आश्चर्य नहीं है, वही वीतराग देव कहा जाता है ॥6॥ जो परम पदमें रहनेवाला हो, उत्कृष्ट ज्योति वाला हो, राग-द्वेष रहित वीतराग हो, कर्मफल रहित हो, कृतकृत्य हो, सर्वज्ञ हो अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमानकी समस्त पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको जानने वाला हो, आदि मध्य अंत कर रहित हो और समस्त जीवोंका हित करनेवाला हो, वही हितोपदेशी कहा जाता है।
( अनगार धर्मामृत अधिकार 2/14)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210 में उद्धृत “क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिंतनम्। जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः ॥1॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः। एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरंजनः ॥2॥
= क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिंता, जरा, रुजा, मरण, स्वेद, खेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद इन अठारह दोषोंसे रहित निरंजन आप्त श्री जिनेंद्र हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 1/8/21 आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामेकांतिक आत्यंतिकश्च क्षयः, सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः।
= जिसके राग-द्वेष और मोहका सर्वथा क्षय हो गया है उसे आप्त कहते हैं।
( स्याद्वादमंजरी श्लोक 17/236/11)
न्यायदीपिका अधिकार 3/$74/113 आप्तः प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थत्वे सति परम...हितोपदेशक... ततोऽनेन विशेषेण तत्र नातिव्याप्तिः।
= जो प्रत्यक्ष ज्ञानसे समस्त पदार्थोंका ज्ञाता है और परम हितोपदेशी है वह आप्त है।..इस परम हितोपदेशी विशेषणसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति भी नहीं हो सकती। अर्थात् अर्हंत भगवान् ही उपदेशक होनेके कारण आप्त कहे जा सकते हैं सिद्ध नहीं।
• आप्तमें सर्वदोषोंका अभाव संभव है - देखें मोक्ष - 6.4
• सर्वज्ञताकी सिद्धि - देखें केवलज्ञान - 3,4।
• देव, भगवान, परमात्मा, अर्हंत आदि - देखें वह वह नाम ।
पुराणकोष से
(1) राग, द्वेष आदि दोषों से रहित अर्हंत । ये अनंत ज्ञान-दर्शन-वीर्य और सुख रूप अंतरंग लक्ष्मी एव प्रातिहार्य-विभूति तथा समवसरण रूप बाह्य लक्ष्मी से युक्त होते हैं । ये वीतरागी, सर्वज्ञ, सर्वहितैषी, मोक्षमार्गोपदेशी तथा परमात्मा होते हैं । महापुराण 9.121, 24.125, 39.14-15, 93, 42.41-47, हरिवंशपुराण 10.11 देखें अर्हंत
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.209