पुरुषार्थ: Difference between revisions
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<p class="HindiText">पुरुष पुरुषार्थ प्रधान है, इसलिए लौकिक व अलौकिक सभी क्षेत्रों में | <p class="HindiText">पुरुष पुरुषार्थ प्रधान है, इसलिए लौकिक व अलौकिक सभी क्षेत्रों में वह पुरुषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता। इसी से पुरुषार्थ चार प्रकार का है - धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। इनमें से अर्थ व काम पुरुषार्थ का सभी जीव रुचि पूर्वक आश्रय लेते हैं और अकल्याण को प्राप्त होते हैं। परंतु धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का आश्रय लेनेवाले जीव कल्याण को प्राप्त करते हैं। इनमें से भी धर्म पुरुषार्थ पुण्य रूप होने से मुख्यतः लौकिक कल्याण को देनेवाला है, और मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् कल्याणप्रद है। <br /> | ||
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<span class="GRef"> भगवती आराधना/1813-1815/1628 </span><span class="PrakritText">अमुहा अत्था कामा य...। 1813। इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो। 1814। कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उवधो लोए दुक्खावहा य ण य होंति सुलहा। 1815।</span> = <span class="HindiText">अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ अशुभ है। 1813। इस लोक के दोष और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने | <span class="GRef"> भगवती आराधना/1813-1815/1628 </span><span class="PrakritText">अमुहा अत्था कामा य...। 1813। इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो। 1814। कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उवधो लोए दुक्खावहा य ण य होंति सुलहा। 1815।</span> = <span class="HindiText">अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ अशुभ है। 1813। इस लोक के दोष और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। इसलिए अर्थ अनर्थ का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान है। 1814। यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीर से उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवा से आत्मा दुर्गति में दुख पाती है। यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट होता है और प्राप्त होने में कठिन है। 1815। <br /> | ||
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<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/3 <span class="PrakritGatha">धम्महँ अत्थहँ कम्महँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु। उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णें जेण ण सोक्खु। 3।</span> = <span class="HindiText">हे जीव! धर्म, अर्थ और काम इन सब पुरुषार्थों में से मोक्ष को उत्तम ज्ञानी पुरुष कहते हैं, क्योंकि अन्य धर्म, अर्थ कामादि पुरुषार्थों में परमसुख नहीं है। 3। </span><br /> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/3 <span class="PrakritGatha">धम्महँ अत्थहँ कम्महँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु। उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णें जेण ण सोक्खु। 3।</span> = <span class="HindiText">हे जीव! धर्म, अर्थ और काम इन सब पुरुषार्थों में से मोक्ष को उत्तम ज्ञानी पुरुष कहते हैं, क्योंकि अन्य धर्म, अर्थ कामादि पुरुषार्थों में परमसुख नहीं है। 3। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/3/5 </span><span class="SanskritGatha">त्रिवर्गं तत्र सापायं जन्मजातंकदूषितम्। ज्ञात्वा तत्त्वविदः साक्षाद्यतंते मोक्षसाधने। 5।</span> = <span class="HindiText">चारों पुरुषार्थों में पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अंत के परम अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ के साधन करने में ही लगते हैं क्योंकि वह अविनाशी हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/3/5 </span><span class="SanskritGatha">त्रिवर्गं तत्र सापायं जन्मजातंकदूषितम्। ज्ञात्वा तत्त्वविदः साक्षाद्यतंते मोक्षसाधने। 5।</span> = <span class="HindiText">चारों पुरुषार्थों में पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अंत के परम अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ के साधन करने में ही लगते हैं क्योंकि वह अविनाशी हैं। </span><br /> | ||
पं.वि./7/25 <span class="SanskritText">पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः। शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षीरतः। ...। 25।</span> = <span class="HindiText">चारों पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुख से युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन इससे विपरीत स्वभाव वाले होने से | पं.वि./7/25 <span class="SanskritText">पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः। शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षीरतः। ...। 25।</span> = <span class="HindiText">चारों पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुख से युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन इससे विपरीत स्वभाव वाले होने से छोड़ने योग्य हैं। 25। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">मोक्षमार्ग का यथार्थ पुरुषार्थ क्या है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">मोक्षमार्ग का यथार्थ पुरुषार्थ क्या है</strong> </span><br /> | ||
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Revision as of 20:30, 11 September 2022
सिद्धांतकोष से
पुरुष पुरुषार्थ प्रधान है, इसलिए लौकिक व अलौकिक सभी क्षेत्रों में वह पुरुषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता। इसी से पुरुषार्थ चार प्रकार का है - धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। इनमें से अर्थ व काम पुरुषार्थ का सभी जीव रुचि पूर्वक आश्रय लेते हैं और अकल्याण को प्राप्त होते हैं। परंतु धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का आश्रय लेनेवाले जीव कल्याण को प्राप्त करते हैं। इनमें से भी धर्म पुरुषार्थ पुण्य रूप होने से मुख्यतः लौकिक कल्याण को देनेवाला है, और मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् कल्याणप्रद है।
- चतुः पुरुषार्थ निर्देश
- पुरुषार्थ का लक्षण
स.म./15/192/8 विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः। = (सांख्य मान्य) पुरुष तथा प्रकृति में भेद होना ही पुरुषार्थ है।
अष्टशती - पौरुषं पुनरिह चेष्टितम्। = चेष्टा करना पुरुषार्थ है।
- पुरुषार्थ के भेद
ज्ञानार्णव/3/4 धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः। पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः। 4। = महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार प्रकार का पुरुषार्थ कहा है। 4। (पं. वि./7/35)।
- अर्थ व काम पुरुषार्थ हेय हैं
भगवती आराधना/1813-1815/1628 अमुहा अत्था कामा य...। 1813। इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्चं। अत्थो अणत्थमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो। 1814। कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उवधो लोए दुक्खावहा य ण य होंति सुलहा। 1815। = अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ अशुभ है। 1813। इस लोक के दोष और परलोक के दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। इसलिए अर्थ अनर्थ का कारण है, मोक्ष प्राप्ति के लिए यह अर्गला के समान है। 1814। यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीर से उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हल्की होती है, इसकी सेवा से आत्मा दुर्गति में दुख पाती है। यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट होता है और प्राप्त होने में कठिन है। 1815।
- पुण्य होने के कारण निश्चय से धर्म पुरुषार्थ हेय है- देखें धर्म - 4.5।
- धर्म पुरुषार्थ कथंचित् उपादेय है
भगवती आराधना/1813 एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो। = एक धर्म (पुरुषार्थ) ही पवित्र है और वही सर्व सौख्यों का दाता है। 1813। (पं.वि./7/25)।
- मोक्ष पुरुषार्थ ही महान् व उपादेय है
परमात्मप्रकाश/ मू./2/3 धम्महँ अत्थहँ कम्महँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु। उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णें जेण ण सोक्खु। 3। = हे जीव! धर्म, अर्थ और काम इन सब पुरुषार्थों में से मोक्ष को उत्तम ज्ञानी पुरुष कहते हैं, क्योंकि अन्य धर्म, अर्थ कामादि पुरुषार्थों में परमसुख नहीं है। 3।
ज्ञानार्णव/3/5 त्रिवर्गं तत्र सापायं जन्मजातंकदूषितम्। ज्ञात्वा तत्त्वविदः साक्षाद्यतंते मोक्षसाधने। 5। = चारों पुरुषार्थों में पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अंत के परम अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ के साधन करने में ही लगते हैं क्योंकि वह अविनाशी हैं।
पं.वि./7/25 पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः। शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षीरतः। ...। 25। = चारों पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुख से युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन इससे विपरीत स्वभाव वाले होने से छोड़ने योग्य हैं। 25।
- मोक्षमार्ग का यथार्थ पुरुषार्थ क्या है
प्रवचनसार/126 कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं। = यदि श्रमण ‘कर्ता, कर्म, करण और कर्मपल आत्मा है’ ऐसा निश्चय वाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं हो तो वह शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है। 126।
तत्त्वार्थसूत्र/1/1 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। 1। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/89 य एव... आत्मानं परं च... निश्चयतः परिच्छिनत्ति, स एव सम्यग्वाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं क्षपयति। = जो निश्चय से... आत्मा को और पर को जानता है। वही (जीव), जिसने कि सम्यग्रूप से स्व पर के विवेक को प्राप्त किया है, संपूर्ण मोह का क्षय करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/126 एवमस्य बंधपद्धतौ मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भावयतः परमाणोरिवैकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते। ...ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति। = इस प्रकार (षट्कारकी रूप से) बंधमार्ग तथा मोक्षमार्ग में आत्मा अकेला ही है, इस प्रकार भानेवाला यह पुरुष, परमाणु की भाँति एकत्व भावना में उन्मुख होने से, उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती। ...इसलिए परद्रव्य के साथ असंबद्धता के कारण सुविशुद्ध होता है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/11,15 सर्वविवर्त्तोत्तीण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति। भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थ सिद्धिमापन्नः। 11। विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वं। यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थ सिद्धयुपायोऽयं। 15। = जिस समय भले प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त उपर्युक्त अशुद्ध आत्मा संपूर्ण विभावों के पार को प्राप्त करके अपने निष्कंप चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होता है, तब यह आत्मा कृतकृत्य होता है। 11। विपरीत श्रद्धान को नष्ट कर निज स्वरूप को यथावत् जानके जो अपने उस स्वरूप से च्युत न होना वह ही पुरुषार्थसिद्धि का उपाय है। 15।
- मोक्ष में भी कथंचित् पुरुषार्थ का सद्भाव
स.म./8/89/20 प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव, कृतकृत्यत्वात्। वीर्यांतरायक्षयोत्पंनतस्त्वस्त्येव प्रयत्नः दानादिलब्धिवत्। = प्रश्न - मुक्त जीव के कोई प्रयत्न भी नहीं होता, क्योंकि मुक्त जीव कृतकृत्य हैं? उत्तर - दानादि पाँच लब्धियों की तरह वीर्यांतरायकर्म के क्षय से उत्पन्न वीर्यलब्धिरूप प्रयत्न मुक्त जीव के होता है।
पृष्ठ 71
- पुरुषार्थ का लक्षण
- पुरुषार्थ की मुख्यता व गौणता
- ज्ञान हो जाने पर भी पुरुषार्थ ही प्रधान है
प्रवचनसार/ टी./88 जो मोहरागदी से णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। 88। अत एव सर्वारंभेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि। = जो जिनेंद्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष को हनता है वह अल्प काल में सर्व दुखों से मुक्त होता है। 88। इसलिए संपूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोह का क्षय करने के लिए मैं पुरुषार्थ का आश्रय करता हूँ।
- यथार्थ पुरुषार्थ से अनादि के कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं
कुरल काव्य/62/10 शश्वत्कर्मप्रसक्तो यो भाग्यचक्रे न निर्भरः। जय एवास्ति तस्याहो अपि भाग्यविपर्यये। 10। = जो भाग्य के चक्र के भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है वह विपरीत भाग्य के रहने पर भी उस पर विजय प्राप्त करता है। 10।
परमात्मप्रकाश/ मू./27 जेँ दिट्ठेँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ। सो परु जाणहिं जोइया देहि वसंतु ण काइँ। 27। = जिस परमात्मा को देखने से शीघ्र ही पूर्व उपार्जित कर्म चूर्ण हो जाते हैं उस परमात्मा को देह में बसते हुए भी हे योगी! तू क्यों नहीं जानता। 27। ( परमात्मप्रकाश/ मू./32)।
- पुरुषार्थ द्वारा अयथा काल भी कर्मों का विपाक हो जाता है
ज्ञानार्णव/35/27 अपवक्वपाकः क्रियतेऽस्ततंद्रैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुद्धियुक्तैः। क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतांतःकरणैर्मुनींद्रैः। 27। = नष्ट हुआ प्रमाद जिनका ऐसे मुनींद्र उत्कृष्ट विशुद्धता सहित होते हुए तप के द्वारा अनुक्रम से गुणश्रेणी निर्जरा का आश्रय करके बिना पके कर्मों को भी पकाकर स्थिति पूर्ण हुए बिना ही निर्जरा करते हैं। 27। ( ज्ञानार्णव/35/36 )।
देखें पूजा निर्जरा , तप, उदय, उदीरणा, धर्मध्यान आदि = (इनके द्वारा असमय में कर्मों का पाक होकर अनादि के कर्मों को निर्जरा होने का निर्देश किया गया है)।
- पुरुषार्थ की विपरीतता अनिष्टकारी है
समयसार / आत्मख्याति/160 ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधं प्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बंधावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानम-विजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते। = ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त या व्याप्त होने से ही बंध अवस्था में सर्व प्रकार से संपूर्ण अपने को जानता हुआ इस प्रकार प्रत्यक्ष अज्ञान भाव से रह रहा है।
- स्वाभाविक क्रियाओं में पुरुषार्थ गौण है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/379, 817 प्रयत्नमंतरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत्। अंतर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात्। 379। नेदं स्यात्पौरुषायत्तं किंतु नूनं स्वभावतः। ऊर्ध्वमूर्ध्वं गुणश्रेणौ यतः सिद्धिर्यथोत्तरम्। 817। = भव्यत्व, काललब्धि आदि सामग्री के मिलने पर प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार अंतर्मुहूर्त में ही दर्शन मोह का उपशम हो जाता है। 379। निश्चय से तरतमरूप से होनेवाली शुद्धता का उत्कर्षपना पौरुषाधीन नहीं होता, स्वभाव से ही संपन्न होता है, कारण कि उत्तरोत्तर गुणश्रेणी निर्जरा में स्वयमेव शुद्धता की तरतमता होती जाती है। 817।
देखें केवली (केवली के आसन, विहार व उपदेशादि बिना प्रयत्न के ही होते हैं।)
- अन्य संबंधित विषय
- कर्मोदय में पुरुषार्थ कैसे चले। - देखें मोक्ष ।
- मंदोदय में ही सम्यक्त्वोत्पत्ति का पुरुषार्थ कार्यकारी है।- देखें उपशम - 2.3।
- नियति, भवितव्यता, देव व काललब्धि के सामने पुरुषार्थ की गौणता व समन्वय।- देखें नियति ।
- पुरुषार्थ व काललब्धि में भाषा का ही भेद है।- देखें पद्धति ।
- कर्मोदय में पुरुषार्थ कैसे चले। - देखें मोक्ष ।
- ज्ञान हो जाने पर भी पुरुषार्थ ही प्रधान है
पुराणकोष से
जीवन के कर्त्तव्य । ये चार होते हैं― धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । महापुराण 2. 31-67, 120